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 #समीक्षा बहुत देर तक वह समुद्र के उमड़ने और उतरने को देखा किया और उसकी अगाध रहस्यमयता को....इस पंक्ति से पुस्तक खत्म हो...
13/03/2022

#समीक्षा
बहुत देर तक वह समुद्र के उमड़ने और उतरने को देखा किया और उसकी अगाध रहस्यमयता को....

इस पंक्ति से पुस्तक खत्म होती है.....और शुरू होता है समुद्र में डुबकी लगाने का सिलसिला जिसमें ज्वार से पहले की शिथिलता भी होती है और ज्वार की भीषणता भी...

शेखर एक द्रोही है, द्रोही समाज का द्रोही स्वयं का...क्योंकि शेखर को पता है कि द्रोही होना ही एकमात्र उपाय है...एक मात्र विकल्प है....

जो स्वतंत्रता को जानता है या जानने की उत्सुकता रखता है...उसे द्रोही होना ही पड़ता है।

इस किताब में शेखर कहता है कि....

जिस प्रकार घोंघे के भीतर रहने वाला जीव तभी बाहर निकलता है, जब वह भूखा होता है या जब वह प्रणई खोजता है और तृप्त होकर फिर घोंघे के भीतर घुस जाता है, उसी प्रकार असंतुष्ट और अतृप्त होकर शेखर भी बाहर निकला हुआ था।

विद्रोह के बारे में वाह कहता है कि...

विद्रोह हृदय की एक विशेषता है कि वह अपने विकास में फैलते हुए इसीलिए विचारों को अपनाकर भी विद्रोही ही रह जाता है, क्योंकि वह अपने काल के अग्रणी लोगो ने भी आगे रहता है...

वह आगे कि....

एक आदर्श विद्रोही को उत्पन्न करके ही एक समूची शताब्दी... बल्कि एक समूची संस्कृति सफल हो जाती है...

शेखर में मानो आत्मशोधन की आग है...वह हर वक्त आत्मशोधन ही करता रहता है...

वह कहता है कि...

साहित्य का निर्माण मानों जीवित मृत्यु का आह्वान है। साहित्यकार को निर्माण करके और लाभ भी तो क्या, रचयिता होने का सुख भी नहीं मिलता, क्योंकि काम पूरा होते ही वह देखता है, कि अरे यह तो वह नहीं है जो मैं बनना चाहता था, वह मानों क्रियाशील का नारद ही है, उसे कहीं रुकना ही नहीं है उसे सर्वत्र भड़काना है, उभरना है, जलाना है, और कभी शांत नहीं होना है, कहीं रुकना नहीं है।

शेखर एक जीवनी पूरी किताब ही आत्मशोधन और आत्मअवलोकन पर चलती रहती है। जिसकी कहानी शेखर जो स्वयं अज्ञेय ही हैं के इर्द गिर्द कम भीतर ज्यादा गोते लगती है।

पुस्तक को जरूर पढ़ा जाना चाहिए...

पुस्तक -शेखर एक जीवनी (प्रथम भाग)
लेखक - अज्ञेय
पृष्ठ - २४०

अज्ञेय
Rajkamal Prakashan Samuh




"गोदान" हिंदी का पहला महाकाव्यात्मक उपन्यास है.और इसकी महाकाव्यात्मका का मूल कारण यही है कि इसमें प्रेमचंद ने 1936 के भा...
08/03/2022

