24/03/2025
“पिताजी का निधन”
नवंबर की बात है साहेब ने पेट में दर्द बताया। हमने सोचा, कोई साधारण तकलीफ़ होगी। गुड़गांव के डॉक्टर को दिखाया, कुछ टेस्ट हुए। फिर डॉक्टर ने जो कहा, उसने मानो समय को थाम दिया—
“लीवर में कैंसर है, जो नसों तक फैल चुका है।”
मैं और रविंद्र सिलगर डॉक्टर के सामने खड़े थे। चारों ओर हलचल थी, लेकिन हमारे भीतर एक गहरी ख़ामोशी पसर गई। आँसुओं को जबरन रोके खड़ा था, लेकिन भीतर सब बिखर रहा था। शब्द गले में अटक गए। कुछ मिनटों तक दिमाग़ सुन्न रहा। हिम्मत जुटाकर पूछा—
“कितना समय बचा है?”
डॉक्टर की आवाज़ स्थिर थी—
“तीन से छह महीने… लेकिन साहेब को मत बताइए।”
बाहर आए तो साहेब की तेज़ निगाहें हम पर टिकी थीं। उन्होंने पूछा—“क्या बताया डॉक्टर ने?”
दिल भारी था, पर चेहरे पर हल्की मुस्कान रखनी थी। बड़ी हिम्मत से कहा—“लीवर में थोड़ा इंफेक्शन है, दवाइयों से ठीक हो जाएगा।”
बाहर से दवाइयाँ मंगवाई गईं, इलाज शुरू हुआ, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। कैंसर नसों में उतर चुका था। नवंबर में पहला PET स्कैन हुआ, जिससे स्थिति स्पष्ट हुई। समय के साथ तबीयत और बिगड़ती गई, तो फरवरी में दूसरा PET स्कैन कराया। रिपोर्ट देखी, तो मानो ज़मीन खिसक गई—कैंसर रीढ़ की हड्डी और नसों तक जा पहुँचा था। डॉक्टरों से चर्चा हुई, और यह तय किया कि अब अस्पताल में भर्ती कराना ही सही रहेगा।
28 जनवरी—एक पहाड़ जैसा दिन।
उस दिन बहनजी चली गईं। घर का सन्नाटा अब तक के सारे शोर से भारी था। माता-पिता के लिए इससे बड़ा कोई दुःख नहीं कि उनका बच्चा उनके सामने दुनिया से चला जाए। पूरा परिवार और इलाका शोक में डूब गया।
बहनजी के जाने के बाद साहेब ने मुझे अपने पास बुलाया। एक ताकतवर इंसान जो अपनी बेटी के इस दुनिया से अचानक चले जाने के सदमें से उबर नहीं पा रहे था आज उनकी आवाज़ थकी हुई थी, काँपती आवाज़ पर मगर शब्दों में वही अपनापन था।
“अब तुझे कहीं नहीं जाना, मेरे पास ही रहना है।”
यह सुनकर आँखें छलक आईं, और मुझ से साहेब की और देखा नहीं गया और साहेब के गले लग कर सॉत्वना देने का प्रयास किया , ज़िंदगी में पहली बार पिताजी के गले लगा ,अलौकिक व अद्भुत पल था पिताजी के गले लगना।पहली बार पिताजी के गले लगा था।
मैं अपने हम उम्र साथियों से कहूँगा कि अपने पिता को गले जरूर लगाया करो , ये वाक़ई जादू की झप्पी है।पिता भी और पुत्र भी दोनों ही हरे भरे हो उठते हैं इस एक झप्पी से।
पर अब शायद उन्हें यह डर सताने लगा था कि जब उनका समय आएगा, तब कोई उनके पास होगा या नहीं।
इस बीच, कुछ लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि मैं सार्वजनिक समारोहों में नहीं जा रहा। वे यह नहीं समझ पाए कि मैं हर किसी को व्यक्तिगत रूप से फ़ोन करके बता रहा था कि मैं क्यों नहीं आ सकता।
फरवरी के आख़िरी दिनों में कैंसर ने अपना विकराल रूप दिखाना शुरू कर दिया। रीढ़ की हड्डी में फैलने के कारण साहेब के पैर धीरे-धीरे जवाब देने लगे। अब वे चल नहीं पा रहे थे। उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा।
ख़बर फैलते ही हर रोज़ सैकड़ों लोग अस्पताल पहुँचने लगे। कोई दूर से देखता, कोई हाथ जोड़कर प्रार्थना करता। उनके चाहने वालों की कतारें बढ़ती जा रही थीं, लेकिन हालत लगातार बिगड़ रही थी।
फिर आई 2 मार्च की रात…
(क्रमशः)