17/09/2025
#गाँव के किनारे एक टूटी-फूटी झोपड़ी थी, जिसके बाहर नीम का पेड़ खड़ा रहता था। उसी झोपड़ी में एक औरत रहती थी जिसका नाम सावित्री था। लोग उसे "अनपढ़" कहते थे, क्योंकि वो अपना नाम तक नहीं लिख पाती थी। पर उसके दिल में दुनिया की सबसे बड़ी किताब लिखी हुई थी — अपने बेटे के लिए माँ का प्यार।
सावित्री का पति बहुत साल पहले बीमारी से चल बसा था। उस समय उसका बेटा राजू सिर्फ़ पाँच साल का था। घर में न कमाई का सहारा, न कोई रिश्तेदार जो मदद करे। लोग कहते थे, “अरे अनपढ़ औरत क्या कर पाएगी, बेटा बड़ा होगा तो देख लेंगे।” पर सावित्री ने ठान लिया कि चाहे खुद कितनी भी तकलीफ़ें झेलनी पड़े, पर बेटे को पढ़ा-लिखा इंसान बनाएगी।
सुबह से शाम तक वो खेतों में मजदूरी करती। कभी धान रोपती, कभी गेहूँ काटती, कभी दूसरों के घर में झाड़ू-पोंछा करती। उसके हाथ फट जाते, पैरों में छाले पड़ जाते, मगर दिल में सिर्फ़ एक सपना था—राजू को स्कूल भेजना है।
राजू छोटा था, उसे खेलना अच्छा लगता था। कई बार वो माँ से कहता, “माँ, मैं स्कूल क्यों जाऊँ? तुम भी तो अनपढ़ हो, फिर मैं क्यों पढ़ूँ?” सावित्री आँखों में आँसू भरकर कहती, “बेटा, मैं नहीं पढ़ पाई इसलिए आज दूसरों के घर काम करना पड़ता है। अगर तू भी नहीं पढ़ेगा तो तेरी ज़िंदगी भी मेरी तरह होगी। मैं चाहती हूँ तू अफ़सर बने, सब तुझे सलाम करें।”
राजू धीरे-धीरे समझदार होने लगा। माँ सुबह काम पर जाती, तो उसके लिए टिफिन बनाती और कहती, “बेटा, भूखा मत रहना। चाहे मैं भूखी रह जाऊँ, पर तुझे खाना ज़रूर मिलेगा।” कई बार वो खुद रात को सूखी रोटी पानी के साथ खा लेती, लेकिन बेटे के लिए दूध और फल का इंतज़ाम कर लेती।
गाँव के लोग ताने कसते, “ये औरत पागल है, अनपढ़ होकर भी बेटे को पढ़ा-लिखा अफ़सर बनाने के सपने देखती है।” पर सावित्री हर ताना चुपचाप सह लेती, क्योंकि उसे विश्वास था कि एक दिन उसका बेटा ही उसकी इज़्ज़त लौटाएगा।
दिन बीतते गए। राजू ने गाँव के स्कूल से दसवीं पास की। जब वो सर्टिफिकेट लेकर माँ के पास आया तो माँ ने आँसू पोंछते हुए कहा, “मुझे तो पढ़ना नहीं आता बेटा, पर तेरी ये काग़ज़ की पर्ची ही मेरे लिए भगवान का आशीर्वाद है।”
बारहवीं के बाद राजू शहर जाकर कॉलेज में दाख़िला लेना चाहता था। फीस बहुत ज़्यादा थी। सावित्री ने अपने कानों के झुमके और गले की छोटी सी चेन, जो उसकी शादी की याद थी, बेच दी। पड़ोसी हँसते थे, “इस औरत ने अपनी ज़िंदगी बर्बाद कर दी। बेटा पढ़-लिखकर कौन सा बड़ा आदमी बन जाएगा?” लेकिन सावित्री के दिल में अटूट विश्वास था।
राजू शहर चला गया। वहाँ हॉस्टल में रहता, पढ़ाई करता, कभी-कभी माँ को चिट्ठियाँ लिखता। सावित्री उन चिट्ठियों को अपने पास रखती, आँखों से लगाती, लेकिन पढ़ नहीं पाती। कई बार पड़ोस के बच्चों से पढ़वाती। जब बच्चे बोलते—“आमा, राजू ने लिखा है कि वो आपकी बहुत याद करता है”—तो सावित्री का चेहरा खिल उठता। वो सोचती, काश मैं भी पढ़ पाती तो बेटे के हाथों लिखे अक्षर खुद पढ़ती।
