04/12/2025
तलाक़ के दिन पति ने ताना मारा: "तुम जैसी औरत को तो अब सड़क पर कोई देखेगा भी नहीं," और 5 मिनट बाद सामने का मंज़र देखकर वह दंग रह गया...
जज (न्यायाधीश) के हथौड़े की कठोर आवाज़ पूरे कोर्ट रूम में गूँज उठी। "आप दोनों अब आधिकारिक तौर पर पति-पत्नी नहीं रहे।"
रीमा ने एक गहरी साँस ली, अपनी लगभग फटने वाली छाती को दबाने की कोशिश की। दस साल। दस साल की जवानी, दस साल का बलिदान, दस साल तक अजय के पितृसत्तात्मक और अपमानजनक व्यवहार को सहना, आखिरकार एक ठंडे फ़ैसले के साथ ख़त्म हो गया। उनका पाँच साल का बेटा, बिट्टू, अपनी माँ का हाथ कसकर पकड़े हुए था। वह सब कुछ समझने के लिए बहुत छोटा था, लेकिन वह तनाव महसूस कर रहा था।
अजय खड़ा हुआ, उसने कंधों को ऐसे फैलाया जैसे उसके ऊपर से कोई बोझ उतर गया हो। उसने अपनी पूर्व पत्नी – रीमा – पर एक नज़र डाली, जो एक फीके, पुराने कपड़े और बेरंग पर्स लिए खड़ी थी। उसे घर मिल गया था। उसे बच्चे के गुज़ारे के लिए बस थोड़ी-सी रक़म देनी थी। वह जीत गया था।
कोर्ट रूम से बाहर निकलते हुए, अजय कुछ कदम आगे चला, फिर अचानक रुक गया। वह पलटा, रीमा को घृणा की दृष्टि से देखा, और अपने होंठों को टेढ़ा करके मुस्कुराया। "सच कहूँ," उसने दाँतों के बीच से कहा। "मुझे तुम्हारे लिए ख़ुशी भी है। लेकिन अफ़सोस भी होता है। तुम जैसी औरत, जो अब बूढ़ी हो चुकी है, गाँव की लगती है, और घिस चुकी है, उसे अब सड़क पर खड़ा होने पर कोई देखेगा भी नहीं।"
शब्दों का यह थप्पड़ हज़ारों शारीरिक थप्पड़ों से भी ज़्यादा दर्दनाक था। रीमा का चेहरा पीला पड़ गया। उसने तुरंत अपने बेटे को गले लगा लिया, मानो उसे उसके पिता के विषैले शब्दों से बचाना चाहती हो। उसने कुछ नहीं कहा, बस अपने होंठों को तब तक भींच लिया जब तक खून नहीं निकल आया, और तेज़ी से कोर्ट के गेट की ओर बढ़ने लगी।
अजय उसके पीछे ज़ोर से हँसा। उसने अपने हाथ पतलून की जेबों में डाले, सीटी बजाई, और अपनी पूर्ण जीत का आनंद लिया। वह अब आज़ाद था, और उसने उस औरत को, जिसे वह कभी अपनी पत्नी कहता था, गंदगी के दलदल में धकेल दिया था।
रीमा ने कोर्ट का भारी लोहे का गेट धकेला। चिलचिलाती धूप ने उसे अंधा कर दिया। पाँच मिनट। उसके यह कहने के बाद सिर्फ़ पाँच मिनट बीते थे। ये पाँच मिनट उसे ऐसे लगे जैसे वह अभी-अभी नर्क से गुज़री हो। वह और उसका बेटा सड़क के किनारे बेसहारा खड़े थे, उन्हें नहीं पता था कि कहाँ जाएँ।
ठीक उसी क्षण, एक चमचमाती, शानदार काली मर्सिडीज एस-क्लास धीरे-धीरे पास आई और उन दोनों के ठीक सामने आकर रुक गई...
