Mandeepsheoran Foji

Mandeepsheoran Foji Mandeep Sheoran

सियाराम जय राम जय जय राम
10/09/2025

सियाराम जय राम जय जय राम

.                   शास्त्रों में श्राद्ध विधान         जो श्रद्धा से दिया जाये उसे श्राद्ध कहते हैं। श्रद्धा मन्त्र के ...
10/09/2025

. शास्त्रों में श्राद्ध विधान

जो श्रद्धा से दिया जाये उसे श्राद्ध कहते हैं। श्रद्धा मन्त्र के मेल से जो विधि होती है उसे श्राद्ध कहते हैं। जीवात्मा का अगला जीवन पिछले संस्कारों से बनता है। अतः श्राद्ध करके यह भावना की जाती है कि उसका अगला जीवन अच्छा हो। जिन पितरों के प्रति हम कृतज्ञतापूर्वक श्राद्ध करते हैं वे हमारी सहायता करते हैं।
‘वायु पुराण’ में आत्मज्ञानी सूतजी ऋषियों से कहते हैं–‘हे ऋषिवृन्द ! परमेष्ठि ब्रह्मा ने पूर्वकाल में जिस प्रकार की आज्ञा दी है उसे तुम सुनो। ब्रह्मा जी ने कहा है–‘जो लोग मनुष्यलोक के पोषण की दृष्टि से श्राद्ध आदि करेंगे, उन्हें पितृगण सर्वदा पुष्टि एवं संतति देंगे। श्राद्धकर्म में अपने प्रपितामह तक के नाम एवं गोत्र का उच्चारण कर जिन पितरों को कुछ दे दिया जायेगा वे पितृगण उस श्राद्धदान से अति सन्तुष्ट होकर देने वाले की संततियों को सन्तुष्ट रखेंगे, शुभ आशिष तथा विशेष सहाय देंगे।’
हे ऋषियो ! उन्हीं पितरों की कृपा से दान, अध्ययन, तपस्या आदि सबसे सिद्धि प्राप्त होती है। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है कि वे पितृगण ही हम सबको सत्प्रेरणा प्रदान करने वाले हैं।
नित्यप्रति गुरुपूजा-प्रभृति सत्कर्मों में निरत रहकर योगाभ्यासी सब पितरों को तृप्त रखते हैं। योगबल से वे चन्द्रमा को भी तृप्त करते हैं जिससे त्रैलोक्य को जीवन प्राप्त होता है। इससे योग की मर्यादा जानने वालों को सदैव श्राद्ध करना चाहिए।
मनुष्यों द्वारा पितरों को श्रद्धापूर्वक दी गई वस्तुएँ ही श्राद्ध कही जाती हैं। श्राद्धकर्म में जो व्यक्ति पितरों की पूजा किये बिना ही किसी अन्य क्रिया का अनुष्ठान करता है उसकी उस क्रिया का फल राक्षसों तथा दानवों को प्राप्त होता है।’
० ० ०

॥जय जय श्री राधे॥

.                  *अनन्त चतुर्दशी कथा*         एक बार महाराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया। उस समय यज्ञ मंडप का निर्माण...
08/09/2025

. *अनन्त चतुर्दशी कथा*

एक बार महाराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया। उस समय यज्ञ मंडप का निर्माण सुन्दर तो था ही, अद्भुत भी था वह यज्ञ मंडप इतना मनोरम था कि जल व थल की भिन्नता प्रतीत ही नहीं होती थी। जल में स्थल तथा स्थल में जल की भांति प्रतीत होती थी। बहुत सावधानी करने पर भी बहुत से व्यक्ति उस अद्भुत मंडप में धोखा खा चुके थे।
एक बार कहीं से टहलते-टहलते दुर्योधन भी उस यज्ञ-मंडप में आ गया और एक तालाब को स्थल समझ उसमें गिर गया। द्रौपदी ने यह देखकर ‘अंधों की संतान अंधी’ कह कर उनका उपहास किया। इससे दुर्योधन चिढ़ गया।

यह बात उसके हृदय में बाण समान लगी। उसके मन में द्वेष उत्पन्न हो गया और उसने पाण्डवों से बदला लेने की ठान ली। उसके मस्तिष्क में उस अपमान का बदला लेने के लिए विचार उपजने लगे। उसने बदला लेने के लिए पाण्डवों को द्यूत-क्रीड़ा में हरा कर उस अपमान का बदला लेने की सोची। उसने पाण्डवों को जुए में पराजित कर दिया।
पराजित होने पर प्रतिज्ञानुसार पाण्डवों को बारह वर्ष के लिए वनवास भोगना पड़ा। वन में रहते हुए पांडव अनेक कष्ट सहते रहे। एक दिन भगवान कृष्ण जब मिलने आए, तब युधिष्ठिर ने उनसे अपना दुख कहा और दुख दूर करने का उपाय पूछा। तब श्रीकृष्ण ने कहा–‘हे युधिष्ठिर! तुम विधिपूर्वक अनन्त भगवान का व्रत करो, इससे तुम्हारा सारा संकट दूर हो जाएगा और तुम्हारा खोया राज्य पुन: प्राप्त हो जाएगा।’ इस संदर्भ में श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को एक कथा सुनाई -
प्राचीन काल में सुमंत नाम का एक नेक तपस्वी ब्राह्मण था। उसकी पत्नी का नाम दीक्षा था। उसकी एक परम सुन्दरी धर्मपरायण तथा ज्योतिर्मयी कन्या थी। जिसका नाम सुशीला था। सुशीला जब बड़ी हुई तो उसकी माता दीक्षा की मृत्यु हो गई।
पत्नी के मरने के बाद सुमंत ने कर्कशा नामक स्त्री से दूसरा विवाह कर लिया। सुशीला का विवाह ब्राह्मण सुमंत ने कौंडिन्य ऋषि के साथ कर दिया। विदाई में कुछ देने की बात पर कर्कशा ने दामाद को कुछ ईंटें और पत्थरों के टुकड़े बाँध कर दे दिए।
कौंडिन्य ऋषि दुखी हो अपनी पत्नी को लेकर अपने आश्रम की ओर चल दिए। परन्तु रास्ते में ही रात हो गई। वे नदी तट पर संध्या करने लगे। सुशीला ने देखा- वहाँ पर बहुत-सी स्त्रियाँ सुन्दर वस्त्र धारण कर किसी देवता की पूजा पर रही थीं। सुशीला के पूछने पर उन्होंने विधिपूर्वक अनन्त व्रत की महत्ता बताई। सुशीला ने वहीं उस व्रत का अनुष्ठान किया और चौदह गाँठों वाला डोरा हाथ में बाँध कर ऋषि कौंडिन्य के पास आ गई।
कौंडिन्य ने सुशीला से डोरे के बारे में पूछा तो उसने सारी बात बता दी। उन्होंने डोरे को तोड़ कर अग्नि में डाल दिया, इससे भगवान अनन्त जी का अपमान हुआ। परिणामत: ऋषि कौंडिन्य दुखी रहने लगे। उनकी सारी सम्पत्ति नष्ट हो गई। इस दरिद्रता का उन्होंने अपनी पत्नी से कारण पूछा तो सुशीला ने अनन्त भगवान का डोरा जलाने की बात कहीं।
पश्चाताप करते हुए ऋषि कौंडिन्य अनन्त डोरे की प्राप्ति के लिए वन में चले गए। वन में कई दिनों तक भटकते-भटकते निराश होकर एक दिन भूमि पर गिर पड़े। तब अनन्त भगवान प्रकट होकर बोले–‘हे कौंडिन्य! तुमने मेरा तिरस्कार किया था, उसी से तुम्हें इतना कष्ट भोगना पड़ा। तुम दुखी हुए। अब तुमने पश्चाताप किया है। मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। अब तुम घर जाकर विधिपूर्वक अनन्त व्रत करो। चौदह वर्षपर्यंत व्रत करने से तुम्हारा दुख दूर हो जाएगा। तुम धन-धान्य से संपन्न हो जाओगे। कौंडिन्य ने वैसा ही किया और उन्हें सारे क्लेशों से मुक्ति मिल गई।’
श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर ने भी अनन्त भगवान का व्रत किया जिसके प्रभाव से पांडव महाभारत के युद्ध में विजयी हुए।
० ० ०