"गोदान" हिंदी का पहला महाकाव्यात्मक उपन्यास है.और इसकी महाकाव्यात्मका का मूल कारण यही है कि इसमें प्रेमचंद ने 1936 के भारत में उपस्थित रहीं हर समाजिक राजनैतिक और आर्थिक समस्या को स्थान दिया है। कुछ समीक्षक तो यहां तक कहते हैं कि 'गोदान' एक महासागर है जिसमें प्रेमचंद की सभी पूर्वर्ती कहानियां और उपन्यास शामिल हो गए हैं। इसमें 'प्रतिज्ञा और 'निर्मला' की तरह वेमेल विवाह भी है। 'कर्मभूमि' और 'वरदान' की किसानों के शोषण के चित्र भी है और 'रंगभूमि' में वर्णित महाजनी ( पूंजीवादी ) सभ्यता भी अपने विकरालतम रुप में अवस्थित है। इसके साथ-साथ 'पूस की रात'. 'अलज्ञ ओझा'. और 'सद्गति' जैसे जैसी कहानियों में वर्णित समस्याएं भी गोदान के भीतर से झांकती है।
'गोदान' चरम यथार्थवादी उपन्यास है जिसमें प्रेमचंद की प्रकाश अभ्यस्त आंखें पहली बार अंधेरे को देखने का साहस कर रही है। होरी की त्रासद मृत्यु एक अर्थ में हिन्दी उपन्यास में यथार्थवाद का प्रस्थान बिंदु है। स्वभाविक है कि ऐसे उपन्यास में लेखक समस्याओं का समाधान कर देने की जिद्द नहीं ठानता। समस्याओं को गहरे अंधेरे में ही रचना को समाप्त करता है। प्रेमचंद जो पूर्ववर्ती उपन्यासों में आदर्शोन्मुख यथार्थवाद के रास्ते पर चल रहे थे। प्राय: अंतिम बिंदु पर आकर सामाधान ढूंढ लेते थे। 'गोदान' में समाधान इतनी सपाट नज़र से नहीं दिखते। हालांकि यह जरूर है कि कुछ गहराई में जाने पर सामाधान दिख जाते हैं।
होरी खाट पर पड़ा शायद सब देख रहा था समझ रहा था किन्तु जुबान बंद हो गई थी.! हां उसकी आंखों से बहते आंसू यह बतला रहे थे कि मोह का बंधन तोड़ना कितना कठिन हो रहा है। जो कुछ अपने से नहीं बन पड़ा उसी के दुःख का नाम तो मोह है। पाले हुए कर्त्तव्य और निपटाएं हुए कामों का क्या मोह? मोह तो उन अनाथों को छोड़ जाने में है जिनके साथ हम अपना कर्त्तव्य न निभा सकें। उन अधूरे मनसूबों में है जिन्हें हम न पूरा कर सकें। मगर सब कुछ समझकर भी धनिया आज की मिटती हुई छाया को पकड़े हुए थी। विपन्नता के आभाव सागर में सुहाग ही वह तृण था जिसे पकड़े वह पार कर रही थी। वह वह आधार जिसपर जीवन टिका हुआ था जैसे खिसका जा रहा था। आंखों से आंसू गिर रहे थे मगर यंत्र की भांति दौड़ दौड़कर कभी ये लाती कभी वो लाती..मगर क्या करें पैसे नहीं हैं वर्ना भेजकर किसी डॉक्टर को बुलाती.....!
गोदान - मुंशी प्रेमचंद






 #समीक्षा अक्सर लड़कियों को लडको के मुकाबले ज्यादा बेवफ़ा कहा जाता है। ये सच नही है लेकिन मैं बस इतना ही कहूंगी की एक लड...
08/03/2022

#समीक्षा
अक्सर लड़कियों को लडको के मुकाबले ज्यादा बेवफ़ा कहा जाता है।
ये सच नही है लेकिन मैं बस इतना ही कहूंगी की एक लड़की जब प्यार करने पर आती हैं तो वो किस हद तक किसी से प्यार निभाती है वो ये किताब पढ़ कर पता चला। जो लड़के कहते है लड़किया ही बेवफ़ा होती है उन्हे ये किताब जरूर पढ़ना चाहिए उनका नजरिया जरूर बदलेगा और लड़कियों के लिए तो ये मस्ट रीड बुक है। लेकिन ज्यादा उम्र के लोगो को शायद ये किताब पसंद ना आए लेकिन जो प्यार में है उन्हे ये कहानी कुछ हद तक हिला की की सच्चा प्यार किसे कहते है या अगर आपने किसी के प्यार किया है और आप उन्हे नही पा सके हो तो ये किताब आपके आंखो में आंखू एक बार नही कई बार ला देगी । यही इस किताब की खासियत है जो पाठकों को बाधे रखती है। एक बात बता दूं यह लव स्टोरी बुक है फिलोसॉफी और ज्ञान आपको नही मिलेगा जो आज कर के कहानियों में मिलता है।
प्रेम की कहानियां पढ़ने वालों के पाठकों के लिए ये मस्ट रीड बुक है। आशु दी का शुक्रिया जिन्होने इतनी प्यारी किताब गिफ्ट की।

