15/10/2025
राजनीति में जातिवाद और बाड़मेर की सियासी बिसात
भारतीय राजनीति में जातिवाद कूट-कूटकर भरा हुआ है। विशेषकर चुनावों के समय नेता समाज, धर्म, जाति, वर्ग और क्षेत्र की दुहाई देकर ध्रुवीकरण करने में लग जाते हैं, ताकि उनकी बिरादरी एकतरफा मतदान करे। दूसरी ओर, जिनकी संख्या कम होती है, वे अन्य समुदायों को भड़का कर सत्ता पाने की कोशिश करते हैं। कभी-कभी निर्दलीय उम्मीदवारों को भी इसी रणनीति के तहत मैदान में उतारा जाता है, ताकि किसी विशेष जाति के वोट काटे जा सकें।
राजनीति और जंग — दोनों में कूटनीति और चालें जरूरी मानी जाती हैं। हरियाणा सहित देश के कई राज्यों में ऐसे प्रयोग सफल रहे हैं, जहां बड़े समुदाय आपस में लड़ते रहे और तीसरे ने बाजी मार ली।
बाड़मेर जिला मुख्यालय पर भी पिछले 25 वर्षों से ऐसी ही कहानी चल रही है और अब यह अपने अंतिम दौर में है।
राजस्थान विधानसभा चुनाव 2023 का परिदृश्य देखे तो
विधानसभा चुनाव 2023 में कांग्रेस सत्ता में थी, और अशोक गहलोत मुख्यमंत्री थे। विरोधी विधायकों की बगावत के समय सरकार बचाने के लिए होटल पॉलिटिक्स तक हुई। उस वक्त आरोप लगे कि पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया ने गहलोत से समझौता कर सरकार गिरने नहीं दी — और वैसा ही हुआ। भाजपा ने भी ज्यादा विरोध नहीं किया।
सचिन पायलट की बगावत और हरीश चौधरी व हेमाराम चौधरी के बीच मतभेद जगजाहिर हुए।
हरीश चौधरी गहलोत खेमे में रहे, जबकि हेमाराम चौधरी ने तीखे बयान दिए।
परिणामस्वरूप चुनाव में कांग्रेस और गहलोत — दोनों सत्ता से बाहर हो गए।
बाड़मेर, जैसलमेर और बालोतरा क्षेत्र के जो विधायक गहलोत के साथ थे, उन्हें पुनः टिकट मिला।
पर असली लड़ाई पर्दे के पीछे थी — हेमाराम चौधरी ने गुड़ामालानी से चुनाव नहीं लड़ा, जबकि धोरीमन्ना के पूर्व प्रधान को गहलोत ने टिकट का आश्वासन दिया।
इस बीच स्व. कर्नल सोनाराम चौधरी हरियाणा के भूपेंद्र सिंह हुड्डा के माध्यम से टिकट ले आए।
गहलोत के खासमखास ताजाराम जी की भूमिका भी अहम रही।
बाड़मेर में मुलाकातें हुईं, और राजनीतिक अदावत के बावजूद कई नेता एक मंच पर दिखे — यह सब “ऊपर से आदेश” के तहत गुटबाजी को हवा देने के लिए किया गया।
चौहटन, धोरीमन्ना और गुड़ामालानी में कई नेता जानबूझकर सभाओं से दूर रहे।
बाड़मेर विधानसभा में जो नेता वर्षों तक कांग्रेसी थे, वे लोकसभा चुनाव में निर्दलीय के साथ खड़े हो गए, और बाद में फिर कांग्रेस में लौट आए।
कुछ तो संगठनों के लेटरहेड तक इस्तेमाल कर रहे हैं ताकि समर्थन दर्शाया जा सके।
शिव विधानसभा क्षेत्र में कांग्रेस को मिले वोट लोकसभा में निर्दलीय के साथ चले गए।
बायतु में RLP गठबंधन से वोट बैंक बढ़ा,
सिवाना में गहलोत समर्थक नेता ने अधिकृत कांग्रेस प्रत्याशी के खिलाफ जोधपुर से “पैराशूट” उम्मीदवार उतार दिया — यह सबको मालूम है।
जैसलमेर में गहलोत के करीबी पूर्व मंत्री लोकसभा चुनाव में निष्क्रिय होकर “राजनीतिक फूफा” बने रहे।
चौहटन का असली खेल
सबसे बड़ा खेल चौहटन में हुआ — और किसी को भनक तक नहीं लगी।
एक बड़े अल्पसंख्यक राजनीतिक परिवार को भविष्य में टिकट का वादा किया गया,
बदले में कांग्रेस के अधिकृत प्रत्याशी को हराना तय हुआ।
शुरुआती विरोध के बाद अंत में दिखावे का समर्थन आया —
तब तक कांग्रेस हार चुकी थी।
लोकसभा चुनाव में गहलोत अपने पुत्र मोह में फंसे रहे।
जब जोधपुर और जालौर-सिरोही में नुकसान हुआ, तब बाड़मेर-जैसलमेर- बालोतरा क्षेत्र के कांग्रेस प्रत्याशी को हराने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी गई।
पर जनता ने उल्टा फैसला दिया —
गहलोत दोनों जगह हार गए।
भविष्य की गोटियां और सत्ता की चालें
इसके बाद से ही गहलोत खेमे ने फिर से राजनीतिक गोटियां फिट करनी शुरू कर दी हैं।
शिव और बाड़मेर में उनकी मुहर लग चुकी है,
चौहटन में असली रंग दिखना शुरू हो गया है,
गुड़ामालानी में “टुकड़े फेंके” जा रहे हैं,
जैसलमेर में तैयारी पूरी है,
और बायतु में तिकड़ी पर प्रहार करने की कोशिशें चल रही हैं — हालांकि अब तक असफल रही हैं।
अब सवाल उठता है —
असली गुटबाजी के सूत्रधार कौन हैं?
राजनीति न केवल गंदी है, बल्कि कुटिल चालों से भरी एक कला है।
बाड़मेर मुख्यालय पर विरोध और समर्थन करने वालों में शायद ही कोई अपनी जाति-बिरादरी से हो,
पर गहलोत साहब की “सेना” आज भी पूरे समर्पण के साथ फूल बरसाने में लगी हुई है।