॥जय जय श्री राधे॥
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*भगवान श्री कृष्ण और कुम्हार की कहानी*यह कहानी भगवान कृष्ण के बाल्य काल की है. बचपन में कृष्ण बडे ही शरारती थे. आये दिन ...
08/09/2025

*भगवान श्री कृष्ण और कुम्हार की कहानी*

यह कहानी भगवान कृष्ण के बाल्य काल की है. बचपन में कृष्ण बडे ही शरारती थे. आये दिन कृष्ण भगवान के नए-नए उलाहने रोज यशोदा मैया के पास आते रहते थे. इन्हीं उलाहनो से तंग आकार एक दिन यशोदा मैया छड़ी लेकर कृष्ण भगवान के पीछे दौड़ी थी.

और मैया से भगाते-भगाते गोविंदा एक कुम्हार के घर घुस गए. उस वक्त कुम्हार अपने काम में व्यस्त था. पर जब कुम्हार की दृष्टि भगवान पर पडी. तब वह बडा ही प्रसन्न हो उठा. कृष्ण बोले कुम्हारजी-कुम्हारजी मेरी मैया बहुत क्रोधित है और छड़ी लेकर मुझे ढूंड रही है.

कुछ समय के लिए. मुझे कही छुपा लीजिये. कुम्हार भगवान श्री कृष्ण के अवतार स्वरुप से ज्ञात था. उसने तुरंत कृष्णजी को एक बडेसे मिटटी के घड़े के निचे छुपा दिया.

कुछ समय पश्चात जब यशोदा मैयाने वहां आकार पूछा. क्यों रे कुम्हार! क्या तूने मेरे कान्हा को देखा है? . तो कुम्हार ने जवाब दिया नहीं मैया मैंने नहीं देखा.

कुम्हार और यशोदा मैया के बिच हो रहा सवांद भगवान श्री कृष्ण गौर से सुन रहे थे. फिर जब माता यशोदा वहां से चली गई. तब कान्हा बोले कुम्हारजी मेरी माता यदि चली गई हो. तो मुझे इस घडे से बाहर निकालिए.

कुम्हार बोला एसे नहीं भगवान पहले आपको मुझे वचन देना होगा. की आप मुझे चौरासी लाख यानियों के बन्धन से मुक्त कर देंगे. कुम्हार की बात सुनकर कान्हाजी मुस्कुराये और बोले ठीक कुम्हार मैं वचन देता हूं. की मैं तुम्हे चौरासी लाख यानियों के बन्धन से मुक्ति दे दूंगा.

अब तो मुझे बाहर निकालो. कुम्हार बोला मुझे अकेले को नहीं महाप्रभु मरे पूरे परिवार को भी. चौरासी लाख यानियों के बन्धन से मुक्त करने का वचन दीजिये. तो ही मैं आपको घडे से बाहर निकालूंगा.

इसपर कृष्ण बोले ठीक भैया. मैं उन्हें भी चौरासी लाख यानियों के बन्धन से मुक्त करने का वचन देता हूं. अब तो बाहर निकाल दो.

अब कुम्हार बोला बस प्रभुजी एक विनती और है. उसे पूरा करने का वचन देते है. तो मैं आपको घडे से बाहर निकाल लूंगा . कृष्ण बोले अब वह भी बता दो. कुम्हार ने कहा हे प्रभुजी जिस घडे के निचे आप छुपे है. उस घडे को बनाने के लिए.
लाई गई मिटटी मेरे बैलों पर लाद कर लाई है. आप मेरे उन बैलो को भी चौरासी लाख यानियों के बन्धन से मुक्त करने का वचन दीजिये. कृष्ण भगवान ने कुम्हार का प्राणी प्रेम देखकर उन बैलों को भी मोक्ष देने का वचन दिया.

कान्हा बोले लो तुम्हारी सभी इच्छाएं पूरी हो गई है. अब तो इस घडे से मुझे बाहर निकल लो. इस बार कुम्हार बोला अभी नहीं भगवान. बस एक अंतिम इच्छा शेष रह गई है और वह यह है कि जो भी जीव हम दोनों के बिच हुए इस सवांद को सुनेगा. उसे भी आप इस जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त कर देंगे.
बस यह वचन भी दे दीजिये. तभी मैं आपको इस घड़े से बाहर निकालूंगा.

कुम्हार की सच्ची प्रेमभावना देखकर कृष्ण भगवान अति प्रसन्न हुए और उन्होंने कुम्हार को तथास्तु कह दिया . फिर जाकर कुम्हार ने बाल कृष्ण को घडे से बाहर निकाला.
उनको साष्टांग प्रणाम करके. उनके चरण धोये और वह चरण अमृत प्राशन करके. अपने पूरे घर में उसका छिडकाव किया. अंतमें कुम्हार प्रभु कृष्ण के गले लगकर इतना रोया इतना रोया की उनमे ही विलीन हो गया.

