Curiosity VAM

Curiosity VAM कल्पनाओं के पंख देता है — लेखन।
(जहाँ सोच रुक जाए, वहाँ से लेखन उड़ान भरता है।)

साज़िश और सत्ता:-सत्ता को साज़िशों की आदत है,वो खुला सच नहीं, बंद कमरों से मोहब्बत है।जहाँ फैसले होते हैं —पर जनता को सि...
06/08/2025

साज़िश और सत्ता:-

सत्ता को साज़िशों की आदत है,
वो खुला सच नहीं, बंद कमरों से मोहब्बत है।
जहाँ फैसले होते हैं —
पर जनता को सिर्फ़ आदेश मिलता है।
जहाँ नीतियाँ बनती हैं —
पर नीयत किसी को नहीं दिखती।

साज़िशें चलती हैं वहाँ,
जहाँ कुर्सी से बड़ा कुछ नहीं होता,
जहाँ इंसान को "डेटा" कहा जाता है,
और आत्मा को "रेटिंग" से तौला जाता है।

वे कहते हैं —
"हम तुम्हारे लिए काम कर रहे हैं।"
पर असल में
वे तुम्हारे नाम से अपने लिए राज कर रहे हैं।

हर चुनाव एक नया अभिनय है,
हर वादा एक अधूरी पटकथा,
हर झूठ —
इतना बार बोला जाता है कि
सच जैसा लगने लगता है।

और जब कोई पूछता है — "सबका साथ, या सिर्फ़ अपने का साथ?"
तो उसे देशद्रोही बना दिया जाता है।

ये साज़िशें इतनी महीन हैं कि
तुम्हें लगता है — ये व्यवस्था है,
पर असल में ये वशीकरण है।

अब समय है…
सत्ता की साज़िशों को पहचानने का,
हर प्रचार को तौलने का,
और हर "सच" को
अपने तर्क और विवेक से परखने का।

क्योंकि अगर तुम आज नहीं जागे —
तो कल तुम्हारे बच्चों को
इन साज़िशों की गुलामी विरासत में मिलेगी

✍️ विरेंद्र कुमार

05/08/2025

बड़े-बड़े देश, खासकर G20 देश, दुनिया में सबसे ज़्यादा प्रदूषण फैला रहे हैं, लेकिन जलवायु परिवर्तन पर गंभीरता से ध्यान नहीं दे रहे।
ये लापरवाही आने वाले समय में पूरी दुनिया के लिए विनाश का कारण बन सकती है।
बड़ी-बड़ी कंपनियाँ मुनाफे के लिए पर्यावरण की अनदेखी कर रही हैं और ज़हरीला प्रदूषण फैला रही हैं।
अगर समय रहते कदम नहीं उठाए गए, तो ये विकास नहीं, बल्कि विनाश की ओर बढ़ता रास्ता होगा।

इन विकसित देशों की फैक्ट्रियाँ और उद्योग दिन-रात धुआँ उगल रहे हैं, जिससे हवा, पानी और ज़मीन सब ज़हर बनते जा रहे हैं।
गरीब और विकासशील देश इस प्रदूषण का सबसे बड़ा शिकार बन रहे हैं, जबकि उनका योगदान सबसे कम है।
G20 देश सिर्फ बैठकों और वादों तक सीमित हैं, लेकिन ज़मीन पर कोई ठोस कदम नहीं उठा रहे।
प्रदूषण फैलाने वाली कंपनियों को न कोई रोक रहा है, न उन पर सख्त कानून लागू हो रहे हैं।
यह पर्यावरण का नहीं, मानवता का संकट बन चुका है – और इसके पीछे हैं वही ताकतें जो खुद को सबसे विकसित कहते हैं।

ये बड़े देश अपने स्वार्थ के लिए प्रकृति का दोहन कर रहे हैं – जंगल काटे जा रहे हैं, नदियाँ सुखाई जा रही हैं, और पहाड़ों को चीरकर मुनाफा कमाया जा रहा है।
जलवायु संकट पर उनके भाषण तो लम्बे होते हैं, लेकिन ज़मीनी बदलाव ना के बराबर हैं।
कार्बन उत्सर्जन के मामले में यही देश सबसे आगे हैं, फिर भी जिम्मेदारी लेने से बचते हैं।
छोटे देश और आम लोग जलवायु परिवर्तन की मार झेलते हैं, जबकि बड़े देश ऐश करते हैं।
अगर यही हाल रहा, तो ना हवा बचेगी, ना पानी – और इंसान अपने ही लालच से मिट जाएगा।
आज जिन तकनीकों और कारखानों को विकास का प्रतीक बताया जा रहा है, वही पृथ्वी के विनाश की जड़ बन चुके हैं।
बड़े देशों की कंपनियाँ गरीब देशों में फैक्ट्रियाँ लगाकर वहाँ का पर्यावरण भी बर्बाद कर रही हैं।
ग्लोबल वार्मिंग, बर्फ का पिघलना, समुद्री स्तर का बढ़ना — ये सब चेतावनी है, लेकिन सुनने वाला कोई नहीं।
प्राकृतिक आपदाएँ जैसे बाढ़, सूखा, तूफान अब सामान्य हो चुकी हैं – और इसका कारण है यही अंधाधुंध प्रदूषण।
जब तक बड़े देश अपने लालच को नहीं रोकते, तब तक धरती पर जीवन संकट में ही रहेगा।

