23/09/2025
प्रभात खबर के मांय माटी पेज में कुछ समय पहले प्रकाशित आलेख यहां पढ़ सकते हैं।
सामाजिक चुनौतियों से जूझते आदिवासी.......
भारत देश में जब धर्मांतरण शब्द का प्रयोग होता है तब सिर्फ़ ईसाई धर्म में आदिवासियों के धर्मांतरण की चर्चा होती है। पर इस देश में धीमी गति से हिन्दू धर्म में भी आदिवासियों का धर्मांतरण हुआ है, इसका जिक्र नहीं किया जाता है। बहुत पहले यह धर्मांतरण शक्ति के बल पर किया गया, जिससे आदिवासी संघर्ष करते हुए जंगलों पहाड़ों की तरफ़ गए। लोग जो लड़ नहीं सके और हिंदू धर्म में शामिल हो गए, वे जाति व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर रखे गए। और दलित कहलाए। उन्होंने इस व्यवस्था के भीतर जो हिंसा, दुःख, अपमान झेला उससे कोई भी इंकार नहीं कर सकता है। हिंदू धर्म को जाति व्यवस्था से अलग कर के नहीं देखा जा सकता है। इस व्यवस्था में कमज़ोरों का शोषण हमेशा बना रहता है। इसमें उच्च जाति के लोग सत्ता और संसाधनों पर अपना अधिकार बनाए रखते हैं। और इसे बनाए रखने के लिए हिंसा और शोषण भी बना रहता है। यही कारण है कि हिंदू धर्म में शामिल होने के बावजूद दलितों का शोषण कभी ख़त्म नहीं हुआ।
आदिवासियों ने लंबे समय तक इस व्यवस्था से खुद को दूर रखा लेकिन इसी व्यवस्था से आने वाले जमींदार, साहूकार के शोषण से वे खुद को बचा नहीं सके। कथित मुख्यधारा की उसी व्यवस्था से जहां से शोषक भी आते थे, आदिवासियों को मुख्यधारा में शामिल करने के लिए किस तरह से प्रोत्साहित किया जा सकता था? इसलिए आदिवासियों को हिंदू धर्म में शामिल करने के लिए दूसरे तरीकों का उपयोग किया गया।
देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय अपनी किताब लोकायत में स्पष्ट रूप से लिखते हैं कि भारत की 1871-72 की पहली जनगणना में जिन लोगों ने खुद को आर्यों के वंशज के रूप में दर्ज़ किया था, उनकी संख्या देश में बहुत कम थी। आदिवासियों की संख्या आर्य वंशजों से भी अधिक थी, जो जंगलों में चले गए थे, उन्हें आदिवासी के रूप में दर्ज़ किया गया। मुस्लिमों की कुछ संख्या को छोड़कर काफ़ी संख्या में ऐसे लोग थे जो हिन्दू धर्म की तरफ़ जा रहे थे। वह देश की मिली-जुली जनसंख्या थी, जो न तो उच्च जाति की थी और न ही पूरी तरह आदिवासी। इस बड़ी आबादी को लंबे समय तक अशुद्ध और वर्णसंकर कहकर उच्च जातियों ने उनका भी तिरस्कार किया। बाद में उन्हें पिछड़ा कहा गया। पर जो आदिवासी जंगलों की तरफ़ चले गए थे, वे भी बाद में दूसरे तरीकों से जाति व्यवस्था और हिंदू धर्म के भीतर लाए जा रहे थे। बदले रूप में वह तरीका था भर्ती का। मजदूरी के लिए उनकी भर्ती करना। ताकि वे मुख्यधारा की व्यवस्था के भीतर आते हुए खुद को हिंदू धर्म में समाहित कर सके।
प्रो. वाजिनियस ख़ाख़ा अपने एक आलेख में लिखते हैं कि 1891 की जनगणना में 'जनजाति' शब्द का प्रयोग किया गया था। पर दरअसल वह सिर्फ़ जनजाति शब्द नहीं था बल्कि 'वनवासी जनजाति' था, और वह भी 'कृषि और पशुपालक जातियों' की व्यापक श्रेणी के अंतर्गत एक उप-शीर्षक के रूप में। 1901 से, कुछ हद तक स्पष्ट मानदंड का उपयोग किया जाने लगा। और आदिवासियों की पहचान और वर्णन उन लोगों के रूप में किया गया जो जीववाद का पालन करते थे; बाद में 'जनजातीय धर्म' शब्द का भी प्रयोग किया गया। प्रो. नंदनी सुंदर अपने एक आलेख में लिखती हैं कि 1951 की जनगणना में आदिवासियों को हिंदू कॉलम में ही खुद को दर्ज़ करने को मजबूर करना भी एक तरह से सामूहिक धर्मांतरण का ही रूप था। जब कि भारत का संविधान कहता है कि एक व्यक्ति को आदिवासी का दर्जा किसी विशेष समुदाय का सदस्य होने के कारण प्राप्त होता है, न कि जीववादी, हिंदू या ईसाई होने के कारण।
