
06/08/2025
रीढ़ का आखिरी आदमी: सत्यपाल मलिक की अकेली आवाज़
गणराज्य अक्सर उन लोगों को जल्दी भूल जाता है, जो उसकी मशीनरी के पुर्ज़े बनने से इनकार कर देते हैं। लेकिन सत्यपाल मलिक को भुलाया नहीं जा सकेगा। उन्होंने अपनी बेबाकी को सत्ता की दीवारों पर अपनी मज़बूत उँगलियों के नाखूनों से लिखा; कभी मोहक लहजे में, कभी ललकार में, लेकिन कभी भी डर के साथ नहीं।
1946 में मेरठ ज़िले के छोटे से गांव हिसावदा में जन्मे मलिक के पांवों में धूल और फेफड़ों में बगावत भरी थी। जाट बिरादरी से आए; ज़मीन से जुड़े, ठेठ, अवज्ञाकारी; वे अपनी जातीय पहचान को बोझ नहीं, हिम्मत मानते थे। मगर उनकी राह सिर्फ़ देहातों तक सीमित नहीं रही; वह राज्यसभा, लोकसभा और पाँच-पाँच राजभवनों के गलियारों तक पहुंची। लेकिन उनके जीवन की कहानी, उनके पदों की गिनती से नहीं, उन्हें निभाने के ढंग से जानी जाएगी; जैसे कोई तलवार पीठ पर टांगे चले, लेकिन पदक की तरह नहीं।
आम नज़र से देखें तो सत्यपाल मलिक एक 'पार्टी-दर-पार्टी’ नेता रहे। भारतीय क्रांति दल, लोकदल,जनता दल, कांग्रेस, भाजपा और अंत में एक अकेली सच्चाई। मगर राजनीतिक मंजरनामे को पढ़ने वाले जानते हैं कि वे एक नायाब किरदार थे; जैसे किसी राजनीतिक उपन्यास का कोई बारीक व्यंग्यात्मक कथावाचक, जो एक अंधेरे नौकरशाही तंत्र में झिलमिलाता हो; व्यंग्य में सच, शब्दों में छुपा घाव।
वे राजभवनों की सजावटी कुर्सियों के लिए नहीं बने थे; शायद इसीलिए उन पर बैठते हुए भी हमेशा बेचैन से लगे। जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल के तौर पर उन्होंने संविधान के एक ऐतिहासिक अध्याय को नजदीक से देखा: अनुच्छेद 370 की विदाई। जब वहां की जनता से बोलने का हक छीन लिया गया, तब मलिक से भी चुप्पी खरीदी गई! एक समय के लिए उन्होंने वह कीमत चुकाई। लेकिन सच्चाई भीतर ही भीतर पकती रही; और अंततः फिर एक दिन वह लावा बन कर बह निकली।
पुलवामा हमले पर उनके इंटरव्यू कोई सामान्य बयान नहीं थे। वे आत्मस्वीकृति के रूप में गरजती गूंज थे। *“वो विमान नहीं दिए गए जिनकी सीआरपीएफ ने मांग की थी”,* “खुफिया चूक थी”, *“मुझे चुप रहने को कहा गया”;* उनके ये वाक्य सत्ता के सिंहासन को सीधे निशाने पर लेते थे। उन्होंने किसी परोक्ष संकेत से नहीं, सीधे नाम लेकर दोषियों को उजागर किया!
सत्यपाल मलिक उस किस्म के बुज़ुर्ग थे, जिनकी आवाज़ में एक थकी हुई; लेकिन बेचैन क्रांति की पुकार थी। वे सियासत को नज़दीक से देख चुके थे; और उस पर भरोसा खो चुके थे। शायद इसीलिए *वे किसानों के मसीहा बने,* सत्ता के लिए अटपटे, जनता के लिए ज़रूरी। “सिखों को मत आज़माओ”, *“जाटों को दबा नहीं सकते”;* उनके इन शब्दों में हीरोशिप नहीं, चेतावनी थी।
उनका अंदाज़ कुछ-कुछ राजनीतिक उपन्यासों जैसा था; चमकदार वाक्य, गहरे व्यंग्य और बीच-बीच में दिल दहला देने वाली सच्चाई। उन्होंने राजभवन की पोशाक पहन कर भी गांव की मिट्टी को नहीं छोड़ा।
वे चाहते तो चुप रह सकते थे, मंचों से और सम्मान ले सकते थे; लेकिन उन्होंने हिम्मत चुनी; और उसके बदले में अकेलापन पाया। 5 अगस्त 2025 को जब उन्होंने दिल्ली के राम मनोहर लोहिया अस्पताल में अंतिम सांस ली, तब देश ने एक ऐसे शख़्स को खो दिया, जो व्यवस्था के अंदर से निकला था और फिर उसे चुनौती देने वाला बना। *ऐसे लोग भी आजकल कहाँ होते हैं, जिनका ज़मीर आख़िरी वक़्त में भी जाग जाए!*
उनका जीवन किसी आदर्श नायक की कहानी नहीं थी। उसमें विरोधाभास थे, समझौते थे, मौकापरस्ती थी; लेकिन अंत में एक साफ़, सीधी रेखा थी; *एक स्टील जैसी रीढ़ की।* सत्ता की चुप्पियों के बीच यह एक गूंजती हुई आवाज़ थी, *जिसने मौत से पहले मरना मंज़ूर नहीं किया।*
हर बाग़ी के हाथ में बंदूक नहीं होती। *कुछ के हाथ में फाइलें होती हैं, भाषण होते हैं; और एक अजीब-सी ज़िद होती है।* सत्यपाल मलिक के पास ये तीनों थे; और फिर भी उन्होंने अपने भीतर गरिमा को न केवल बचाए रखा; उन्होंने एक शानदार इबारत लिखी। वे यह बताने में क़ामयाब रहे कि सितम देखो ज़रा कैसी ये उल्टी रस्म-ए-दुनिया है कि देते हैं यहाँ कुल्हाड़ी वाले को ओहदा बाग़बानी का!
*अंतिम प्रणाम मलिक साहब 😭🙏🙏*