कहानी शुरू होती है सुहाना नाम की सुंदर पात्र से जो इस कहानी की मुख्य कैरेक्टर भी है। कहानी में वो एक सुंदर गर्लफ्रेंड है, प्यारी बेटी है, कभी साथ ना छोड़ने वाली दोस्त है और मां है जो हर हाल में अपने बेटे समय को अपने से दूर नहीं जाने देना चाहती। और यही इस कहानी की सबसे ख़ास बात है। ये किताब आपको शुरू से लेकर अंत तक बाढ़ कर रखेगी। पहला पैराग्राफ ही आपको बता देगा की आपको ये किताब पढ़नी चाहिए या नहीं। सुहाना, कबीर, समय, काव्या इस कहानी के मुख्य है जिनका कैरेक्टर बहुत पसंद आया। लास्ट में बस इतना ही कहूंगी की हर लड़का समय जैसा हो और हर लड़की को समय मिले।
संतोष कुमार जी को किताब के सफलता के लिए शुभकामनाएं और बधाई उम्मीद है आगे भी ऐसी प्यार के कहानियां हमारे बीच लाते रहेंगे।






हाय - हाय करते हुए हाँ - हाँ करते हुए हैं - हैं करते हुए समुदाय एक हजार लोग ध्यानमग्न सुनते हुए एक अदद रिरियाता है सियार...
26/02/2022

हाय - हाय करते हुए हाँ - हाँ करते हुए हैं - हैं करते हुए समुदाय
एक हजार लोग ध्यानमग्न सुनते हुए
एक अदद रिरियाता है
सियार...

एक कहावत हुआ करती थी 'सत्य परेशान हो सकता है, किंतु पराजित नहीं'. अब हाल ये है कि 'अन्याय जिधर है उधर है शक्ति.'

श्रीलाल शुक्ल जी





अमृतलाल नागर, एक मशहूर साहित्यकार, जिन्हें मुंशी प्रेमचंद का साहित्यिक वारिस भी कहा जाता है कि एक रचना " भूख "       पढ़...
23/02/2022

अमृतलाल नागर, एक मशहूर साहित्यकार, जिन्हें मुंशी प्रेमचंद का साहित्यिक वारिस भी कहा जाता है कि एक रचना " भूख " पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
एक ऐसी रचना
जो आपको सोचने पर विवश कर देगी क्या हमारे अंदर के मानव में दानव अभी भी जीवित हैं।
यह रचना केंद्रित है 1943 के मानव निर्मित बंगाल दुर्भिक्ष पर जिसने पूरे तथाकथित सभ्य मानव समाज की बखिया उधेड़ कर रख दी है ।इस रचना को पढ़ते-पढ़ते मन में अचानक ही विचार आया यदि आज भी इस समाज को पूर्णत: बाजार के भरोसे छोड़ दिया जाए तो उस भयानक अकाल की स्थिति क्या आज भी उत्पन्न हो सकती है? भला हो हमारे नेतृत्व कर्ताओं का जिन्होंने प्रजातांत्रिक सरकार की नींव आजादी के समय रखी वरना क्या होता कोई नहीं जानता।
यह रचना दर्शाती है कि कैसे कुछ व्यक्ति आपदा में भी अवसर ढूंढ लेते हैं और इंसानियत को परे रखकर इंसानी मांस को भी पैसा बनाने की मशीन समझ लेते हैं। यही स्थिति तो हमने करोना काल में भी देखें कि कैसे लोगों ने तड़प तड़प कर अपनी जान दी और कुछ लोगों ने उससे बहुत पैसे कमाए। क्या सचमुच में हमने विकास किया है?
मध्यम वर्गीय वर्ग जो इस कालजई रचना में अपनी तथाकथित आबरू अर्थात इज्जत को लेकर चिंतित है आज भी तो सिर्फ अपने आपको ढकने के प्रयास में ही तो लगा हुआ है।
एक स्त्री की अनकही व्यथा जो वह पुरुष सत्तात्मक समाज में झेलती है आज भी कहां बदली है ।हमारा समाज उसे बदल पाया है क्या? चाहे इस रचना के पात्र पार्वती मां हो या शिबू की पत्नी पांचों की पत्नी मंगला हो या उसकी बहन तुलसी।
भूख चाहे वह पैसे की हो अथवा पेट के आदमी के सोचने समझने की शक्ति को छीन कर देती है आज भी तो हमारे आसपास मोनाई बनिए, दयाल जमींदार ,नूरुद्दीन तथा अजीमा जैसे लोग भरे पड़े हैं जिनके लिए आदमी आदमी नहीं बल्कि पैसे कमाने का पैसे बनाने का जरिया भर है। दो मुट्ठी चावल के लिए अपनी पत्नी बहन को इंसानी दरिंदों के सामने बेचने वाला इंसान आज भी इंसानियत की दुहाई दे रहा है ।
धर्म को लोग अपने पक्ष में कुकृत्य को सही ठहराने के लिए कैसे इस्तेमाल करते हैं आप इस रचना में भली-भांति देख सकते हैं समझ सकते हैं महसूस कर सकते हैं। शर्माती है इंसान की सोच पर जब मनाई बनिए को स्त्री के खरीद-फरोख्त में लाभ दिखता है उसे कोई देर नहीं लगती अपने कालाबाजारी के धंधे के साथ-साथ इस धंधे में उतर आने की।
अंत में यह कहा जा सकता है कि यह रचना आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी उस समय जब इसकी रचना की गई थी। यह रचना केवल कल्पना मात्र नहीं बल्कि ऐतिहासिक दस्तावेज है जिसका उपयोग शोधार्थियों के लिए आज के मनुष्य के मनो स्थिति तथा तत्कालीन समाज की मनो स्थिति में साम्यता स्थापित करने के लिए कर सकते हैं।
इस कालजयी रचना की कुछ पंक्तियां जो आपके मन मस्तिष्क को झंकृत करने में सक्षम है :-
#"जान है तो जहान है पेट भरे पर आबरू भी भली लगती है ।"
#"पार्वती मां खिसियानी हंसी हंसकर बोली -चाहे जो हो पर आबरू तो संभालनी ही पड़ती है ना, भगवान ने यही तो छोटे लोगों से हम लोगों में फर्क रखा है नहीं तो हम लोग भी उनकी तरह गली-गली गांव-गांव में भीख मांगते होते, लूटमार ना करते होते।





