26/07/2025
ये ‘लंगड़ा’ है। बनारस से आया है। वंदे भारत से। ‘टपका’ है, राय साहब के बगीचे का। वैसे भी ‘बनारसी लंगड़े’ की बात ही निराली है। सुस्वादु, इतना कि पूछिए ही मत। जीभ को ही नहीं अंतस्तल को भी रससिक्त कर देता है। सराबोर भी। ‘अथ् परमानंदम्’ की अनुभूति होती है। किसी प्राचीन स्मृति के गहरे कूप में डुबो देता है, ये। मानो यह स्वाद न हो, किसी भूली-बिसरी संस्कृति का साक्षात्कार हो। यादों की ‘टाइम-मशीन’ में बैठ आप चहुँप जाते हैं, अपने गाँव-घर के बगीचे में। उन दिनों में, जब आम का बियाह, महुआ से होता था। धूम-धाम से। पर, अब वह अमराई नहीं रही। न वे आम के ‘पुरनिया’ पेड़ रहे, न बुढ़वा महुआ की गंध। अब उन अमराइयों के अवशेष भी नहीं दिखते। घनी बारी, महुआबारी, बड़की बारी, छोटकी बारी सब कट गई। बाग उजड़ गए। बगीचे खत्म। खेतों की मेढ़ बंध गई है। कहीं-कहीं पक्के मकान भी उग आये हैं। कहीं-कहीं पूरी कॉलोनी भी। हमारे देवरिया में रमा बाबू का बड़ा बगीचा था। सैकड़ों पेड़। अब कट गए हैं। मैरेज हॉल व लॉन बन गया है। जब भी आमों का मौसम आता है, एक कसक ही उठती है। आम ‘बिन’ कर खाने की चीज है, ‘किन’ कर नहीं। पर, समय का चक्र है। काल की अपनी गति। भर बाल्टी दूध पीनेवाले लोग, अब पैकेट बंद दूध पर जी रहे हैं। वह भी चाय के लिए ही लिया जाता है। या फिर घर के छोटे बच्चों के लिए ‘उठवना’ आता है। हम कैसी पुरनी बातों-यादों में खो गए। आम की बात चलती है, तो हम यूँ ही बहक जाते हैं।
खैर, अब लौट के ‘लगड़े’ पर आते हैं। यह आम जब होंठों को छूता है, तो उसकी मिठास में बनारस की गलियों का शोर, गंगा का मंद प्रवाह; और वह अनाम उदासी घुली मिलती है। असल में अगर कोई इसे शब्दों में ढालता, तो संभव है वह इसे एक दर्शन, एक काव्य, एक जीवन-संघर्ष का प्रतीक मानता। बनारसी लंगड़ा कोई ‘आम’, ‘आम’ नहीं है। यह खास है। विशिष्ट है। विशेष भी। अनुभव है। प्रकृति और मानव के बीच की अनकही संधि है। दोनों एक-दूसरे को रचते और गढ़ते हैं।
बनारस, बाबा विश्वनाथ की नगरी है। सप्तपुरी। पौराणिक मान्यता है। भारत में सात ऐसे स्थान हैं, जिन्हें मोक्षदायिनी माना गया है। इनके दरस-परस से सहजे मोक्ष मिलता है। काशी, इन्हीं सप्तपुरियों में से एक है। काल के गाल पर एक तिल-सी सजी है। जहां हर पत्थर, हर घाट, हर गली अपने में एक कथा समेटे है। उसी बनारस की माटी में यह लंगड़ा आम जन्मा। यह बनारस की आत्मा का ही एक अंश है। इसका रंग सुनहरा नहीं, बल्कि उस मद्धिम सूरज की तरह है, जो गंगा के जल में डूबता हो। इसकी बनावट न कोमल है, न सख्त। पर, इसमें एक विचित्र संतुलन है। जैसे जीवन में सुख और दुख का मेल। छिलका पतला। चमकीला। गुठली पतली। खुशबू बेहद खास। गूदा मुलायम और कम रेशेदार होता है। पर, रस से लबालब। कायदे से नहीं काटे, तो सरक सकता है। छटक कर आपके कपड़ों पर अपना रंग छोड़ सकता है। कई लोग तो इसे काटने के बजाय चूसकर खाते हैं. इसके स्वाद में एक तीव्रता है, जो कुछ अर्थों में ‘हेप्नोटाइज’ कर लेती है। तुरंत अपने सम्मोहन में बांध लेती है। यह तीव्रता, बनारस की तरह ही तो है। एक साथ कर्कश और कोमल। उन्मादी और शांत। मृत्यु और जीवन की संधि पर खड़ी प्राचीनतम सभ्यता।
‘लंगड़ा आम’ का नाम ही अपने आप में एक खंडकाव्य है। ‘लंगड़ा’ अपने आप में एक संज्ञा है। इसे विशेषण के तौर पर न देखें। संज्ञा के अर्थों में ही देखें, तो भाव और खुलेगा। यह शब्द सुनते ही मन में एक छवि उभरती है। एक आम की। मूलतः हरा। पर, उसमें पीलापन भी झलकेगा। चित्तीदार। स्थूल। यह, किसी यायावर की तरह है। जीवन यात्रा में थककर, लंगड़ाते, सुसताते, फिर भी मुस्कुराता हुआ चल रहा हो। पर, क्या यह नाम इसकी उत्पत्ति की कहानी कहता है? कुछ लोग कहते हैं कि लंगड़ा की खुशनसीब है, वह शहर बनारस में पैदा हुआ? वरना ‘लंगड़ा’ पर कौन मरता? कौन इसे पसंद करता? पर, बनारस के ही रहनियार, ऐसा नहीं मानते। वह कहते हैं—