*देव, ऋषि और पितृ सम्पूर्ण तर्पण विधि*।।ॐ अर्यमा न त्रिप्य्ताम इदं तिलोदकं तस्मै स्वधा नमः।...ॐ मृत्योर्मा अमृतं गमय।।पि...
08/09/2025

*देव, ऋषि और पितृ सम्पूर्ण तर्पण विधि*

।।ॐ अर्यमा न त्रिप्य्ताम इदं तिलोदकं तस्मै स्वधा नमः।...ॐ मृत्योर्मा अमृतं गमय।।

पितरों में अर्यमा श्रेष्ठ है। अर्यमा पितरों के देव हैं। अर्यमा को प्रणाम। हे! पिता, पितामह, और प्रपितामह। हे! माता, मातामह और प्रमातामह आपको भी बारंबार प्रणाम। आप हमें मृत्यु से अमृत की ओर ले चलें।

क्या है तर्पण
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पितरों के लिए श्रद्धा से किए गए मुक्ति कर्म को श्राद्ध कहते हैं तथा तृप्त करने की क्रिया और देवताओं, ऋषियों या पितरों को तंडुल या तिल मिश्रित जल अर्पित करने की क्रिया को तर्पण कहते हैं।

श्राद्ध पक्ष का माहात्म्य उत्तर व उत्तर-पूर्व भारत में ज्यादा है। तमिलनाडु में आदि अमावसाई, केरल में करिकडा वावुबली और महाराष्ट्र में इसे पितृ पंधरवडा नाम से जानते हैं।

'हे अग्नि! हमारे श्रेष्ठ सनातन यज्ञ को संपन्न करने वाले पितरों ने जैसे देहांत होने पर श्रेष्ठ ऐश्वर्य वाले स्वर्ग को प्राप्त किया है वैसे ही यज्ञों में इन ऋचाओं का पाठ करते हुए और समस्त साधनों से यज्ञ करते हुए हम भी उसी ऐश्वर्यवान स्वर्ग को प्राप्त करें।'- यजुर्वेद

ऋषि और पितृ तर्पण विधि
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तर्पण के प्रकार
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पितृतर्पण,
मनुष्यतर्पण,
देवतर्पण,
भीष्मतर्पण,
मनुष्यपितृतर्पण,
यमतर्पण

तर्पण विधि
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सर्वप्रथम पूर्व दिशा की और मुँह कर,दाहिना घुटना जमीन पर लगाकर,सव्य होकर(जनेऊ व् अंगोछे को बांया कंधे पर रखें) गायत्री मंत्र से शिखा बांध कर, तिलक लगाकर, दोनों हाथ की अनामिका अँगुली में कुशों का पवित्री (पैंती) धारण करें । फिर हाथ में त्रिकुशा ,जौ, अक्षत और जल लेकर संकल्प पढें—

ॐ विष्णवे नम: ३। हरि: ॐ तत्सदद्यैतस्य श्रीब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे आर्यावर्तैकदेशे अमुकसंवत्सरे अमुकमासे अमुकपक्षे अमुकतिथौ अमुकवासरे अमुकगोत्रोत्पन्न: अमुकशर्मा (वर्मा, गुप्त:) अहं श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं देवर्पिमनुष्यपितृतर्पणं करिष्ये ।

तीन कुश ग्रहण कर निम्न मंत्र को तीन बार कहें-

ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च। नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमोनमः।

तदनन्तर एक ताँवे अथवा चाँदी के पात्र में श्वेत चन्दन, जौ, तिल, चावल, सुगन्धित पुष्प और तुलसीदल रखें, फिर उस पात्र में तर्पण के लिये जल भर दें । फिर उसमें रखे हुए त्रिकुशा को तुलसी सहित सम्पुटाकार दायें हाथ में लेकर बायें हाथ से उसे ढँक लें और देवताओं का आवाहन करें ।

आवाहन मंत्र : ॐ विश्वेदेवास ऽआगत श्रृणुता म ऽइम, हवम् । एदं वर्हिनिषीदत ॥

‘हे विश्वेदेवगण ! आप लोग यहाँ पदार्पण करें, हमारे प्रेमपूर्वक किये हुए इस आवाहन को सुनें और इस कुश के आसन पर विराजे ।

इस प्रकार आवाहन कर कुश का आसन दें और त्रिकुशा द्वारा दायें हाथ की समस्त अङ्गुलियों के अग्रभाग अर्थात् देवतीर्थ से ब्रह्मादि देवताओं के लिये पूर्वोक्त पात्र में से एक-एक अञ्जलि तिल चावल-मिश्रित जल लेकर दूसरे पात्र में गिरावें और निम्नाङ्कित रूप से उन-उन देवताओं के नाममन्त्र पढते रहें—

1.देवतर्पण:
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ॐ ब्रह्मास्तृप्यताम् ।

ॐ विष्णुस्तृप्यताम् ।

ॐ रुद्रस्तृप्यताम् ।

ॐ प्रजापतिस्तृप्यताम् ।

ॐ देवास्तृप्यन्ताम् ।

ॐ छन्दांसि तृप्यन्ताम् ।

ॐ वेदास्तृप्यन्ताम् ।

ॐ ऋषयस्तृप्यन्ताम् ।

ॐ पुराणाचार्यास्तृप्यन्ताम् ।

ॐ गन्धर्वास्तृप्यन्ताम् ।

ॐ इतराचार्यास्तृप्यन्ताम् ।

ॐ संवत्सररू सावयवस्तृप्यताम् ।

ॐ देव्यस्तृप्यन्ताम् ।

ॐ अप्सरसस्तृप्यन्ताम् ।

ॐ देवानुगास्तृप्यन्ताम् ।

ॐ नागास्तृप्यन्ताम् ।

ॐ सागरास्तृप्यन्ताम् ।

ॐ पर्वतास्तृप्यन्ताम् ।

ॐ सरितस्तृप्यन्ताम् ।

ॐ मनुष्यास्तृप्यन्ताम् ।

ॐ यक्षास्तृप्यन्ताम् ।

ॐ रक्षांसि तृप्यन्ताम् ।

ॐ पिशाचास्तृप्यन्ताम् ।

ॐ सुपर्णास्तृप्यन्ताम् ।

ॐ भूतानि तृप्यन्ताम् ।

ॐ पशवस्तृप्यन्ताम् ।

ॐ वनस्पतयस्तृप्यन्ताम् ।

ॐ ओषधयस्तृप्यन्ताम् ।

ॐ भूतग्रामश्चतुर्विधस्तृप्यताम् ।

2.ऋषितर्पण
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इसी प्रकार निम्नाङ्कित मन्त्रवाक्यों से मरीचि आदि ऋषियों को भी एक-एक अञ्जलि जल दें—

