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Chapter 2: खेल की शुरुआतरवि ने लिफाफे को फिर से पढ़ा — "देखते रहो... लेकिन छूना मत।"कागज़ में उसकी अंगुलियों की पकड़ कस...
16/10/2025

Chapter 2: खेल की शुरुआत

रवि ने लिफाफे को फिर से पढ़ा — "देखते रहो... लेकिन छूना मत।"

कागज़ में उसकी अंगुलियों की पकड़ कसती चली गई। दिल की धड़कनें कुछ तेज़ थीं, लेकिन डर नहीं... अजीब सा रोमांच था। ऐसा लगा जैसे कोई खेल शुरू हो गया हो — और वो खुद उसमें हिस्सा बन चुका है।

वो कमरे में इधर-उधर टहलने लगा। खिड़की पर फिर से नज़र पड़ी। वही हल्के सुनहरे रंग का पर्दा... जो अब एक आम कपड़ा नहीं, एक रहस्य की ओट बन चुका था।

पिछले एक हफ़्ते की बातें दिमाग़ में घूमने लगीं। सिर्फ़ छह दिन पहले तो वो दिल्ली से इस छोटे से कस्बे में आया था — नई नौकरी, कम पैसे, और रहने की जल्दी।

वो तो बस एक कमरा ढूंढ रहा था। अख़बार में एक पुराना-सा इश्तिहार देखा — "शांति हाउस में किराए पर कमरा उपलब्ध – एक अकेले पुरुष के लिए। शर्तें सख़्त, लेकिन माहौल शांत।"
फोन किया। आवाज़ दूसरी तरफ़ से एकदम धीमी थी — "हवेली पुरानी है, लेकिन कमरे साफ़ हैं। देखना है तो आज ही आ जाइए।"

रवि दोपहर में पहुँचा था।

हवेली को देखकर कुछ देर तक खड़ा ही रह गया था — बड़ा गेट, ऊँची दीवारें, और अंदर दूर तक जाती सीढ़ियाँ। पूरा मकान एक पुराने ज़माने की हवा में लिपटा हुआ था।

और फिर दरवाज़ा खुला था... पहली बार उसने उसे देखा।

सिंपल सफेद सूट में, बाल ढीले खुले, चेहरा बिना ज़्यादा सजावट के — लेकिन आंखें... वो आंखें जैसे भीतर तक देख लें।

"मैं नाज़िया, मालकिन हूं यहाँ की," उसने कहा था। "कमरा देख लो। कोई शोर नहीं चाहिए, कोई मेहमान नहीं। और किराया समय पर।"

रवि ने बिना ज़्यादा सोचे हामी भर दी थी। उसे जगह चाहिए थी। और सच्चाई ये थी कि इस हवेली में कुछ था — कुछ ऐसा जो खींचता था।

अब तक वो सोचता था कि खिंचाव उस रहस्यमयी जगह की वजह से था... लेकिन अब समझ आ रहा था — वो उसकी वजह से था।

उस दिन के बाद, रवि का दिन ऑफिस और शामें खिड़की की ओर देखने में गुजरने लगी थीं।

मालकिन का कमरा बिलकुल सामने था। और खिड़की... जैसे जानबूझ कर थोड़ी सी खुली छोड़ दी जाती हो।

कभी-कभी रवि खुद से झुंझलाता। "क्या कर रहा हूं मैं?" लेकिन फिर वही परदा, वही धुंधली रोशनी, वही धीमे-धीमे बदलते हाव-भाव... उसे बाँध लेते।

आज सुबह जब लिफाफा मिला, तो पहली बार उसे ये लगा — जो वो देख रहा था, वो इत्तेफाक नहीं था।

नीचे किचन से हल्की-हल्की चाय की खुशबू आ रही थी। रवि ने बाहर झाँका — नाज़िया किचन में थी। बालों को क्लिप से बांधा हुआ, हरे रंग का सूती सूट, और हाथ में चाय का कप। उसकी हर हरकत में वही ठहराव, वही संजीदगी थी — जो किसी आम औरत में नहीं होती।

मालकिन ने एक पल के लिए ऊपर देखा। उनकी नज़रें मिलीं।

रवि ने सिर झुका लिया।

"गुड मॉर्निंग," नीचे से उसकी आवाज़ आई।

रवि ठिठक गया। आवाज़ में शरारत नहीं थी, पर ठंडापन भी नहीं। वो नीचे भागा, वैसे ही, बिना शर्ट पहने, सिर्फ़ टी-शर्ट में। सीढ़ियाँ उतरते वक़्त दिल जैसे तेज़ी से धड़क रहा था।

"अरे, आराम से। गिर जाओगे," मालकिन ने कहा, और एक कप उसकी ओर बढ़ा दिया।

"आपने कैसे जाना कि मैं जागा हूँ?"