बड़े राष्ट्रों की यह दोहरी नीति है — एक ओर वे जलवायु सम्मेलन करते हैं, दूसरी ओर कोयला, पेट्रोल और गैस का सबसे ज़्यादा इस्तेमाल भी वही करते हैं।
वे गरीब देशों को सलाह तो देते हैं, लेकिन खुद अपने कार्बन उत्सर्जन को घटाने की नीयत नहीं रखते।
उनकी बड़ी-बड़ी कंपनियाँ जंगलों को काटकर मॉल, हाइवे और खदानें बना रही हैं — पर्यावरण का संतुलन बिगाड़कर।
पैसा और सत्ता के लिए वे धरती की प्राकृतिक विरासत को कुर्बान कर रहे हैं।
अगर यह वैश्विक असंतुलन नहीं रुका, तो भविष्य में धरती पर सांस लेना भी एक लग्ज़री बन जाएगा।

04/08/2025

नौशिर गोवादिया, जो मुंबई में जन्मे थे और बाद में अमेरिका के नागरिक बने, एक प्रतिभाशाली एयरोस्पेस इंजीनियर थे। उन्होंने अमेरिका के सबसे खतरनाक और गुप्त हथियार B-2 स्टेल्थ बॉम्बर की डिज़ाइन में अहम भूमिका निभाई थी। B-2 बॉम्बर की स्टेल्थ क्षमता, यानी रडार और हीट सेंसर से बचने की तकनीक, उनके डिज़ाइन किए गए एग्जॉस्ट सिस्टम पर आधारित थी। लेकिन यही शख्स, जिसने कभी अमेरिकी रक्षा की रीढ़ को मजबूती दी, बाद में अमेरिका का सबसे बड़ा गद्दार साबित हुआ।

उन्होंने 1970 में Northrop कंपनी जॉइन की और “ब्लूबेरी मिल्कशेक” कोडनाम वाले प्रोजेक्ट पर B-2 की स्टेल्थ प्रणाली पर दो दशकों तक काम किया। लेकिन 1986 में उन्हें एक दुर्लभ रक्त विकार के कारण कंपनी से जाना पड़ा और फिर उन्होंने एक निजी रक्षा कंसल्टेंसी कंपनी शुरू की। 1997 में एक सरकारी विवाद के बाद उनकी सुरक्षा मंजूरी रद्द कर दी गई। इसके बाद उनकी वित्तीय हालत बिगड़ने लगी। उन्होंने हवाई में $3.5 मिलियन का एक विला खरीदा और हर महीने $15,000 की किश्त चुकानी थी।

पैसों की तंगी में फंसे गोवादिया ने 2003 से चीन से गुप्त संपर्क बनाए और 6 बार चीन के चेंगदू और शेनझेन शहरों की यात्रा की। वहां उन्होंने B-2 जैसी ही एक क्रूज़ मिसाइल के लिए चीन को स्टेल्थ एग्जॉस्ट सिस्टम डिज़ाइन करने में मदद की, जिससे मिसाइल रडार और इंफ्रारेड से छुप सके। इसके बदले उन्हें $110,000 से ज्यादा का भुगतान मिला, जिसे उन्होंने अपने मकान की किश्तें भरने में लगाया। जब अमेरिकी कस्टम अधिकारियों ने कैश पर सवाल उठाया, तो उन्होंने बहाना बनाया कि ये एक पुरानी मेज़ खरीदने के लिए है।

2004 में उनके द्वारा मंगाए गए सामान में प्रतिबंधित रक्षा सामग्री मिली, जिससे FBI को शक हुआ। इसके बाद उन पर कड़ी निगरानी रखी गई और 13 अक्टूबर 2005 को उनके घर पर छापा मारा गया, जहाँ से 500 पाउंड से ज्यादा इलेक्ट्रॉनिक सबूत, डिजाइन, ईमेल्स और डिवाइस जब्त किए गए। पूछताछ में गोवादिया ने कबूल किया: “जो मैंने किया वह चीन की मदद करना, जासूसी और देशद्रोह था।”

2010 में शुरू हुए मुकदमे में गोवादिया ने कहा कि उन्होंने केवल "declassified" यानी सार्वजनिक जानकारी साझा की थी, लेकिन अदालत ने इसे खारिज करते हुए कहा कि उन्होंने व्यक्तिगत लाभ के लिए अमेरिका से अपनी निष्ठा तोड़ी। उन्हें 14 में से 14 आरोपों में दोषी पाया गया और 32 साल की सजा सुनाई गई। आज वे कोलोराडो की एक अधिकतम सुरक्षा जेल में बंद हैं।