ॐ मरीचिस्तृप्यताम् ।

ॐ अत्रिस्तृप्यताम् ।

ॐ अङ्गिरास्तृप्यताम् ।

ॐ पुलस्त्यस्तृप्यताम् ।

ॐ पुलहस्तृप्यताम् ।

ॐ क्रतुस्तृप्यताम् ।

ॐ वसिष्ठस्तृप्यताम् ।

ॐ प्रचेतास्तृप्यताम् ।

ॐ भृगुस्तृप्यताम् ।

ॐ नारदस्तृप्यताम् ॥

3.मनुष्यतर्पण
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उत्तर दिशा की ओर मुँह कर, जनेऊ व् गमछे को माला की भाँति गले में धारण कर, सीधा बैठ कर निम्नाङ्कित मन्त्रों को दो-दो बार पढते हुए दिव्य मनुष्यों के लिये प्रत्येक को दो-दो अञ्जलि जौ सहित जल प्राजापत्यतीर्थ (कनिष्ठिका के मूला-भाग) से अर्पण करें—

ॐ सनकस्तृप्यताम् -2

ॐ सनन्दनस्तृप्यताम् – 2

ॐ सनातनस्तृप्यताम् -2

ॐ कपिलस्तृप्यताम् -2

ॐ आसुरिस्तृप्यताम् -2

ॐ वोढुस्तृप्यताम् -2

ॐ पञ्चशिखस्तृप्यताम् -2

4.पितृतर्पण
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दोनों हाथ के अनामिका में धारण किये पवित्री व त्रिकुशा को निकाल कर रख दे ,

अब दोनों हाथ की तर्जनी अंगुली में नया पवित्री धारण कर मोटक नाम के कुशा के मूल और अग्रभाग को दक्षिण की ओर करके अंगूठे और तर्जनी के बीच में रखे, स्वयं दक्षिण की ओर मुँह करे, बायें घुटने को जमीन पर लगाकर अपसव्यभाव से (जनेऊ को दायें कंधेपर रखकर बाँये हाथ जे नीचे ले जायें ) पात्रस्थ जल में काला तिल मिलाकर पितृतीर्थ से (अंगुठा और तर्जनी के मध्यभाग से ) दिव्य पितरों के लिये निम्नाङ्कित मन्त्र-वाक्यों को पढते हुए तीन-तीन अञ्जलि जल दें—

ॐ कव्यवाडनलस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3

ॐ सोमस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3

ॐ यमस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3

ॐ अर्यमा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3

ॐ अग्निष्वात्ता: पितरस्तृप्यन्ताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तेभ्य: स्वधा नम: – 3

ॐ सोमपा: पितरस्तृप्यन्ताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तेभ्य: स्वधा नम: – 3

ॐ बर्हिषद: पितरस्तृप्यन्ताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तेभ्य: स्वधा नम: – 3

5.यमतर्पण
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इसी प्रकार निम्नलिखित मन्त्रो को पढते हुए चौदह यमों के लिये भी पितृतीर्थ से ही तीन-तीन अञ्जलि तिल सहित जल दें—

ॐ यमाय नम: – 3

ॐ धर्मराजाय नम: – 3

ॐ मृत्यवे नम: – 3

ॐ अन्तकाय नम: – 3

ॐ वैवस्वताय नमः – 3

ॐ कालाय नम: – 3

ॐ सर्वभूतक्षयाय नम: – 3

ॐ औदुम्बराय नम: – 3

ॐ दध्नाय नम: – 3

ॐ नीलाय नम: – 3

ॐ परमेष्ठिने नम: – 3

ॐ वृकोदराय नम: – 3

ॐ चित्राय नम: – 3

ॐ चित्रगुप्ताय नम: – 3

6.मनुष्यपितृतर्पण

इसके पश्चात् निम्नाङ्कित मन्त्र से पितरों का आवाहन करें—

ॐ आगच्छन्तु मे पितर एवं ग्रहन्तु जलान्जलिम'

ॐ हे पितरों! पधारिये तथा जलांजलि ग्रहण कीजिए।

‘हे अग्ने ! तुम्हारे यजन की कामना करते हुए हम तुम्हें स्थापित करते हैं । यजन की ही इच्छा रखते हुए तुम्हें प्रज्वलित करते हैं । हविष्य की इच्छा रखते हुए तुम भी तृप्ति की कामनावाले हमारे पितरों को हविष्य भोजन करने के लिये बुलाओ ।’

तदनन्तर अपने पितृगणों का नाम-गोत्र आदि उच्चारण करते हुए प्रत्येक के लिये पूर्वोक्त विधि से ही तीन-तीन अञ्जलि तिल-सहित जल इस प्रकार दें—

अस्मत्पिता अमुकशर्मा वसुरूपस्तृप्यतांम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3

अस्मत्पितामह: (दादा) अमुकशर्मा रुद्ररूपस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3

अस्मत्प्रपितामह: (परदादा) अमुकशर्मा आदित्यरूपस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3

अस्मन्माता अमुकी देवी वसुरूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नम: – 3

अस्मत्पितामही (दादी) अमुकी देवी रुद्ररूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नम: – 3

अस्मत्प्रपितामही परदादी अमुकी देवी आदित्यरूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जल तस्यै स्वधा नम: – 3

इसके बाद नौ बार पितृतीर्थ से जल छोड़े।

इसके बाद सव्य होकर पूर्वाभिमुख हो नीचे लिखे श्लोकों को पढते हुए जल गिरावे—

देवासुरास्तथा यक्षा नागा गन्धर्वराक्षसा: । पिशाचा गुह्यका: सिद्धा: कूष्माण्डास्तरव: खगा: ॥

जलेचरा भूमिचराः वाय्वाधाराश्च जन्तव: । प्रीतिमेते प्रयान्त्वाशु मद्दत्तेनाम्बुनाखिला: ॥

नरकेषु समस्तेपु यातनासु च ये स्थिता: । तेषामाप्ययनायैतद्दीयते सलिलं मया ॥

येऽबान्धवा बान्धवा वा येऽन्यजन्मनि बान्धवा: । ते सर्वे तृप्तिमायान्तु ये चास्मत्तोयकाङ्क्षिण: ॥