यह उपन्यास नहीं एक व्यथा है, उस व्यक्ति की जिसे अपने ही देश एवं  धर्म के लोगों ने जानवरों से भी अधिक भेदभाव किया। इस व्य...
20/02/2022

यह उपन्यास नहीं एक व्यथा है, उस व्यक्ति की जिसे अपने ही देश एवं धर्म के लोगों ने जानवरों से भी अधिक भेदभाव किया। इस व्यक्ति से सिर्फ इसलिए भेदभाव किया जाता है कि वह तथाकथित नीची जाति में पैदा हुआ है। उसे छूने से ही पानी दूषित जाता है । एक ऐसा समाज जो इन जातीय दंभता से नहीं निकल पाया है ,उसे अपने सभी डिग्रियों को आग में जला देनी चाहिए, वो डिग्री किस काम की जो तुमको इंसान का इंसान से सही दर्जा देना न दिला सकें। सरकार को भी उन लोगों को शिक्षा एवम सरकारी नौंकरी पर रोक लगा देनी चाहिए ,जो जातिय अहंकार से ग्रस्त होकर जातीयता के जहालत से नहीं निकल पा रहे हैं।
इस किताब के कुछ अंश है
अस्पृश्यता का ऐसा माहौल की कुत्ते बिल्ली, गाय भैंस को छूना बुरा नहीं था लेकिन यदि दलित का स्पर्श हो जाए तो पाप लग जाता था। सामाजिक स्तर पर इंसानी दर्जा नहीं था। वे सिर्फ जरूरत की वस्तु थे। काम पूरा होते ही उपयोग खत्म। इस्तेमाल करो, दूर फेको।
सरकारी स्कूलों के द्वार अछूतों के लिए खुलने शुरू तो हो गए थे, लेकिन जनसामान्य की मानसिकता में कोई विशेष बदलाव नहीं आया था।
साफ-सुथरे कपड़े पहनकर कक्षा में जाओ तो साथ के लड़के करते "अबे चुुहड़े, का नए कपड़े पहन कर आया है। "मैल पुराने कपड़े पहन कर स्कूल जाओ तो कहते, "अबे चुहडो़ के, दूर हटा बदबू आ रही है" अजीब हालात थे। दोनों ही स्थितियों में अपमानित होना पड़ता था ।
ऐसी गालियां दी जाती थी जिन्हें यदि शब्दबद्ध कर दो तो हिंदी की अभिजात्यता पर धब्बा लग जाएगा।
गरीबी और अभाव से किसी तरह निपटा जा सकता है जाति से पार पाना उतना ही कठिन है।
मन में एक उबाल सा उठता था जो कहना चाहता था, मैं हिंदू भी तो नहीं हूं। यदि हिंदू होता तो हिंदू मुझसे इतनी घृणा, इतना भेदभाव क्यो करते? बात बात पर जातीय बोध की हीनता से मुझे क्यों भरते? मन में यह भी आता था कि अच्छा इंसान बनने के लिए जरूरी क्यों है कि वह हिंदू ही हो हिंदू की क्रूरता बचपन से देखा है , सहन की हैं।जातिय श्रेष्ठता भाव अभिमान बनकर कमजोर को ही क्यों मारता है? क्यों दलितों के प्रति हिंदू इतना निर्मम और क्रूर है?
इस पीड़ा का एहसास उन्हे कैसे होगा जिन्होंने घृणा और द्वेष की बारीक सुईयो का दर्द अपनी त्वचा पर कभी महसूस नहीं किया ?अपमान जिन्हे भोगना नहीं पड़ा? वे अपमान बोध को कैसे जान पाएंगे ?कभी-कभी लगता है जैसे क्रूर और आदिम सभ्यता में सास लेकर पले बढ़े हैं
मुझे लगा गणित में मास्टर की डिग्री लेकर भी यह मास्टर कितना बौना है जिसमें इतना साहस भी नहीं है कि मेरे हाथ से पानी पी सके।
अतीत गौरवगान के बजाय जनसामान्य के दुख दर्द को अपने लेखन में उतारना ज्यादा सार्थक लगा।