लेकिन मामला यहीं नहीं रुका। मई 2025 में चीन के एक सैन्य बेस पर एक नया स्टेल्थ ड्रोन देखा गया, जिसकी बनावट और एग्जॉस्ट सिस्टम B-2 जैसे ही थे। विशेषज्ञ मानते हैं कि यह गोवादिया द्वारा दी गई तकनीक का नतीजा है। उनके बेटे ने इस फैसले को पक्षपातपूर्ण बताया, लेकिन गोवादिया खुद अदालत में कह चुके हैं: “मैंने जो किया, वह जासूसी और देशद्रोह था।”

B-2 बॉम्बर, जिसे “स्पिरिट” भी कहा जाता है, आज भी अमेरिका का सबसे गुप्त और ताकतवर हथियार है। यह 10,000 नॉटिकल मील तक उड़ सकता है, परमाणु और पारंपरिक हथियार ले सकता है, और रडार पर एक छोटे पक्षी जितना दिखता है। इसका सबसे क्रांतिकारी हिस्सा — स्टेल्थ एग्जॉस्ट डिज़ाइन — नौशिर गोवादिया की देन था।

जून 2025 में, अमेरिका ने “मिडनाइट हैमर” नाम की गुप्त सैन्य कार्रवाई में ईरान के तीन परमाणु स्थलों पर हमला किया और इसमें 7 B-2 बॉम्बर शामिल थे। इस एक्शन ने फिर से दुनिया को दिखाया कि स्टेल्थ तकनीक कैसे युद्ध की दिशा बदल सकती है — लेकिन यह भी याद दिलाया कि जब ऐसी तकनीक गलत हाथों में जाती है, तो उसके परिणाम कितने गंभीर हो सकते हैं।

03/08/2025

चीन ने अमेरिका को सख्त चेतावनी -

अमेरिका चीन पर टैरिफ इसलिए नहीं लगाता क्योंकि उसे चीन से क्रिटिकल मिनरल्स जैसे लिथियम, कोबाल्ट, और रेयर अर्थ एलिमेंट्स की ज़रूरत होती है, जो अमेरिका की टेक्नोलॉजी, डिफेंस और इलेक्ट्रिक वाहन इंडस्ट्री के लिए बहुत जरूरी हैं, और चीन इन खनिजों का दुनिया का सबसे बड़ा सप्लायर और प्रोसेसर है, इसलिए अगर अमेरिका चीन पर ज्यादा दबाव बनाता है या टैरिफ लगाता है, तो चीन इन खनिजों की सप्लाई रोक सकता है जिससे अमेरिका की अर्थव्यवस्था और सुरक्षा को बड़ा झटका लग सकता है, यही कारण है कि अमेरिका खुलकर चीन से नहीं भिड़ता जबकि चीन अमेरिका की इस निर्भरता को जानता है और उसी आधार पर अमेरिका से टकराने की हिम्मत करता है।

चीन इस खनिज दबदबे का इस्तेमाल केवल व्यापार में ही नहीं बल्कि भू-राजनीतिक रणनीति में भी करता है, वह जानता है कि अमेरिका उसकी सप्लाई पर निर्भर है, इसलिए वह कई बार दक्षिण चीन सागर, ताइवान या तकनीकी क्षेत्रों में भी अमेरिका के खिलाफ सख्त रुख अपनाता है, जबकि अमेरिका चाहकर भी सीमित प्रतिक्रिया देता है क्योंकि अगर चीन ने खनिजों की सप्लाई रोक दी तो अमेरिका की टेक्नोलॉजी कंपनियों, बैटरी उद्योग और सैन्य उत्पादन में रुकावट आ सकती है, इसीलिए अमेरिका धीरे-धीरे दूसरे देशों जैसे ऑस्ट्रेलिया, चिली, अफ्रीका और भारत से मिनरल्स लाने की कोशिश कर रहा है ताकि वह चीन की पकड़ से बाहर निकल सके, लेकिन इस रणनीति को सफल होने में अभी समय लगेगा और तब तक चीन अपनी शक्ति का पूरा फायदा उठा रहा है।

इसी वजह से चीन सिर्फ एक व्यापारिक शक्ति नहीं बल्कि एक स्ट्रैटेजिक सुपरपावर बन चुका है, जो प्राकृतिक संसाधनों के दम पर वैश्विक निर्णयों को प्रभावित करता है, और अमेरिका जैसी ताकतवर अर्थव्यवस्था भी उस पर निर्भर होकर सीमित प्रतिक्रिया देने पर मजबूर होती है; वहीं दूसरी तरफ चीन अपने खनिज वर्चस्व के साथ बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव, अफ्रीकी निवेश, और एशिया में इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स के जरिए दूसरे देशों को भी अपने प्रभाव क्षेत्र में खींच रहा है, जिससे अमेरिका की वैश्विक पकड़ ढीली होती जा रही है, यही कारण है कि अमेरिका अब "चिप्स एक्ट", "फ्रेंडशोरिंग" और "रीशोरिंग" जैसी नीतियों के ज़रिए चीन पर निर्भरता कम करने की कोशिश कर रहा है, ताकि भविष्य में वो स्वतंत्र रूप से टैरिफ, प्रतिबंध और सुरक्षा फैसले ले सके — बिना किसी खनिज दबाव के डर के।

