27/06/2025
🧩 जन सुराज: रोजगार का नवीनतम स्टार्टअप!
बिहार में बेरोजगारी की दर अगर चाय की दुकान पर पूछी जाए तो जवाब मिलेगा – “बाबू, रोज यही पूछते हैं, नौकरी पूछते हैं, मिलती है क्या?”
लेकिन अब नहीं!
अब बिहार में नौकरी है – और उसका नाम है: जन सुराज आंदोलन।
जी हाँ, भले ही विचारधारा ढूंढने पर भी साफ़ न मिले, पारदर्शिता पर टॉर्च से भी रोशनी न पड़े,
पर एक बात तो शानदार, जबरदस्त, ज़िंदाबाद है –
इस आंदोलन ने लोगों को काम दे दिया।
🧾 सूत्र कहते हैं कि अब तक 1,500 से 2,000 करोड़ रुपये इस अभियान में बह चुके हैं।
इतना पैसा तो शायद किसी सरकार ने भी इतनी जल्दी चुनाव प्रचार में नहीं जलाया होगा जितना “सुनियोजित सपनों” की इस प्रयोगशाला में उड़ाया गया।
🎯 कैसे मिला रोजगार?
243 सीटों पर 243 सपने बिके, और हर सपने के साथ कुछ लोगों को काम मिला।
कोई कैमरा पकड़ रहा है, कोई बूम माइक; कोई फेसबुक लाइव कर रहा है तो कोई व्हाट्सएप ग्रुप चला रहा है।
कुछ लोग “पर्चा” बांट रहे हैं, बाकी “पर्स” से पैसा निकाल रहे हैं।
फ्लेक्स वाले मुस्कुरा रहे हैं, कैटरर को 5 किलो एक्स्ट्रा चावल का ऑर्डर मिल रहा है, और बाउंसर तक VIP महसूस कर रहे हैं!
🤯 सबसे अद्भुत बात?
जो टिकटार्थी पहले 500 रुपये किसी कार्यकर्ता को चाय-नाश्ते के नाम पर देने से हिचकते थे,
वो अब 5000 रुपये सोशल मीडिया पोस्ट पर खर्च कर रहे हैं — और वो भी बिना व्याकरण देखे!
कहना पड़ेगा —
प्रशांत किशोर कोई राजनीतिक व्यक्ति नहीं, एक उत्कृष्ट ‘मानसिक व्यवसायी’ हैं।
वो महत्वाकांक्षा की नब्ज़ को ऐसे पकड़ते हैं जैसे डॉक्टर नाड़ी।
और फिर उसकी थैली को धीरे-धीरे खोलते हैं — “लड़िये न चुनाव, जीतने की पूरी संभावना है... बस थोड़ा खर्च...”..और वही 'थोड़ा' कब करोड़ में बदल जाता है, उम्मीदवार को तब समझ आता है जब वह बैनर में मुस्कुराता है और पसीना बहाता है।
💼 राजनीति नहीं, 'Political Start-Up'
अब राजनीति केवल संसद तक जाने का रास्ता नहीं रही —
अब यह रोजगार सृजन की अनौपचारिक अर्थव्यवस्था है।
जहाँ युवा नौकरी की तलाश में घूमते-घूमते थक जाते थे,
अब वो डाटा एनालिस्ट बन गए हैं — भले ही एक्सेल शीट खोलना भी न आता हो।
जहाँ टेन्ट हाउस वाले सिर्फ शादी और श्राद्ध में बुक होते थे,
अब वे भी “राजनीतिक शादी” में आमंत्रित हैं — दूल्हा कौन होगा, इसका फैसला तो जनता ही करेगी।
🔍 निष्कर्ष:
राजद विकास नहीं ला सका, भाजपा रोज़गार नहीं दे सकी, कांग्रेस अपना पता नहीं बता सकी,
पर जन सुराज ने ये तो कर ही दिखाया —
राजनीति में भी बेरोजगारी हटाने का जुगाड़ संभव है —
बस सपनों को बेचने की कला आनी चाहिए।
यह आंदोलन भले न सत्ता तक पहुंचे,
लेकिन यह बताने लायक मिसाल जरूर बन गया है कि
“राजनीति अब सिर्फ विचारधारा का मंच नहीं रही,
यह अब एक Freelancing Industry है — और PK उसका CEO।”
तो अगली बार जब कोई पूछे कि "बेरोजगारी पर कुछ किया गया है या नहीं?"
तो कहिए —
"जन सुराज आया था, जी! माइक्रोफाइनेंस ऑफ पोलिटिक्स लेकर!"
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