卐श्री दादूवाणी दर्शन卐 卐Shri Daduvani Darshan卐

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* **॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥**॥ दादूराम~सत्यराम ॥*आज से "श्री दादू पंथ परिचय" का प्रकाशन यहां प्रारंभ कर रहे है | इस ग्रन...
10/07/2025

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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
आज से "श्री दादू पंथ परिचय" का प्रकाशन यहां प्रारंभ कर रहे है | इस ग्रन्थ में पंथ के सभी आचार्यों का विवरण = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान = ने दिया है | परम दयालु दादू जी की कृपा से ही यह संभव हुआ है, उन्हें बारम्बार दण्डवत "सादर सविनय सत्यराम" ।संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज एवं गुरुवर्य महामण्डलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमारामजी को बारम्बार दण्डवत "सादर सविनय दादूराम~सत्यराम" ।
*= श्री दादूजी का अति संक्षिप्त परिचय =*
श्री दादूजी महाराज का संपूर्ण चरित्र विस्तार से “श्रीदादू चरितामृत” ग्रंथ में आ गया है तो भी श्री दादूजी महाराज ही श्री दादूपंथ के आद्याचार्य हैं, अत: उनका यहाँ अति संक्षिप्त परिचय देना परमावश्यक समझ कर दिया जाता है - विक्रम सं. की १६ वीं शताब्दी में राजस्थान में बहुत ही हलचल हो रही थी । मुसलमानों द्वारा देश में अनाचार, अत्याचार आदि की वृद्धि हो रही थी तथा आपस की भेद भाँति से क्लेश ही बढ रहे थे ।
उस स्थिति को इतिहास के ज्ञाता विज्ञ भली भाँति जानते ही है । उस समय राजस्थान प्रान्त को एक ऐसे संत की आवश्यकता थी, जो समभाव पूर्वक सब को सन्मार्ग का उपदेश देकर अनाचारादि दोषों से बचा कर सन्मार्ग में लगा सके । इसीलिये भगवान् ने सनकादिक में प्रथम सनक मुनि को आज्ञा दी कि तुम अहमदाबाद के मेरे भक्त लोधीराम नागर ब्राह्मण के पौष्य पुत्र बनो, फिर आगे करने योग्य कार्य का उपदेश मैं स्वयं ही आकर करूँगा ।
सनक जी ने भगवान् की आज्ञा स्वीकार की और शीघ्र ही अपनी योग शक्ति से मार्ग में जाते हुये लोधीराम नागर के सामने संत रूप से प्रकट हो गये । लोधीराम ने संत को देखकर श्रद्धा से प्रणाम किया । संतजी ने उसे उदास देखकर, उदासी का कारण पूछा । लोधीराम ने कहा - “भगवन् ! आपकी कृपा से अन्य सब तो आनन्द है किन्तु पुत्र न होने से सदा मेरा मन दु:ख सागर में निमग्न रहता है ।”
यह सुनकर संत जी ने कहा - तुम्हारे औरस पुत्र तो नहीं होगा, पौष्य पुत्र प्राप्त होगा । तुम प्रात: काल साबरमती नदी में स्नान करके उसके तट पर भजन करने बैठते हो, वहाँ ही नदी में बहता हुआ एक बालक आयेगा, उसे ही पुत्र मान कर अपने घर से जाना । उस महान् तेजस्वी बालक से तुम्हारा कल्याण ही होगा, ऐसा वर देकर संत वहाँ ही अन्तर्धान हो गये । उनको अपने सामने ही अन्तर्धान होते हुये देखकर लोधीराम को अति आश्‍चर्य हुआ और विश्‍वास भी हो गया कि ये तो कोई महान् संत थे । इनका वचन व्यर्थ नहीं सकता, अब मुझे पुत्र अवश्य प्राप्त होगा ।
घर पर जाकर लोधीराम ने उक्त संत के वर देने की बात अपनी पत्नी को भी कहा । वह भी सुनकर हर्षयुक्त हो बोली - आपकी चिरकाल की तपस्या का फल तो भगवान् देंगे ही । उक्त संत के वर से दोनों पति - पत्नी को अति संतोष हुआ ।
(क्रमशः)

🙏🇮🇳   🇮🇳🙏🌷 卐 सत्यराम सा 卐 🌷*पहली लोचन दीजिये, पीछे ब्रह्म दिखाइ ।**दादू सूझै सार सब, सुख में रहे समाइ ॥*================...
09/07/2025

