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मेरी चार प्रेम कहानियों का गैर फिल्मी अंत
प्रेम एक ऐसा अनोखा रोग है जिसकी पीड़ा भी सुखदायी होती है । यहां रोगी मरता नहीं जी जाता है । कबीर ने कहा है -
प्रेम न बाड़ी उपजै प्रेम न हाट बिकाय
राजा प्रजा जिहि रुचै सीस दिये लै जाय ।।
आज़ का दौर कमिर्शियल है । बाजा़र पर पैसा हावी है । आज़ कबीर साहब होते तो कुछ इस तरह कहते -
प्रेम तो गली - गली उपजै प्रेम तो हाट बिकाय
राजा प्रजा जिहि रुचै माल दिये लै जाय ।।
आज़कल सच्चा व शु़द्ध प्रेम कॅालेजों व स्कूलों में उपजता है । यह प्रेम की होल सेल मार्किट है । विश्वविद्यालय का प्रेम ‘प्रोढ़‘ कहलाता है । उसमें मार्मिकता नहीं होती ।
कालेज़ के दिनों में मुझे भी तीन लड़कियों और एक आंटी से प्रेम हो गया । दरअसल , बात यह है थी कि कालेज़ में जिसकी कोई प्रेमिका नहीं होती उसे एक अलग ही नज़र से देखा जाता है । विवाह योग्य कुंवारों का समाज में कोई स्थान नहीं है । मैं पढ़ाकू तो था ही , बस नंबर ज़रा कम आते थे । कारण , मैं लड़कियों के लिये नोटस बनाता था ।
मेरी पहली प्रेमिका , रंजना नोटस से ही मेरे जाल में फंसी । वह इंग्लैंड से आई थी । हिंदी ठीक तरह से नहीं जानती थी । और काॅलेज़ में हिंदी अनिवार्य थी ।
एक दिन वह ‘काव्य - संकलन‘ लिये मेरे पास आई । कहने लगी - आर यू शुक्ला ?
मैंने कहा - यस । कहिये , मैं आपके लिये क्या कर सकता हूॅं ? हिंदी में अंग्रेज़ी के वर्ड मिलाने से बात सशक्त हो जाती है । और जल्दी समझ आती है । कबीर साहब भी ‘खिचड़ी भाषा ‘ का प्रयोग करते थे ।
वह मेरे बगल में बैठती हुई बोली - यू नो टुलसी ?
मैं उसकी झील सी आंखों में खोया हुआ था । अब होश कहां ।
उसने मेरा हाथ पकड़ कर आग्रह किया -कैन यू अरेंज नोटस आफ टुलसी ?
मैं हड़बड़ा कर यथार्थ में आ गिरा - टुलसी . . । टुलसी क्या ?
वह बोली - वू हैव रिटन राम चरिट मानस ।
मैंने कहा - - अच्छा । वह तुलसी । वह तो बेहद टफ लिखता था । उसके चक्कर में पड़ना ठीक नहीं । तुम बिहारी , केशव या फिर चिंतामणि क्यों नहीं करतीं । ये सभी इज़ी हैं ।
मैंने उसे प्रेम मैदान में आने का खुला निमंत्रण दिया ।
वह बोली - मोनिका सेज़ , दे आर नाट गुड फार गलर्स ।
मैनें उसे समझाते हुये कहा - मोेनिका फेंकती है । एक्चूयली , जब से उसका ब्वाय फ्रेंड ‘डेज़ी‘ के साथ भागा है तब से उसे सारे कवि बेकार लगते हैं । पहले वह खुद कहती थी कि अगर बिहारी जीवित होते तो निश्चित रुप से वह उनकी राधा होती । यकीन न हो तो ‘बोटैनिकल गार्डन ‘ जाकर देख लो । पत्ते - पत्ते पर ‘मोनिका लवस बिहारी ‘ लिखा है ।
रंजना को यकीन नहीं हुआ । उस पर मोनिका सवार थी । वह आज़कल की फिल्मी नायिकाओं की तरह अपने कोमल नाज़ुक होंठों को आपस में जोड़ते हुये बोली - प्लीज़ शुक्ला , पहले आप मुझे टुलसी के ही नोटस दे दो ।
मैं बुझे मन से बोला - ठीक है । जैसी तुम्हारी मर्ज़ी । मैंने उसे नोटस लाकर दे दिये ।
नोटस लेने के बाद वह कई दिन तक कालेज़ नहीं आई । बाद में मालूम हुआ कि वह काॅलेज़ छोड़ कर भाग गई है । दरअसल , गलती से मैंने उसे तुलसी की जगह ‘बिहारी‘ दे दिया था ।
बी. ए . लास्ट इयर में एक और मिली । नाम था - वंदना । थोड़ी मोटी तथा नाटी थी । लेकिन , मेरे लिये ‘‘विपाशा‘ से कम नहीं थी ।
प्रेम में रुप - रंग नहीं देखा जाता । वंदना अक्सर मुझे कालेज़़ की कैंटीन में मिलती । आंखें नचाकर कहती - हाय शुक्ला । अकेले - अकेले काफी पी रहे हो ?
