16/10/2025
Chapter 2: खेल की शुरुआत
रवि ने लिफाफे को फिर से पढ़ा — "देखते रहो... लेकिन छूना मत।"
कागज़ में उसकी अंगुलियों की पकड़ कसती चली गई। दिल की धड़कनें कुछ तेज़ थीं, लेकिन डर नहीं... अजीब सा रोमांच था। ऐसा लगा जैसे कोई खेल शुरू हो गया हो — और वो खुद उसमें हिस्सा बन चुका है।
वो कमरे में इधर-उधर टहलने लगा। खिड़की पर फिर से नज़र पड़ी। वही हल्के सुनहरे रंग का पर्दा... जो अब एक आम कपड़ा नहीं, एक रहस्य की ओट बन चुका था।
पिछले एक हफ़्ते की बातें दिमाग़ में घूमने लगीं। सिर्फ़ छह दिन पहले तो वो दिल्ली से इस छोटे से कस्बे में आया था — नई नौकरी, कम पैसे, और रहने की जल्दी।
वो तो बस एक कमरा ढूंढ रहा था। अख़बार में एक पुराना-सा इश्तिहार देखा — "शांति हाउस में किराए पर कमरा उपलब्ध – एक अकेले पुरुष के लिए। शर्तें सख़्त, लेकिन माहौल शांत।"
फोन किया। आवाज़ दूसरी तरफ़ से एकदम धीमी थी — "हवेली पुरानी है, लेकिन कमरे साफ़ हैं। देखना है तो आज ही आ जाइए।"
रवि दोपहर में पहुँचा था।
हवेली को देखकर कुछ देर तक खड़ा ही रह गया था — बड़ा गेट, ऊँची दीवारें, और अंदर दूर तक जाती सीढ़ियाँ। पूरा मकान एक पुराने ज़माने की हवा में लिपटा हुआ था।
और फिर दरवाज़ा खुला था... पहली बार उसने उसे देखा।
सिंपल सफेद सूट में, बाल ढीले खुले, चेहरा बिना ज़्यादा सजावट के — लेकिन आंखें... वो आंखें जैसे भीतर तक देख लें।
"मैं नाज़िया, मालकिन हूं यहाँ की," उसने कहा था। "कमरा देख लो। कोई शोर नहीं चाहिए, कोई मेहमान नहीं। और किराया समय पर।"
रवि ने बिना ज़्यादा सोचे हामी भर दी थी। उसे जगह चाहिए थी। और सच्चाई ये थी कि इस हवेली में कुछ था — कुछ ऐसा जो खींचता था।
अब तक वो सोचता था कि खिंचाव उस रहस्यमयी जगह की वजह से था... लेकिन अब समझ आ रहा था — वो उसकी वजह से था।
उस दिन के बाद, रवि का दिन ऑफिस और शामें खिड़की की ओर देखने में गुजरने लगी थीं।
मालकिन का कमरा बिलकुल सामने था। और खिड़की... जैसे जानबूझ कर थोड़ी सी खुली छोड़ दी जाती हो।
कभी-कभी रवि खुद से झुंझलाता। "क्या कर रहा हूं मैं?" लेकिन फिर वही परदा, वही धुंधली रोशनी, वही धीमे-धीमे बदलते हाव-भाव... उसे बाँध लेते।
आज सुबह जब लिफाफा मिला, तो पहली बार उसे ये लगा — जो वो देख रहा था, वो इत्तेफाक नहीं था।
नीचे किचन से हल्की-हल्की चाय की खुशबू आ रही थी। रवि ने बाहर झाँका — नाज़िया किचन में थी। बालों को क्लिप से बांधा हुआ, हरे रंग का सूती सूट, और हाथ में चाय का कप। उसकी हर हरकत में वही ठहराव, वही संजीदगी थी — जो किसी आम औरत में नहीं होती।
मालकिन ने एक पल के लिए ऊपर देखा। उनकी नज़रें मिलीं।
रवि ने सिर झुका लिया।
"गुड मॉर्निंग," नीचे से उसकी आवाज़ आई।
रवि ठिठक गया। आवाज़ में शरारत नहीं थी, पर ठंडापन भी नहीं। वो नीचे भागा, वैसे ही, बिना शर्ट पहने, सिर्फ़ टी-शर्ट में। सीढ़ियाँ उतरते वक़्त दिल जैसे तेज़ी से धड़क रहा था।
"अरे, आराम से। गिर जाओगे," मालकिन ने कहा, और एक कप उसकी ओर बढ़ा दिया।
"आपने कैसे जाना कि मैं जागा हूँ?"
मालकिन मुस्कुराई। "तुम्हारे कमरे की खिड़की जब भी खुली होती है, मुझे पता चल जाता है। और आज तो खिड़की से कुछ और भी दिखा..."
रवि हड़बड़ा गया। "जी... माफ कीजिए अगर—"
"मैंने कुछ कहा?" उसने बीच में ही टोका। उसकी आँखें अब भी शांत थीं, लेकिन उनमें हल्की सी चमक थी। "वैसे, शहर वाले लड़के बड़े सीधे दिखते हैं... लेकिन होते नहीं।"
चाय का घूँट लेते हुए रवि को महसूस हुआ — वो सिर्फ़ उसकी मालकिन नहीं थी... वो खेल की मास्टर थी। और वो? सिर्फ़ एक मोहरा।
"आप अकेली रहती हैं?" रवि ने पूछ ही लिया।
"हाँ," उसने जवाब दिया, "और ऐसा ही ठीक है। लोग साथ होते हैं तो सवाल बढ़ते हैं।"
"और डर?" रवि ने अनजाने में पूछ दिया।
मालकिन की मुस्कान धीमी हो गई। उसने नज़रें दूसरी ओर फेर लीं।
"डर? डर उन्हीं को लगता है जो सच से भागते हैं। और सच ये है कि यहाँ से ज़्यादा सुरक्षित जगह कहीं नहीं।"
उस वक़्त रवि ने नहीं जाना कि उसकी ये बात कितनी गहरी थी।
उस दिन शाम को जब वो ऑफिस से लौटा, तो देखा — उसके कमरे की खिड़की के सामने की खिड़की बंद थी। पहली बार।
वो बेचैन हुआ।
लेकिन जैसे ही अंधेरा घिरा, खिड़की फिर से खुली... और इस बार, परदे की ओट में सिर्फ़ उसकी परछाई नहीं, बल्कि उसकी आवाज़ भी थी।
"तुम अब डरते नहीं, है ना?" उसकी धीमी-सी आवाज़ हवाओं में घुली।
रवि चौंका। आवाज़ अंदर तक आई थी — जैसे कोई दिल को छू गया हो।
और फिर, उसी क्षण, कमरे की लाइट चली गई।
पूरा घर अंधेरे में डूब गया।
रवि की आँखें खिड़की की ओर थीं। वहाँ, उस दूसरी खिड़की में अब एक आकृति खड़ी थी — सफेद कपड़ों में लिपटी, धीमे-धीमे हिलती, और उसकी ओर देखती।
एक लंबा सन्नाटा...
और फिर... खिड़की की दरार से एक धीमी सी हँसी आई — ऐसी हँसी जो मोहक भी थी... और डरावनी भी।
रवि की रीढ़ में सिहरन दौड़ गई।
लेकिन अब — वो डर कर पीछे हटने वाला नहीं था।
क्योंकि अब खेल शुरू हो चुका था।