18/07/2025
नेता उमा भारती: क्या 'फायरब्रांड' की चमक अब धीमी पड़ रही है ?
राजेश भाटिया
राजनैतिक विश्लेषक
भारतीय राजनीति में कुछ चेहरे ऐसे होते हैं, जो अपने तेवर, आवाज़ और स्पष्ट विचारधारा के कारण पूरे राजनीतिक परिदृश्य पर छा जाते हैं। उमा भारती यानी उमा दीदी उन्हीं नेताओं में से एक हैं।
तेज़तर्रार भाषा, हिंदुत्व की मुखर आवाज़, और ज़मीनी पकड़ ने उनको भाजपा के अटल आडवाणी के दौर की सबसे चर्चित और प्रभावशाली नेताओं में शामिल किया। लेकिन समय का चक्र ऐसा घुमा कि आज वही उमा भारती एक शांत, सीमित और ‘गैर-निर्णायक’ भूमिका में दिखाई देती हैं।
कभी जिनकी आवाज़ से पूरा मंच गूंजता था, आज वे भाजपा की आंतरिक राजनीति में कहीं पीछे खड़ी नजर आती हैं।
तो सवाल उठता है: क्या उमा भारती बदल गईं या राजनीति का चेहरा बदल गया?
🔥 'फायरब्रांड' युग: आंदोलन, आक्रोश और आत्मविश्वास
1980-90 के दशक में उमा भारती की छवि एक जनलहर को जन्म देने वाली नेता की थी। वे RSS और विश्व हिंदू परिषद की पृष्ठभूमि से आईं, लेकिन उन्होंने खुद को एक भीड़ खींचने वाली नेता के रूप में साबित किया। राम मंदिर आंदोलन में उनकी भूमिका, बाबरी विध्वंस के मंच से उनका आक्रामक भाषण और हिन्दुत्व की निडर आवाज़ के रूप में उनकी प्रतिष्ठा ,ये सब उन्हें भाजपा के सबसे शक्तिशाली चेहरों में से एक बनाते हैं।
2003 में मध्यप्रदेश में भाजपा की ऐतिहासिक जीत के साथ वे मुख्यमंत्री बनीं, और ये जीत काफी हद तक भाजपा की कम उनके व्यक्तिगत करिश्मे और फायर ब्रांड नेतृत्व का परिणाम थी।
🧨 संघर्षों का दौर: विद्रोह, अलग राह और अकेलापन
मुख्यमंत्री बनने के कुछ ही महीनों बाद कोर्ट के निर्देश पर उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। इसके बाद पार्टी से मतभेद और तत्कालीन नेतृत्व से टकराव शुरू हुआ। उन्होंने भारतीय जनशक्ति पार्टी बनाई और भाजपा को चुनौती दी, लेकिन बिना पार्टी मशीनरी और कैडर के उनका अभियान असफल रहा। समय के साथ साथ #शिवराज मध्यप्रदेश भाजपा के सबसे ब्रांड बन बैठे ।
इस समय वे जिस तरह ‘बागी तेवर’ के साथ खड़ी थीं, वही तेवर बाद में उनकी सबसे बड़ी कमजोरी बन गए।
वापसी और आत्म-नियंत्रण का दौर
2011 में उमा भारती ने भाजपा में वापसी की। पर अब न वो दौर था, न वही पार्टी। भाजपा अब नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में केन्द्रीयकृत हो चुकी थी। यहां बागियों के लिए बहुत सीमित जगह थी।
उमा भारती ने इस नई व्यवस्था को अपनाया। वे केंद्र में मंत्री बनीं, गंगा सफाई जैसे विषयों पर काम किया, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी की कार्यशैली से उनका राजनीतिक प्रभाव सीमित होता गया। कभी-कभी शराबबंदी, गौसेवा या मठ-मंदिरों जैसे विषयों को लेकर उनके बयान आते रहे, लेकिन वो उग्रता, वो जोश, वो नेतृत्व क्षमता, मुखरता अब नज़र नहीं आती।
बदलाव के कारण: 'फायर' क्यों बुझ गया?
1. राजनीतिक यथार्थ और व्यवहारिकता: बार-बार की बगावत और असफलताएं शायद उन्हें सिखा गईं कि अब समझौतावादी राजनीति ही टिकाऊ है।
2. पार्टी ढांचा और अनुशासन: मोदी युग की भाजपा में व्यक्ति से ज़्यादा संगठन की अहमियत है। यहां हर नेता को तयशुदा रेखा में चलने का अनुशासन होता है।
3. स्वास्थ्य और उम्र: शारीरिक ऊर्जा और आक्रामकता दोनों उम्र के साथ धीमे होते हैं।
4. जनाधार में गिरावट: उमा दीदी ने जनशक्ति पार्टी बनाकर देखा, लेकिन पार्टी के लिए जनसमर्थन नहीं जुटा सकीं। इससे वापसी के बाद उनका आत्मविश्वास भी प्रभावित हुआ।
5. नेतृत्व में बदलाव: भाजपा अब वैचारिक कम और प्रबंधन आधारित दल बन चुकी है, जहां 'फायरब्रांड' स्टाइल की जरूरत कम रह गई है। अब सिर्फ मोदी ब्रांड के नाम पर चुनाव लड़ा जाता है।
अब की उमा भारती: नायक नहीं, पृष्ठभूमि की भूमिका में
आज उमा दीदी भाजपा की एक वरिष्ठतम नेता हैं, लेकिन वे अब नीति निर्धारक नहीं रहीं। वे न सत्ता के केंद्र में हैं, न संघर्ष की अगली कतार में । कभी-कभार वे पुराने तेवरों में बयान देती हैं, पर अब वह असर नहीं दिखता। अब मीडिया प्रेस कॉन्फ्रेंस में इकठ्ठा तो होता है किन्तु मोदी अमित शाह इफेक्ट में उतना महत्व देता नहीं दिखता।
क्या फायर बुझ गया या शांत कर दिया गया?
उमा भारती आज भी भाजपा की वरिष्ठतम आवाज़ हैं, लेकिन उनकी आवाज़ अब वैसी बुलंद नहीं रही। वह ‘फायर’ जो किसी समय पर भीड़ में जोश भर देता था, अब शायद पार्टी की रणनीति, उम्र, और बदलते दौर की हवा में शांत हो गया है।
राजनीति में लंबे समय तक टिके रहना अपने आप में एक कला है और उमा दीदी ने यह साबित किया है कि जब तेज़ हवाएं चल रही हों, तो मशाल को बुझने से बचाने के लिए कभी-कभी उसे ढकना भी पड़ता है।
पर सवाल अब भी जिंदा है क्या उमा भारती फिर कभी पुराने फायर ब्रांड नेतृत्व के साथ लौटेंगी ? या वह दौर बीत चुका है...
#राजनीति_की_उमा
#जनशक्ति_से_भाजपा