05/01/2024
सत्य का दर्शन-
मेरे प्रिय आत्मन्!
एक सम्राट के दरबार में एक दिन एक बहुत आश्चर्यजनक घटना घटने को थी। सारी राजधानी महल के द्वार पर इकट्ठी हो गई। शाही दरबार के सारे सदस्य मौजूद थे और सभी बड़ी आतुर प्रतीक्षा से ठीक घड़ी का इंतजार कर रहे थे। एक व्यक्ति ने आज से छह महीने पहले सम्राट को कहा था, तुम इतने बड़े सम्राट हो, तुम्हें साधारण आदमी के वस्त्र शोभा नहीं देते। तुम चाहो, तो मैं देवताओं के वस्त्र स्वर्ग से तुम्हारे लिए ला सकता हूं। सम्राट के लोगों को यह बात पकड़ गई थी। और उसने सोचा, उचित होगा यह, कि मनुष्य-जाति के इतिहास में मैं पहला मनुष्य होऊंगा, जिसने देवताओं के वस्त्र पहने।
संदेह तो उसके मन को हुआ कि देवताओं के वस्त्र कैसे लाए जा सकेंगे? लेकिन, हर्ज भी क्या था। थोड़े-बहुत रुपयों का खर्च ही हो सकता था। वह आदमी धोखा भी क्या दे सकता था। सम्राट ने कहाः मैं राजी हूं, जो भी खर्च हो, करो और देवताओं के वस्त्र ले आओ। कब ला सकोगे? उस आदमी ने छह महीने का समय मांगा और कई लाख रुपये मांगे, क्योंकि देवताओं तक पहुंचने में द्वारपालों से लेकर बीच के सभी अधिकारियों को बहुत रिश्वत देनी जरूरी थी। जमीन पर ही रिश्वत चलती हो ऐसा नहीं है, वहां स्वर्ग में भी चलती थी।
उसे रुपये दे दिए गए। और वह हर माह और रुपये की मांग करने लगा। उतने से कुछ नहीं हो सकता, और रुपये चाहिए। दरबारियों को संदेह था, वजीरों को संदेह था कि वह आदमी धोखा दे रहा है, लेकिन राजा अपने लोभ के कारण संदेह को दबाए बैठा था। और प्रतीक्षा कर रहा था कि आखिर वह कितने लेगा और छह महीने पूरे होने को आ गए।
जिस दिन सुबह उसे वस्त्र लेकर दरबार में उपस्थित होना था, उस रात उस आदमी के महल पर चारों तरफ पुलिस का पहरा लगा दिया गया था कि कहीं वह रात भाग न जाए। लेकिन वह भागा नहीं, वह अपने वचन का पूरा सिद्ध हुआ और सुबह लोगों ने देखा कि वह एक बहुमूल्य पेटी में वस्त्रों को लेकर राजमहल की तरफ चल पड़ा।
स्वभावतः सभी की उत्सुकता थी। उसने पेटी जाकर राजदरबार में रखी। अब तो संदेह का कोई कारण न था। वह वस्त्र ले आया था। राजा ने अपने वजीरों की तरफ देखा, जो निरंतर कहते रहे थे कि यह आदमी धोखेबाज मालूम होता है। देवताओं के वस्त्र न कभी देखे गए, न सुने गए। उस आदमी ने पेटी खोली और पेटी खोलने के बाद, उसने कहा राजा को: अपने वस्त्र उतार दें और नये वस्त्र सबके सामने पहन लें। लेकिन इसके पहले कि मैं वस्त्र आपको दूं, देवताओं ने एक शर्त रख दी है, वह बता देना जरूरी है। ये वस्त्र केवल उसी को दिखाई पड़ेंगे, जो अपने ही पिता से पैदा हुआ हो।
उसने पेटी खोली और खाली हाथ बाहर निकाला, कहाः यह पगड़ी सम्हालो। राजा को हाथ खाली दिखाई पड़ रहा था, लेकिन पूरे दरबारी तालियां बजा रहे थे और कह रहे थे, ऐसी सुंदर पगड़ी हमने कभी देखी नहीं। सभी दरबारियों को हाथ खाली दिखाई पड़ रहा था, लेकिन शेष सारे लोग जब तालियां बजा रहे हों, तो कौन पागल बने और कौन अपने पिता पर संदेह की अंगुली उठवाए। इसलिए हर आदमी बहुत जोर से प्रशंसा कर रहा था, ताकि पड़ोसी यह समझ ले कि मुझे बिलकुल ठीक-ठीक दिखाई पड़ रही है, पगड़ी बहुमूल्य थी, ऐसी कभी देखी नहीं गई थी।