अर्थ : ‘देवता, असुर , यक्ष, नाग, गन्धर्व, राक्षस, पिशाच, गुह्मक, सिद्ध, कूष्माण्ड, वृक्षवर्ग, पक्षी, जलचर जीव और वायु के आधार पर रहनेवाले जन्तु-ये सभी मेरे दिये हुए जल से भीघ्र तृप्त हों । जो समस्त नरकों तथा वहाँ की यातनाओं में पङेपडे दुरूख भोग रहे हैं, उनको पुष्ट तथा शान्त करने की इच्छा से मैं यह जल देता हूँ । जो मेरे बान्धव न रहे हों, जो इस जन्म में बान्धव रहे हों, अथवा किसी दूसरे जन्म में मेरे बान्धव रहे हों, वे सब तथा इनके अतिरिक्त भी जो मुम्कसे जल पाने की इच्छा रखते हों, वे भी मेरे दिये हुए जल से तृप्त हों ।’

ॐ आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं देवषिंपितृमानवा: । तृप्यन्तु पितर: सर्वे मातृमातामहादय: ॥

अतीतकुलकोटीनां सप्तद्वीपनिवासिनाम् । आ ब्रह्मभुवनाल्लोकादिदमस्तु तिलोदकम् ॥

येऽबान्धवा बान्धवा वा येऽन्यजन्मनि बान्धवा: ।ते सर्वे तृप्तिमायान्तु मया दत्तेन वारिणा ॥

अर्थ : ‘ब्रह्माजी से लेकर कीटों तक जितने जीव हैं, वे तथा देवता, ऋषि, पितर, मनुष्य और माता, नाना आदि पितृगण-ये सभी तृप्त हों मेरे कुल की बीती हुई करोडों पीढियों में उत्पन्न हुए जो-जो पितर ब्रह्मलोकपर्यम्त सात द्वीपों के भीतर कहीं भी निवास करते हों, उनकी तृप्ति के लिये मेरा दिया हुआ यह तिलमिश्रित जल उन्हें प्राप्त हो जो मेरे बान्धव न रहे हों, जो इस जन्म में या किसी दूसरे जन्म में मेरे बान्धव रहे हों, वे सभी मेरे दिये हुए जल से तृप्त हो जायँ ।

वस्त्र-निष्पीडन करे तत्पश्चात् वस्त्र को चार आवृत्ति लपेटकर जल में डुबावे और बाहर ले आकर निम्नाङ्कित मन्त्र : “ये के चास्मत्कुले जाता अपुत्रा गोत्रिणो मृतारू । ते गृह्णन्तु मया दत्तं वस्त्रनिष्पीडनोदकम् ” को पढते हुए अपसव्य होकर अपने बाएँ भाग में भूमिपर उस वस्त्र को निचोड़े । पवित्रक को तर्पण किये हुए जल मे छोड दे । यदि घर में किसी मृत पुरुष का वार्षिक श्राद्ध आदि कर्म हो तो वस्त्र-निष्पीडन नहीं करना चाहिये ।

7.भीष्मतर्पण :
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इसके बाद दक्षिणाभिमुख हो पितृतर्पण के समान ही अनेऊ अपसव्य करके हाथ में कुश धारण किये हुए ही बालब्रह्मचारी भक्तप्रवर भीष्म के लिये पितृतीर्थ से तिलमिश्रित जल के द्वारा तर्पण करे । उनके लिये तर्पण का मन्त्र निम्नाङ्कित श्लोक है–

“वैयाघ्रपदगोत्राय साङ्कृतिप्रवराय च । गङ्गापुत्राय भीष्माय प्रदास्येऽहं तिलोदकम् । अपुत्राय ददाम्येतत्सलिलं भीष्मवर्मणे ॥”

अर्घ्य दान:
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फिर शुद्ध जल से आचमन करके प्राणायाम करे । तदनन्तर यज्ञोपवीत सव्य कर एक पात्र में शुद्ध जल भरकर उसमे श्वेत चन्दन, अक्षत, पुष्प तथा तुलसीदल छोड दे । फिर दूसरे पात्र में चन्दन् से षडदल-कमल बनाकर उसमें पूर्वादि दिशा के क्रम से ब्रह्मादि देवताओं का आवाहन-पूजन करे तथा पहले पात्र के जल से उन पूजित देवताओं के लिये अर्ध्य अर्पण करे ।

अर्ध्यदान के मन्त्र निम्नाङ्कित हैं—
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ॐ ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्वि सीमत: सुरुचो व्वेन ऽआव:। स बुध्न्या ऽउपमा ऽअस्य व्विष्ठा: सतश्च योनिमसतश्व व्विव:॥ ॐ ब्रह्मणे नम:। ब्रह्माणं पूजयामि ॥

ॐ इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम् । समूढमस्यपा, सुरे स्वाहा ॥ ॐ विष्णवे नम: । विष्णुं पूजयामि ॥

ॐ नमस्ते रुद्र मन्यव ऽउतो त ऽइषवे नम: । वाहुब्यामुत ते नम: ॥ ॐ रुद्राय नम: । रुद्रं पूजयामि ॥

ॐ तत्सवितुर्व रेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि । धियो यो न: प्रचोदयात् ॥ ॐ सवित्रे नम: । सवितारं पूजयामि ॥

ॐ मित्रस्य चर्षणीधृतोऽवो देवस्य सानसि । द्युम्नं चित्रश्रवस्तमम् ॥ ॐ मित्राय नम:। मित्रं पूजयामि ॥

ॐ इमं मे व्वरूण श्रुधी हवमद्या च मृडय । त्वामवस्युराचके ॥ ॐ वरुणाय नम: । वरूणं पूजयामि ॥

फिर भगवान सूर्य को अघ्र्य दें –
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एहि सूर्य सहस्त्राशों तेजो राशिं जगत्पते। अनुकम्पय मां भक्त्या गृहाणाघ्र्य दिवाकरः।
हाथों को उपर कर उपस्थान मंत्र पढ़ें –

चित्रं देवाना मुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरूणस्याग्नेः। आप्राद्यावा पृथ्वी अन्तरिक्ष सूर्यआत्माजगतस्तस्थुशश्च।