बदलते समय के साथ स्वयं को वैदिक कहने वाले लोगों ने आदिवासियों के जीवन दर्शन, उनकी पूजा पद्धति, उनके पूजा स्थल, उनके काले रंग के देवी देवता, उनकी स्त्री देवियों को हिंदू धर्म में समाहित कर लिया। देश में इसके कई स्पष्ट उदाहरण देखने को मिलते हैं। कुछ जगहों पर राजाओं ने किसी समुदाय के नाम पर नहीं लेकिन जगह के नाम पर देवियों के नाम रख दिए क्योंकि उन्हें ब्राह्मणों, आदिवासियों, अन्य समुदाय सबको साथ लेकर चलना था, मसलन जब बिहार और ओड़िशा बंगाल का हिस्सा हुआ करते थे तब ओड़िशा में खीचिंगश्वरी देवी स्थापित की गई। यह झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम जिले में रहने वाले द्रविड़ मूल के भुइयां लोगों की जंगल में रहने वाली पौउड़ी देवी को भंज राजा ने अपनी कुलदेवी चामुंडा के साथ मिलाकर खिचिंग नामक जगह के नाम पर नई देवी खीचिंगश्वरी की स्थापना की, जिसे सभी स्थानीय लोगों ने स्वीकार लिया था। यह सबकुछ दिखलाता है कि किस तरह से आदिवासियों के कई तत्व हिंदू धर्म में शामिल किए गए।
जाति व्यवस्था और हिंदू धर्म से बाहर खुद अपना स्वशासन चलाते और लोकतांत्रिक तरीके से जीते आदिवासियों के बीच जब पहली बार ईसाई मिशनरी शिक्षा, चिकित्सा और उनके ज़मीन के मसलों को सुलझाने में सहयोग करने आए, तब पहली बार लोगों को इंसान की तरह एक स्वीकार्यता और गरिमा का एहसास हुआ। और तेज़ी से लोग ईसाई धर्म की तरफ़ गए। और उसी शिक्षा और जागरूकता के बल पर जशपुर (छत्तीसगढ़) के उरांव आदिवासियों ने हिंदू राजा और जमींदारों के लिए बेगार खटने से इंकार कर दिया। इस विद्रोह को देखते हुए ईसाई हो चुके आदिवासियों का विरोध भी तेज़ी से शुरू हुआ था। बाद में जब तत्कालीन प्रांतीय सरकार प्रांत के मुख्यमंत्री (तब प्रधानमंत्री के रूप में जाने जाते थे) स्वर्गीय पंडित रविशंकर शुक्ल ने जब जशपुर इलाके का दौरा किया, तो आदिवासियों ने उनका भी विरोध किया। और इसे रोकने के लिए उसी समय जशपुर से वनवासी कल्याण आश्रम की स्थापना की कहानी भी शुरू हुई। और आज देश में आदिवासियों का न सिर्फ़ हिंदू धर्म में बल्कि हिंदुत्व के लिए दंगों में भी इस्तेमाल किया जा रहा है। डॉ. राम पुनियानी की किताब में इसका स्पष्ट जिक्र मिलता है। दूसरी तरफ़ देखें तो ऐसे समय में जब आदिवासी बिहार और ओड़िशा दोनों ओर के हमलों से लगातार जनसंहार के शिकार हो रहे थे। तब सरना और ईसाई दोनों आस्था के आदिवासियों ने साथ मिलकर छोटनागरपुर उन्नति समाज से सुधारवादी आंदोलन और फिर आदिवासी महासभा, झारखंड पार्टी के माध्यम से झारखंड की सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में अपूर्व प्रगति की थी, जिसका असर आज भी है। इसलिए ईसाइयत का योगदान आदिवासी समाज के लिए क्रांतिकारी रहा है। इससे इंकार नहीं किया जा सकता है।
पर यह भी सच है कि ईसाइयत और हिंदू धर्म दोनों ही समान रूप से आदिवासियों को उनकी मूल पहचान से अलग करने के दोषी भी हैं। आज अपनी पहचान को बरकरार रखते हुए आदिवासियों के शिक्षित होने, आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, बौद्धिक रूप से खुद को सशक्त करने, अपने इतिहास के साथ इस देश और विश्व का इतिहास समझने की जरूरत है। हाशिए में और पीछे भागने की बजाय अपनी सीमाओं की सुरक्षा के साथ इस देश में मौजूद आदिवासी तत्वों के कारण इस पर अपना अधिकार महसूस करने की ज़रूरत है। अपनी आदिवासियत की नई परिभाषा गढ़ते हुए पूरे देश को जानने, समझने, इससे जुड़ने की भी ज़रूरत है। क्योंकि यह देश जितना बाकी लोगों का है उससे कुछ अधिक आदिवासियों का भी है।