🙏🇮🇳 🇮🇳🙏
🌷 卐 सत्यराम सा 卐 🌷
*पहली लोचन दीजिये, पीछे ब्रह्म दिखाइ ।*
*दादू सूझै सार सब, सुख में रहे समाइ ॥*
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साभार ~ Krishnakosh, http://hi.krishnakosh.org/
*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
१४. बाल-लीला
ब्राह्मण के आने के पूर्व ही विश्वरूप भोजन करके पाठशाला में पढ़ने के लिये चले गये थे। उसी समय वे भी लौट आये। आकर उन्होंने अतिथि ब्राह्मण के चरणों को स्पर्श करके प्रणाम किया और चुपचाप एक ओर खड़े हो गये। उनके सौन्दर्य, तेज और ओज को देखकर ब्राह्मण ने मिश्र जी से पूछा- ‘यह देवकुमार के समान तेजस्वी बालक किसका है?’ कुछ लजाते हुए मिश्र जी ने कहा- ’यह आपका ही है।’
ब्राह्मण एकटक विश्वरूप की ओर देखने लगा। विश्वरूप के विश्वविमोहन रूप के देखने से ब्राह्मण की तृप्ति ही नहीं होती थी। धीरे-धीरे विश्वरूप को सभी बातों का पता चल गया। उन्होंने ब्राह्मण देवता के सामने हाथ जोड़कर कहा- ‘महाराज ! अबकी बार आप मेरे आग्रह से भोजन और बना लें। अबके मैं अपने ऊपर जिम्मेवारी लेता हूँ। अबकी बार आपको भोजन पाने तक में किसी भी प्रकार का विघ्न न होगा।’
ब्राह्मण ने बड़े ही प्रेम से विश्वरूप को पुचकारते हुए कहा- ‘भैया ! तुम मेरी तनिक भी चिन्ता न करो। मेरी कुछ एक ही दिन की बात थोड़े ही है। मैं तो सदा ऐसे ही घूमता रहता हूँ। मुझे रोज-रोज भोजन बनाने का अवसर कहाँ मिलता है?
कभी-कभी तो महीनों वन के कन्द-मूल फलों पर ही रहना पड़ता है। बहुत दिन चना-चर्वण पर ही गुजर होती है, कभी-कभी उपवास भी करना पड़ता है। इसलिये मुझे तो इसका अभ्यास है। तुम्हारे यहाँ कुछ मीठा या चना-चर्वण हो तो मुझे दे दो उसे ही पाकर जल पी लूँगा। अब कल देखी जायगी।’
विश्वरूप ने बड़ी नम्रता से दीनता प्रकट करते हुए कहा- ‘महाराज ! यह तो हम आपके स्वभाव से ही जानते हैं कि आपको स्वयं किसी बात की इच्छा नहीं। किन्तु आपके भोजन करने से ही हम सबको सन्तोष होगा। मेरे पूज्य पिता जी तथा माता जी बहुत ही दुःखी हैं। इनका साहस ही नहीं हो रहा है कि आपसे पुनः प्रार्थना करें। इन सबको तभी सन्तोष हो सकेगा जब आप स्वयं बनाकर फिर भोजन करें। अपने लिये नहीं किन्तु हमारी प्रसन्नता के निमित्त आप भोजन बनावें।’
विश्वरूप की वाणी में प्रेम था, उनके आग्रह में आकर्षण था ओर उनकी विनय में मोहकता थी। ब्राह्मण फिर कुछ भी न कह सके। उन्होंने पुनः भोजन बनाना आरम्भ कर दिया। अबके निमाई को रस्सी से बाँधकर माता तथा विश्वरूप ने अपने पास ही सुला लिया। ब्राह्मण को भोजन बनाने में बहुत रात्रि हो गयी। दैव की गति उसी समय सबको निद्रा आ गयी।
ब्राह्मण ने भोजन बनाकर ज्यों ही भगवान के अपर्ण किया त्यों ही साक्षात चतुर्भुज भगवान उनके सामने आ उपस्थित हुए। देखते-ही-देखते उनके चार की जगह आठ भुजाएँ दृष्टिगोचर होने लगीं। चार भुजाओं में शंख, चक्र, गदा और पद्म विराजमान थे। एक में माखन रखा था। दूसरे से खा रहे थे। शेष दो हाथों से मुरली बजा रहे थे।
भगवान ने हँसते हुए कहा ‘तुम मुझे बुलाते थे, मैं बालकरूप में तुम्हारे पास आता था, तुमने मुझे पहचाना नहीं। मैं तुम्हारे ऊपर प्रसन्न हूँ। तुम मुझसे अपना अभीष्ट वर माँगो।’ गद्गद कण्ठ से हाथ जोड़ते हुए ब्राह्मण ने धीरे-धीरे कहा- ‘हे पुरुषोत्तम ! आपकी माया अनन्त है, भला मैं क्षुद्र प्राणी उसे कैसे समझ सकता हूँ?
हे निरंजन ! मुझ अज्ञानी के ऊपर आपने इतनी कृपा की, मैं तो अपने को इसके सर्वथा अयोग्य समझता हूँ। भगवन ! मैंने न कोई तप किया, न कभी ध्यान किया, जप, दान, धर्म, पूजा, पाठ मैंने आपकी प्रसन्नता के निमित्त कुछ भी तो नहीं किया। फिर भी मुझ दीन-हीन कंगाल पर आपने इतनी कृपा की, इसे मैं आपकी स्वाभाविक करुणा ही समझता हूँ।
मेरा कोई ऐसा साधन तो नहीं था, जिससे आपके दर्शन हो सकें। हे नाथ ! यदि आप मुझे वरदान देना ही चाहते हैं तो यही वरदान दीजिये कि आपकी मंजुल मूर्ति मेरे मन-मन्दिर में सदा बनी रहे।’ ‘एवमस्तु’ कहकर भगवान अन्तर्धान हो गये।
ब्राह्मण ने बड़े ही आनन्द और उल्लास के साथ भोजन किया। इतने में ही माता आदि की आँखें खुलीं। निमाई को पास ही सोता देखकर उन्हें प्रसन्नता हुई। जब देखा कि ब्राह्मण भी बड़े प्रेम से प्रसाद पाकर निवृत्त हो गये हैं तब तो उन्हें परम सन्तोष हुआ। प्रातःकाल ब्राह्मण देवता निमाई को मन-ही-मन प्रणाम करके चले गये और जब तक वे रहे नित्यप्रति किसी-न-किसी समय आकर निमाई के दर्शन कर जाते थे।
ऐसे बड़भागी भक्तों के दर्शन सद्गृहस्थियों को ही कभी-कभी होते हैं। निमाई अब थोड़ा-थोड़ा बोलने भी लगे थे। स्त्रियाँ खिलाते-खिलाते कहतीं- ‘निमाई ! तू ब्राह्मण का बालक होकर भिखारी ब्राह्मण के हाथ के चावल खा लेता है, अब तेरी जाति कहाँ रही? तेरा विवाह भी न होगा। बहू भी न आवेगी। बेटा ! ऐसे किसी के हाथ के चावल नहीं खाये जाते।
देख, ब्राह्मण के बालक खूब पवित्रता से रहते हैं। तू अच्छी तरह से रहेगा, उपद्रव न करेगा तो तेरी बटुआ-सी बहू आवेगी, रून-झुन करती हुई घर में घूमेगी। अब तो ऐसी बदमाशी न करेगा?’ निमाई धीरे-धीरे कहने लगते- ‘हमें ब्राह्मणपने से क्या? हम तो ग्वाल-बाल हैं। ग्वालों की ही तरह जहाँ मिल जाता है खा लेते हैं। लाओ तुम्हारे घर का खा लें।’ यह सुनकर सभी हँसने लगती। और निमाई को सन्देश(मिठाई) आदि चीजें खाने को देतीं।
(क्रमशः)

