04/09/2025
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*भक्तामर स्तोत्रम्*
*श्लोक -- 1*
भक्तामर-प्रणत-मौलिमणि-प्रभाणा-
मुद्योतकं दलित-पाप-तमोवितानम्।
सम्यक् प्रणम्य जिनपादयुगं युगादा-
वालम्बनं भवजले पततां जनानाम्।।
*भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी )*
भक्त अमर -गण के किरीत-मणियों की प्रभा निखरती है,
जिनके स्मरण मात्र से पापो की घटा बिखरती है ।
भव सागर मे पड़ने वालों को मिलता जिनसे आधार,
उन्हीं आदि प्रभु के चरणों में नमस्कार है बारम्बार।।
*भावार्थ*
भगवान ऋषभ के चरण-युगल को विधिवत् प्रणाम कर मैं उनकी स्तुति करूंगा, जो चरण-युगल भक्त देवताओं के झुके हुए मुकुट की मणियों की प्रभा को प्रकाशित करने वाले हैं, पाप रूपी अंधकार के विस्तार को विदलित करने वाले हैं, युग की आदि में संसार समुद्र में गिरते हुए प्राणियों को आलंबन देने वाले हैं।
*श्लोक -- 2*
य: संस्तुत: सकल-वाङ्मयतत्त्वबोधा-
दुद्भूतबुद्धिपटुभि: सुरलोक-नाथै:।
स्तोत्रैर् जगत्त्रितयचित्तहरैरुदारै:
स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम्।।
*भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी )*
सुन्दर मन-मोहक स्तोत्रो से श्री सुरेन्द्र गुण गाते हैं,
हैं पैनी प्रतिभा वाले पर फिर भी पार न पाते हैं।
हृदय देव श्री ऋषभ देव की मैं स्तवना करता हूं,
स्तवना क्या करता हूं सचमुच मंगल माला वरता हूं।।
*भावार्थ*
सम्पूर्ण वाड्मय के तत्त्वज्ञान से उत्पन्न बुद्धि से पटु इन्द्रों के द्वारा तीनों जगत् के चित्त को हरण करने वाला विशाल स्तोत्रों से जिसकी स्तुति की गई है, उस प्रथम तीर्थंकर ( भगवान ऋषभ ) की मैं भी स्तुति करूंगा।
*श्लोक -- 3*
बुद्धया विनाऽपि विबुधार्चितपादपीठ !
स्तोतुं समुद्यत-मतिर् विगत त्रपोऽहम् ।
बालं विहाय जलसंस्थितमिन्दुबिम्ब
मन्य:क इच्छति जन: सहसा ग्रहीतुम्।।
*भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी )*
सुरेन्द्र पुजित है जिनेन्द्र ! तेरी महिमा है अपरम्पार
हैं बचकानी बात नहीं मति, फिर भी स्तुति हित हूं तैयार।
जल में पड़ती शशि छाया को समझ मनोहर चन्द्र उदार,
कौन पकड़ने हाथ बढ़ाता शिशु के बिना कहो जगन्नाथ?
*भावार्थ*
देवताओं द्वारा अर्चित पाद पीठ वाले प्रभो ! बुद्धि रहित होकर भी मेरी मति आप की स्तुति करने के लिए उद्यत हो रही है। इसका हेतु है-मेरा संकोचशून्य भाव अथवा साहस। जल में स्थित चंद्रमा के बिंब को बच्चों के सिवाय कौन दूसरा व्यक्ति पकड़ने की इच्छा करता है?
*श्लोक -- 4*
वक्तूं गुणान् गुणसमुद्र ! शशांककान्तान्
कस्ते क्षम: सुरगुरुप्रतिमोऽपि बुद्धया।
कल्पांत-काल-पवनोद्धत-नक्रचक्रं,
को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम्।
*भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी )*
गुण समुंद्र! तेरी गुण गा- गा किसने पाया अब तक पार?
सुर-गुरू प्रतिभाशाली जन भी खा जाते है हार।
प्रलय काल के अन्धड़ से विक्षुब्ध मगर हो जहां अपार,
उस समुद्र को तैर भुजा से क्या कोई कर सकता पार ?
*भावार्थ*
हे गुणसमुद्र! बुद्धि से वृहस्पति के सदृश भी कोई व्यक्ति क्या आपके चंद्रमा के समान कांत गुणों का वर्णन करने में समर्थ है प्रलयकाल की हवा से उद्धत मगरमच्छ के समूह वाले समुद्र को भुजाओं से तैरने में कौन समर्थ है
*श्लोक -- 5*
सोऽहं तथापि तव भक्तिवशान्मुनीश !
कर्तुं स्तवं विगतशक्तिरपि प्रवृत्त:।
प्रित्याऽऽत्मवीर्यमविचार्य मृगो मृगेन्द्रं,
नाभ्येति किं निजशिशो: परिपालनार्थम्
।।
*भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी )*
है मुनिश! मैं भक्ति-विवश हो, शक्ति बिना तेरे गुणगान
करने को हूं तत्पर, पर कहना न मुझे कोई नादान।
पुत्र-प्रेम वंश मृग मृगेंद्र को देख कभी करता घबरता,?
अपना बल-बुता, बिन सोचे क्या न सामने डट जाता?
