15/06/2025
Rahul Kotiyal केदारनाथ में हुए हेलीकॉप्टर एक्सिडेंट पर लिखते हैं।
केदारनाथ में आज सुबह एक और हेलीकॉप्टर हादसा हुआ जिसमें सात लोगों की मौत हो गई.
अभी दो दिन पहले ही Airport Authority of India के कार्यकारी निदेशक रह चुके GK Chaukiyal जी के साथ हवाई दुर्घटनाओं पर विस्तृत चर्चा की थी.
चारधाम में चल रही हेली सेवाओं के सवाल पर उन्होंने कहा था कि मौसम ज़रा भी बिगड़ता है तो ये सेवाएँ कितनी घातक हो जाती हैं.
लेकिन सिर्फ़ VIPs को ही ट्विन इंजन हेलीकॉप्टर में लाना-लेजाना सुनिश्चित किया जाता है. बाक़ी तमाम यात्रियों का जीवन मुनाफ़ा पीटने की होड़ में लगातार दांव पर लगा होता है.
ऊपर से ख़राब मौसम और सूर्योदय से सूर्यास्त वाली समय सीमा को भी मुनाफे के लिए पूरी तरह अनदेखा कर दिया जाता है.
फिर जब ऐसा कोई हादसा होता है तो मंत्री-मुख्यमंत्री बयान देते हैं, समिति बना दी है जो अब भौं-कुछ फरका के ही दम लेगी. लेकिन अगले ही दिन सब वापस उसी ढर्रे पर लौट आता है.
हेली सेवाओं वाले ऐसी मनमानी क्या बिना शासन-प्रशासन की मिलीभगत के कर सकते हैं? अभी कुछ समय पहले ही माननीयों के हवाले से खबर आई थी कि अब हेलीकॉप्टर में 4-5 से ज़्यादा सवारियां नहीं होंगी. लेकिन आज ही जो दुर्घटना हुई है, उसमें पायलट समेत सात लोग थे.
और मूल सवाल तो ये होना था कि आख़िर इतने ऊँचे डांडों में और संवेदनशील हिमालयी क्षेत्रों में हेलीकॉप्टर की गड़गड़ाहट होनी ही क्यों चाहिए? इस मूल सवाल पर कुछ समय पहले वरिष्ठ पत्रकार विकास बहुगुणा ने सटीक टीप की थी:
पहले हम ऐसे नहीं थे. हमारे पुरखे मानते थे कि ऊंचे हिमालयी इलाकों में इंसानी दखल कम से कम होना चाहिए. वे ऐसा मानते ही नहीं थे बल्कि अपने बरताव में इसका ख्याल भी रखते थे.
जैसे बुग्यालों में जाने के ये अलिखित कायदे थे कि वहां जोर-जोर से न बोला जाए. बताते हैं कि आधी सदी पहले तक यात्री गौरीकुंड से सुबह-सुबह निकलते थे और 14 किलोमीटर दूर केदारनाथ के दर्शन करके शाम तक वापस आ जाते थे.
हमारे पुरखों ने केदारनाथ में जैसे भव्य मंदिर बना दिया था वैसे ही वहां रात बिताने के लिए और भवन भी वे बना ही सकते थे, लेकिन कुछ सोचकर ही उन्होंने ऐसा नहीं किया होगा.
सोच शायद यही रही होगी कि जिस फसल से पेट भर रहा है उसके बीज हिफाजत से रखे जाएं. यानी करोड़ों लोगों का जीवन चलाने वाली गंगा-यमुना जैसी सदानीरा नदियों के स्रोत जिस हिमालय में हैं उसे कम से कम छेड़ा जाए.
कहते हैं कि हिमालय में देवता विश्राम करते हैं. तो उन्हें क्यों डिस्टर्ब किया जाए.
लेकिन जिन इलाकों में जोर से न बोलने तक की सलाह थी वहां आज भयानक शोर है. सड़कों और बांधों के लिए पहाड़ों के परखच्चे उड़ाते डायनामाइट से लेकर श्रद्धालुओं को तीर्थ के फेरे करवाते हेलीकॉप्टरों तक इस शोर ने प्रकृति की नींद में खलल पैदा कर रखा है.
पर्यावरण के लिहाज से संवेदनशील इलाकों में नदियों का रास्ता मारकर बेपरवाही से बना दिए गए बांध-होटल-रेजॉर्ट हों या जगह-जगह प्लास्टिक की बोतलों और थैलियों के अंबार, यह सब बताता है कि एक समाज के तौर पर हमें खुद को सुधारने की जरूरत है.
नहीं सुधरेंगे तो यह परिमार्जन देर-सबेर प्रकृति खुद कर लेगी, और वह कितना क्रूर हो सकता है यह हम केदारनाथ से लेकर ऋषि गंगा त्रासदी तक देख ही रहे हैं.
हिमालय बदल रहा है, हम कब बदलेंगे?