
16/07/2025
🍂 हरियाली और खुशहाली का पर्व ‘हरेला’🍂
🌳‘हरेला’ पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं🌳
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लोकपर्व हरेला देवभूमि उत्तराखंड का एक प्रमुख त्यौहार है। श्रावण शुरू होने से नौ या दस दिन पहले घरों में जो हरेला बोया जाता है,उसे श्रावण मास की कर्क संक्रांति को काटा जाता है।भारतीय पंचांग के अनुसार,जब सूर्य मिथुन राशि से कर्क राशि में प्रवेश करता है,तो उसे कर्क संक्रांति कहते हैं। तिथि-क्षय या तिथि वृद्धि के कारण भी यह पर्व एक दिन आगे-पीछे हो जाता है।अंग्रेजी तारीख के अनुसार, यह त्यौहार हर वर्ष सोलह जुलाई को होता है।लेकिन किसी विशेष कारण से कभी-कभी इसमें एक दिन का अंतर हो जाता है।
प्रातःकाल से ही पूरे परिवार के लोग हरेला पर्व की तैयारी में लग जाते हैं।बड़े और बुजुर्ग लोग अपने से छोटे लोगों को आशीर्वाद देते हुए हरेला लगाते हैं। इस मौके पर माताएं और बुजुर्ग महिलाएं परिवारजनों को दीर्घायु,बुद्धिमान और शक्तिमान होने की शुभकामनाएं देती हैं और अपने पुत्र-पौत्रों को संघर्षपूर्ण जीवन-रण में ‘विजयी भव’ होने का आशीर्वाद देते हुए स्थानीय भाषा में कहती हैं-
“जी रये, जागि रये, तिष्टिये,पनपिये,
दुब जस हरी जड़ हो, ब्यर जस फइये,।
हिमाल में ह्यूं छन तक,
गंगज्यू में पांणि छन तक,
यो दिन और यो मास भेटनैं रये,
अगासाक चार उकाव,धरती चार चकाव है जये,
स्याव कस बुद्धि हो, स्यू जस पराण हो।”
अर्थात् “हरेला तुम्हारे लिए शुभ होवे, तुम जीवन पथ पर विजयी बनो, जागृत बने रहो, समृद्ध बनो, तरक्की करो, दूब घास की तरह तुम्हारी जड़ सदा हरी रहे, बेर के पेड़ की तरह तुम्हारा परिवार फूले और फले। जब तक कि हिमालय में बर्फ है, गंगा में पानी है, तब तक ये शुभ दिन, मास तुम्हारे जीवन में आते रहें। आकाश की तरह ऊंचे हो जाओ, धरती की तरह चौड़े बन जाओ, सियार की सी तुम्हारी बुद्धि होवे, शेर की तरह तुम में प्राणशक्ति हो”
-ये ही वे आशीर्वचन और दुआएं हैं जो हरेले के अवसर पर घर के बड़े बूढ़े व बजुर्ग महिलाएं बच्चों, युवाओं और बेटियों के सिर में हरेले की पीली पत्तियों को रखते हुए देती हैं।दूर प्रवास में रहने वाले परिजनों को भी वर्ष भर हरेले की इन पीली पत्तियों का इन्तजार रहता है कि कब चिट्ठी आए और कब वे हरेले की इन पत्तियों के रूप में अपने बुजुर्गों का शुभ आशीर्वाद शिरोधार्य कर सकें।
हरेला हो या फूलदेही या फिर घी संक्रांत हमें बरबस अपनी जड़ों को सींचने, उनमें खुशबू भरने के लोक पर्व हैं। इन्हें मनाने में हमको आनंद की अपार अनुभूति इसलिए होती है क्योंकि हम अपनी लोकसंस्कृति की गागर से अपनी जड़ों को पानी दे रहे होते हैं और हम स्वयं को तरो ताजा भी अनुभव कर रहे होते हैं वरना उपभोक्तावाद का जीवन जीते जीते हम एक दिन किसी भीड़ में खो जाएंगे। लोक संस्कृति हमारे हृदय में बसती है कस्तूरी की तरह वह हमारी सांसों और संस्कारों में रची बसी है। हम जहां भी रहें यह संस्कृति हमें ऊर्जा प्रदान करती है। हम लोक संस्कृति के गागर से अपनी जड़ों को सींचते रहेंगे तो उसी में अपार सुख है, जीवन का मधुमय रस है, मातृभूमि की गोद में बैठ कर वात्सल्य भाव पाने की जीवन शैली है।