राजा हतप्रभ खड़ा था, अगर इनकार करता था, तो इससे ज्यादा असम्मान की और कोई बात नहीं हो सकती थी। हां भरना ही उचित था। उसने अपनी पगड़ी, जो कि थी, उस आदमी के हाथों में दे दी और वह पगड़ी ले ली, जो कि बिलकुल नहीं थी और सिर पर रख ली। लेकिन पगड़ी तक ही बात होती तो मामला चल जाता। फिर कोट भी उतर गया, फिर कमीज भी, फिर धोती भी और फिर अंतिम वस्त्र के उतरने का समय आ गया।
एक-एक वस्त्र वह आदमी निकालता गया और बोलता गया यह लें। और राजा एक-एक वस्त्र छोड़ता गया। अंतिम वस्त्र छोड़ने में उसे बहुत घबड़ाहट मालूम हुई, वह बिलकुल नग्न हुआ जा रहा था। लेकिन सारे दरबारी ताली बजा रहे थे कि धन्य हैं हमारे महाराज! इतने सुंदर वस्त्र! वे इतने सुंदर कभी नहीं दिखाई पड़े थे। ऐसे वस्त्र पहली दफे मनुष्य को उपलब्ध हुए हैं।
राजा इनकार भी करता तो क्या? उसने सोचा, उचित है कि मैं नग्न ही हो जाऊं। अंतिम वस्त्र भी छोड़ दिया गया, राजा बिलकुल नग्न खड़ा था। हर आदमी देख रहा था राजा नंगा है, लेकिन कौन कहता। और तब वह आदमी जो देवताओं के वस्त्र लेकर आया था, उसने कहाः उचित होगा देवताओं के वस्त्र पृथ्वी पर पहली बार उतरे हैं, तो आपकी शोभायात्रा निकले, जुलूस निकले, सारा नगर देख ले। इनकार करना कठिन था। मजबूरी थी, राजा को राजी होना पड़ा।
नग्न राजा रथ पर बैठ कर नगर में चला, लाखों लोगों की भीड़ दोनों तरफ इकट्ठी है। हर आदमी देख रहा है कि राजा नंगा है, लेकिन कौन कहे। भीड़ तालियां बजा रही थी और वस्त्रों की प्रशंसा कर रही थी। सारे नगर में वस्त्रों की प्रशंसा थी और एक भी आदमी यह कहने वाला नहीं था कि मुझे वस्त्र दिखाई नहीं पड़ते। राजा नंगा है।
एक छोटे से बच्चे ने, जो अपने बाप के कंधे पर सवार होकर भीड़ में वस्त्रों को देख रहा था, उसने कहाः अपने पिता से कहा, लेकिन मुझे तो वस्त्र दिखाई नहीं पड़ते। उसके पिता ने कहाः चुप नासमझ, अभी तुझे कोई अनुभव नहीं है। मैं अनुभव से कहता हूं जीवन भर के, कि वस्त्र हैं और मैंने अपने बाल धूप में नहीं पकाए। चुप रह इस तरह की बात मुंह से मत निकाल। जब तू भी अनुभवी हो जाएगा, तो तुझे भी वस्त्र दिखाई पड़ने लगेंगे। शायद और छोटे कुछ बच्चों ने शक पैदा किया हो, लेकिन बच्चों की कौन सुनता है, बूढ़े बहुत समझदार हैं। और बूढ़ों ने बच्चों की जबानें बंद कर दी होंगी। अनुभवी लोग गैर-अनुभवी लोगों की .जबान हमेशा बंद कर देते हैं।
वह शोभा यात्रा निकल गई, गांव भर में उस दिन, उस रात उन्हीं वस्त्रों की चर्चा होती रही और हर आदमी अपने मन में सोचता रहा कि राजा नंगा था, फिर ये सारे लोग वस्त्रों की प्रशंसा क्यों कर रहे हैं?
इस कहानी से इसलिए शुरू करना चाहता हूं अपनी बात को कि मनुष्य के जीवन में ऐसा ही हो गया है। हजारों असत्यों पर हम केवल इसलिए स्वीकृति दे रहे हैं कि भीड़ उन असत्यों के लिए ताली बजा रही है और हां कर रही है। हजारों असत्यों को हम इसलिए मानने को राजी हो गए हैं क्योंकि हममें अकेेले होने की हिम्मत नहीं है, हम हमेशा भीड़ के साथ खड़ा होना पसंद करते हैं, ज्यादा सुरक्षित अनुभव करते हैं। किसी व्यक्ति में व्यक्ति होने का साहस नहीं है, इसलिए असत्य हमारे जीवन में सत्य बन कर बैठ गए हैं। शायद हमें स्मरण ही नहीं रह जाता कि असत्य सत्य जैसे कब प्रतीत होने लगे।