सालों की मेहनत और त्याग रंग लाया। राजू ने बड़ी मेहनत से पढ़ाई की और सिविल सेवा की परीक्षा पास कर ली। जब गाँव में खबर आई कि “सावित्री का बेटा अब अफ़सर बन गया है,” तो वही लोग जो कभी मज़ाक उड़ाते थे, अब उसकी तारीफ़ करने लगे। सब कहते, “वाकई इस औरत की मेहनत रंग लाई।”
राजू की नियुक्ति शहर में हुई। पहले ही दिन जब वो गाँव आया तो बड़ी गाड़ी से उतरा, वर्दी में, सीना तानकर खड़ा। पूरा गाँव देखने के लिए जमा हो गया। माँ सावित्री दूर से देख रही थी, आँखों में आँसू थे और दिल गर्व से भर गया था।
राजू ने माँ के पैर छुए और कहा, “माँ, आज मैं जो भी हूँ तेरी वजह से हूँ। तूने मुझे पढ़ाया, अपना सब कुछ त्याग दिया।” माँ ने सिर पर हाथ रखकर कहा, “बेटा, बस तू खुश रह, यही मेरी कमाई है।”
कुछ दिन बाद राजू को एक समारोह में सम्मानित किया जाना था। वहाँ मंत्री, अफ़सर, पत्रकार सब मौजूद थे। जब मंच पर राजू से पूछा गया कि “आपकी सफलता का श्रेय किसे जाता है?” तो उसने कहा, “मेरी माँ को।” और वो माँ को मंच पर बुलाने लगा।
सावित्री झिझकते हुए मंच पर आई। उसके पैरों में पुरानी चप्पलें थीं, साड़ी जगह-जगह से फटी हुई थी। लेकिन जब राजू ने माइक पकड़ा और कहा, “ये मेरी माँ है, जो खुद अनपढ़ रही लेकिन मुझे पढ़ाने के लिए अपनी ज़िंदगी कुर्बान कर दी। आज मैं अफ़सर बना हूँ तो सिर्फ़ इनके कारण,” तो पूरा हाल तालियों से गूंज उठा।
सावित्री की आँखों से आँसू बह रहे थे। उसने कहा, “मुझे पढ़ना नहीं आता, मेरा नाम तक मैं नहीं लिख सकती। पर मैंने एक ही सपना देखा था कि मेरा बेटा पढ़-लिखकर लोगों की सेवा करे। आज वो सपना पूरा हुआ।”
लोगों की आँखें भर आईं। कई लोग मंच पर जाकर सावित्री के पैर छूने लगे।
उस रात जब माँ और बेटा घर लौटे तो राजू ने माँ को कहा, “माँ, अब तू भी पढ़ना सीखेगी। अब मैं तुझे खुद अक्षर सिखाऊँगा। तू अपना नाम खुद लिखेगी।” सावित्री हँसते-रोते बोली, “अब बुढ़ापे में पढ़ाई कहाँ से होगी?” पर राजू ने कहा, “जब तक सांस है, सीखने की उम्र होती है।”
राजू हर रात माँ को अक्षर सिखाता। पहले ‘अ’ लिखना, फिर ‘आ’। सावित्री के हाथ काँपते, लेकिन दिल खुश होता। कई हफ्तों की मेहनत के बाद एक दिन माँ ने पहली बार अपने हाथ से अपना नाम लिखा—“सावित्री।” उस काग़ज़ को देखकर उसकी आँखों से आँसू झर-झर बहने लगे। उसने नाम को सीने से लगाया और बोली, “अब मुझे लगता है जैसे मैं भी ज़िंदगी में कुछ बन गई हूँ।”
उस पल राजू ने माँ को गले लगाकर कहा, “माँ, तू मेरे लिए दुनिया की सबसे बड़ी पढ़ी-लिखी औरत है।”
उस झोपड़ी में रोशनी थी, नीम का पेड़ जैसे गर्व से झूम रहा था। और आसमान के तारे भी जैसे कह रहे थे—माँ की मेहनत कभी बेकार नहीं जाती।
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पोस्ट लेखक - छैलसिंह चौहान राणासर कल्ला
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