05/08/2025
बड़े-बड़े देश, खासकर G20 देश, दुनिया में सबसे ज़्यादा प्रदूषण फैला रहे हैं, लेकिन जलवायु परिवर्तन पर गंभीरता से ध्यान नहीं दे रहे।
ये लापरवाही आने वाले समय में पूरी दुनिया के लिए विनाश का कारण बन सकती है।
बड़ी-बड़ी कंपनियाँ मुनाफे के लिए पर्यावरण की अनदेखी कर रही हैं और ज़हरीला प्रदूषण फैला रही हैं।
अगर समय रहते कदम नहीं उठाए गए, तो ये विकास नहीं, बल्कि विनाश की ओर बढ़ता रास्ता होगा।
इन विकसित देशों की फैक्ट्रियाँ और उद्योग दिन-रात धुआँ उगल रहे हैं, जिससे हवा, पानी और ज़मीन सब ज़हर बनते जा रहे हैं।
गरीब और विकासशील देश इस प्रदूषण का सबसे बड़ा शिकार बन रहे हैं, जबकि उनका योगदान सबसे कम है।
G20 देश सिर्फ बैठकों और वादों तक सीमित हैं, लेकिन ज़मीन पर कोई ठोस कदम नहीं उठा रहे।
प्रदूषण फैलाने वाली कंपनियों को न कोई रोक रहा है, न उन पर सख्त कानून लागू हो रहे हैं।
यह पर्यावरण का नहीं, मानवता का संकट बन चुका है – और इसके पीछे हैं वही ताकतें जो खुद को सबसे विकसित कहते हैं।
ये बड़े देश अपने स्वार्थ के लिए प्रकृति का दोहन कर रहे हैं – जंगल काटे जा रहे हैं, नदियाँ सुखाई जा रही हैं, और पहाड़ों को चीरकर मुनाफा कमाया जा रहा है।
जलवायु संकट पर उनके भाषण तो लम्बे होते हैं, लेकिन ज़मीनी बदलाव ना के बराबर हैं।
कार्बन उत्सर्जन के मामले में यही देश सबसे आगे हैं, फिर भी जिम्मेदारी लेने से बचते हैं।
छोटे देश और आम लोग जलवायु परिवर्तन की मार झेलते हैं, जबकि बड़े देश ऐश करते हैं।
अगर यही हाल रहा, तो ना हवा बचेगी, ना पानी – और इंसान अपने ही लालच से मिट जाएगा।
आज जिन तकनीकों और कारखानों को विकास का प्रतीक बताया जा रहा है, वही पृथ्वी के विनाश की जड़ बन चुके हैं।
बड़े देशों की कंपनियाँ गरीब देशों में फैक्ट्रियाँ लगाकर वहाँ का पर्यावरण भी बर्बाद कर रही हैं।
ग्लोबल वार्मिंग, बर्फ का पिघलना, समुद्री स्तर का बढ़ना — ये सब चेतावनी है, लेकिन सुनने वाला कोई नहीं।
प्राकृतिक आपदाएँ जैसे बाढ़, सूखा, तूफान अब सामान्य हो चुकी हैं – और इसका कारण है यही अंधाधुंध प्रदूषण।
जब तक बड़े देश अपने लालच को नहीं रोकते, तब तक धरती पर जीवन संकट में ही रहेगा।
बड़े राष्ट्रों की यह दोहरी नीति है — एक ओर वे जलवायु सम्मेलन करते हैं, दूसरी ओर कोयला, पेट्रोल और गैस का सबसे ज़्यादा इस्तेमाल भी वही करते हैं।
वे गरीब देशों को सलाह तो देते हैं, लेकिन खुद अपने कार्बन उत्सर्जन को घटाने की नीयत नहीं रखते।
उनकी बड़ी-बड़ी कंपनियाँ जंगलों को काटकर मॉल, हाइवे और खदानें बना रही हैं — पर्यावरण का संतुलन बिगाड़कर।
पैसा और सत्ता के लिए वे धरती की प्राकृतिक विरासत को कुर्बान कर रहे हैं।
अगर यह वैश्विक असंतुलन नहीं रुका, तो भविष्य में धरती पर सांस लेना भी एक लग्ज़री बन जाएगा।