🙏🇮🇳   🇮🇳🙏🌷 卐 सत्यराम सा 卐 🌷*सुन्दरी को साँई मिल्या, पाया सेज सुहाग ।**पींव सौं खेलै प्रेम रस, दादू मोटे भाग ॥**(श्री दाद...
09/07/2025

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🌷 卐 सत्यराम सा 卐 🌷
*सुन्दरी को साँई मिल्या, पाया सेज सुहाग ।*
*पींव सौं खेलै प्रेम रस, दादू मोटे भाग ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ सुंदरी का अंग)*
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*साभार ~ मीरा चरित(सौभाग्य कुंवरी राणावत)*
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
कथांश 18
उन्होंने स्वयं से कहा- यही अवसर है प्रभु को ले जानेका । उठ, तुझे डर किसका है? तू तो प्रभु की आज्ञा का पालन कर रहा है । क्या करेंगे ये लोग? मारेंगे-पीटेंगे यही न? एक बार बाँहों में भरकर छाती ठंडी कर लूँ । एक बार, केवल एक बार मुझे साहस कर लेने दे मेरे कायर मन ! नयन-मन भर लूँ सुषमा-सिंधु के स्पर्श से, फिर चाहे जो हो, जीवन रहे या जाय । देह तो जानी ही है, इसी मिस चली जाय ।
अहा, प्रभु पधारना चाहते हैं इस दीन सेवक के घर, यही तो मुख्य है.......... यही तो मुख्य है........ उन्हींकी इच्छा-आदेश पूर्ण करने जा रहा हूँ मैं, तो क्या होगा? यह मैं क्यों सोचूँ? यह तो जिसने आदेश दिया है, वह जाने ।’ उन्हें ज्ञात ही न हुआ कि कब वह उठकर मंदिर में गये और कब श्रीविग्रह को अँकवार में भरकर उठा लाये । आनन्द के उद्रेक से नेत्रों से बहते पनारे जग को अँधेरा कर रहे थे, रोमांचित देह और लटपटी चाल ।
इतने पर भी उन्होंने दोनों हाथों से कसकर श्रीविग्रह को छाती से दबा रखा था । अनुमान से चलकर गाड़ी में अपनी फटी कथरी पर प्रभु को सुला दिया, ऊपर से वैसे ही चिथड़े ओढ़ा दिये और बैलों को जुए के नीचे देकर जोत बाँध दिये । नाथ में बँधी रस्सी का संकेत पाते ही उमंग में भरे बैल घर की ओर दौड़ चले । भक्तप्रवर बार-बार पीछे सिर घुमाकर देखते कि कहीं प्रभु उघाड़े न हो जायँ । बैलों के दौड़ने से इधर-उधर कहीं चोट न लग जाये । वे बार-बार हाथ बढ़ाकर अपनी गुदड़ी प्रभु को ओढ़ा देते ।
भावाविष्ट संत श्रीनिवृत्तिनाथजी मानो सीधे भगवान् से बोल पड़े-‘कहो तो रणछोड़ राय, स्मरण आती है देवी वैदर्भी के महल की वह दुग्ध फेनोज्ज्वल सुकोमल शैय्या? अथवा क्षीरसागर और वैकुण्ठ की शेष शैय्या? नहीं, भक्त हृदय की भाव शैय्या पर आसीन हो तुम्हें सम्पूर्ण सृष्टि विस्मृत हो जाती है । अन्यथा तुम्हें द्वारिका का यह ऐश्वर्य-पूर्ण मन्दिर छोड़कर गरीब भक्त के घर में जाने की भला क्यों सूझती?’
योगी श्रीनिवृत्तिनाथ सचेत हो कहने लगे- उधर द्वारिका में पुजारी ने निज-मंदिर में प्रवेश किया और बदहवास से उल्टे पाँव बाहर भागे । क्षणभर में चारों ओर यह बात फैल गयी कि मन्दिर में श्रीविग्रह नहीं है । कोई रोने और हाय-हाय करने लगे, कोई घबराकर इष्ट मंत्रका जप करने लगे और दूसरे सब खोजने में लग गये । छान-बीन से ज्ञात हुआ कि और सब तो यहीं हैं, किन्तु मन्दिर के बाहर पड़े लोगों में डाकोर के वे गृहस्थ भक्त और उनकी गाड़ी नहीं है । कहीं.......वही....तो.....?’
यों तो चारों दिशाओं में घुड़सवार दौड़ गये थे, फिर भी एक टुकड़ी को विशेषकर डाकोर के पथपर तीव्र गति से जाने की आज्ञा मिली । उन भक्तप्रवर ने पीछे से धूल का बवन्डर-सा उठता आता देखा तो समझ गये कि ये उन्हीं को पकड़ने के लिये आ रहे हैं । घोड़ों की चाल की समता गाड़ी में जुते बैल किसी प्रकार नहीं कर सकेंगे, यह जानते हुए भी उन्होंने बैलों को ललकारा । स्वामी के स्वर का मर्म समझ वे मूक प्राणी प्राणप्रण से भाग चले ।