*भावार्थ*
हे मुनीश! आपके गुणों का वर्णन करने में अक्षम हूं फिर भी वह मैं तुम्हारा स्तवन करने के लिए प्रवृत्त हुआ हूं। इसका हेतु है भक्ति। अपनी शक्ति का विचार किए बिना अपने शिशु का परिपालन करने के लिए क्या मृग सिंह का मुकाबला नहीं करता? अर्थात् करता है। इसका हेतू है प्रीति।
*श्लोक -- 6*
अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहासधाम,
त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम्।
यत्कोकिल: किल मधौ मधुरं विरौति,
तच्चारु-चाम्र-कलिका-निकरैकहेतु।।
*भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी )*
प्रभु मैं हूं अल्पज्ञ-अज्ञ विद्वानों की हंसी का पात्र,
स्तुति करने में करता समझूं में, है यह मन बहलाना। मात्र, फिर भी केवल भक्ति तुम्हारी, मुझको करती है बाचाल।
मधुर कुहूक -हित कोयल को ज्यो ऋतु बसंत में सदा रसाल।।
*भावार्थ*
मैं अल्प श्रुत वाला हूं और विद्वानो के उपहास का पात्र हूं। तुम्हारी भक्ति ही मुझे बलपूर्वक मुखर कर रही है। बसंत ऋतु में कोयल मधुर बोलती है। उसका हेतु है आम की सुंदर मंजरी का समूह है।
*श्लोक -- 7*
त्वत्संस्तवेन भवसन्तति-सन्निबद्धं,
पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजाम्।
आक्रांत-लोकमलिनीलमशेषमाशु-
सूर्यांशुभिन्नमिव शार्वरमन्धकारम्।
*भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी )*
७-मंगल निधि तेरी स्तवना ही जन्म-जन्म का संचित पाप,
मूलोन्मूलन द्वारा सारे क्षण भर में कर देती साफ।
सघन भंवरे -सा काला ज़र्रों रजनी का तमिल अशेष,
दिनकर की किरणें आते ही जा भाग,न रहता शेष।।
*भावार्थ*
तुम्हारे स्तवन से जन्म-परंपरा से अर्जित प्राणियों के पाप क्षण भर में वैसे ही नष्ट हो जाते हैं, जैसे समस्त संसार को आक्रांत करने वाला भ्रमर के समान काला रात्रि का अंधकार सूर्य की किरणों से छिन्न-भिन्न हो जाता है।
*श्लोक -- 8*
मत्वेति नाथ! तव संस्तवनं मयेद-
मारभ्यते तनुधियापि तव प्रभावात्।
चेतो हरिष्यति सतां नलिनीदलेषु
मुक्ताफल- द्युतिमुपैति ननूदबिन्दु:।।
*भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी )*
८-कंंहा तुम्हारी गुरुतर स्तवना, कहां
फिर भी मेरी स्तुति को पढ़कर मुग्ध बनेंगे सब विद्वोन,
नन्ही-नन्ही जल की बूंदे कमल पत्र पर जब पीटती।
करता दर्शक का मन न लूभाती,मोती जैसी नहीं लगती
*भावार्थ*
हे नाथ! तुम्हारी स्तुति सब पापों का नाश करने वाली है ऐसा मानकर मैं अल्पमति होता हुआ भी तुम्हारे स्तवन की रचना कर रहा हूं। वह तुम्हारे प्रभाव से सज्जन व्यक्तियों के चित्त्त को हरण करेगा, जैसी कमलिनी के पत्तों पर जल की बूंदें मोती की भांति चमकने लगती है।
*श्लोक -- 9*
आस्तां तव स्तवनमस्तसमस्त-दोषं
त्वत्संकथापि जगतां दुरितानि हन्ति।
दुरे सहस्त्रकिरण: कुरुते प्रभैव,
पद्माकरेषु जलजानि विकासभाञ्जि ।।
*भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी )*
दोष-विनाशक स्तुति का क्या कहना जब लघु सा तेरा नाम,
सारे जग का पाप-ताप हर,बन जाता है मंगल घाम।
सहस्त्राशु दूर, प्रभा उसकी जब यहां उतरती हैं, बस सर्वर में जलजो को पलभर में विकसित करती हैं ।।
*भावार्थ*
समस्त दोषों को नाश करनेवाला तुम्हारा स्तवन तो दूर तुम्हारे विषय में बातचीत भी प्राणियों के पापों को नष्ट करती है सहस्र रश्मि, सूर्य तो दूर,उसकी प्रभा ही सरोवरों में अलसाए कमलो को विकसार करती है।
*श्लोक 10*
नात्यद्भुतं भुवनभूषण! भूतनाथ!
भुतैर्गुणैर्भुवि। भवन्तमभिष्टुवन्त:।
तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा
भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति?।।
*भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी )*
१०-जग भुषण तेरे गुण गा यदि कोई जन बन जाते,
सचमुच इसमें कभी किसी को तनिक नहीं अचरज आते।
जो स्वामीअपने सेवक को अपना-सा न बना पाता,
लाभ शुन्य उसकी सेवा है,नहीं योग्य वह कहलाता।।
*भावार्थ*
हे भुवन भूषण! हे भूतनाथ! इस धरातल पर यथार्थ गुणों के द्वारा तुम्हारी स्तुति करने वाले तुम्हारे समान हो जाते हैं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। उस स्वामी से क्या प्रयोजन, जो अपने आश्रित को वैभव से अपने समान नही बनाता?
