06/07/2025
पहाड़ का मौन विलाप
पहाड़... जहाँ सुबह की किरणें सबसे पहले धरती को चूमती हैं, जहाँ नदियाँ गीत गाती हैं, और हवा भी अपने संगीत में लिपटी रहती है। लेकिन उस खूबसूरत तस्वीर के पीछे एक सच्चाई है—संघर्ष। यहाँ हर सुबह सूरज के साथ नहीं, मेहनत के एक और दिन के साथ होती है। सुविधाएँ? जैसे किसी सपने में देखी चीज़ें हों—न के बराबर।
यहाँ के लोग 24 घंटे सिर्फ जीते नहीं, जूझते हैं। पानी के लिए मीलों चलना, लकड़ी के लिए जंगलों में भटकना, और खाने के लिए मिट्टी से सोना निकालने जैसी मेहनत करना। लेकिन यह सब करते हुए भी चेहरे पर शिकवा नहीं, बल्कि एक ठंडी मुस्कान होती है—शायद पहाड़ों से सीखी हुई।
लेकिन अब पहाड़ चुप हैं।
क्योंकि अब पहाड़ों में रहने वाला युवा अकेला होता जा रहा है।
अब लड़कियाँ जो कभी इसी मिट्टी की खुशबू में पली थीं, अब उस मिट्टी से भाग रही हैं।
"सुविधा"—अब ये शब्द प्यार, रिश्ते और समर्पण पर भारी पड़ रहा है।
> “पहाड़ का लड़का हो? रहने दो भाई... नौकरी शहर में नहीं है? रोड नहीं है? हॉस्पिटल दूर है? अच्छा इंटरनेट नहीं चलता? फिर कैसे चलेगा?”
आज की शिक्षित पीढ़ी ने आधुनिकता को आत्मसम्मान से जोड़ लिया है—जहाँ मेहनत शर्म की बात बन चुकी है, और संघर्ष पिछड़ापन।
और यही है वो मोड़, जहाँ पहाड़ों की कहानी करवट लेती है।
अब वो घर जहाँ पहले 7 लोग रहते थे, वहाँ अब सिर्फ एक बूढ़ी माँ बची है—जो हर शाम दरवाज़े की ओर देखती है, शायद उसका बेटा शहर से लौट आए।
वो खेत जो हर साल हरियाली से मुस्कुराते थे, अब सूखे पड़े हैं—क्योंकि हल चलाने वाला कोई नहीं।
वो लोकगीत जो पहाड़ी दुल्हनों की विदाई में गाए जाते थे, अब सिर्फ यूट्यूब पर सुनाई देते हैं।
आने वाले 20 सालों में शायद पहाड़ अब भी खड़े रहेंगे—but खाली।
न आवाज़ होगी, न संस्कृति, न जीवन।
केवल पत्थरों की एक लंबी खामोशी होगी, और कुछ अधूरी यादें।
क्या यही भविष्य है पहाड़ों का?
क्या आधुनिकता की दौड़ में हम अपनी जड़ें खो देंगे?
शहर की चकाचौंध में खोकर, क्या हम उस मिट्टी को भूल रहे हैं, जिसने हमें खड़ा किया?
अब वक्त है सोचने का।
कि क्या सुविधा ही सबकुछ है?
या पहाड़ जैसा सीधा, सरल, और संघर्षशील जीवन भी कुछ मायने रखता है?