वे बार-बार पीछे देखते, प्रतिक्षण पीछे आते सवार उन्हें समीप होते लगे । हृदय में घबराहट की सीमा नहीं थी- ‘क्या करूँ? अब क्या करूँ, कहाँ छिपा लूँ प्रभु को? उन्हें अपना भान नहीं था, किन्तु गाड़ी में सोये मेरे ये स्वामी, ये तो डाकोर जाना चाहते हैं । इन्हें यदि ये लोग ले गये तो मैंने फिर जीकर क्या किया? जीवन भर में यही एक आज्ञा, सेवा तो प्राप्त हुई, यह भी न कर सका तो जी करके क्या किया? जीवन इनसे बढ़कर है? अरे, ऐसे सौ-सौ जीवन इनपर न्योछावर हैं, पर अब ........ मैं क्या करूँ? कैसे, कहाँ छिपाऊँ तुम्हें?’
तभी उनकी दृष्टि सामने थोड़ी ही दूर दाहिने हाथ की बावड़ी की ओर गयी । उनके मस्तिष्क में बिजली-सी कौंध गयी, साथ ही हाथों ने बैलों की रास खींच ली । उनके खड़े होते-न होते तो वे कूद गये गाड़ी से, दौड़कर पीछे की ओर गये, प्रभु को उठाया और प्राणों का दम लगाकर बावड़ी की ओर भागे । जल्दी से सीढियाँ उतरकर जल के समीप ही एक ताक में प्रभु को रखकर ऊपर से गुदड़ी लगा दी । वापस आकर गाड़ी पर बैठ गये और बैलों को धीरे-धीरे आगे बढ़ने का संकेत किया ।
‘अरे ओ गाड़ीवाले ! ठहर जरा, भगवान्, को चुराकर ले जा रहा है चोट्टा कहीं का !’ सवारों ने समीप आकर डाँटा उन्हें ।
‘शूँ चोरी ने लाव्यो बापजी ! हूँ तो गरीब माणस छूँ, जे होय ते तमे गाड़ी माँ जोई लो ।’ सवारों ने गाड़ी में से उनका पानी का घड़ा, लोटा, डोर सब एक-एककर नीचे फेंक दिये । गुदड़ी जो बिछायी हुई थी गाड़ी में-उसे उठाते ही पीताम्बरी की जरी सुर्य की धूप में झलमला उठी ।
‘अरे चोट्टे, कहता है कि गाड़ी मा कशूँ नथी और यह दुपट्टा क्या तेरा है या तेरे बाप का है?’ बता भगवान् का विग्रह कहां हैं?’
अब क्या उत्तर दें वे? उत्तर न देनेपर खिजाये हुए सवार पिल पड़े । वृद्ध गृहस्थ को मारते-मारते लहूलुहान कर दिया उन्होंने, किन्तु उनके मुँह से बात की कौन कहे, कराह तक न निकली । कराह भक्त के मुँह से भले न निकले, पर उस भक्त के स्वामी कराह उठे इस अत्याचार से ।
बावड़ी से एक दबंग स्वर आया- अरे मूर्खों ! मैं अपने भक्त के साथ अपनी इच्छा से आया हूँ । मैं अपने प्यारे भक्त के साथ रहना चाहता हूँ, द्वारिका नहीं जाऊँगा । इस पर पड़नेवाली प्रत्येक मार मुझे लगी है । आकर देखो, मेरे रक्त से जल लाल हो गया है । यदि कुशल चाहते हो तो लौट जाओ चुपचाप और छः महीने के बाद श्रीवर्धिनी बावड़ी से मेरा दूसरा विग्रह मिलेगा । उसे मन्दिर में स्थापित करो ।
चकित हो सब बावड़ी की ओर दौड़े और देखा कि सचमुच पानी लाल-लाल हो रहा है । भक्तराज से क्षमा माँगकर सवार लौट गये । धीरे-धीरे वो बावली में उतरे और श्रीविग्रह को उठाकर हृदय से लगा लिया । नेत्रों की वर्षा से उन्होंने अपने प्रियतम को स्नान करा दिया । हिचकी बँध गयी उनकी, वहीँ सीढ़ी पर बैठ श्रीविग्रह को छाती से लगा हाथ फेरते हुए गद्गद कंठसे कहने लगे- ‘मारा धणी ! मुज अधम माथे ऐटली बधी कृपा ....... ऐटली बधी कृपा, मारी चोट तमे केम लीधी मारा वाला । तमे आ शूँ कीधूँ ........ आ शूँ कीधूँ ।’ वे श्रीविग्रह के वक्षपर सिर टिका फूट-फूटकर रो पड़े । उन्हें तो ज्ञात ही न हुआ कि श्रीविग्रहका स्पर्श पाते ही उनकी पीड़ा-चोट सब कपूर की भाँति उड़ गयी ।
डाकोर में अपने घर लाकर बरामदे में फूस के छप्पर के नीचे लकड़ी की चौकी पर प्रभु को पधरा दिया । आज वहाँ भव्य मन्दिर है । बाद में द्वारिका से पुजारी आये, लोभ में आकर उन्होंने गृहस्थ भक्तराज से श्रीविग्रह के बराबर सोना माँगा । भक्तप्रवर ने अपनी पत्नी की सोने की नथ और तुलसीदल तराजू के पलड़े में रखा । दूसरे पलड़े में श्रीविग्रह रखा गया । दोनों पलड़े बराबर हो गये तो शर्मिन्दा होकर पुजारी लौट गये । वही स्थान आज तीर्थ है ।’
(क्रमशः)