03/08/2025

Jeffrey Sachs , अमेरिका के एक विश्व प्रसिद्ध अर्थशास्त्री, लेखक और प्रोफेसर हैं।
उन्होंने डोनाल्ड ट्रंप की आर्थिक सोच और टैरिफ नीति की बुनियादी समझ पर करारा प्रहार किया है।

डोनाल्ड ट्रंप बार-बार यह दावा करते हैं कि —
"हमसे दशकों से धोखा हुआ है।
अमेरिका को दुनिया में सबसे ज़्यादा लूटा गया है।
हम 45 से 50 वर्षों से व्यापार घाटे में हैं।"

इस बयानबाज़ी पर प्रोफेसर Jeffrey Sachs ने बेहद तीखा और सटीक जवाब दिया —

"मान लीजिए आप अपने क्रेडिट कार्ड के साथ बाज़ार जाते हैं।
फिर खूब खरीदारी करते हैं।
और फिर जब बिल आता है तो वह बहुत ज़्यादा होता है।
तो क्या आप दुकानदारों पर आरोप लगाएंगे कि उन्होंने आपको लूट लिया?"

"अगर आप कहते हैं — ‘तुमने मुझे लूट लिया, मैं घाटे में चला गया’,
तो यह सोच उसी स्तर की है जिस पर अमेरिका के राष्ट्रपति व्यापार घाटे को समझते हैं।"

Jeffrey Sachs आगे समझाते हैं —

"व्यापार घाटा किसी देश की व्यापार नीति की असफलता नहीं दर्शाता।
यह इस बात को दर्शाता है कि वह देश अपनी कमाई से ज़्यादा खर्च कर रहा है।
यह अर्थशास्त्र का एक बुनियादी सिद्धांत है।
इसे अंतरराष्ट्रीय मौद्रिक अर्थशास्त्र (International Monetary Economics) की क्लास में
दूसरे दिन ही पढ़ाया जाता है।

लेकिन शायद ट्रंप कभी उस दूसरे दिन क्लास में पहुंचे ही नहीं!"

ट्रंप कहते हैं —
"देखो, हम व्यापार घाटे में हैं। सब लोग हमें लूट रहे हैं।"

जबकि सच ये है —
अमेरिका दुनिया को लूटता नहीं, बल्कि अपनी राष्ट्रीय आय से ज्यादा खर्च करता है।
वह ज्यादा उपभोग करता है, ज्यादा आयात करता है —
इसलिए व्यापार घाटा बढ़ता है।

कोई देश व्यापार घाटे में तब जाता है —
जब वह अपने संसाधनों से ज़्यादा उपभोग करता है,
न कि इसलिए कि बाकी दुनिया उसे ठग रही है।

ट्रंप की यह सोच अर्थशास्त्र की बुनियादी समझ का घोर अभाव दर्शाती है।
औरjeffrey Sachs ने इसे बेहद व्यंग्यात्मक, पर सटीक तरीके से उजागर किया है।

पिछले 10 वर्षों में भारतीय रुपया अमेरिकी डॉलर के मुकाबले लगातार कमजोर हुआ है। वर्ष 2015 में 1 डॉलर की कीमत ₹64.15 थी, जो...
03/08/2025

पिछले 10 वर्षों में भारतीय रुपया अमेरिकी डॉलर के मुकाबले लगातार कमजोर हुआ है। वर्ष 2015 में 1 डॉलर की कीमत ₹64.15 थी, जो 2025 तक बढ़कर ₹86.50 हो गई है। इस अवधि में रुपये की औसत वार्षिक गिरावट 3.34% रही है। बीच में कुछ साल जैसे 2017 और 2021 में रुपये ने थोड़ी मजबूती दिखाई, लेकिन कुल मिलाकर डॉलर के मुकाबले रुपया लगातार गिरा है। यह दर्शाता है कि भारत की मुद्रा की क्रय शक्ति में धीरे-धीरे गिरावट आई है।

समय के साथ भारत को विदेशों से सामान मंगवाने में अधिक पैसे खर्च करने पड़ते हैं क्योंकि डॉलर महंगा होता जा रहा है। इसका असर देश की अर्थव्यवस्था, महंगाई और आम आदमी की जेब पर भी पड़ता है। डॉलर के मुकाबले रुपये का कमजोर होना यह भी दिखाता है कि भारत को अपनी आर्थिक नीतियों, निर्यात को बढ़ावा देने और विदेशी निवेश आकर्षित करने पर और अधिक ध्यान देना होगा ताकि रुपया मजबूत हो सके और देश आत्मनिर्भर बन सके।

02/08/2025

ISRO का HOPE मिशन – मंगल जैसे वातावरण में मानव मिशन की तैयारी

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) ने HOPE मिशन की शुरुआत की है, जिसका पूरा नाम है – Himalayan Outpost for Planetary Exploration।