*श्लोक -- 11*
दृष्ट्वा भवन्तमनिमेषविलोकनीयं
नान्यत्र तोषमुपयाति जनस्य चक्षुः ।
पीत्वा पय: शशिकरद्युति-दुग्धसिंधो:
क्षारं जलं जलनिधेरसितुं क इच्छेत् ।।
*भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी )*
११-जिसने तेरे दिव्य रुप के एक बार है देख लिया,
उसने फिर क्यो ओर किसी को देख कभी सन्तोष किया।
क्षीर सिन्धु का शशिकर धवल अमल ज ल पीने वाला
नर,
क्षार सिन्धु का जल पीने को कभी लुभाएगा क्यो कर।।
*भावार्थ*
तुम अलपक दृष्टि से देखने योग्य हो अतः तुम्हें देखने के बाद अन्यत्र कहीं भी मनुष्य का चक्षु तोष को प्राप्त नहीं होता। चंद्रमा की किरणों के समान उज्जवल समुंद्र के दूध को पीकर लवण समुद्र के खारे जल को कौन पान करना चाहेगा।
*श्लोक -- 12*
यै: शान्तरागरुचिभि: परमाणुभिस्त्वं
निर्मापितस्त्रिभुवनैक-ललामभूत !
तावन्त एव खलु तेऽप्यणव: पृथिव्यां,
यत्ते समानमपरं नहि रूपमस्ति ।।
*भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी )*
१२-शान्त राग से रजित मनहर सुन्दर-सुन्दर आर्य विशवेश,
उतने ही परमाणु थे कि जिनसे तेरा तन बना जिनेश।
तब ही तेरे जैसा रुप न और देखने में आया,
अद्वितीय अनुपम,अनन्य जग का आभुषण कहलाते।।
*भावार्थ*
तीन जगत में असाधारण तिलक समान ! वीतराग आभा वाले जिन परमाणुओं से तुम्हारा निर्माण किया है, वे परमाणु इस पृथ्वी पर उतने ही हैं। क्योंकि इस धरती पर तुम्हारे समान रुप वाला दूसरा कोई नहीं है।
*श्लोक -- 13*
वक्त्रं क्व ते सुरनरोरगनेत्रहारि
नि: शेष -निर्जित - जगत्.- त्रितयोपमानम्।
बिम्बं कलंकमलिनं क्व निशाकरस्य
यद् वासरे भवति पाण्डुपलाशकल्पम् ।।
*भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी )*
१३-तेरे मुख-मन्डल को शशि का मन्डल कहना ठीक नहीं,
जिसे देखने नर-सुर-गण की अँखियों सदा अडीक रही।
कहाँ आपका दिव्यानन शुभ, कहांं कलंकित शशि मंडल,
जो दिन में हो जाता बलकुल ढाक-पत्र-सम कान्ति विकल।।
*भावार्थ*
कहां देव, मनुष्यों और नागकुमारों के नेत्रों का हरण करने वाला तुम्हारा मुख, जिसकी तुलना करने के लिए जगत् में कोई उपमा नहीं है। और कहां चंद्रमा का कलंक से मलिन बिंब, जो दिन में ढाक के पीले पत्ते जैसा हो जाता है।
*श्लोक -- 14*
सम्पूर्णमण्डल-शशांककलाकलाप-
शुभ्रा गुणास्त्रिभुवनं तव लंघयंति।
ये संश्रिता स्त्रिजगदीश्वर-नाथमेकं
कस्तान् निवारयति संचरतो यथेष्टम्।।
*भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी )*
१४-तेरे उज्जवल गुण तीनों लोकों का करते उल्लंघ, ऐसे गुणशाली को करते जो श्रध्दा से अभिनंदन।
उन्हें यथेच्छ भ्रमण करने से कौन रोकने वाला है,
लक्ष्यसिध्दी सहसा करते वे, जिसका तु रखवाला है।।
*भावार्थ*
हे तीन जगत के ईश्वर! पूर्णिमा के चंद्रमा की कलाओं के समूह के समान उज्जवल गुण तीनों लोक में व्याप्त हो रहे हैं। जिन गुणों ने एकमात्र त्राता का आश्रय लिया है, उन्हें स्वतंत्रतापूर्वक भ्रमण करते हुए कौन रोक सकता है।
*श्लोक -- 15*
चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांगनाभि-
र्नीतं मनागपि मनो न विकार-मार्गम् ।
कल्पान्तकाल-मरुता चलिताचलेन
किं मन्दराद्रिशिखरं चलितं कदाचित् ।।
*भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी )*
१५-काम विहवला सुर बालाएं हाव-भाव कर तक जाती,
किन्तु तुम्हारे मन को विचलीत नहीं तनिक भी कर पाती।
प्रलय पवन के झौंके गिरि-शिखरो को करते हूं खंडित,
किन्तु कभी क्या मन्दराद्रि को भी कर सकते हैं विचलित?
*भावार्थ*
यदि देवांगनाओं ने तुम्हारे मन को विकार युक्त नहीं बनाया तो इसमें क्या आश्चर्य है? पर्वत को प्रकम्पित करने वाले प्रलयकाल के पवन से क्या मेरु पर्वत का शिखर कभी प्रकम्पित होता हैं?