09/07/2025

🙏🇮🇳 🇮🇳🙏
🌷 卐 सत्यराम सा 卐 🌷
*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्‍वर संत स्वामी क्षमाराम जी
(“प्रथम तरंग” ५३/५४)
देवहिं द्विज उपहार, नागर सखि कुल नारी ।
सब मिलि खेलहिं फाग, लेत रंग भरि पिचकारी ॥
केशर अगर सुगन्ध, विप्र बहुल जल सींचै ।
मेवा बहुत प्रकार, भीर भई बांटत भींचै ॥
कनक खंभ सोभाय, ध्वजा पताका कलश धर ।
देखन कूं सब आय, पुरवासी नर नारि घर ॥५३॥
द्विज लोधीरामजी ने उदारता से उपहार बाँटे । नागर कुल की स्त्रियाँ भी उपहार पाकर आनन्द उमंग में फाग खेलने लगीं । रंग केशर अगर एवं सुगन्धित द्रव्यों की पिचकारियां छोड़ने लगीं । घर आंगन सुगन्धित जल से सींचा गया । सुगन्धित अगर का धूप हवा में फैलने लगा । विविध प्रकार के मेवा मिष्ठान भीर में बांटा गया । उसे पाने के लिये लोग परस्पर भिंच गये । सुनहरी खंभों पर पताकायें और मंगलकलश सुशोभित होने लगे । ऐसे उत्सव को देखने नगर के नर नारी बहुत आये ॥५३॥
ज्यूं जननी सुत होत, तासु घर साधत रीति ।
न्हावन विप्र बुलात, वेद - विधि पालत प्रीति ॥
*(ज्योतिषि ने दादू नाम निकाला)*
पुत्र जु दादु दयाल, नाम धरि विप्र उजागर ।
जलपूजन करि लाल, यज्ञ पुनि कीन्हो नागर ॥
*(मोहरें रूपया खूब बांट रहे हैं)*
मुहरें सहस द्विज देय, वस्त्राभूषण बहुत विधि ।
माधव भोजन लेय, पुरवासी आनन्द निधि ॥५४॥
नारी के वास्तविक पुत्रोत्पत्ति होने पर जो विधि विधान सम्पन्न किये जाते हैं, द्विज लोधीराम जी ने वही सब रीति रिवाज वैदिक विधान तथा कुल परम्परा के अनुसार सम्पन्न कराये । बालक व माता को प्रसूति - स्नान कराया गया । बालक का नामकरण ‘दादू दयाल’ उजागर किया । जल पूजन करके यज्ञ सम्पादित किया गया । सहस्त्र मोहरें, वस्त्र आभूषण बांटे । ब्राह्मणों तथा कुल नारियों को विविध उपहार दिये । माधवदास वर्णन करता है कि - माधव श्रीहरि के भोग प्रसाद लगाया एवं ब्राह्मणों तथा पुरवासियों को आनन्द पूर्वक भोजन कराया ॥५४॥
(क्रमशः)

🌷🙇🏼‍♀️ * * 🙇🏼‍♀️🌷🕉 *卐 सत्यराम सा 卐* 🕉🙏 *ॐ नमो नारायण* 🙏
09/07/2025

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🕉 *卐 सत्यराम सा 卐* 🕉
🙏 *ॐ नमो नारायण* 🙏