यह मिशन 1 अगस्त से 10 अगस्त 2025 तक त्सो कर, लद्दाख में आयोजित किया जा रहा है।
त्सो कर समुद्र तल से 4,530 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है, और इसे पृथ्वी के उन बेहद खास स्थानों में गिना जाता है, जो अपने वातावरण और भू-आकृतिक बनावट में मंगल ग्रह जैसे प्रतीत होते हैं।

HOPE मिशन का उद्देश्य:
अंतरिक्ष जैसी विषम और कठिन परिस्थितियों में मानव शरीर की प्रतिक्रिया को समझना।

अंतरिक्ष अभियानों के लिए आवश्यक प्रोटोकॉल और प्रक्रियाओं की जांच करना।

स्पेसफ्लाइट से जुड़ी तकनीकों और उपकरणों का परीक्षण करना।

यह मिशन ISRO की उस दीर्घकालिक योजना का हिस्सा है, जिसमें भारत को लो अर्थ ऑर्बिट (LEO) में मानव अंतरिक्षयात्रा के लिए तैयार किया जा रहा है।
साथ ही यह मिशन भविष्य में चंद्रमा और मंगल ग्रह तक मानव भेजने की दिशा में भी एक महत्वपूर्ण कदम है।

HOPE मिशन भारत के वैज्ञानिक और अंतरिक्षीय आत्मनिर्भरता को और मजबूत करता है, और यह दिखाता है कि ISRO अब केवल सैटेलाइट या रोवर मिशन तक सीमित नहीं, बल्कि मानव आधारित अंतरिक्ष अभियानों की ओर तेज़ी से अग्रसर है।

हम लोग जिसे 'ग़ोदी मीडिया' कहते हैं, वह अब सच दिखाने का माध्यम नहीं रहा।बड़े-बड़े उद्योगपति, राजनेता और ताकतवर लोग मीडिय...
02/08/2025

हम लोग जिसे 'ग़ोदी मीडिया' कहते हैं, वह अब सच दिखाने का माध्यम नहीं रहा।
बड़े-बड़े उद्योगपति, राजनेता और ताकतवर लोग मीडिया को या तो पैसे से खरीद लेते हैं या फिर दबाव बनाकर चुप करा देते हैं।
जो पत्रकार सवाल पूछते हैं, उन्हें डराया-धमकाया जाता है, उन पर केस कर दिए जाते हैं या उनकी नौकरी छीन ली जाती है।
कुछ मीडिया संस्थान डर के मारे सरकार या शक्तिशाली लोगों की सिर्फ तारीफ करने लगते हैं, चाहे जमीनी हकीकत कुछ और ही क्यों न हो।
और कुछ ऐसे भी पत्रकार होते हैं जो जानबूझकर पैसे के लिए बिक जाते हैं, उन्हें सच्चाई से कोई मतलब नहीं होता।
ऐसे मीडिया चैनल केवल एकतरफा खबरें दिखाते हैं, ताकि जनता को भ्रमित किया जा सके और असली मुद्दों से उनका ध्यान भटकाया जा सके।
वे गरीब, किसान, मजदूर, छात्रों की आवाज़ नहीं उठाते बल्कि अमीरों और सत्ता के पक्ष में खड़े हो जाते हैं।
आज मीडिया का एक बड़ा हिस्सा लोकतंत्र का चौथा स्तंभ न होकर सत्ता का प्रचारक बन गया है।
सच दिखाने वाले चंद पत्रकारों की आवाज़ दबा दी जाती है और झूठ फैलाने वाले मंचों को बढ़ावा दिया जाता है।
यह स्थिति बहुत खतरनाक है क्योंकि अगर मीडिया बिक जाएगा, तो जनता को कभी भी सच्चाई नहीं जानने दी जाएगी।
हमें जागरूक रहना होगा, सच्ची खबरों को पहचानना होगा और उन आवाज़ों का साथ देना होगा जो बिना डरे सच बोलने की हिम्मत रखते हैं

जब मीडिया सत्ता के आगे झुक जाता है, तब लोकतंत्र कमजोर होने लगता है।
जो सवाल पूछने चाहिए थे, वो गायब हो जाते हैं — जैसे बेरोज़गारी, महंगाई, शिक्षा, स्वास्थ्य और भ्रष्टाचार।
इसके बदले में हमें ऐसी खबरें परोसी जाती हैं जो असली मुद्दों से ध्यान भटकाती हैं — जैसे धर्म, जाति, सेलिब्रिटी विवाद या झूठे राष्ट्रवाद की बातें।
ग़ोदी मीडिया का असली मकसद होता है जनता को भावनाओं में उलझा देना ताकि वे सत्ता से कभी जवाब न मांग सकें।
जो मीडिया जनता की आवाज़ बनना चाहिए था, वही अब सत्ता का मुँहपैठिया बन गया है।
टीवी डिबेट अब जन-हित पर नहीं, बल्कि चीखने-चिल्लाने और नफरत फैलाने का मंच बन चुके हैं।
जो पत्रकार जनता के हक की बात करता है, उसे 'देशद्रोही' या 'विरोधी' करार दे दिया जाता है।
जनता को भ्रम में रखने के लिए झूठे सर्वे, नकली 'सकारात्मक' रिपोर्ट और फर्जी आंकड़े परोसे जाते हैं।
कुछ मीडिया संस्थान तो इतने बिक चुके हैं कि सरकार की हर बात को भगवान का आदेश मानते हैं, बिना सवाल उठाए।
लेकिन अभी भी कुछ ईमानदार पत्रकार हैं जो खतरों के बावजूद सच बोलते हैं, जिन्हें हमें सपोर्ट करना चाहिए।
जब तक जनता जागरूक नहीं होगी और सही मीडिया को नहीं पहचानेगी, तब तक ये खेल ऐसे ही चलता रहेगा।