*श्लोक -- 16*
निर्धूमवर्तिरपवर्जित-तैलपूर:
कृत्स्नं जगत्त्रयमिदं प्रकटिकरोषि।
गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां
दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ! जगत्प्रकाश:।।
*भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी )*
१६-नाथ आप है इस धरती पर एक बड़े हुई अदभुत दीप,
तेल- वर्तिका बिनासदा निर्धम जल रहे तिमिर-प्रतीप।
प्रलय पवन। भी जिसे प्रभावित कर न सका,है ज्योति ललान,तीन भुवन उदभासक, उस दीपक को मेरे कोटि प्रणाम।।
*भावार्थ*
हे नाथ! तुम जगत को प्रकाशित करने वाले अलौकिक दीप हो। दीप तेल और बाती से जलता है और उसमें धुआं निकलता है। इस अलौकिक दीप को न बाती की जरूरत है, न तेल की। यह निर्धूम है । दीप सीमित क्षेत्र को प्रकाशित करता है। तुम इस परिपूर्ण जगत् को प्रकाशित करते हो दीप को हवा का एक झोंका भी बुझा देता है। इस अलौकिक दीप को पर्वत को प्रक्रम्पित्त कर देने वाला प्रलयवात भी नहीं बुझा सकता।
*श्लोक -- 17*
नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्यः,
स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगन्ति।
नाम्भोधरोदर -निरुद्धमहाप्रभावः
सूर्यातिशायिमहिमासि मुनीन्द्र! लोके।।
*भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी )*
17-कभी न होता अस्त,राहू भी कभी नहीं ग्रस सकता,
है प्रभाव व्यापक जिसको बादल दल नहीं निगल सकता।
अखिल विश्व को एक साथ सहसा प्रकाश से देता भर,
इसलिए महिमा है तेरी यहाँ सूर्य से बढकर।।
*भावार्थ*
हे मुनींद्र ! लोक में तुम सूर्य से भी अतिशय महिमा वाले हो। सूर्य उगता है और अस्त हो जाता है, तुम्हारा ज्ञान -सूर्य राहु से ग्रसित नहीं होता । सूर्य सीमित क्षेत्र को प्रकाशित करता है तुम्हारा ज्ञान - सूर्य तत्काल तीनों लोक को प्रकाशित कर देता है। सूर्य बादलों की ओट में छिप जाता है, तुम्हारे ज्ञान सूर्य का महान् प्रभाव कभी आच्छन्न नहीं होता है।
*श्लोक -- 18*
नित्योदयं दलितमोहमहान्धकारं
गम्यं न राहुवदनस्य न वारिदानाम्।
विभ्राजते तव मुखाब्जमनल्पकान्ति
विद्योतयज्जगदपूर्व- शशांकबिम्बम्।।
*भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी )*
१८-नित्य उदित रहने वाला व्यामोह तिमिर दलने वाला,
राहु न जिसे निगल पाता, धन से अविजित रहने वाला।
अमित क्राति-युत नाथ!आपका मुख मण्डल आभासित ,
चन्द्रविन्ब कोई अपूर्व यह जिससे विश्व प्रकाशित हैं।।
*भावार्थ*
चंद्रमा केवल रात में उदित होता है, तुम्हारा मुख-चंद्र नित्य उदित रहता है। चंद्रमा अंधकार को दूर करता है, तुम्हारा, मुंख-चंद्र मोह रूपी अंधकार को दूर करता है। चंद्रमा को राहु ग्रस लेता है, तुम्हारा मुख-चंद्र राहु से ग्रसित नहीं होता। चंद्रमा बादलों से आच्छादित हो जाता है, तुम्हारा मुख चंद्र बादलों से आच्छादित नहीं होता। चंद्रमा सीमित क्षेत्र को प्रकाशित करता है, तुम्हारा मुख-चंद्र संपूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है। इसलिए तुम्हारा मुख-चंद्र अद्भुत है, अत्यधिक कांति वाला है।
*श्लोक -- 19*
किं शर्वरीषु शशिनान्हि विवस्वता वा ?
युष्पन्मुखेन्दु-दलितेषु तमस्सु नाथ!
निष्पन्नशालिवनशालिनि जीवलोके
कार्यं कियज्जलधरैर् जलभारनम्रैः।
*भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी )*
।१९-देव आपका मुख-मण्डल जब करता जग का तिमिर विनाश,
दिन में दिनकर,रजनी मे रजनीकर का फिर व्यर्थ प्रकाश।
खेत भरे हो पके धान्य से,हो सुकाल की सुखद बहार,
कौन करेगा तब! बोलो कजरारे मेघो से प्यार।।
*भावार्थ*
हे नाथ तुम्हारा मुखचंद्र अंधकार को नष्ट करता है फिर रात्रि में चंद्रमा, दिन में सूर्य से क्या प्रयोजन? इस जीव जगत में जब खेतों में धान पक चुका है फिर जल के भार से झुके हुए मेघो से क्या प्रयोजन?