फिर परिक्रमा करते हुए दशों दिशाओं को नमस्कार करें।

ॐ प्राच्यै इन्द्राय नमः। ॐ आग्नयै अग्नयै नमः। ॐ दक्षिणायै यमाय नमः। ॐ नैऋत्यै नैऋतये नमः। ॐ पश्चिमायै वरूणाय नमः। ॐ वायव्यै वायवे नमः। ॐ उदीच्यै कुवेराय नमः। ॐ ऐशान्यै ईशानाय नमः। ॐ ऊध्र्वायै ब्रह्मणै नमः। ॐ अवाच्यै अनन्ताय नमः।

इस तरह दिशाओं और देवताओं को नमस्कार कर बैठकर नीचे लिखे मन्त्र से पुनः देवतीर्थ से तर्पण करें।

ॐ ब्रह्मणै नमः। ॐ अग्नयै नमः। ॐ पृथिव्यै नमः। ॐ औषधिभ्यो नमः। ॐ वाचे नमः। ॐ वाचस्पतये नमः। ॐ महद्भ्यो नमः। ॐ विष्णवे नमः। ॐ अद्भ्यो नमः। ॐ अपांपतये नमः। ॐ वरूणाय नमः।

फिर तर्पण के जल को मुख पर लगायें और तीन बार ॐ अच्युताय नमः मंत्र का जप करें।

समर्पण- उपरोक्त समस्त तर्पण कर्म भगवान को समर्पित करें।

ॐ तत्सद् कृष्णार्पण मस्तु।

नोट- यदि नदी में तर्पण किया जाय तो दोनों हाथों को मिलाकर जल से भरकर गौ माता की सींग जितना ऊँचा उठाकर जल में ही अंजलि डाल दें।
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With श्री प्रेमानंद महाराज जी  – I'm on a streak! I've been a top fan for 15 months in a row. 🎉
07/09/2025

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With राधे राधे – I'm on a streak! I've been a top fan for 10 months in a row. 🎉
07/09/2025

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07/09/2025

Big shout out to my newest top fans! 💎 Nitin Kumar, Krishna Murthy Koda, A***nsheoran A***n, Ashish Thombare, Ajay Gurung, Thakur Ajad Singh Tomar, Sabita Devi, Mukesh Kumar Pal, Kb Thapa, Parimala Sukumaran, Arun Goel, Ashok Baje, Raudranauth Ramcharan, Mani Ram Chaudhari, Duly Gogoi, Anand Khandeparkar, Ramniwas Ramniwas, Nughty Chintu Upaddhay, Pankaj Yadav

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*शंकर जी द्वारा श्री कृष्ण की महिमा :-*पार्वती जी ने पूछा – ‘मुझे श्रीकृष्ण की महिमा कुछ बताइये |’ शंकर जी ने कहा – ‘देव...
07/09/2025

*शंकर जी द्वारा श्री कृष्ण की महिमा :-*

पार्वती जी ने पूछा – ‘मुझे श्रीकृष्ण की महिमा कुछ बताइये |’ शंकर जी ने कहा – ‘देवी ! जिसके चरणनख की महिमा का वर्णन असम्भव है, उसकी महिमा क्या बताउं |’ फिर बोले – ‘सुनो, प्रत्येक ब्रह्माण्ड में एक ब्रह्मा, एक विष्णु और एक मैं – शंकर रहते हैं | हम तीनो-के-तीनो उन श्रीकृष्ण की कला के करोड़वें अंश से उत्पन्न होते हैं | इतने तो वे प्रभावशाली हैं |

प्रत्येक ब्रह्माण्ड में एक कामदेव रहता है | वह इतना सुन्दर है कि समस्त ब्रह्माण्ड को मोहित किये रहता है | पर उसमे जो सुन्दरता है, वह श्रीकृष्ण की सुन्दरता का करोड़वां-करोड़वां अंश है | वे इतने सुन्दर हैं | उनके शरीर से इतना तेज, इतनी चमक निकलती है कि प्रत्येक ब्रह्माण्ड में जितने सूर्य हैं, सब-के-सब उस चमक के करोड़वें अंश से प्रकाशित होते हैं | उनमे श्रीकृष्ण की अंग प्रभा के करोड़वें अंश से प्रकाश आता है | जगत में जितनी मन को मोहने वाली सुगन्धियाँ हैं, सुगन्धित फूल हैं, सबमे श्रीकृष्ण के अंग-गन्ध के करोड़वें अंश से गन्ध आती है | और बहुत सी बातें बताई हैं

ये सब कवि की कल्पना नहीं, ध्रुव सत्य है तथा सचमुच ही किसी को श्रीकृष्ण के ऐश्वर्य-सौन्दर्य-माधुर्य पर विश्वास हो जाय तो फिर उसको जीवन में केवल श्रीकृष्ण की ही चाह रहेगी, बाकी चाहें सब मिट जायँगी |इसलिए कृष्ण के महत्व को समझकर उनकी महिमा को पहचानों । कृष्ण से प्रेम करो l

☀ *श्रीगणेश के जन्म की कथा* ☀                  🍀 *आनन्दोत्सव का समारोह* 🍀(Part 12 of 12)           अब भारी आनन्दोत्सव मन...
06/09/2025

☀ *श्रीगणेश के जन्म की कथा* ☀

🍀 *आनन्दोत्सव का समारोह* 🍀
(Part 12 of 12)

अब भारी आनन्दोत्सव मनाया जाने लगा। देवगण, दुन्दुभियाँ बजाने लगे, अप्सराएँ नाचने लगीं, गन्धर्वों ने मधुर ध्वनि में गीत गाये और अन्तरिक्ष से दिव्य पुष्पों की वर्षा हुई। प्रकृति में भी उल्लास छा गया। वन और नगर सब वैभव से सम्पन्न हो गये। सर्वत्र वृक्षों पर मनोहर पुष्प और मीठे फल लद गये। हरित तृण एवं पौधों से सम्पन्न हुई पृथिवी ऐसी प्रतीत होती थी, मानो उसने हरी चादर ओढ़ ली हो और उस पर बेल-बूटे आ का काम हो रहा हो।
देवताओं और अप्सराओं द्वारा किए जाने वाले संगीत एवं नृत्य में समस्त चराचर विश्व तन्मय हो गया। जो सुनता वही नाचने लगता। शिवगण, उमा की सहेलियाँ आदि ने भी उसमें भाग लिया। फिर स्वयं भगवती उमा भी आनन्द में भर कर नृत्य करने लगीं।