09/07/2025
🙏🇮🇳   🇮🇳🙏🌷 卐 सत्यराम सा 卐 🌷*नैनहुँ बिन सूझे नहीं, भूला कतहूँ जाइ ।**दादू धन पावै नहीं, आया मूल गँवाइ ॥*=================...
09/07/2025

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🌷 卐 सत्यराम सा 卐 🌷
*नैनहुँ बिन सूझे नहीं, भूला कतहूँ जाइ ।*
*दादू धन पावै नहीं, आया मूल गँवाइ ॥*
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साभार ~ Krishnakosh, http://hi.krishnakosh.org/
*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
१४. बाल-लीला
पंकाभिषिक्तसकलावयवं विलोक्य
दामोदरं वदति कोपवशाद् यशोदा।
त्वं सूकरोऽसि गतजन्मनि पूतनारे!
इत्युक्तसस्मितमुखोऽवतु नो मुरारिः॥[१]
([१] एक दिन यशोदा जी ने खूब अच्छी तरह नहवा धुवाकर बालक कृष्ण को आँगन में बिठा दिया। थोड़ी देर में माता क्या देखती हैं कि कृष्ण सम्पूर्ण शरीर में कीच लपेटे हुए आ रहे हैं। उन्हें देखकर माता को बड़ा गुस्सा आया और बोलीं- ‘ओह पूतना के मारने वाले ! मालूम पड़ता है, तू पहले जन्म में सूकर था, इसीलिये तेरी वह कीच में लोटने की आदत अभी तक बनी है।’ ऐसी बात सुनकर कृष्ण विस्मित से होकर माता के मुख की ओर देखने लगे। भक्त कहता है, ऐसे बालकृष्ण हमारा कल्याण करें।)
निमाई की सभी लीलाएँ दिव्य हैं। अन्य साधारण बालकों की भाँति वे चंचलता और चपलता तो करते हैं, किन्तु इनकी चंचलता में एक अलौकिक भाव की आभा दृष्टिगोचर होती है। जिसके साथ ये चपलता करते हैं, उसे किसी भी दशा में इनके ऊपर गुस्सा नहीं आता, प्रत्युत वह प्रसन्न ही होता है। ये चंचलता की हद कर देते हैं, जिस बात के लिये मना किया जाय, उसे ही ये हठपूर्वक बार-बार करेंगे- यही इनकी विशेषता थी।
इन्हें अपवित्र या पवित्र किसी भी वस्तु से राग या द्वेष नहीं। इनके लिये सब समान ही है। एक दिन की बात है कि निमाई के पिता पण्डित जगन्नाथ मिश्र गंगास्नान करके घर लौट रहे थे। उन्होंने अपने घर के समीप एक परेदशी ब्राह्मण को देखा। देखने से वह ब्राह्मण किसी शुभ तीर्थ का प्रतीत होता था। उसके चेहरे पर तेज था, माथे पर चन्दन का तिलक था ओर गले में तुलसी की माला थी। मुख से प्रतिक्षण भगवन्नाम का जप कर रहा था।