*श्लोक -- 20*
ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं
नैवं तथा हरिहरादिषु नायकेषु।
तेजः स्फुरन्मणिषु याति यथा महत्त्वं
नैवं तु काचशकले किरणाकुलेऽपि।।
*भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी )*
२०-जिस प्रकार सुन्दर लगता है प्रभुवर !तेरा ज्ञान प्रकाश
हरि-हर आदिक देवो मे वैसा मिलने को कब अवकाश।मणियो मे जो चमक युक्त हैं शक्ति तिमिर को खोने की,
रविकर दीप्त बने कितना ही,वह न कांच मे होने की।।
*भावार्थ*
प्रभो! ज्ञान तुम्हारा आश्रय प्राप्त कर जैसे उद्भासित होता है वैसे हरिहरादि नायको में नही। मणियों में स्फुरित होते तेज का जैसा महत्व होता है, वैसा सूर्य की किरणों से चमकते हुए कांच के टुकड़ों में नहीं।
*श्लोक -- 21*
मन्ये वरं हरिहरादय एव दृष्टा
दृष्टेषु येषु ह्रदयं त्वयि तोषमेति।
किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्यः
कशिचन्मनो हरति नाथ ! भवान्तरेऽपि।।
*भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी )*
२१-हरि-हरादि के दर्शन से दिल में न उभरता है सन्तोंष
किन्तु देव के दिव्य दर्शन से मिलता आत्म-तोष को पोष।
फिर औरो के दर्शन करने यह मन कभी न ललचाता,
जन्मांतर मे भी इसकोतिल भर न खिच कोई पाता।।
*भावार्थ*
मैंने आपको देखने से पहले हरि-हर आदि को देख लिया । यह अच्छा हुआ, ऐसा मैं मानता हूं । उनके सराग चरित्र को देखने के पश्चात, तुम्हारा वीतराग चरित्र मुझे तोष दे रहा है। आपको देखने से क्या हुआ? एक विचित्र मनोदशा हो गई। है नाथ ! अब इस धरती पर मेरे मन को हरण करने वाला अब और कोई नहीं है।इस जन्म में क्या,भवांतर में भी कोई मेरे मन को हरण नहीं कर सकता।
*श्लोक -- 22*
स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्
नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता।
सर्वा दिशो दधति भानि सहस्ररश्मिं,
प्राच्येव दिग् जनयति स्फुरदंशुजालम्।।
*भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी )*
22-देव सैकड़ो स्त्रियां सैकड़ों पुत्रों को पैदा करती,
किन्तु आपसा पुत्ररत्न तो नही भेंट कोई धरती।
तारो को पैदा करने वाली तो सभी दिशाएँ हैं,
किन्तु पूर्व दिशा है केवल जिसने रवि दर्शन कराया हैं।।
*भावार्थ*
सैकड़ों स्त्रियां सैकड़ों पुत्र को जन्म देती है, किंतु तुम्हारे जैसा पुत्र किसी दूसरी माता ने पैदा नहीं किया। सभी दिशाएं तारा-नक्षत्रों को धारण करती है किंतु चमकते हुए सहस्र किरण समूह वाले सूर्य को तो पूर्व दिशा ही जन्म देती है।
*श्लोक -- 23*
त्वामामनन्ति मुनयः परमं पुमांस-
मादित्यवर्णममलं तमसः परस्तात्।
त्वामेव सम्यगुपलभ्य जयन्ति मृत्युं
नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र!पन्थाः।
*भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी )*
23-अन्धकार से दूर सूर्य-सम अमल मानते है सारे,
परम पुरुष-पुरुषोत्तम गिनते, राग-द्वेष से है न्यारे।
भलि-भाति ले शरण आपकी विजय मृत्यु पर पाते हैं,
नही अन्य शिवपंथ मांगलिक!ऐसा मुनिजन गाते हैं।।
*भावार्थ*
हे मुनींद्र! ज्ञानी जन तुम्हें परम पुरुष मानते हैं। तुम सूर्य के समान आभा वाले, निर्मल और अंधकार से परे हो। तुम्ही को सम्यग् प्रकार से उपलब्ध करने से मृत्यु पर विजय पाते हैं। अमर बन जाते हैं। मोक्ष मार्ग का कल्याणकारी मार्ग तुम्हारी उपलब्धि के सिवाय दूसरा नहीं है।
*श्लोक -- 24*
त्वामव्ययं विभुमचिन्त्त्यमसंख्यमाद्यं ब्रह्मणमीश्वरमनन्तमनंगकेतुम्।
योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेकं
ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः।।
*भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी )*
24-मुनिजन कहते तुम अव्यय हो अजर,अमर औ सँख्यातित
,ब्रह्मरुप, ईश्वर अनन्त है अगम, आघ औ वचनातीत।
योगीशवर!योगज्ञ भक्त हृदयों में भाषित हो अनेक,
शुद्ध ज्ञानमय रुप आलौकिक अद्वितीय बस हो तुम एक।।
*भावार्थ*
तुम अव्यय हो- चयापचय से मुक्त हो, स्थिर स्वभाव वाले हो ,तुम विभु- हो प्रभु हो, ज्ञान शक्ति से व्यापक हो ,तुम अचिंत्य हो- तुम्हारी शक्ति चिंतन से परे है, अद्भुत गुणों से युक्त हो, तुम असंख्य हो, तुम्हारे गुणों की संख्या नहीं होती, तुम आद्य हो, तुम आदि पुरुष हो, इस युग में धर्म के आदि प्रवर्तक हो, तुम ब्रह्मा हो- आनंद की वृद्धि करने वाले हो- तुम ईश्वर हो- सर्वाधिक ऐश्वर्य संपन्न हो, तुम अनंत हो,अनंत ज्ञान दर्शन से संपन्न हो, तुम अनंगकेतु हो, काम को शांत करने के लिए केतु हो, तुम योगेश्वर हो- योगियों के द्वारा ध्यय हो ,तुम विदितयोग हो- योग के ज्ञाता हो ,तुम अनेक हो, उपयोग ( चेतना व्यापार) की अपेक्षा अनेक हो गुण और पर्याय की अपेक्षा अनेक हो, तुम एक हो- द्रव्य की अपेक्षा एक हो, अद्वितीय हो, तुम ज्ञान स्वरूप हो, चैतन्य स्वरूप हो, तुम अमल हो- अंतराय दान लाभ आदि अठारह दोषों से रहित हो, इस प्रकार संत लोग तुम्हारा अनेक रूपों से प्रवाद करते हैं तुम्हें अनेक रूपों से देखते हैं।
*श्लोक -- 25*
बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चितबुद्धि-बोधात्
त्वं शंकरोऽसि भुवनत्रय-शंकरत्वात्।
धाताऽसि धीर! शिवमार्गविधेर् विधानात्
व्यक्तं त्वमेव भगवन्! पुरुषोत्तमोऽसि
*भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी )*
२५-पूर्ण विकस्वर हुती बुद्धि इसलिए बुद्ध कहलाते हैं,
सुखाकर सबके लिए अतः शंकर की अभिधा पाते हैं।
मोक्ष मार्ग विधि के स्रस्टा होने से आप विधाता हैं,
पुरुषोत्तम है प्रभु!आप यह तत्त्व सिद्ध हो जाता हैं
*भावार्थ*
25 देवो द्वारा अर्चित प्रभो! केवल ज्ञान से समग्र वस्तुओं के ज्ञाता हो इसलिए तुम बुद्ध, हो तीन लोको में सुख और कल्याण करने वाले हो इसलिए तुम्ही शंकर हो,
हे धीर! मोक्ष मार्ग की विधि का विधान बनाने वाले हो इसलिए तुम्ही विधाता हो। भगवान तुम जन जन के ह्रदय में व्याप्त हो रहे हो इसलिए तुम्ही विष्णु हो।
*श्लोक -- 26*
तुभ्यं नमस्त्रिभुवनार्तिहराय नाथ!