अब कुछ सहजता से लेता हूं। क्योंकि यह एक सामाजिक रोग हैं जो मुझे झेलना पड़ रहा है। जाति ही जहां मान सम्मान और योग्यता का आधार हो, सामाजिक श्रेष्ठता के लिए महत्वपूर्ण कारक हो ,वहां यह लड़ाई एक दिन में नहीं लडी जा सकती हैं। लगातार विरोध और संघर्ष की चेतना चाहिए जो मात्र बाह्य ही नहीं, आंतरिक परिवर्तनगामी भी हो जो ,सामाजिक बदलाव को दिशा दे।
ज्ञान की बड़ी-बड़ी बातें कहेंगे। लेकिन इस सच्चाई को स्वीकार नहीं करेंगे कि आदमी को जन्म के आधार पर मानवीय मूल्यों से वंचित रखना किसी भी तरह न्यायसंगत नहीं है। स्वर्णों के मन में कई प्रकार के पूर्वग्रह हैं जो आपसी संबंधों को सहज नहीं होने देते हैं।
भारतीय समाज में जाति एक महत्वपूर्ण घटक है जाति पैदा होते ही व्यक्ति की नियति तय कर देती हैं। पैदा होना व्यक्ति के अधिकार में नहीं होता। यदि होता तो मैं भंगी के घर क्यों पैदा होता? जो स्वयं को इस देश की महान सांस्कृतिक धरोहर के तथाकथित अलमबरदार कहते हैं ,क्या वे अपनी मर्जी से उन घरों में पैदा हुए हैं?
पेड़-पौधों ,पशु-पक्षियों को पूजने वाला हिंदू दलितों के प्रति इतना असहिष्णु क्यों है ?
अधिकारी होने अथवा आर्थिक रूप से सबल होने पर भी व्यक्ति की जातिगत श्रेणी समाज में उसके सम्मान और स्टेट्स का निर्धारण करती हैं, इस सत्य को वाल्मीकि जी ने उजागर करके जातिवादी मानसिकता ढ़ोते हुए समाज को बेनकाब कर दिया।दलित विमर्श वाल्मीकि जी के बिना अधूरा हैं।



प्रेमचंद घर में -पुस्तक के लिखने में मैंने केवल एक बात का अधिक से अधिक ध्यान रखा है और वह है ईमानदारी, सचाई । घटनाएँ जैस...
18/02/2022

प्रेमचंद घर में -पुस्तक के लिखने में मैंने केवल एक बात का अधिक से अधिक ध्यान रखा है और वह है ईमानदारी, सचाई । घटनाएँ जैसे–जैसे याद आती गयी हैं, मैं उन्हें लिखती गयी हूँ । उन्हें सजाने का मुझे न तो अवकाश था और न साहस । इसलिए हो सकता है कहीं–कहीं पहले की घटनाएँ बाद में और बाद की घटनाएँ पहले आ गयी हों । यह भी हो सकता है कि अनजाने ही में मैंने किसी घटना का जि’क्र बार–बार कर दिया हो । ऐसी भूलों को पाठक क्षमा करेंगे । साहित्यिकता के भूखे पाठकों को सम्भव है इस पुस्तक से कुछ निराशा हो क्योंकि साहित्यिकता मेरे अन्दर ही नहीं है । पर मेरी ईमानदारी उनके दिल के अन्दर घर करेगी, यह मैं जानती हूँय क्योंकि मैंने किसी बात को बढ़ाकर कहने की कोशिश नहीं है गोकि तीस साल से ऊपर तक जि’न्दगी के हर दु:ख और सुख में उनकी साथी होने के नाते मैं जानती हूँ कि अगर उनके गुणों का बखान करने में मैं तिल का ताड़ भी बनाती, तो भी उनके चरित्र की विशालता का पूरा परिचय न मिल पाता । पर मैंने तो सभी बातें, बगैर अपनी तरफ’ से कुछ भी मिलाये, ज्यों की त्यों कह दी हैं ।
मूल्य-275
प्रकाशन: Nayee Kitab prakashan

