
05/07/2025
Day-5 Tungnath Trek
सुबह नींद खुली, तो कमरे में एक सुकून था।
कल की वो पूरी थकावट, वो Scooty का बंद हो जाना, बारिश में भीगना, सुनसान रास्ता —
शरीर से निकल गया था…
पर मन में एक गहरा ठहराव रह गया था।
मैं बालकनी में आई,
नीचे Alaknanda नदी बह रही थी…
जैसे कोई पुराने ज़माने की धीमी लोरी सुना रहा हो।
बारिश अब भी हल्की थी —
पर मैं घबराई नहीं, बस शांत थी।
कल की रात ने मुझे सिखा दिया था कि
तू अकेली है… लेकिन कमजोर नहीं।
पर उस सुबह कुछ बदला हुआ था —
बाहर अब भी बारिश थी… लेकिन मन में डर नहीं था।
“क्या आज Tungnath जाऊं?”
ये सवाल नहीं था… ये पुकार थी।
शिव ने बुलाया था…
अब जाना ही था।
Scooty स्टार्ट की।
रास्ता लंबा था — 40 किलोमीटर से ज़्यादा,
और पहाड़ों पर हर किलोमीटर की अपनी जिद होती है।
Ukhimath पहुँची तो petrol भरवाया।
Tank full था फिर भी थोड़ा extra लिया…
शायद डर था कि कहीं रास्ता मुझे छोड़ न दे बीच में।
पहाड़ों में सिर्फ Tank नहीं,
‘हिम्मत’ भी एक्स्ट्रा भरनी पड़ती है।
Ukhimath के बाद ना कोई पेट्रोल पंप है ना ही कोई सिग्नल है ना ही बिजली है और ना ही कोई बाजार है सीधा चोपता में जाकर ही इंसान देखने को मिलते हैं।
Ukhimath के बाद जो रास्ता शुरू हुआ —
वो सड़क नहीं थी…
वो कोई परीक्षा-पत्र था जिसे मेरी आत्मा को हल करना था
जंगल ऐसे घने हो गए कि
दुनिया से कोई रिश्ता ही नहीं रहा।
ना network…
ना आवाज़…
ना इंसान…
बस बारिश में भीगी मैं… और वो पेड़ जो किसी मंदिर से कम नहीं लग रहे थे।
सड़कें बिल्कुल सुनसान थीं —
कभी लगता, कोई देख तो नहीं रहा…
कभी लगता, पूरा पहाड़ मुझे देख रहा है।
ना नेटवर्क, ना इंसान, ना आवाज़…
बस घना जंगल, मूसलधार बारिश… और अकेली मैं।
क्या मैं पागल थी? शायद।
पर इस दुनिया में सबसे खूबसूरत काम अक्सर पागल लोग ही करते हैं।
हर मोड़ जैसे डराता था…
और हर मोड़ जैसे पुकारता भी था।
मुझे याद है —
एक जगह Scooty धीरे चली,
सामने कुहासा ऐसा छाया कि 10 कदम तक कुछ दिख नहीं रहा था।
एक पल को लगा —
“Preeti, क्या ये रास्ता तुझे निगल जाएगा?”
पर अगले ही पल एक झरना सामने आया,
जो उस सन्नाटे को गीत बना रहा था।
मैं रुक गई।
भीगी हुई थी… ठिठुर रही थी…
पर मुस्कुरा रही थी।
Chopta पहुँची — और जैसे धरती ने मुझे थाम लिया।
चारों तरफ mist, गीली घास, कुछ दुकानें और Camp।
पर कोई हलचल नहीं…
बस पहाड़ अपनी पूरी गंभीरता में थे।
Raincoat फट चुका था —
तो नया लिया,
एक मजबूत लाठी भी —
क्योंकि आज की चढ़ाई सिर्फ ट्रेक नहीं,
एक लड़की का खुद से किया वादा था।
और फिर शुरू हुआ Tungnath का सफर…
पहला कदम रखते ही
बारिश ने थप्पड़ मारा चेहरे पर —
“तू आई है मुझसे लड़ने?”