तुभ्यं नमः क्षितितलामलभूषणाय।
तुभ्यं नमस्त्रिजगतः परमेश्वराय
तुभ्यं नमो जिन! भवोदधि-शोषणाय।
*भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी )*
त्रिभुवन के दु:ख हरने वाले प्रभुवर! तुमको नमस्कार,
भुमण्डल के एकमात्र आभुषण!तुमको नमस्कार।
तीन जगत के परमेश्वर!सादर है तुमको नमस्कार,
भवसागर के शोषक!तुमको कोटि-कोटि है नमस्कार ॥
*भावार्थ*
हे नाथ तुम तीन लोको की पीड़ा का हरण करते हो, इसलिए तुम्हें नमस्कार।
तुम पृथ्वी तल के अमल अलंकार हो, इसलिए तुम्हें नमस्कार।
तुम त्रिलोकी के परम ईश्वर हो, इसलिए तुम्हें नमस्कार।
हे जिन! तुम संसार समुंद्र का शोषण करने वाले हो ,समस्याओं से मुक्ति देने वाले हो, इसलिए तुम्हें नमस्कार।
*श्लोक -- 27*
को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणैरशेषैः
त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश!
दोषैरुपात्त-विविधाश्रय-जातगर्वैः
स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि।
*भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी )*
२७-हे सद्गुण के सागर! तेरे में दोषों का लेश नहीं
और ठोर आश्रय पा, दुर्गुण जम बैठे,ला द्वेष वहीं।
पा अनुकूल स्थान को दुर्गुण व्यर्थ न कहीं भटकते हैं
नहीं स्वप्न में भी वे सारे प्रभु के पास फटकते हैं।।
*भावार्थ*
हे मुनीश, तुम सर्वथा दोषमुक्त हो, इसमें क्या आश्चर्य है? क्योंकि जगत के सब गुणों ने अपना आश्रय बना लिया है ।अब दोषों को तुम्हारे भीतर आने का अवकाश ही नहीं रहा। दोषों को दूसरों के वहां आश्रय मिल गया है, इस प्रकार गर्व से अहंकारी बने हुए दोषों ने तुम्हें स्वप्नान्तर में भी नहीं देखा।
*श्लोक -- 28*
उच्चैरशोकतरुसंश्रितमुन्मयूख-
माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम्।
स्पष्टोल्लसत् किरणमस्ततमोवितानं
बिम्बं रवेरिव पयोधर-पार्श्ववर्ति।
*भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी )*
तरु अशोक के नीचे से शुभ किरणें दीप्तिमान तन की,
ऊपर जाती हुई तृप्त करती है ऑखियां जन-जन की।
मलिन बादलों के नीचे है मानो दिनकर का आलोक,
अन्धकार को दूर हटाकर हरता सारे जग का शोक।।
*भावार्थ*
उर्ध्ववर्ती नीलवर्ण वाले अशोक वृक्ष के नीचे विराजमान तुम्हारे निर्मल शरीर से निकलने वाली रश्मियां ऊपर की ओर जाती है। उस समय तुम्हारा रूप वैसे ही शोभित होता है, जैसे अंधकार को चीरता हुआ प्रभास्वर रश्मिओं के साथ नीले बादलों के बीच सूर्य का बिंब।
*श्लोक -- 29*
सिंहासने मणिमयूख-शिखाविचित्रे
विभ्राजते तव वपुः कनकावदातम्।
बिम्बं वियद्-विलसदंशुलता-वितानं
तुंगोदयाद्रि-शिरसीव सहस्ररश्मेः।
*भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी )*
मणिकिरणो के आभावाले सिंहासन पर राजित हैं,
कन्चनाभ काया प्रभुवर की होती अतिशय भाषित है।
मानो उदयाचल पर दल-बल सहित दिवाकर उदित हुआ,
भव्यजनो का मानस-पंकज जिसे देखकर मुदित हुआ
*भावार्थ*
मणियों की किरणों के अग्रभाग से रंग बिरंगे सिंहासन पर तुम्हारा स्वर्ण के समान उज्जवल शरीर वैसे ही शोभित होता है जैसे उन्नत उदयाचल के शिखर पर, आकाश में चमकती हुई किरण लताओं के विस्तार वाला सूर्य का चित्र।
*श्लोक -- 30*
कुन्दावदात-चलचामर-चारुशोभं
विभ्राजते तव वपुः कलधौतकान्तम्
उद्यच्छशांक-शुचिनिर्झर-वारिधार-
मुच्चैस्तटं सुरगिरेरिव शातकौम्भम्।
*भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी )*
३०-कुद-कुसुम-सम उज्जवल चामर सदा आप पर घुलते है,
स्वर्ण-तुल्य दे दीव्यमान तब नाथ और ही खिलते हैं।
मेरू-शिखर पर गिरती मानो चन्द्र धवल जल धाराएं,
वह मन मोहक -दृश्य भला नंबर-दो में कैसे बताएं।।
*भावार्थ*