तब भगवान् शंकर भी कैसे बैठे रहते ? वे तो जागृति में सदैव नर्तनशील रहते हैं। इसलिए डमरू उठाया और नृत्य करने लगे। यह देखकर समस्त विश्व ही नृत्यात्मक हो गया। सभी दिशाओं में विद्यमान देहधारी आनन्दमग्न होकर नृत्यरत थे। लगता था कि सारा विश्व ही नाच रहा है।
इस प्रकार समस्त संसार आनन्दमग्न था। सभी के दुःख दूर हो चुके थे, सर्वत्र सुख-शांति का साम्राज्य छा गया।
जब आनन्दोत्सव पूर्ण हुआ तब ब्रह्मा, विष्णु आदि सभी देवताओं ने सर्वानन्द विग्रह भगवान् गणाध्यक्ष का बारम्बार पूजन किया तथा साथ में शिव की भी स्तुति की। तदुपरान्त शिव शिवा और गणपति से आज्ञा लेकर सभी अपने-अपने धाम को चले गए। श्रीगणेश जी का यह उपाख्यान सब प्रकार से अभीष्ट पूर्ण कराने में समर्थ है

इदं सुमङ्गलाख्यानं यः शृणोति सुसंयतः।
सर्वमङ्गलसंयुक्तः स भवेन्मङ्गलायनः॥

'इस परम मंगलमय आख्यान को जो उपासक सुसंयत मन से सुनता है, वह समस्त मङ्गलों से सम्पन्न होता हुआ स्वयं भी मङ्गलों का घर ही हो जाता है।'

"ॐ गं गणपतये नमः"

.                    *“गणपति विसर्जन”*          मान्यता है कि गणेशजी ने ही महाभारत ग्रंथ को लिखा था। महर्षि वेदव्यास ने ...
06/09/2025

. *“गणपति विसर्जन”*

मान्यता है कि गणेशजी ने ही महाभारत ग्रंथ को लिखा था। महर्षि वेदव्यास ने गणेशजी को लगातार 10 दिन तक महाभारत की कथा सुनाई और गणेशजी ने 10 दिनों तक इस कथा को हूबहू लिखा। 10 के बाद वेदव्यासजी ने जब गणेशजी को छुआ तो देखा कि उनके शरीर का तापमान बहुत बढ़ चुका था। वेदव्यासजी ने उन्हें तुरंत कुंड में ले जाकर उनके शरीर के तापमान को शांत किया। तभी से मान्यता है कि गणेशजी को शीतल करने के लिए उनका विसर्जन किया जाता है।

विसर्जन का नियम इसलिए है कि मनुष्य यह समझ ले कि संसार एक चक्र के रूप में चलता है भूमि पर जिसमें भी प्राण आया है वह प्राणी अपने स्थान को फिर लौटकर जाएगा और फिर समय आने पर पृथ्वी पर लौट आएगा। विसर्जन का अर्थ है मोह से मुक्ति, आपके अन्दर जो मोह है उसे विसर्जित कर दीजिए। आप बप्पा की मूर्ति को बहुत प्रेम से घर लाते हैं उनकी छवि से मोहित होते हैं लेकिन उन्हें जाना होता है इसलिए मोह को उनके साथ विदा कर दीजिए और प्रार्थना कीजिए कि बप्पा फिर लौटकर आएं, इसलिए कहते हैं गणपति बप्पा मोरया, अगले बरस तू जल्दी आ।
सभी देवी-देवताओं का विसर्जन जल में होता है। जल को नारायण रूप माना जाता है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है संसार में जितनी मूर्तियाँ इनमें देवी-देवता और प्राणी शामिल हैं, उन सभी में मैं ही हूँ और अन्त में सभी को मुझमें ही मिलना है। जल में मूर्ति विसर्जन से यह माना जाता है कि जल में घुलकर परमात्मा अपने मूल स्वरूप से मिल गए। यह परमात्मा के एकाकार होने का प्रतीक भी है।
जल का संबंध ज्ञान और बुद्धि से भी माना गया है जिसके कारक स्वयं भगवान गणेश हैं। जल में विसर्जित होकर भगवान गणेश साकार से निराकार रूप में घुल जाते हैं। जल को पंच तत्वों में से एक तत्व माना गया है जिनमें घुलकर प्राण प्रतिष्ठा से स्थापित गणेश की मूर्ति पंच तत्वों में सामहित होकर अपने मूल स्वरूप में मिल जाती है।
हर साल अनंत चतुर्दशी का दिन बप्पा के भक्तों के लिए बेहद खास होता है। गणेश चतुर्थी से लेकर अनंत चतुर्दशी तक पूरे 10 दिन तक भक्त गणपति को अपने घरों में बैठाते हैं। इस दौरान घरों में लगातार विधिवत पूजा पाठ चलता रहता है। हालांकि कई बार लोग वक्त की कमी के चलते गणपति को डेढ़ दिन, 4 दिन, 5 दिन या 7 वें दिन में ही विसर्जित कर देते हैं। लेकिन गणपति विसर्जन का उपयुक्त समय स्थापना के 11 वें दिन अनंत चतुर्दशी का होता है। गणपति विसर्जन से जुड़े नियम और विधि इस प्रकार हैं -

"गणपति विसर्जन की पूजा"

विसर्जन के दिन परिवार के सभी सदस्यों को एक साथ मिलकर आरती करनी चाहिए। आरती में गणपति को 5 चीजें- दीप, फूल, धूप, सुगंध और नैवेद्य आदि चढ़ाए जाते हैं। आरती करने के बाद भगवान गणेश को भोग लगाया जाता है। भगवान को भोग लगाने के बाद प्रसाद को परिवार के सभी सदस्यों के बीच बांट दिया जाता है। आरती और प्रसाद के बाद परिवार का एक सदस्य एकदम धीरे-धीरे गणपति की मूर्ति को थोड़ा आगे बढ़ाता है। ऐसा घर से निकलने के 5 से 10 मिनट पहले किया जाता है। ऐसा करना गणपति को इशारा करता है कि अब विसर्जन का समय आ गया है।

"गणपति विसर्जन के नियम"