आज हालात ये हो गए हैं कि जो मीडिया सत्ता से सवाल करता है, उसे देशद्रोही, टुकड़े-टुकड़े गैंग, या एजेंडा चलाने वाला बता दिया जाता है।
ऐसी एक साजिश चल रही है — सच्चे पत्रकारों को बदनाम करने की, ताकि जनता उन पर भरोसा करना छोड़ दे।
मीडिया का काम सवाल पूछना होता है, लेकिन आज वो सिर्फ जवाब दोहराने का काम कर रहा है — वही जो सरकार चाहती है।
पत्रकारिता कभी एक सम्मानजनक और जिम्मेदार पेशा था, पर अब वो कुछ चैनलों में टीआरपी और मुनाफे का साधन बन गया है।
जब मीडिया बिक जाता है, तो आम आदमी की आवाज़ खो जाती है, क्योंकि अब वो सिर्फ ताकतवर लोगों की बातें सुनता है।
ग़ोदी मीडिया गरीब की लाचारी नहीं दिखाता, किसानों की हालत नहीं दिखाता, बेरोजगार युवाओं की चिंता नहीं करता।
बल्कि वो ऐसे मुद्दे उछालता है जो समाज को बाँटते हैं — जैसे मंदिर-मस्जिद, धर्म, जाति, और कपड़ों पर राजनीति।
इस तरह की पत्रकारिता सिर्फ सत्ता को खुश करने का काम करती है, लेकिन जनता को अंधेरे में छोड़ देती है।
जो सच बोलते हैं, जो हक की लड़ाई लड़ते हैं, उनके खिलाफ आईटी सेल, ट्रोल्स, झूठे मुकदमे और धमकियाँ तैनात कर दी जाती हैं।
हमारे लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत – स्वतंत्र मीडिया – आज सबसे बड़ी कमजोरी बन गई है, क्योंकि वो आज़ाद नहीं रही।
जनता-
अब वक्त आ गया है कि जनता आँखें खोले और सवाल पूछना शुरू करे।
हर खबर को आँख बंद करके सच मानना बंद करना होगा — उसकी सच्चाई खुद जानने की आदत डालनी होगी।
सोशल मीडिया पर जो भी वायरल हो, उसे बिना जांचे-परखे शेयर करना देश और समाज के लिए नुकसानदायक है।
जनता को अब समझना होगा कि असली पत्रकार वही है जो सत्ता से सवाल करता है, न कि उसकी चापलूसी करता है।
हमें उन पत्रकारों को सपोर्ट करना होगा जो बिना डरे सच्चाई दिखा रहे हैं, चाहे वो डिजिटल मीडिया पर हों या ज़मीन पर।
फ्री और निष्पक्ष मीडिया को बचाने के लिए जनता को ही आगे आना होगा — उनकी आवाज़ ही असली ताकत है।
फेक न्यूज, हेट स्पीच और पक्षपातपूर्ण रिपोर्टिंग के खिलाफ एकजुट होकर आवाज़ उठानी होगी।
जनता चाहे तो सबसे बड़ी ताकत बन सकती है — लेकिन तब जब वो जागरूक, जिम्मेदार और निष्पक्ष सोच रखे।
हर नागरिक का फर्ज़ बनता है कि वो सच और झूठ में फर्क करे, और लोकतंत्र की रक्षा करे।
एक सशक्त समाज वहीं बनता है जहाँ मीडिया जवाबदेह हो, और जनता जागरूक हो।

ट्रंप द्वारा रूस की ओर परमाणु पनडुब्बियाँ भेजना केवल एक सैन्य कदम नहीं, बल्कि एक राजनीतिक चाल भी है। वह इस तरह की उकसाने...
02/08/2025

ट्रंप द्वारा रूस की ओर परमाणु पनडुब्बियाँ भेजना केवल एक सैन्य कदम नहीं, बल्कि एक राजनीतिक चाल भी है। वह इस तरह की उकसाने वाली हरकतें करके अमेरिका की जनता का ध्यान असली मुद्दों से भटका रहे हैं। देश में बढ़ती महंगाई, बेरोज़गारी, स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली और आर्थिक असमानता जैसे गंभीर मुद्दों पर जवाब देने के बजाय ट्रंप बार-बार अंतरराष्ट्रीय तनाव को हवा देते हैं।