मर्सिडीज के शीशे एक पल को काले आईने जैसे रहे—फिर धीरे-धीरे नीचे उतरने लगे। धूप की धार ने अंदर बैठे चेहरे को रोशन किया, और रीमा की साँस थम गई।
गाड़ी में बैठा आदमी कोई और नहीं… कबीर शर्मा था।
वही कबीर, जिसे उसने कॉलेज में ट्यूशन पढ़ाया था। वही लड़का, जो हमेशा कहता था—“दीदी, एक दिन मैं बहुत बड़ा आदमी बनूँगा, और आपको गर्व करवाऊँगा।”
दस साल पहले कबीर एक साधारण, दुबला-पतला, सादा-सा लड़का था। आज वह भारत की सबसे तेजी से बढ़ती टेक कंपनी का फाउंडर था—सूखे पेड़ पर लगा अनोखा फल जैसा बदलाव।
कबीर ने मुस्कुराते हुए दरवाज़ा खोला।
“दीदी…? आप?”
उसकी आवाज़ में वही पुरानी गर्माहट थी, कोई दिखावा नहीं।
रीमा की आँखें भर आईं।
“क…कबीर?”
कबीर गाड़ी से उतरा, बिना एक सेकंड गंवाए उसने रीमा का बैग पकड़ा, और बिट्टू के सामने घुटनों पर बैठ गया।
“तुम बिट्टू हो? चलो, आइस-क्रीम खिलाते हैं। तुम्हारी मम्मी मेरी हीरो है।”
सड़क के दूसरी तरफ, अजय अभी भी वहीं खड़ा था—हाथ बाँधे, होंठ टेढ़े, अपनी ही जहरीली जीत में डूबा हुआ।
पर जैसे ही उसने रीमा को कबीर के साथ देखा, उसका चेहरा ऐसे बदल गया जैसे किसी ने उसकी रगों में ठंडा पानी उंडेल दिया हो।
कबीर शर्मा कोई नाम नहीं था—एक ब्रांड था, एक प्रभाव था, और सबसे बढ़कर, अजय के सपनों का असंभव स्तर।
अजय अविश्वास में कुछ कदम आगे बढ़ा।
“रीमा, यह… यह कौन है?”
कबीर ने उसकी ओर देखा, शांत लेकिन धारदार नज़र।
“मैं वो हूँ जिसे इस औरत की क़ीमत समझने के लिए किसी कोर्ट की मुहर की ज़रूरत नहीं है।”
अजय का गला सूख गया।
“तुम… तुम कबीर शर्मा हो?”
कबीर ने सिर हिलाया, और उसी नरम लहजे में बोला जिसमें कभी रीमा को ‘दीदी’ कहकर सम्मान दिया था—
“हाँ। और तुम वो आदमी हो, जिसने दुनिया की सबसे मजबूत औरत को तोड़ने की कोशिश की। लेकिन क्या पता था… टूटकर भी वह हीरा ही निकलेगी।”
रीमा के पैरों में जैसे नई जान लौट आई।
वो खड़ी रही, मगर इस बार भीगी हुई पत्ती की तरह नहीं—बल्कि किसी तूफ़ान से बचकर निकले पेड़ की तरह।
कबीर ने कहा,
“दीदी, चलिए। यह शहर बड़ा है, और आपका नया जीवन… इससे भी बड़ा।”
रीमा ने पहली बार अजय की ओर देखा।
वही आदमी, जो पाँच मिनट पहले कह रहा था कि उसे सड़क पर कोई नहीं देखेगा—आज उसी सड़क पर खड़ा था, और उसे देखने वाले ही नहीं, पहचानने वाले भी मिल गए थे।
अजय ने चीखकर कहा,
“रीमा, तुम इसका फायदा उठा रही हो! तुम—”
रीमा ने हल्की, स्थिर आवाज़ में जवाब दिया,
“नहीं अजय। मैं बस अपनी इज़्ज़त वहीं ले रही हूँ, जहाँ उसकी क़ीमत समझी जाती है।”
कबीर ने रीमा और बिट्टू को कार में बैठाया। दरवाज़ा धीरे से बंद हुआ, और मर्सिडीज की इंजन की गहरी आवाज़ सड़क पर फैल गई।
गाड़ी आगे बढ़ी—रीमा की पुरानी ज़िंदगी को पीछे छोड़ते हुए।
और अजय?
वह धूप में अकेला खड़ा रह गया, उसी सड़क पर…
जहाँ उसने कहा था कि रीमा को कोई नहीं देखेगा।
विडंबना यह थी—
आज हर कोई उसी को देख रहा था।
कहानी यहीं खत्म नहीं होती—यह तो बस रीमा की नई शुरुआत थी।