मैं शर्मिंदा होता हुआ कहता - नहीं । नहीं । तुम्हारा ही इंतज़ार कर रहा था । दरअसल , क्या बताउं , इक्नामिक्स के पीरियड से ही मेरा सिर दर्द कर रहा है वह सिर दबाते हुये पूछती - क्यों । कैसे ?
मैं कहता - वही रिकार्डो की रैंट थ्योरी । पता नहीं क्यो घुमाई है पटठे ने । समझ ही नहीं आती । भई , सीधी सी बात है । रैंट लेने वाले ने रैंट लेना हैै । देने वाले ने देना है । अगर नहीं दोगे तो वह गली के मुस्टंडे बुलाकर तुम्हारे हाथ - पैर तुड़वा देगा । इसमें इतना विचार करने की क्या आवश्यकता है ?
वह मेरा हाथ अपने हाथ में लेते हुये कहती - छोड़ो यार रिकार्डो को । हमें क्या लिखने दो । तुम्हे क्या चिंता । तुम्हारे अंकल तो हैं ही युनिवर्सिटी में । जैसे ही मैं आश्वस्त होता , वह बीवी द्वारा मायके जाने वाली अदा में कहती - समोसे मंगवाओ न । आज़ सुबह से ही चूहे पेट में कुश्ती कर रहे हैं । जब तक मैं समोसे मंगवाता । वह रस - मलाई व कोल्ड - ड्रिंक का आर्डर दे देती ।
एक दिन वह अप्सरा बनी कैन्टीन आई । आते ही उसने चार समोसों और चार पैप्सी का आर्डर दिया । मैंनेे उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुये कहा - यार वंदना , आज़ तो बड़ी सुंदर दिख रही हो । पर , इतने पैप्सी और समोसों का क्या करोगी ? उसकी सुंदरता से अधिक मुझे अपनी जेब की चिंता थी । फीस का यह आखिरी पांच सो का नोट था ।
वह मुस्करा कर हाथ छुड़ाते हुये बोली - वो एक्चूयिली , आज़ मेरा मंगेतर अपनी बहन के साथ मुझे देखने आ रहा है ।
मैं चैंका - पर , तुमने तो कभी ज़िक्र्र नहीं किया ।
उसने बड़ी मासुमियत से उत्तर दिया - तुमने कभी पूछा ही नहीं ।
मैं दोनों हाथ सिर पर रखकर बुदबुदाया - आह । जानम खड़े - खड़े ठोक दिया ।
तीसरी , पड़ोस की आंटी थी । गज़ब की खूबसूरत । चलती जो ‘माधुरी ‘ लगती । मुस्कराती तो मोहल्ले में दंगा हो जाने के आसार हो जाते ।
लगभग बीस दिनों की घोर तपस्या के बाद एक दिन उसने मुझे डिनर पर बुलाया । मैनें सोफे पर बैठते हुआ पूछा - मिस्टर रमन नहीं हैं क्या ?
वह पास आती हुये बोली - अरजेंट काम से बाहर गये हैं । कल आयेंगे ।
मैंने पूछा - आपको अकेले डर नहीं लगता ?