मैं मुस्कुराई —
“नहीं बारिश…
मैं तो तेरे साथ चलने आई हूं।”
हवा बिलकुल सामने से टकरा रही थी।
हर मोड़ पर लगता —
“बस अब और नहीं…”
पर फिर एक 78 साल की अम्मा को देखा,
जो चुपचाप चढ़ रही थीं —
ना स्टिक, ना रेनकोट, बस विश्वास।
वो मुझे नहीं देख रही थीं…
पर मुझे ऐसा लगा जैसे शिव ने खुद मुझे दर्शन दे दिए हों।
चढ़ाई चल रही थी —
हवा अंदर तक घुस रही थी।
कपड़े भीग गए थे,
जूतों में पानी भरा था…
और ठंड ऐसी कि उंगलियाँ भी जिद छोड़ चुकी थीं।
पर रुकती नहीं थी मैं…
क्योंकि हर बार जब रुकती थी, सामने बादल मेरे नीचे होते थे।
हाँ, मैं बादलों के ऊपर थी…
खुदा की सीढ़ियों पर।
Tungnath मंदिर पहुँची…
मैंने कभी सोचा नहीं था कि एक दिन अकेले,
बारिश में भीगते हुए, कांपते पैरों के साथ
मैं खुद अपने दम पर उस जगह पहुंचूंगी।
वहाँ मुश्किल से 20-25 लोग ही थे।
आंखें बंद कीं… और ध्यान लगाया।
बारिश और आंसू दोनों बह रहे थे —
फर्क करना मुश्किल था।
ठंड से हाथ-पैर सुन्न हो गए थे —
पर मैं हिली नहीं।
फिर एक पल आया…
जब सब शांत हो गया।
कोई आवाज़ नहीं…
सिर्फ मेरे दिल की धड़कन… और भोले बाबा का स्पर्श।
तभी एक हाथ मेरे कंधे पर पड़ा।
पुजारी जी थे।
कहने लगे,
“बेटा, अंदर आकर बैठ जा, भीग जाएगी। ध्यान वहीं लगा।”
मैं कुछ नहीं बोली,
बस उठी और उनके पीछे चली।
उन्होंने नाम, गोत्र पूछा —
पूरी पूजा कराई…
और 20 मिनट तक मंदिर के अंदर बैठने दिया।
और फिर वो पल आया —
जहाँ मैं खुद से नहीं,
किसी और ही शक्ति से जुड़ गई थी।
मैं मंदिर के अंदर 20 मिनट तक बैठी रही —
ठंडी पत्थर की ज़मीन पर,
बारिश की आवाज़ कानों में…
और एक अजीब सी गर्माहट दिल में।
वो पल एक सपना नहीं था —
वो एक जवाब था।
Chandrashila जाना चाहा,
पर मौसम ने इजाज़त नहीं दी।
शिव ने कहा —
“बस बेटा, आज यहीं तक।
बाक़ी फिर कभी…”
वापसी में जो हुआ, वो किसी इनाम से कम नहीं था।
जैसे ही नीचे उतरना शुरू किया —
बारिश हल्की हुई,
बादल हटने लगे…
और अचानक…
सामने पूरा हिमालय दिख गया।
सफेद चादर में लिपटे हुए वो पहाड़ —
जैसे मेरी पूरी यात्रा का उत्तर बनकर सामने खड़े थे।
मैं रुक गई…
रोई नहीं…
पर अंदर कुछ पिघल गया।
उतरते वक़्त हवा साथ दे रही थी —
3 घंटे की चढ़ाई,
सिर्फ 40 मिनट में नीचे आ गई।
एक ढाबे पर गरम खाना खाया, चाय पी…
और फिर scooty लेकर वापस hotel के लिए निकल पड़ी।
“धन्यवाद भोले… मुझे बुलाया, गिराया… और फिर संभाल भी लिया।”
नीचे आने में वक्त नहीं लगा —
शरीर थक चुका था, पर मन उड़ रहा था।
Hotel पहुँची…
वही अपनापन,
फिर से गरम खाना,
जूते सुखाने की पेशकश…
रात को बिस्तर पर लेटी तो
बारिश की बूँदें अब डर नहीं बन रही थीं…
वो लोरी लग रही थीं।
और नींद…
आज ज़िंदगी की सबसे प्यारी नींद थी।
🌌 "वो Trek नहीं था…
वो शिव के दरबार तक
मेरे पैरों से किया गया एक प्रण था।"
जहाँ डर भीग गया,
और विश्वास खड़ा रह गया।
ये कोई ट्रैक नहीं था… ये एक साधना थी।
जिसमें शरीर थका,
मन टूटा,
पर आत्मा… जाग उठी।
"मैं वहाँ गई थी भगवान से मिलने,
पर लौटकर आई तो जाना —
सारा रास्ता भगवान मेरे साथ ही चल रहे थे।"
–Preeti
(जो अब सिर्फ ट्रैवलर नहीं,
खुद से मिलने निकली एक साधक है)
Kadian