06/08/2025
पुण्यपथी: सेवा, शिक्षा और संस्कार का समर्पित महाकाव्य।
डॉ. गोरख प्रसाद मस्ताना रचित “पुण्यपथी” एक समकालीन हिंदी महाकाव्य है
काव्य केवल शब्दों का सौंदर्य नहीं है, यह हृदय की भावनाओं का दर्पण है। जब हम कविता पढ़ते या सुनते हैं, तो वह हमारे मन में विचारों की एक नई लहर पैदा करती है। काव्य मानव हृदय में संवेदनशीलता, करुणा, प्रेम, त्याग और सत्य के प्रति जागरूकता उत्पन्न करता है। यह जीवन के दुख-सुख, संघर्ष और आशाओं को एक सुंदर अभिव्यक्ति देता है।
काव्य मनुष्य को भावनात्मक रूप से सशक्त बनाता है और जीवन के कठिन समय में संबल प्रदान करता है। वह विचारों को परिष्कृत कर व्यक्तित्व निर्माण में भी सहायक होता है।
डॉ. गोरख प्रसाद मस्ताना रचित “पुण्यपथी” एक समकालीन हिंदी महाकाव्य है जो नायक श्रवण कुमार के जीवन-संघर्ष और सेवा-धर्म पर आधारित है। यह महाकाव्य आदर्श जीवन मूल्यों, भारतीय सांस्कृतिक चेतना और नैतिक उत्तरदायित्व का सशक्त आख्यान है।
महाकाव्य का उद्देश्य केवल एक चरित्र चित्रण नहीं है, बल्कि एक संपूर्ण युग का वैचारिक निर्माण करना है। जोअन कुमार एक सामान्य बालक से आरंभ कर, शिक्षा, सेवा और त्याग की प्रक्रिया से गुजरता है और अंततः समाज के लिए पथप्रदर्शक बनता है। उसकी यात्रा केवल व्यक्तिगत नहीं, बल्कि सामाजिक और आध्यात्मिक है।
“पुण्यपथी” कुल 9 सर्गों में विभक्त है – जिनमें श्रवण का जन्म, शिक्षा, संघर्ष, धर्मयात्रा और समर्पण वर्णित है। इन सर्गों के माध्यम से कवि जीवन के बहुआयामी पक्षों को स्पर्श करता है: जैसे – शिक्षा की भूमिका, सामाजिक विषमता, जातिगत भेदभाव, नैतिक पतन, स्त्री की स्थिति, युवा पीढ़ी की दिशाहीनता आदि।
महाकाव्य का विशेष बल “शिक्षा” पर है। इसमें बताया गया है कि शिक्षा केवल ज्ञान का माध्यम नहीं, बल्कि समाज परिवर्तन का अस्त्र है। श्रवण की माँ और पिता उसे सेवा, समर्पण और कर्तव्य का पाठ पढ़ाते हैं। वह शिक्षक बनता है और अपनी साधना से नई पीढ़ी को दिशा देता है। कवि स्पष्ट करता है कि शिक्षा किसी लिंग की नहीं, समूचे मानवता की धरोहर है।
महाकाव्य की भाषा संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली है, जिसमें छायावादी भाव, प्रगतिशील दृष्टि और अध्यात्मिक चेतना का अद्भुत संगम है। पात्र प्रतीक बन जाते हैं – श्रवण सेवा का, उसकी माँ संस्कार का, और पिता शिक्षा धर्म का प्रतीक बनती है।
यह महाकाव्य आधुनिक समय की चुनौतियों के बीच आदर्श जीवन का मार्ग सुझाता है। यह बताता है कि आज के युग में भी “पुण्य” का “पथ” संभव है – बशर्ते व्यक्ति दृढ़ इच्छाशक्ति, सेवा और समर्पण के साथ आगे बढ़े।
निष्कर्षतः, “पुण्यपथी” केवल एक साहित्यिक रचना नहीं, बल्कि एक धर्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक आंदोलन है – जो आज के युवा, शिक्षक, समाजसेवी और चिंतनशील नागरिक के लिए प्रेरणा का स्रोत है।
धनंजय सिंह