वह मेरे गले में बांहें डालते हुये बोली - तुम्हारे होते हुये किसका डर । आज़ रात यहीं बिताओ न । केवल पाॅच सो लेती हूं ।
उसकी मुस्कराहट का राज़ ,मैं आज़ समझ पाया । मैं उसे आज़ की नायिकाओं कह तरह ‘बोल्ड‘ समझता था । लेकिन , वह ‘सुपरबोल्ड ‘ निकली ।
मैं उसका हाथ झटक कर कमरे से भागता हुआ बोला - आंटी फिर कभी । अभी अरजेंट काम से जाना है ।
उसने ‘किस‘ उछालते हुये पूछा -रात तक आ जाओगे न ? प्लीज़ मुझे अकेले में डर लगता है ।
मैं कुछ न बोला । सरपट भागता हुआ अपने कमरे में आकर लेट गया ।
चैथी प्रेमललता । मुझसे सचमुच प्रेम करती थी । प्रेम करने वाली औरत बड़ी खतरनाक होती है । न जाने कब किससे प्रेम करने लगें और तुम्हें पिटवा दे ।
खैर , प्रेमलता मेरा बड़ा ख्याल रखती । अपने हाथों से आलू के परांठे बना कर खिलाती और कहती - प्रिय , मैं तुम्हारे प्यार में पागल हॅूं । तुम्हारे बिना एक पल भी नहीं रह सकती । तुम मेरे ख्वा़बों में बसे हो । नस - नस में समायेे हुये हो ।
उसकी बातें सुनकर , मुझे मेरे मित्र ‘सुनील‘ की याद आ जाती । जो इन्हीं डायलाॅगों से दर्ज़नों लड़कियों का फाॅंस चुका है ।
मैं भावुक हो , उसके करीब सरकता हुआ अपना फेेवरेट डायलाॅग फेंकता - डार्लिंग मेरा भी यही हाल है । तुम मेरे ख्वा़बों से निकल न जाओ , इसलिये मैं सोता ही नहीं हूं। वह अपने कोमल हाथ मेरे हाथ पर रख देती । मैं उसे गले से लगा लेता ।
एक दिन प्रेमलता बड़े उदास मन से मेरे पास आई । वह रोये जा रही थी । मैंने उसे अपने पास बैठाते हुये पूछा - लता , घर में काई प्राॅब्लम है क्या ?
वह जा़र - जो़र से रोने लगी । मैंने झटपट उसे सीने से लगा दिया । सच्चा प्रेमी ऐसा मौका हाथ से नहीं जाने देता ।
मेरे सीने की गर्माहट पाकर वह सिसकी - प्रिय , पिता जी बीमार हैं । दोनों किडनियां फेल हो चकी हैं । आपरेशन के लिये दो लाख चाहियें । डेढ़ लाख का इंतज़ाम हो गया है । पर , पच्चास और चाहिये। मेरा तुम्हारे सिवा है ही कोन ?
मैं उसे चुप कराता हआ बोला - तुम फिक्र न करो । ‘एम. बी. ए.‘ की एडमीशन के लिये पैसे मंगाये हैं । तुम ले लेना । । ‘एम. बी. ए.‘ क्या पापा से बढ़कर है ?
उसने मझे चूम लिया । कुंवारे जीवन का पहला चुम्मा कितना दिलकश होता है ।
यह आज़कल के मरियल प्रेमी क्या जाने ।
सुबह मैंने रुपये दे दिये ।
अगले दिन , उससे अगले दिन और कई दिन , बाद भी जब वह काॅलेज़ नहीं आई तो मैंने उसकी एक खास फ्रें्रेंड सेे उसके बारे में पूछा । वह मुस्कराते हुये बोली - वह तो दस दिन पहले अपने ब्वाय फ्रें्रेंड ‘के. पी . ‘ के साथ घर से भाग गई । उसकी मुस्कराहट में आमंत्रण था । पर , मेरे हाथ में केवल तलवार की मूठ रह गई थी । मैंने एक लंबी सांस छोड़ी - हाय री किस्मत । ये भी गई ।
अब न संगी न साथी और न ही है कोई धाम
चार - चार इश्क किये चारो नाकाम ।।
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