09/07/2025
🙏🇮🇳 🇮🇳🙏
🌷 卐 सत्यराम सा 卐 🌷
*सुन्दरी को साँई मिल्या, पाया सेज सुहाग ।*
*पींव सौं खेलै प्रेम रस, दादू मोटे भाग ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ सुंदरी का अंग)*
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*साभार ~ मीरा चरित(सौभाग्य कुंवरी राणावत)*
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
कथांश 18
उन्होंने स्वयं से कहा- यही अवसर है प्रभु को ले जानेका । उठ, तुझे डर किसका है? तू तो प्रभु की आज्ञा का पालन कर रहा है । क्या करेंगे ये लोग? मारेंगे-पीटेंगे यही न? एक बार बाँहों में भरकर छाती ठंडी कर लूँ । एक बार, केवल एक बार मुझे साहस कर लेने दे मेरे कायर मन ! नयन-मन भर लूँ सुषमा-सिंधु के स्पर्श से, फिर चाहे जो हो, जीवन रहे या जाय । देह तो जानी ही है, इसी मिस चली जाय ।
अहा, प्रभु पधारना चाहते हैं इस दीन सेवक के घर, यही तो मुख्य है.......... यही तो मुख्य है........ उन्हींकी इच्छा-आदेश पूर्ण करने जा रहा हूँ मैं, तो क्या होगा? यह मैं क्यों सोचूँ? यह तो जिसने आदेश दिया है, वह जाने ।’ उन्हें ज्ञात ही न हुआ कि कब वह उठकर मंदिर में गये और कब श्रीविग्रह को अँकवार में भरकर उठा लाये । आनन्द के उद्रेक से नेत्रों से बहते पनारे जग को अँधेरा कर रहे थे, रोमांचित देह और लटपटी चाल ।
इतने पर भी उन्होंने दोनों हाथों से कसकर श्रीविग्रह को छाती से दबा रखा था । अनुमान से चलकर गाड़ी में अपनी फटी कथरी पर प्रभु को सुला दिया, ऊपर से वैसे ही चिथड़े ओढ़ा दिये और बैलों को जुए के नीचे देकर जोत बाँध दिये । नाथ में बँधी रस्सी का संकेत पाते ही उमंग में भरे बैल घर की ओर दौड़ चले । भक्तप्रवर बार-बार पीछे सिर घुमाकर देखते कि कहीं प्रभु उघाड़े न हो जायँ । बैलों के दौड़ने से इधर-उधर कहीं चोट न लग जाये । वे बार-बार हाथ बढ़ाकर अपनी गुदड़ी प्रभु को ओढ़ा देते ।
भावाविष्ट संत श्रीनिवृत्तिनाथजी मानो सीधे भगवान् से बोल पड़े-‘कहो तो रणछोड़ राय, स्मरण आती है देवी वैदर्भी के महल की वह दुग्ध फेनोज्ज्वल सुकोमल शैय्या? अथवा क्षीरसागर और वैकुण्ठ की शेष शैय्या? नहीं, भक्त हृदय की भाव शैय्या पर आसीन हो तुम्हें सम्पूर्ण सृष्टि विस्मृत हो जाती है । अन्यथा तुम्हें द्वारिका का यह ऐश्वर्य-पूर्ण मन्दिर छोड़कर गरीब भक्त के घर में जाने की भला क्यों सूझती?’
योगी श्रीनिवृत्तिनाथ सचेत हो कहने लगे- उधर द्वारिका में पुजारी ने निज-मंदिर में प्रवेश किया और बदहवास से उल्टे पाँव बाहर भागे । क्षणभर में चारों ओर यह बात फैल गयी कि मन्दिर में श्रीविग्रह नहीं है । कोई रोने और हाय-हाय करने लगे, कोई घबराकर इष्ट मंत्रका जप करने लगे और दूसरे सब खोजने में लग गये । छान-बीन से ज्ञात हुआ कि और सब तो यहीं हैं, किन्तु मन्दिर के बाहर पड़े लोगों में डाकोर के वे गृहस्थ भक्त और उनकी गाड़ी नहीं है । कहीं.......वही....तो.....?’
यों तो चारों दिशाओं में घुड़सवार दौड़ गये थे, फिर भी एक टुकड़ी को विशेषकर डाकोर के पथपर तीव्र गति से जाने की आज्ञा मिली । उन भक्तप्रवर ने पीछे से धूल का बवन्डर-सा उठता आता देखा तो समझ गये कि ये उन्हीं को पकड़ने के लिये आ रहे हैं । घोड़ों की चाल की समता गाड़ी में जुते बैल किसी प्रकार नहीं कर सकेंगे, यह जानते हुए भी उन्होंने बैलों को ललकारा । स्वामी के स्वर का मर्म समझ वे मूक प्राणी प्राणप्रण से भाग चले ।
वे बार-बार पीछे देखते, प्रतिक्षण पीछे आते सवार उन्हें समीप होते लगे । हृदय में घबराहट की सीमा नहीं थी- ‘क्या करूँ? अब क्या करूँ, कहाँ छिपा लूँ प्रभु को? उन्हें अपना भान नहीं था, किन्तु गाड़ी में सोये मेरे ये स्वामी, ये तो डाकोर जाना चाहते हैं । इन्हें यदि ये लोग ले गये तो मैंने फिर जीकर क्या किया? जीवन भर में यही एक आज्ञा, सेवा तो प्राप्त हुई, यह भी न कर सका तो जी करके क्या किया? जीवन इनसे बढ़कर है? अरे, ऐसे सौ-सौ जीवन इनपर न्योछावर हैं, पर अब ........ मैं क्या करूँ? कैसे, कहाँ छिपाऊँ तुम्हें?’