मालकिन मुस्कुराई। "तुम्हारे कमरे की खिड़की जब भी खुली होती है, मुझे पता चल जाता है। और आज तो खिड़की से कुछ और भी दिखा..."

रवि हड़बड़ा गया। "जी... माफ कीजिए अगर—"

"मैंने कुछ कहा?" उसने बीच में ही टोका। उसकी आँखें अब भी शांत थीं, लेकिन उनमें हल्की सी चमक थी। "वैसे, शहर वाले लड़के बड़े सीधे दिखते हैं... लेकिन होते नहीं।"

चाय का घूँट लेते हुए रवि को महसूस हुआ — वो सिर्फ़ उसकी मालकिन नहीं थी... वो खेल की मास्टर थी। और वो? सिर्फ़ एक मोहरा।

"आप अकेली रहती हैं?" रवि ने पूछ ही लिया।

"हाँ," उसने जवाब दिया, "और ऐसा ही ठीक है। लोग साथ होते हैं तो सवाल बढ़ते हैं।"

"और डर?" रवि ने अनजाने में पूछ दिया।

मालकिन की मुस्कान धीमी हो गई। उसने नज़रें दूसरी ओर फेर लीं।

"डर? डर उन्हीं को लगता है जो सच से भागते हैं। और सच ये है कि यहाँ से ज़्यादा सुरक्षित जगह कहीं नहीं।"

उस वक़्त रवि ने नहीं जाना कि उसकी ये बात कितनी गहरी थी।

उस दिन शाम को जब वो ऑफिस से लौटा, तो देखा — उसके कमरे की खिड़की के सामने की खिड़की बंद थी। पहली बार।

वो बेचैन हुआ।

लेकिन जैसे ही अंधेरा घिरा, खिड़की फिर से खुली... और इस बार, परदे की ओट में सिर्फ़ उसकी परछाई नहीं, बल्कि उसकी आवाज़ भी थी।

"तुम अब डरते नहीं, है ना?" उसकी धीमी-सी आवाज़ हवाओं में घुली।

रवि चौंका। आवाज़ अंदर तक आई थी — जैसे कोई दिल को छू गया हो।

और फिर, उसी क्षण, कमरे की लाइट चली गई।

पूरा घर अंधेरे में डूब गया।

रवि की आँखें खिड़की की ओर थीं। वहाँ, उस दूसरी खिड़की में अब एक आकृति खड़ी थी — सफेद कपड़ों में लिपटी, धीमे-धीमे हिलती, और उसकी ओर देखती।

एक लंबा सन्नाटा...

और फिर... खिड़की की दरार से एक धीमी सी हँसी आई — ऐसी हँसी जो मोहक भी थी... और डरावनी भी।

रवि की रीढ़ में सिहरन दौड़ गई।

लेकिन अब — वो डर कर पीछे हटने वाला नहीं था।

क्योंकि अब खेल शुरू हो चुका था।

उस कमरे की खिड़की से नज़ारा शहर का नहीं, एक राज़ का था। रवि को ये कमरा मिले अभी सिर्फ़ तीन दिन हुए थे। तीसरी मंज़िल, पुर...
15/10/2025

उस कमरे की खिड़की से नज़ारा शहर का नहीं, एक राज़ का था।



रवि को ये कमरा मिले अभी सिर्फ़ तीन दिन हुए थे। तीसरी मंज़िल, पुरानी हवेली, और ठीक सामने — एक खुली खिड़की जिसके पर्दे अक्सर आधे खुले रहते थे। सामने वाला कमरा हमेशा थोड़ा रोशन रहता, लेकिन उस रोशनी में जो परछाइयाँ हिलतीं — वो किसी फिल्म से कम नहीं लगतीं।

पहली रात को ही रवि ने देखा था — लाल रंग की साड़ी में लिपटी एक औरत, बड़ी आहिस्ता से आईने के सामने खड़ी थी। उसकी पीठ रवि की तरफ़ थी, बाल खुले हुए, कमर से नीचे तक लहराते। वो कुछ बुदबुदा रही थी। और फिर... उसने साड़ी का पल्लू कंधे से नीचे सरकाया।