गणपति विसर्जन से पहले विधिवत पूजा पाठ करके बप्पा को मोदक का भोग लगाएँ। इसके बाद गणपति को नए वस्त्र पहनाएँ। इसके बाद एक रेशमी कपड़े में मोदक, थोड़े पैसे, दूर्वा घास और सुपारी रखकर उसमें गाँठ लगा दें। इस पोटली को बप्पा के साथ ही बाँध दें। आरती के समय घऱ के सब लोग मिलकर गणेश जी की आरती गाते हुए 'गणपति बाप्पा मोरया' के जयकारे लगाएँ।
इसके बाद अपने दोनों हाथ जोड़कर अपने मन में बप्पा से क्षमा प्रार्थना करते हुए अनजाने में हुई गलती के लिए क्षमा माँग लें। अब किसी पवित्र जलाशय में पूजा की सभी सामग्री के साथ गणपति का विसर्जन कर दें।
विसर्जन के नियम है कि जल में देवी-देवताओं की प्रतिमा को डुबोया जाता है। इसके लिए श्रद्धालु नदी, तालाब, कुण्ड, सागर में प्रतिमा को विसर्जित कर सकते हैं। महानगरों में जहाँ नदी, तालाब तक जाना कठिन होता है वहाँ लोग जमीन खोदकर उसमें जल भरकर प्रतिमा को विसर्जित कर लेते हैं। अगर आपके पास छोटी प्रतिमा है तो घर के किसी बड़े बर्तन में भी प्रतिमा विसर्जित कर सकते हैं। बस ध्यान रखना चाहिए कि इस जल में पैर न लगे। इस जल को गमले में भी डाल सकते हैं।
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॥गणपति बप्पा मोरया॥

*भगवान् से निर्मल प्रेम की कथा**बाल गोपाल अब दोनों की आयु पूर्ण होने का समय आ चला था भगवत प्रेरणा से उनको यह ज्ञात हो गय...
05/09/2025

*भगवान् से निर्मल प्रेम की कथा*
*बाल गोपाल

अब दोनों की आयु पूर्ण होने का समय आ चला था भगवत प्रेरणा से उनको यह ज्ञात हो गया की अब उनका समय पूरा होने वाला है,
एक दिन दोनों ने भगवान् को पुकारा, ठाकुर जी तुरंत प्रकट हो गए और उनसे उनकी इच्छा जाननी चाही, दोनों भक्त दम्पत्ति भगवान के चरणो में प्रणाम करके बोले ....
है नाथ हमने अपने पूरे जीवन में आपसे कभी कुछ नहीं माँगा, अब जीवन का अंतिम अमय आ गया है, इसलिए आपसे कुछ मांगना चाहते हैं..
भगवान् बोले "निःसंकोच अपनी कोई भी इच्छा कहो मैं वचन देता हूँ कि तुम्हारी प्रत्येक इच्छा को पूर्ण करूँगा"

तब बाल गोपाल के अगाध प्रेम में डूबे उस वृद्ध दम्पति बोले "हे नाथ हमने अपने पुत्र के रूप में आपको देखा, और आपकी सेवा की...
आपने भी पुत्र के समान ही हमारी सेवा करी अब वह समय आ गया है जिसके लिए कोई भी माता-पिता पुत्र की कामना करते हैैं,
हे दीनबंधु, हमारी इच्छा है की हम दोनों पति-पत्नी के प्राण एक साथ निकले और हे दया निधान, जिस प्रकार एक पुत्र अपने माता-पिता की अंतिम क्रिया करता है, और उनको मुक्ति प्रदान करता है,
उसी प्रकार हे परमेश्वर, हमारी अंतिम क्रिया आप अपने हाथो से करें और हमको मुक्ति प्रदान करें
श्रीहरि ने दोनों को उनकी इच्छा पूर्ण करने का वचन दिया और बाल गोपाल के विग्रह में विलीन हो गए।
अंत में वह दिन आ पहुंचा जब प्रत्येक जीव को यह शरीर छोड़ना पड़ता है, दोनों वृद्ध दम्पति बीमार पड़ गए, उन दोनों की भक्ति की चर्चा गांव भर में थी इसलिए गांव के लोग उनका हाल जानने उनकी झोपड़ी पर पहुंचे,
किन्तु उन दोनों का ध्यान तो श्रीहरि में रम चुका था उनको नही पता कि कोई आया भी है,
नियत समय पर एक चमत्कार हुआ जुलाहे की झोपड़ी एक तीव्र और अलौकिक प्रकाश से भर उठी,
वहां उपस्थित समस्त लोगो की आँखे बंद हो गई, किसी को कुछ भी दिखाई नहीं पढ़ रहा था, कुछ लोग तो झोपड़ी से बाहर आ गए कुछ वही धरती पर बैठ गए।
श्री हरि आपने दिव्य चतर्भुज रूप में प्रकट हुए, उनकी अप्रितम शोभा समस्त सृष्टि को अलौकिक करने वाली थी, वातावरण में एक दिव्य सुगंध भर गई,
अपनी मंद-मंद मुस्कान से अपने उन भक्त माता-पिता की और देखते रहे, उनका यह दिव्य रूप देख कर दोनों वृद्ध अत्यंत आनंदित हुए,
अपने दिव्य दर्शनों से दोनों को तृप्त करने के बाद करुणा निधान, लीलाधारी, समस्त सृष्टि के पालनहार श्री हरि, वही उन दोनों के निकट धरती पर ही उनके सिरहाने बैठ गए,
भगवान् ने उन दोनों भक्तों का सर अपनी गोद में रखा, उनके शीश पर प्रेम पूर्वक अपना हाथ रखा, तत्पश्चात अपने हाथो से उनके नेत्र बंद कर दिए,
तत्काल ही दोनों के प्राण निकल कर श्री हरि में विलीन हो गए, पंचभूतों से बना शरीर पंच भूतो में विलीन हो गया।
कुछ समय बाद जब वह दिव्य प्रकाश का लोप हुआ तो सभी उपस्थित ग्रामीणो ने देखा की वहां ना तो सुन्दर था, ना ही लीला थी और ना ही बाल गोपाल थे।
शेष थे तो मात्र कुछ पुष्प जो धरती पर पड़े थे और एक दिव्य सुगंध जो वातावरण में चहुं और फैली थी। विस्मित ग्रामीणो ने श्रद्धा से उस धरती को नमन किया,
उन पुष्पों को उठा कर शीश से लगाया तथा सुंदर, लीला की भक्ति और गोविन्द के नाम का गुणगान करते हुए चल दिए उन पुष्पों के श्री गंगा जी में विसर्जित करने के लिए।
मित्रो...भक्त वह है जो एक क्षण के लिए भी विभक्त नहीं होता, अर्थात जिसका चित्त ईश्वर में अखंड बना रहे वह भक्त कहलाता है। सरल शब्दों में भक्ति के अंतिम चरण का अनुभव करने वाले को भक्त कहते हैं।

🌺जय जय श्री राधे......।🙏

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