हरेला उत्तराखंड का एक प्रमुख सांस्कृतिक त्योहार होने के साथ साथ यहां की परंपरागत कृषि से जुड़ा सामाजिक और कृषि वैज्ञानिक महोत्सव भी है। उत्तम खेती, हरियाली, धनधान्य, सुख -संपन्नता आदि से इस त्यौहार का घनिष्ठ सम्बंध रहा है। माना जाता है कि जिस घर में हरेले के पौधे जितने बड़े होते हैं, उसके खेतों में उस वर्ष उतनी ही अच्छी फसल होती है। हरेला उगाने के लिए पांच अथवा सात अनाज गेहूं, जौ, मक्का, सरसों, गौहत, कौंड़ी, धान और भट्ट आदि के बीज घर के भीतर छोटी टोकरियों अथवा लकड़ी के बक्सों में बोये जाते हैं, और प्रतिदिन नियमानुसार सुबह-शाम पूजा के बाद पानी दिया जाता है। धूप की रोशनी न मिलने के कारण ये अनाज के पौधे पीले हो जाते हैं।10वें दिन संक्रान्ति को हरेला काटा जाता है। घर के मन्दिरों और गृह द्वारों में सबसे पहले हरेला चढ़ाया जाता है और फिर घर के बड़े बूढ़े बुजुर्ग लोग बच्चों, युवाओं, पुत्र, पुत्रियों, नाती, पोतों के पांवों से छुआते हुए ऊपर की ओर शरीर पर स्पर्श कराते हुए हरेले की पत्तियों को शिर में चढ़ाते हैं तथा “जी रये, जागि रये, तिष्टिये, पनपिये” बोलते हुए आशीर्वाद देते हैं।
‘हरेला’ महोत्सव मात्र एक संक्राति नहीं बल्कि कृषि तथा वानिकी को प्रोत्साहित करने वाली हरित क्रान्ति का निरन्तर रूप से चलने वाला वार्षिक अभियान भी है जिस पर हमारी जीवनचर्या टिकी हुई है तथा उत्तराखंड राज्य की हरियाली और खुशहाली भी।इसलिए हरित क्रान्ति के इस अभियान पर विराम नहीं लगना चाहिए। हरेले का मातृ-प्रसाद हमें साल में एक बार संक्राति के दिन मिलता है परन्तु धरती माता की हरियाली पूरे साल भर चाहिए।यही कारण है कि उत्तराखंड कृषि प्रधान प्रदेश होने के कारण हमारे पूर्वजों ने साल में तीन बार हरेला बोने और काटने की परंपरा का सूत्रपात किया और सबसे पहले धान की खेती के आविष्कार का श्रेय भी इन्हीं उत्तराखंड के आर्य किसानों को मिला। हरेला उत्तराखंड के आर्य किसानों का पहाड़ी और पथरीली धरती में हरित क्रान्ति लाने की नव ऊर्जा भरने का लोकपर्व भी है। किसी जमाने में हरेला पर्व से ही आगामी साल भर के कृषि कार्यों का शुभारम्भ धरती पर हुआ करता था। सावन-भादो के पूरे दो महीने हमें प्रकृति माता ने इसलिए दिए हैं ताकि बंजर भूमि को भी उपजाऊ बना सकें, उसे शाक-सब्जी उगा कर हरा भरा रख सकें। धान की रोपाई और गोड़ाई के द्वारा इन बरसात के महीनों का सदुपयोग किया सकता है। समस्त उत्तराखंड आज जल संकट और पलायन की विभीषिका को झेल रहा है उसका कारण यह है कि परंपरागत खाल,तालाब आदि जलभंडारण के स्रोत सूख गए हैं उन्हें भी इन्हीं बरसात के मौसम में पुनर्जीवित किया जा सकता है।
आइए ! हरेले के इस पावन अवसर पर उत्तराखंड में हरित क्रांति के संदेश को जन जन तक पहुंचाएं और देवभूमि उत्तराखंड को खुशहाल और उपजाऊ बनाने में अपना योगदान दें। हरेले के इस पावन पर्व पर सभी देशवासियों और उत्तराखण्डवासियों को हार्दिक शुभकामनाएं।
“जी रया, जागि रया, तिष्टिया,पनपिया ” !!
-© डा.मोहन चन्द तिवारी 🌳🌳🌳