कभी वह चीन के साथ ट्रेड वॉर छेड़ते हैं, कभी रूस को लेकर ज़ुबानी जंग करते हैं, और कभी टैरिफ डील के नाम पर भ्रम फैलाते हैं। लेकिन इन सबका सीधा असर अमेरिका की आम जनता पर पड़ता है — चीज़ें महंगी होती हैं, नौकरियाँ जाती हैं, और बाज़ार में अनिश्चितता फैलती है।

ट्रंप जानते हैं कि जनता की नाराज़गी से कैसे बचना है — वो डर और उकसावे की राजनीति खेलते हैं। रूस के साथ तनातनी, चीन को धमकी, भारत को तेल डील को लेकर घेरना — ये सब एक बड़ी स्क्रिप्ट का हिस्सा है, जिससे वो खुद को ताकतवर नेता दिखाकर वोट बटोर सकें।

पर सच्चाई ये है कि इस तरह की रणनीति से सिर्फ जनता का नुकसान हो रहा है, और ट्रंप का असली चेहरा सामने आ रहा है — एक ऐसा नेता जो अपनी सत्ता बचाने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है।

ट्रंप की राजनीति अब जनता के मुद्दों को हल करने की बजाय सिर्फ ध्यान भटकाने पर केंद्रित हो गई है। वो जानते हैं कि अगर लोग बेरोज़गारी, महंगाई, स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली और शिक्षा की गिरती स्थिति पर सवाल पूछेंगे, तो उनकी सच्चाई सामने आ जाएगी। इसलिए वो कभी रूस के साथ तनाव, कभी चीन पर दबाव, तो कभी भारत को निशाना बनाकर अंतरराष्ट्रीय मोर्चों पर मुद्दे खड़े करते हैं।

यह एक तरह की ‘डर की राजनीति’ है, जिसमें देश के अंदर की विफलताओं को छुपाने के लिए बाहर दुश्मन की तस्वीर गढ़ी जाती है। ट्रंप की यह रणनीति मीडिया का ध्यान भी मोड़ती है — चैनलों की सुर्खियाँ बनती हैं "न्यूक्लियर अलर्ट", "ट्रंप का बड़ा कदम", "रूस को चेतावनी", लेकिन कोई नहीं पूछता कि अमेरिका की सड़कों पर बेघर लोग क्यों बढ़ रहे हैं, स्कूलों में बजट क्यों कट रहा है, और दवाइयाँ इतनी महंगी क्यों हो गई हैं।

ट्रंप बार-बार अंतरराष्ट्रीय शक्ति प्रदर्शन की बात करते हैं, लेकिन उनका असली उद्देश्य केवल चुनावी फायदे और राजनीतिक छवि को मजबूत करना है। यह न सिर्फ अमेरिका के लोकतंत्र के लिए खतरनाक है, बल्कि दुनिया की शांति के लिए भी। क्योंकि अगर एक नेता अपनी सत्ता बचाने के लिए परमाणु ताकत का इस्तेमाल करने की धमकी देने लगे, तो उसका असर पूरी दुनिया पर पड़ेगा।

जनता को अब इस 'ध्यान भटकाओ नीति' को समझना होगा और असली मुद्दों पर सवाल करना होगा। वरना नेता अपनी कुर्सी बचाते रहेंगे, और आम लोग परेशानियों में डूबते रहेंगे।

30/07/2025

NISAR मिशन सफलतापूर्वक लॉन्च हो गया है।
यह NASA और ISRO के बीच का पहला साझा उपग्रह मिशन है, जो पृथ्वी की सतह की बारीकी से निगरानी करेगा।

📡 NISAR (NASA-ISRO Synthetic Aperture Radar)
यह उपग्रह सफलतापूर्वक लॉन्च कर दिया गया है और इसका उद्देश्य है —
🌍 धरती के भूस्खलन, हिमखंडों की गति, बाढ़, जंगलों की कटाई, और भूकंपीय गतिविधियों पर नजर रखना।

🚀 यह मिशन ISRO का अब तक का सबसे भारी रडार सैटेलाइट मिशन भी माना जा रहा है।

इसमें दो रडार सिस्टम हैं – L-बैंड (NASA द्वारा) और S-बैंड (ISRO द्वारा)

यह पृथ्वी की लगभग पूरी सतह को 12 दिनों के भीतर स्कैन कर सकता है।

🌱 इसका उपयोग जलवायु परिवर्तन, कृषि, आपदा प्रबंधन और पर्यावरणीय निगरानी जैसे कई महत्वपूर्ण क्षेत्रों में किया जाएगा।

जब डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति बने, तो उन्होंने जलवायु परिवर्तन (Climate Change) जैसी गंभीर वैश्विक समस्या को नज...
30/07/2025

