06/05/2025
"परिवर्तन की परछाइयाँ:
साथ और साख का फलसफ़ा"
कविता:
पत्तों ने रंग बदला और वो गिर गए।
वरना पेड़ को संभालने में कोई दिक्कत नहीं थी..!!
पत्तों ने जब रूप बदला, हवाओं से झगड़ गए,
हरियाली छोड़ कर पीला आंचल ओढ़ गए।
कहते रहे मौसम का तकाज़ा था यही,
पर जड़ों को दुखाने की वजह क्या थी कहीं?
पेड़ तो आज भी खड़ा है, सीना ताने मजबूती से,
छांव भी दी, फल भी दिए, हर एक तूफान की खूबी से।
पर जब पत्ते साथ छोड़ गए बेमौसम की चाहत में,
तो दर्द छुपा गया तना, अपनी ही आहट में।
ये रिश्ते भी कुछ ऐसे ही होते हैं ज़िंदगी की राहों में,
बदलते रंगों के पीछे छिपे रहते हैं कई गुनाहों में।
वरना साथ निभाने का हुनर तो अब भी बाकी है,
संभालने की ताक़त तो हर पेड़ में बाकी है।