रवि की साँसें जैसे रुक गईं।

उसने फ़ौरन नज़रें फेर लीं — लेकिन मन वहीं अटका रहा। कौन थी वो औरत? इतनी देर रात, अकेली? और इतना आत्मविश्वास... जैसे उसे पता हो कि कोई देख रहा है।

अगली रात, वही समय, वही खिड़की। रवि का मन कहा, “मत देख।” लेकिन आँखें कहती रहीं, “बस एक बार और।” और फिर, उस रात — कुछ नया हुआ।

वो औरत इस बार सामने आई। पूरा चेहरा साफ़ दिखा — हल्का सिंदूर, गीले बाल, सोने की झुमकियाँ। उसकी आँखें सीधे रवि की खिड़की की तरफ़ उठीं।

रवि चौंक गया।

क्या उसने देख लिया? क्या वो जानती है कि कोई देख रहा है?

लेकिन वो मुस्कुराई। एक ऐसी मुस्कान जो शरीर से ज़्यादा रूह को छू जाए।

तीसरी रात रवि ने परदा थोड़ा सरका कर खड़ा होना शुरू किया। अब वो हर हरकत का इंतज़ार करता। वो औरत — जो अब तक "मालकिन" के नाम से जानी जाती है — रोज़ कुछ नया करती।

कभी नाइटगाउन में झूले पर बैठी सिगरेट पीती। कभी शीशे के सामने खुद से बात करती। कभी घंटों तक किसी पुरानी धुन पर बाल सुलझाती।

और आज...

आज उसने ब्लाउज़ की गांठ खोली — धीरे से, जैसे किसी रसम को निभा रही हो। उसके बदन पर हल्की पीली रोशनी पड़ रही थी — बस उतनी कि सब कुछ छिपे भी और दिखे भी।

रवि की साँसें तेज़ थीं। दिल धड़क रहा था।

फिर उसने कुछ ऐसा किया, जिसकी रवि ने कल्पना भी नहीं की थी — उसने धीरे से सामने का परदा पूरा खोल दिया... और उसकी आँखें सीधे रवि से टकराईं।

वो मुस्कुराई।

“तुम देख रहे हो, ना?” उसकी आँखें पूछ रही थीं।

रवि पीछे हट गया — लेकिन देर हो चुकी थी। उस एक पल में, कुछ टूट गया था... या शायद जुड़ गया था।

उसने अपने कमरे की बत्ती बुझाई — लेकिन खिड़की से नज़रें हटाई नहीं।

मालकिन अब उसके सपनों में आने लगी थी। हर बार एक नए रूप में। कभी साड़ी में, कभी पुराने ज़माने की पोशाक में... और कभी-कभी, बिना किसी कपड़े के, सिर्फ़ आँखों की भाषा बोलती हुई।

🕳️ अचानक दरवाज़ा खटखटाया गया...

टप्प-टप्प-टप्प...

रवि ने चौक कर देखा — रात के डेढ़ बज रहे थे।

दरवाज़ा धीरे से खुला।

मालकिन... सामने खड़ी थी।

लाल साटन की साड़ी में, हाथ में पानी का ग्लास और एक मंद मुस्कान।

"पानी देना था... ऊपर से तुमने आज रौशनी नहीं जलाई, तो सोचा कि तबीयत तो ठीक है ना?"

रवि की ज़ुबान जैसे सूख गई। उसकी आँखें ज़मीन पर थीं — लेकिन मन अब भी खिड़की पर।

“सब ठीक है...” रवि ने धीरे से कहा।

मालकिन ने मुस्कुराकर ग्लास पकड़ाया, और जाते-जाते एक हल्की सी बात कह गई —

“खिड़की से देखना अच्छा लगता है?”

रवि कुछ बोल नहीं पाया।

दरवाज़ा बंद हुआ।

और उस रात, रवि ने पहली बार महसूस किया — वो हवेली सिर्फ़ ईंट-पत्थर की नहीं थी। वहाँ कोई खेल चल रहा था...

अगली सुबह, रवि की खिड़की पर एक सफेद लिफाफा रखा मिला।

उसमें सिर्फ़ एक लाइन लिखी थी —

"देखते रहो... लेकिन छूना मत।"

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भारत और रूस की मित्रता दशकों पुरानी है
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