मिश्र जी ने ब्राह्मण को देखकर नम्रतापूर्वक उनके चरणों में प्रणाम किया और अपने यहाँ आतिथ्य स्वीकार करने की प्रार्थना की। मिश्र जी के शील-स्वभाव को देखकर ब्राह्मण ने उनका अतिथि होना स्वीकार किया और वे उनके साथ-ही-साथ घर में आये।
घर पहुँचकर मिश्र जी ने ब्राह्मण के चरणों का प्रक्षालन किया और उस जल को अपने परिवार के सहित सिर पर चढ़ाया, घर में छिड़का तथा आचमन किया। इसके अनन्तर विधिवत अर्घ्य, पाद्य, आचमनीय तथा फल-फूल के द्वारा ब्राह्मण की पूजा की और पश्चात् भोजन बना लेने की भी प्रार्थना की। ब्राह्मण ने भोजन बनाना स्वीकार कर लिया।
शचीदेवी ने घर के दूसरी ओर लीप-पोतकर ब्राह्मण की रसोई की सभी सामग्री जुटा दी। पैर धोकर ब्राह्मण देव रसोई में गये। दाल बनायी, चावल बनाये, शाक बनाया और आलू भूनकर उनका भुरता भी बना लिया। शचीदेवी ने पापड़ दे दिये, उन्हें भूनकर ब्राह्मण ने एक ओर रख दिया।
सब सामग्री सिद्ध होने पर ब्राह्मण ने एक बड़ी थाली में चावल निकाले, दाल भी हाँड़ी में से निकालकर थाली में रखी। केले के पत्ते पर शाक और भुरता रखा। भुने पापड़ को भात के ऊपर रखा। आसन पर सुस्थिर होकर बैठ गये, सभी पदार्थों में तुलसी पत्र डाले। आचमन करके वे भगवान का ध्यान करने लगे।
आँखें बंद करके वे सभी पदार्थों को विष्णु भगवान के अर्पण करने लगे। इतने में ही घुँटुओं से चलते हुए निमाई वहाँ आ पहुँचे और जल्दी-जल्दी थाली में से चावल लेकर खाने लगे। ब्राह्मण ने जब आँख खोलकर देखा तो सामने बालक को खाते पाया।
ब्राह्मण एकदम चौंक उठा और जोर से कहने लगा- ‘अरे, यह क्या हो गया?’ इतना सुनते ही निमाई भयभीत की भाँति वहाँ से भागने लगे। हाय-हाय करके मिश्र जी दौड़े। कोलाहल सुनकर शचीदेवी भी वहाँ आ गयीं। मिश्र जी बालक निमाई को मारने के लिये दौडे़।
निमाई जल्दी से जाकर माता के पैरों में लिपट गये। इतने में ही ब्राह्मण दौडे़ आये। उन्होंने आकर मिश्र जी को पकड़ लिया और बड़े प्रेम से कहने लगे- ‘आप तो पण्डित हैं, सब जानते हैं। भला बच्चे को चौके-चूल्हे का क्या ज्ञान? इसके ऊपर आप गुस्सा न करें। भोजन की क्या बात है? थोड़ा चना-चर्वण खाकर जल पी लूँगा।’ सभी को बड़ा दुःख हुआ।
आस-पास के दो-चार और भी ब्राह्मण वहाँ आ गये। सभी ने मिलकर ब्राह्मण से फिर भोजन बनाने की प्रार्थना की। सभी की बात को ब्राह्मण टाल न सके और वे दूसरी बार भोजन बनाने को राजी हो गये। शचीदेवी ने जल्दी से फिर चौका लगाया, ब्राह्मण देवता स्नान करके रसोई बनाने लगे।
अब के बनाते-बनाते चार-पाँच बज गये। शची देवी ने निमाई को पलभर के लिये भी इधर-उधर नहीं जाने दिया। संयोग की बात, माता किसी काम से थोड़ी देर के लिये भीतर चली गयी। उसी समय ब्राह्मण ने रसोई तैयार करके भगवान के अर्पण की। वे आँख बंद करके ध्यान कर ही रहे थे कि उन्हें फिर खटपट-सी मालूम हुई।
आँख खोलकर देखते हैं, तो निमाई फिर दोनों हाथों से चावल उठा-उठाकर खा रहे हैं और दाल को अपने शरीर से मल रहे हैं। इतने में ही माता भीतर से आ गयी। निमाई को वहाँ न देखकर वह दौड़कर ब्राह्मण की ओर गयी। वहाँ दाल से सने हुए निमाई को दोनों हाथों से भात खाते हुए देखकर वे हाय-हाय करने लगीं।
मिश्र जी भी पास ही थे। अबके वे अपने गुस्से को न रोक सके। बालक को जाकर पकड़ लिया। वे उसको तमाचा मारने को ही थे कि ब्राह्मण ने जाकर उनका हाथ पकड़ लिया और विनती करके कहने लगे 'आपको मेरी शपथ है जो बच्चे पर हाथ उठावें। भला, अबोध बालक को क्या पता? रहने दीजिये, आज भाग्य में भोजन बदा ही नहीं है।’
निमाई डरे हुए माता की गोदी में चुपचाप चिपटे हुए थे, बीच-बीच में पिता की ओर छिपकर देख भी लेते कि उनका गुस्सा अभी शान्त हुआ या नहीं। माता को उनकी डरी हुई भोली-भाली सूरत पर बड़ी दया आ रही थी। इसलिये वे कुछ भी न कहर चुपचाप उन्हें गोद में लिये खड़ी थीं।
(क्रमशः)

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09/07/2025

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🌷 卐 सत्यराम सा 卐 🌷
* #श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज,
पुष्कर, राजस्थान ।*
*~ तृतीय विन्दु ~*
*= पिता का धन परमार्थ में लगाना =*
लुटेरों की घटना के पश्चात् दादूजी अति निर्भय हो गये थे । कारण ? प्रभु भरोसा का फल प्रत्यक्ष देख लिया था । फिर तो दादूजी की वृत्ति विशेष कर के आंतर ही रहने लगी थी । उस अन्तः स्थिति से उनको ब्रह्म प्रकाश भी भासने लगा था । फिर वे तो सांसारिक बातों को भूल कर दिन - रात निदिध्यासन में ही लगे रहते थे ।
चींटी, हाथी, लोहा, स्वर्ण, निन्दा, स्तुति को सामान ही समझने लगे थे सबमें भगवान् का ही दर्शन करते थे और परोपकार परायण हो गये थे । सब पर दया ही करते थे, अहित तो किसी का भी नहीं चाहते थे । इस प्रकार एकादश वर्ष की आयु में वृद्ध भगवान् के दर्शन के पश्चात् सात वर्ष तक घर में रहे । कहा भी है -
सात वर्ष घर में रहे, करी हरि की सेव ।
अष्टादश ही वर्ष में, मिले निरंजन देव ॥१॥
१८ वर्ष की आयु में पुनः निरंजन देव प्रभु ने दर्शन दिया और कहा - "अब घर को त्याग कर राजस्थान प्रान्त में जाओ और मैंने जो तुम को निर्गुण भक्ति की पद्धति बताई है, उसका प्रचार द्वारा विस्तार करो । प्रतिकूल परस्थिति में भय मत करना, मैं सदा तुम्हारे साथ हूँ । तुम्हारे विपरीत कुछ भी नहीं होने दूंगा, सर्व स्थानों में सहायता करता रहूँगा ।"
कहा भी है - "वंदत बुलात चरायो चर हूं"(आत्म बिहारी) अर्थात् तुम्हारे बुलाने पर बोलूंगा । जिमाने पर जिमूंगा । और जो भी इच्छा होगी उसको पूर्ण करूंगा । तुम सर्वथा निर्भय रहना । भगवान् की आज्ञा तो सर्वथा मानी ही थी ।
(क्रमशः)