जब डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति बने, तो उन्होंने जलवायु परिवर्तन (Climate Change) जैसी गंभीर वैश्विक समस्या को नज़रअंदाज़ कर दिया। उन्होंने न सिर्फ इसे "झूठ" या "धोखा" बताया, बल्कि इससे जुड़ी कई ज़रूरी नीतियों को भी खत्म कर दिया। सबसे चौंकाने वाला फैसला तब आया जब उन्होंने पेरिस जलवायु समझौते (Paris Climate Agreement) से अमेरिका को बाहर कर दिया — एक ऐसा समझौता जिसमें दुनिया के लगभग सभी देश शामिल थे ताकि ग्लोबल वार्मिंग को सीमित किया जा सके।

ट्रंप के इस कदम ने एक ऐसा संदेश दिया जैसे उन्होंने पृथ्वी की सुरक्षा और भविष्य को सीधे डस्टबिन (कूड़ेदान) में फेंक दिया हो।

उनका यह रवैया सिर्फ अमेरिका के लिए नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के लिए खतरे की घंटी था। क्योंकि जलवायु परिवर्तन कोई सीमाओं में बंधा मुद्दा नहीं है।
जब बर्फ पिघलती है तो समुद्र बढ़ते हैं — इससे न्यूयॉर्क हो या मुंबई, सब डूब सकते हैं।
जब जंगल जलते हैं, तो सिर्फ ब्राज़ील नहीं जलता — उसका धुआं पूरी धरती की हवा को ज़हरीला करता है।
जब तापमान बढ़ता है, तो सूखा अफ्रीका में हो या भारत में — असर पूरी सप्लाई चेन पर पड़ता है।

आज हम जिस धरती पर खड़े हैं, वह बार-बार चेतावनी दे रही है —

ग्लेशियर पिघल रहे हैं

समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है

बारिश का पैटर्न बिगड़ गया है

किसानों की फसलें बर्बाद हो रही हैं

हीटवेव और बाढ़ सामान्य हो गई हैं

और लाखों लोग विस्थापित हो रहे हैं

लेकिन इसके बावजूद दुनिया के कई ताकतवर नेता इसे अनदेखा कर रहे हैं — और इसी में ट्रंप जैसे नेता शामिल हैं, जिनकी नीतियां आने वाली पीढ़ियों के लिए खतरा बन सकती हैं।

अब यह सिर्फ एक देश की ज़िम्मेदारी नहीं है, बल्कि पूरे विश्व की साझा ज़िम्मेदारी है।

अब भी समय है —
🛑 धरती के साथ छेड़छाड़ बंद करो
♻️ प्रकृति को व्यापार का साधन नहीं, जीवन का आधार समझो
🌍 अगर अभी नहीं सुधरे, तो आने वाली पीढ़ियां हमें श्राप देंगी
🔥 हमने ही धरती को संकट में डाला है — और हमें ही इसे बचाना होगा

धरती को बचाना कोई "ऑप्शन" नहीं है — ये ज़रूरत है।
अब भी अगर हम नहीं संभले, तो इतिहास हमें माफ नहीं करेगा।
ट्रंप ने जो किया, वो एक चेतावनी है। अब हमें उसके उलट चलना होगा।

"प्रकृति बदले की भावना नहीं रखती, लेकिन उसका जवाब बहुत भयानक होता है।"
अब वक्त है चेतने का — एकजुट होने का — और पृथ्वी को बचाने का।

मेडिकल क्षेत्र में पहली बार, क्लीवलैंड क्लिनिक के सर्जनों ने एक अद्वितीय उपलब्धि हासिल की है — उन्होंने गर्दन में एक छोट...
30/07/2025

मेडिकल क्षेत्र में पहली बार, क्लीवलैंड क्लिनिक के सर्जनों ने एक अद्वितीय उपलब्धि हासिल की है — उन्होंने गर्दन में एक छोटी चीरा लगाकर हार्ट वाल्व को सफलतापूर्वक बदल दिया, जिससे छाती को काटने की कोई आवश्यकता नहीं पड़ी।

इस क्रांतिकारी प्रक्रिया का नेतृत्व डॉ. मारिजन कोप्रीवानाक ने किया, जिसमें रोबोटिक उपकरणों का उपयोग कर चार मरीजों पर ट्रांससर्विकल एओर्टिक वाल्व रिप्लेसमेंट किया गया। सभी मरीजों की रिकवरी तेज और दर्द लगभग नगण्य रही। एक मरीज तो सर्जरी के एक हफ्ते के भीतर ही दौड़ना शुरू कर दिया।

यह तकनीक रोबोटिक थाइमेक्टॉमी से प्रेरित है और इसमें केवल चार छोटे चीरे लगाए जाते हैं। यह पारंपरिक सर्जरी की तुलना में तेज़ रिकवरी, कम जोखिम और अधिक सटीकता प्रदान करती है।

अब डॉक्टरों की टीम का लक्ष्य है कि इस सर्जरी की अवधि को और कम किया जाए और इस प्रक्रिया को अन्य अस्पतालों में भी अपनाया जाए।

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