कुंद के फूल की तरह उज्जवल चलायमान चंवर से रमणीय शोभा वाला तुम्हारा शरीर श्वेत वर्ण की भांति वैसे ही कमनीय लग रहा है जैसी उदित होते हुए चंद्रमा के समान धवल निर्झर की जलधारा वाला, स्वर्णमय मेरु पर्वत का उन्नत शिखर
*श्लोक -- 31*
छत्र-त्रयं तव विभाति शशांककान्त-
मुच्चैः स्थितिं स्थगितभानुकर-प्रतापम्।
मुक्ताफल-प्रकरजाल-विवृद्धशोभं
प्रख्यापयत् त्रिजगतः परमेश्वरत्वम्।
*भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी )*
रविकर जिनसे पराभुत शुचिता में विधु से बढ़े-चढ़े,
जिनकी झालर में शोभित है सुन्दर मोती बङे-बङे,
ऐसे तीन छत्र प्रभुवर के मस्तक पर नित रहते हैं,
तीन लोक के ये परमेश्वर मानो सबको कहते हैं ॥
*भावार्थ*
तुम्हारे मस्तक पर तीन छत्र विभासित हो रहे हैं।ये चंद्रमा तुल्य कांति वाले हैं और सूर्य की रश्मियों के आतप को रोक रहे हैं। मुक्ताफल के समूह से बनी झालर उनकी शोभा बढ़ा रही है। वे छत्र तीन लोक में व्याप्त तुम्हारे परमेश्वर्य का प्रख्यापन कर रहे हैं।
*श्लोक --32*
*गम्भीरतार-रवपूरित-दिग्विभाग- स्त्रैलोक्यलोक-शुभसंगमभूतिदक्षः।
सद्धर्मराज-जयघोषण-घोषकः सन्,
खे दुन्दुभिर्ध्वनति ते यशसः प्रवादी ॥३२॥
*भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी )*
३२-दुन्दुभि नित्य बजा करती है नाथ जहॉं पर जाते हैं,
उसके तार गंभीर घोष सबको ये चेताते है।
आओ करलो धर्म देव के दर्शन अंखियां ठर जाएं
जयनादो-यशवादो से सारे दिगंत ये भर जाएं।।
*भावार्थ*
हे प्रभो! आप जब समवसरण में विराजते , हैं तब देवगण आकाश में दुन्दुभी बजाते हैं। उस गंभीर घोष से दशों दिशाएं गूंज जाती है । दुन्दुभि का यह उद्घोष जैसे तीन लोक के प्राणियों को कल्याण प्राप्ति के लिए आह्वान कर रहा है कि 'हे जगत के प्राणियों! आओ सच्चा कल्याण मार्ग प्राप्त करो तथा आप द्वारा कथित सद्धर्म का जय जयकार भी सब दिशाओं में गुंजा रहा है।(पांचवाँ देव दुन्दुभि-प्रातिहार्य है।)
*श्लोक --33*
मन्दार-सुन्दर-नमेरू सुपारिजात-
सन्तानकादिकुसुमोत्कर- वृष्टिरुद्धा।
गन्धोदबिन्दु-शुभमन्द-मरुत्प्रपाता,
दिव्या दिवः पतति ते वचसां ततिर्वा ॥३३॥
*भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी )*
३३-सुरभित जल की बूंदों से बन शीतल चलती मन्द पवन,
पारिजात,मन्दार,नमेरु सुरवृक्षो के रुचिर सुमन।
स्वर्ण में जब गिरते हैं तब लगता शुभ दृश्य वहीं,
मानो प्रभु के वचनों की ही दिव्य पंक्तियां बरस रही।।
*भावार्थ*
हे भगवन! आपके समवसरण में जब देवगण आकाश से मंदार-सुंदर-नमेरु- परिजात आदि दिव्यवृक्षों के सुंदर पुष्प और सुगंधित जल की वर्षा करते हैं तब मंद मंद पवन के झोंकों से हिलोरें खाते वे पुष्प ऐसे भव्य प्रतीत होते हैं मानो आपके श्री मुख से वचन रूपी दिव्य पुष्प ही बरस रहे हो।(यह छठवां सुर पुष्पवृष्टि प्रातिहार्य है)
*श्लोक --34*
शुम्भत्प्रभावलय-भूरिविभा विभोस्ते,
लोकत्रये-द्युतिमतां द्युतिमाक्षिपन्ती।
प्रोद्यद्-दिवाकर-निरन्तर-भूरिसंख्या,
दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सोम-सौम्याम् ॥३४॥
*भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी )*
३४-देव आपके आभामंडल जैसी घुति जग में कहीं नहीं,
अगणित सूर्यो से भी उसकी है प्रचंडता गिनी गई।
पूर्ण चन्द्र की शुभ्र चांदनी सदा पराजय पाती हैं
फिर भी शशि-मण्डल-सी उसकी शीतलता मन भाती हैं।।
*भावार्थ*
हे प्रभु!आपका अत्यंत प्रकाशमान उज्जवल आभामंडल (करोना) संसार की समस्त प्रभावान् वस्तुओं से अधिक प्रभास्वर है। उसकी विलक्षणता तो यह है कि वह उदित होते अनेकानेक सूर्यो के तेज से अधिक प्रचंड होने पर भी पूर्णमासी के चंद्रमा से अधिक शीतलता सौम्यता प्रदान करने वाला है।(भामंडल नामक सातवां प्रातिहार्य है)
*श्लोक --35*
स्वर्गापवर्गगम-मार्ग-विमार्गणेष्टः
सद्धर्मतत्त्वकथनैक-पटुस्त्रिलोक्याः।