🌷🙏🇮🇳   🇮🇳🙏🌷🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷*श्री दादू अनुभव वाणी* टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस...
08/07/2025

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*श्री दादू अनुभव वाणी* टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
*= अथ चेतावनी का अँग ९ =*
भगवान् को निष्काम पतिव्रत रूप अनन्यता प्रिय है । उसी की चेतावनी देने के लिए "चितावनी का अँग" कथन करने में प्रवृत्त मँगल कर रहे हैं -
दादू नमो नमो निरंजनँ, नमस्कार गुरुदेवत: ।
वन्दनँ सर्व साधवा, प्रणामँ पारँगत: ॥ १ ॥
जिनकी दी हुई चेतावनी द्वारा साधक मायिक प्रपँच से पार होकर परब्रह्म को प्राप्त होता है, उन निरंजन राम, सद्गुरु और सर्व सन्तों को हम प्रणाम करते हैं ।
दादू जे साहिब को भावे नहीं, सो हम तैं जनि होइ ।
सद्गुरु लाजे आपना, साधु न मानैं कोइ ॥ २ ॥
२ में अपने को ही सावधान कर रहे हैं - जो परमात्मा को प्रिय न हों ऐसे सँकल्प, वचन और कार्य का व्यवहार हमसे कभी भी नहीं होना चाहिए । कारण, ऐसे व्यवहार से अपने सद्गुरु को भी लज्जित होना पड़ता है और न कोई सँत ही अच्छा मानते हैं ।
दादू जे साहिब को भावे नहीं, सो सब परहर प्राण ।
मनसा वाचा कर्मना, जे तूँ चतुर सुजाण ॥ ३ ॥
३ - १५ में सभी प्राणियों को सचेत कर रहे हैं - हे प्राणधारी जीव ! यदि तू व्यवहार में चतुर और समझदार है तो ईश्वर को जो प्रिय नहीं लगे सभी व्यवहार त्याग दे और भगवान् को प्रिय लगने वाली अनन्य भक्ति मन, वचन और कर्म से कर । मन से ध्यान, वाणी से नाम उच्चारण और शरीर से सँत - सेवादि कर ।
(क्रमशः)

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08/07/2025

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*श्री दादू अनुभव वाणी* टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥

**= अथ निष्कामी पतिव्रता का अँग ८ =**

दादू तज भरतार को, पर पुरुषा रत होइ ।
ऐसी सेवा सब करैं, राम न जानैं सोइ ॥ ५० ॥
जैसे जारिणी नारी अपने पति को त्याग कर पर - पुरुष से प्रेम करती है तब पतिव्रत - धर्म बिना, उसकी सेवा और उसका मनुष्य जन्म व्यर्थ ही जाता है, उसे पति - लोक नहीं मिलता । वैसे ही भगवान् को त्याग कर देवी - देवादि की सेवा सभी सकामी करते हैं किन्तु देवी - देवादि की सेवा से राम के स्वरूप को वे नहीं जान पाते और अपना अमूल्य नर - तन व्यर्थ ही खो देते हैं ।

*पतिव्रत*
नारी सेवक तब लगै, जब लग सांई पास ।
दादू परसे आन को, ताकी कैसी आस ॥ ५१ ॥
५१ में कहते हैं - निष्काम पतिव्रत बिना सच्चा भक्त होने की क्या आशा है ? नारी पतिव्रता तब तक ही कहलाती है जब तक अपने पति की सेवा में तत्पर रह कर पति के पास रहती है और जब अन्य पुरुष से मिलती है तब उसके पतिव्रता होने की क्या आशा है ? वैसे ही भक्त वह है, जो जीवन पर्यन्त भगवान् का ही चिन्तन करता है । जो अन्य देवी - देवादि की उपासना में रत है, उसके भक्त होने की क्या आशा है ?

*अन्य लग्न व्यभिचार*
दादू नारी पुरुष को, जानैं जे वश होइ ।
पिव की सेवा ना करे, कामणकारी सोइ ॥ ५२ ॥
५२ में कहते हैं - प्रभु सेवा से अन्य, प्रभु को वश करने के काम में लग्न रखना, व्यभिचार है - जैसे कोई नारी मन में यह सोचती है - मेरा पति मेरे अधीन हो जाये, उसके लिये पतिव्रत - युक्त पति - सेवा तो करती नहीं, जादू - टोना आदि करके वश करना चाहती है तो समझना चाहिए, यह कामणकारी होने से पतिव्रता नहीं है । वैसे ही जो साधक निष्काम - पतिव्रत रूप भगवत् - सेवा न करके ईश्वर के असीम ऐश्वर्य को प्राप्त करना चाहता है और नाना अनुष्ठानादि करता है, उसको भी उक्त नारी के समान ही समझो ।
(क्रमशः)

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