तभी उनकी दृष्टि सामने थोड़ी ही दूर दाहिने हाथ की बावड़ी की ओर गयी । उनके मस्तिष्क में बिजली-सी कौंध गयी, साथ ही हाथों ने बैलों की रास खींच ली । उनके खड़े होते-न होते तो वे कूद गये गाड़ी से, दौड़कर पीछे की ओर गये, प्रभु को उठाया और प्राणों का दम लगाकर बावड़ी की ओर भागे । जल्दी से सीढियाँ उतरकर जल के समीप ही एक ताक में प्रभु को रखकर ऊपर से गुदड़ी लगा दी । वापस आकर गाड़ी पर बैठ गये और बैलों को धीरे-धीरे आगे बढ़ने का संकेत किया ।
‘अरे ओ गाड़ीवाले ! ठहर जरा, भगवान्, को चुराकर ले जा रहा है चोट्टा कहीं का !’ सवारों ने समीप आकर डाँटा उन्हें ।
‘शूँ चोरी ने लाव्यो बापजी ! हूँ तो गरीब माणस छूँ, जे होय ते तमे गाड़ी माँ जोई लो ।’ सवारों ने गाड़ी में से उनका पानी का घड़ा, लोटा, डोर सब एक-एककर नीचे फेंक दिये । गुदड़ी जो बिछायी हुई थी गाड़ी में-उसे उठाते ही पीताम्बरी की जरी सुर्य की धूप में झलमला उठी ।
‘अरे चोट्टे, कहता है कि गाड़ी मा कशूँ नथी और यह दुपट्टा क्या तेरा है या तेरे बाप का है?’ बता भगवान् का विग्रह कहां हैं?’
अब क्या उत्तर दें वे? उत्तर न देनेपर खिजाये हुए सवार पिल पड़े । वृद्ध गृहस्थ को मारते-मारते लहूलुहान कर दिया उन्होंने, किन्तु उनके मुँह से बात की कौन कहे, कराह तक न निकली । कराह भक्त के मुँह से भले न निकले, पर उस भक्त के स्वामी कराह उठे इस अत्याचार से ।
बावड़ी से एक दबंग स्वर आया- अरे मूर्खों ! मैं अपने भक्त के साथ अपनी इच्छा से आया हूँ । मैं अपने प्यारे भक्त के साथ रहना चाहता हूँ, द्वारिका नहीं जाऊँगा । इस पर पड़नेवाली प्रत्येक मार मुझे लगी है । आकर देखो, मेरे रक्त से जल लाल हो गया है । यदि कुशल चाहते हो तो लौट जाओ चुपचाप और छः महीने के बाद श्रीवर्धिनी बावड़ी से मेरा दूसरा विग्रह मिलेगा । उसे मन्दिर में स्थापित करो ।
चकित हो सब बावड़ी की ओर दौड़े और देखा कि सचमुच पानी लाल-लाल हो रहा है । भक्तराज से क्षमा माँगकर सवार लौट गये । धीरे-धीरे वो बावली में उतरे और श्रीविग्रह को उठाकर हृदय से लगा लिया । नेत्रों की वर्षा से उन्होंने अपने प्रियतम को स्नान करा दिया । हिचकी बँध गयी उनकी, वहीँ सीढ़ी पर बैठ श्रीविग्रह को छाती से लगा हाथ फेरते हुए गद्गद कंठसे कहने लगे- ‘मारा धणी ! मुज अधम माथे ऐटली बधी कृपा ....... ऐटली बधी कृपा, मारी चोट तमे केम लीधी मारा वाला । तमे आ शूँ कीधूँ ........ आ शूँ कीधूँ ।’ वे श्रीविग्रह के वक्षपर सिर टिका फूट-फूटकर रो पड़े । उन्हें तो ज्ञात ही न हुआ कि श्रीविग्रहका स्पर्श पाते ही उनकी पीड़ा-चोट सब कपूर की भाँति उड़ गयी ।
डाकोर में अपने घर लाकर बरामदे में फूस के छप्पर के नीचे लकड़ी की चौकी पर प्रभु को पधरा दिया । आज वहाँ भव्य मन्दिर है । बाद में द्वारिका से पुजारी आये, लोभ में आकर उन्होंने गृहस्थ भक्तराज से श्रीविग्रह के बराबर सोना माँगा । भक्तप्रवर ने अपनी पत्नी की सोने की नथ और तुलसीदल तराजू के पलड़े में रखा । दूसरे पलड़े में श्रीविग्रह रखा गया । दोनों पलड़े बराबर हो गये तो शर्मिन्दा होकर पुजारी लौट गये । वही स्थान आज तीर्थ है ।’
(क्रमशः)