दिव्यध्वनिर्भवति ते विशदार्थसर्व- भाषास्वभाव-परिणामगुणैः प्रयोज्यः ।।३५॥
*भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी )*
३५-स्वर्ण मोक्ष का पथ बतलाती वाणी तेरी सखा समान,
शुद्ध धर्म और शुद्ध वस्तु का रुप दिखती आलीशान
विशद अर्थ की धोतक सब भाषाओं में परिणत होती,
जग अज्ञान हटाती हृदय जगाती पापों को खोती।
*भावार्थ*
हे भगवन! आपकी दिव्यध्वनि, सब जीवो को स्वर्ग और मोक्ष का मार्ग बताने में सक्षम है।समस्त प्राणियों को सत्य धर्म का रहस्य समझाने में कुशल है। गंभीर अर्थ वाली होकर भी अत्यंत स्पष्ट है। और जगत के सभी जीवो के लिए उनकी अपनी अपनी भाषा के अनुरूप बोध देने की शक्ति है उसमें। (यह दिव्यध्वनि नाम का आठवां प्रतिहार्य है)
*श्लोक -- 36*
*उन्निद्रहेम-नवपंकजपुञ्जकान्ती*
*पर्युल्लसन्-नखमयूखशिखाभिरामौ।*
*पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र! धत्तः*
*पद्मानि तत्र विबुधाः परिकल्पयन्ति।*
*भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी )*
भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी )
कनक-कमल सम विकसित अभिनव दिव्य कान्ति करने वाले,
नख-किरणों की विमल विभा से सदा हृदय हरने वाले ।
जहाँ-जहाँ पर टिकते हैं हे देव!आपके चरण कमल,
वहां-वहां पर भक्त देवगण निर्मित करते स्वर्ण कमल॥
*भावार्थ*
हे जिनेंद्र! विकस्वर अभिनव स्वर्ण- कमल-पुंज की कांति वाले, चमकते हुए नखो की किरणों के अग्रभाग से सुंदर बने हुए तुम्हारे चरण जहां टिकते हैं वहां देवता कमलों की रचना करते हैं।
*श्लोक -- 37*
*इत्थं यथा तव विभूतिरभूज्जिनेन्द्र!*
*धर्मोपदेशनविधौ न तथा परस्य।*
*यादृक् प्रभा दिनकृतः प्रहतान्धकारा,*
*तादृक् कुतो ग्रह-गणस्य विकाशिनोऽपि।।*
*भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी )*
३३.धर्म देशना के अवसर पर जो विभुता प्रभु में खिलती,
वैसी अन्य किसी में भी फिर नहीं खोजने पर मिलती।
अंधकार को हरने का जैसा सामर्थ्य दिवाकर में,
कैसे मिल सकता है वैसा अन्य किसी ग्रह-परिकर में ॥
*भावार्थ*
हे जिनेंद्र! धर्म प्रवचन के समय जैसी तुम्हारी विभूति थी वैसी किसी अन्य देव की नहीं थी। अंधकार को नष्ट करने वाली प्रभा जैसी सूर्य की होती है वैसी ही चमकते हुए नक्षत्र समूह की कैसे हो सकती है?
*श्लोक -- 38*
*श्च्योतन् मदाविलविलोलकपोलमूल-*
*मत्तभ्रमद्-भ्रमरनाद विवृद्धकोपम्।ऐरावताभमिभमुद्धतमापतन्तं*
*दृष्ट्वा भयं भवति नो भवदाश्रितानाम्*
*भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी )*
३४.मद पर मंडराते भंवरों की ध्वनी से कुपित हुआ भारी,
ऐरावत सा उन्नत दुर्दम आक्रामक अति भयकारी।
ऐसे गज के चंगुल में फंसता,वह कब बच पाता है,
अभय मुर्ति!तब भक्त वहां भी बाल-बाल बच जाता है ॥
*भावार्थ*
जिसके चंचल कपोल झरते हुए मद से मलिन हो रहे हो, मद पीकर उन्मत्त बने हुए तथा चारों और मंडराने वाले भ्रमरों के नाद से जिसका क्रोध बढ़ गया हो, वह एरावत के समान दुर्दांत हाथी आक्रामक मुद्रा में सामने आ रहा है, उसे देखकर तुम्हारा आश्रय लेने वाला भयभीत नहीं होता, अभय रहता है।
*श्लोक -- 39*
भिन्नेभ-कुम्भ-गलदुज्ज्वल-शोणिताक्त-
मुक्ताफल-प्रकर-भूषितभूमिभागः।
बद्धक्रमःक्रमगतं हरिणाधिपोऽपि
नाक्रामति क्रमयुगाचलसंश्रितं ते।
*भक्तामर स्तोत्र ( हिन्दी )*
३५.गज-कुम्भ-स्थल कर विदीर्ण मुक्ता के ढेर किए जिसने,
हर अवसर पर मनुजों को गहरे आघात दिए जिसने।
ऐसे निर्दय वनपति के पंजो में यदि सहसा आया,
फिर भी तेरे चरणोंपासक का कुछ भी न बिगङ पाया ॥
*भावार्थ*
जिसके द्वारा हाथियों के विदीर्ण कुंभस्थल से बहती रक्त धारा और सिर से निकले हुए मोतियों से भूमिभाग उज्ज्वल-लाल और श्वेत वर्णमाल
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