कौमुदी- शिवरानी देवी की यह कहानियाँ सरस्वती प्रेस, बनारस से 1937 में छपी थीं । उनको प्रकाशित हुए अस्सी साल से ऊपर हो गये हैं । इनका फिर से छप जाना अब आवश्यक लग रहा है । साहित्य एक ऐतिहासिक परिवेश में लिखा जाता है । 1920 और 1930 के दशक की सामाजिक उथल पुथल में प्रेमचंद और उनकी पत्नी ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी । जिन राजनीतिक साहित्यिक कामों में प्रेमचंद मुबतिला थे, उनमें शिवरानी देवी भी उनके साथ थीं । वे दोनों सामाजिक बदलाव के कर्ता भी रहे और उसकी विषय–वस्तु भी । जहाँ समाज उन्हें गढ़ रहा था, वे खुद समाज को गढ़ रहे थे । उनके जीवन में निजी और राजनीतिक एक हो गये थे । स्वतन्त्रता के लम्बे संघर्ष के दौरान शिवरानी देवी ने लखनऊ स्थित महिला आश्रम में काम किया और अपनी अगुवाई में 1929 में गांधीजी से प्रभावित होकर छप्पन औरतों को विदेशी कपड़े के खिलाफ धरने में ले गयीं । महिला आश्रम की जन सभा में 12000 लोगों के सामने उन्होंने ज़ोरदार भाषण दिया और अपनी राजनीतिक गतिविधियों के कारण कई बार जेल भी गयीं । बल्कि कमज़ोर सेहत वाले अपने पति के बजाये वह खुद जेल जाना पसंद करती थीं ।
मूल्य-160
प्रकाशन: नयी किताब प्रकाशन

नारी-विमर्श की प्रखर चिन्तक और उपन्यासकार प्रभा खेतान का यह चर्चित उपन्यास स्त्री के शोषण, उत्पीड़न और संघर्ष का जीवन्त ...
17/02/2022

नारी-विमर्श की प्रखर चिन्तक और उपन्यासकार प्रभा खेतान का यह चर्चित उपन्यास स्त्री के शोषण, उत्पीड़न और संघर्ष का जीवन्त दस्तावेज है। सम्पन्न मारवाड़ी समाज की पृष्ठभूमि में रची गई इस औपन्यासिक कृति की नायिका प्रिया परत-दर-परत स्त्री-जीवन के उन पक्षों को उघाड़ती चलती है जिनको पुरुष समाज औरत की स्वाभाविक नियति मानता रहा है और इस प्रक्रिया में वह हमें स्त्री की युगों-युगों से संचित पीड़ा से रू-ब-रू कराती है।
Rajkamal Prakashan Samuh



पत्रकार प्रदीप सौरभ जी का नया उपन्यास "ब्लाइंड स्ट्रीट" दृष्टिबंधियों को फोकस में रखाकर लिखा है। इसमें किसी एक दृष्टिबंध...
16/02/2022

पत्रकार प्रदीप सौरभ जी का नया उपन्यास "ब्लाइंड स्ट्रीट" दृष्टिबंधियों को फोकस में रखाकर लिखा है। इसमें किसी एक दृष्टिबंधित की जीवनी नही है, बल्कि इसमें कई नायक या नायिकाएं है। लेखक ने इस उपन्यास के जरिए यह संदेश दिया है कि दृष्टिबंधित न तो दया के पात्र है और न ही उपेक्षा के। वे सम्मान चाहते है, बराबरी चाहते है। उन्हें कोई दीन–हीन न समझे, यह कतई मंजूर नहीं है। दृष्टिहीनो में ऐंद्रीय शक्तियां ज्यादा होती है, और याददाश्त कमाल की।

लेखक प्रदीप सौरभ
मूल्य 250 रूपये
पेज 192
प्रकाशन Nayee Kitab prakashan


16/02/2022

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