‘काशी कबहुँ न छोड़िये, विश्वनाथ का धाम
मरने पर गंगा जल मिले, जियते लंगड़ा आम’
पर, बात इतनी नहीं है। इस लंगड़े की तासीर ऐसी है कि इसे लेकर अनेक क़िस्से गढ़े गए। मुहावरे और कहावतें गढ़ी गईं। एक बड़ा ही मशहूर क़िस्सा है, ‘लंगड़े’ का। ढाई सौ बरस पुरानी बात है। काशी में एक साधू बाबा पधारे। पैरों में हल्की लँगड़ाहट लिए वे चलते थे। उनके पास आम के दो पौधे थे। कहीं से वह, ले आए थे। उन पौधों को उन्होंने रोपा। मंदिर परिसर में। बड़े जतन से। साधू बाबा का मन उन पौधों में रम गया। अपने संतान जैसे उन्हें पाला-पोसा। खाद-पानी, छाँव-धूप, सब का हिसाब रखा। उनकी तपस्या और देखभाल रंग लाई। पौधे दिन-दूनी, रात-चौगुनी गति से बढ़ें। पाँच बरस बाद उन पर मंजर आए, फिर फल लदे। पके आमों की मिठास और सुगंध ऐसी कि मंदिर में आने-जाने वाले भक्तों के नथुने में अपने आप भरने लगी। आम पके। तैयार हुए। साधू महाराज ने उनको पहले भोलेनाथ को भेंट किया। भोग लगाया। शिवलिंग पर चढ़े फल प्रसाद बनकर बँटे। पर, साधू महाराज ने गुठलियाँ किसी को न दीं। उनके मन में डर था कि कहीं कोई गुठली से नया पेड़ न उगा ले जाए। यह खास खजाना, ‘आम’ न हो जाए। भक्तों में प्रसाद की मिठास की चर्चा तो खूब हुई। आम खाने को तो मिलते। पर, गुठलियों का दर्शन दुर्लभ। गुठलियों का रहस्य साधू बाबा के साथ ही रहा।
कुछ दिन बाद साधू बाबा का मन उचटा। रमता जोगी, बहता पानी, एक ठौर ठहरता, कहाँ? वे मंदिर छोड़ कहीं और चले गए। उनके जाने के बाद काशी नरेश की नजर इस अनूठे आम पर पड़ी। महाराज ने हुक्म दिया। इसकी कलम बाँधी जाए। देखते-देखते काशी के आसपास के बाग-बगीचे इस आम से झूमने लगे। देश-विदेश में इसकी ख्याति फैली। गालिब से लेकर टैगौर तक इसके ‘फैन’ रहे। मालवीय जी लेकर मुमताज बेगम तक। लंगड़े के कद्रदानों की कमी नहीं रही। स्वाद में बेमिसाल, सुगंध में बेजोड़, यह आम बाजारों में छा गया। अंग्रेज भी इसके दिवाने थे। धीरे-धीरे लोग इसे ‘लंगड़ा’ कहने लगे, क्योंकि इसके जनक उस लँगड़े साधू की याद दिलाते थे। ये तो हुई कहानी की बात।
पर, मुझे लगता है, शायद किसी पुराने बाग में, किसी पेड़ पर लगा यह आम, इतना रस लिए था कि उसके भार से वह शाखा ही तनिक टेढ़ी हो गई। आम जुबान में ‘लंगड़ी’। शायद यह बनारस की उस लय का प्रतीक है, जो समय की मार से झुकी, पर टूटी नहीं।
असल में, लंगड़ा आम वह फल है, जो अपनी अपूर्णता में पूर्ण है। जैसे बनारस की वे तंग गलियां, जो भूलभुलैया होते हुए भी हर यात्री को मंजिल तक ले जाती हैं।
इस आम की उत्पत्ति की कथा भी बनारस की तरह रहस्यमयी है। कोई कहता है कि यह फल किसी मुगल बादशाह के बाग से आया, कोई इसे महादेव का प्रसाद मानता है। पर, क्या सचमुच इसकी उत्पत्ति का पता लगाना आवश्यक है? बनारस की तरह ही लंगड़ा आम भी अपने होने में ही पूर्ण है; उसका अतीत उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना उसका वर्तमान स्वाद। इस फल को चखते हुए इनसान उस पल में जीता है, जहां अतीत और भविष्य दोनों गंगा के प्रवाह में विलीन हो जाते हैं। यह स्वाद एक तीर्थ है, जहां आत्मा समय के बंधनों से मुक्त होकर केवल रस में डूबती है।
पर, यह ‘लंगड़ा आम’, दूसरे आमों से अलग कैसे है? दरअसल इसके स्वाद में केवल मिठास ही नहीं है। तनिका खट्टुरस। एक अकथ स्वाद है। हापुस या दशहरी की मिठास में जो 'मिसिंग एलिमेंट' है, वह लंगड़ा में मिलता है। जैसे भोजन में नमक, उसकी स्वाद की पूर्णता का आधार। हमारे एक मित्र की माता जी, आयीं थी। कटक (ओडिशा) से। उन्हें पता था कि हम मधुरं प्रियं हैं। पूछा खाने में क्या बनायें? हमने कहा कि कुछ मीठा बना दीजिए। उन्होंने खीर बनाया। पर, हमारा किचन उनके लिए अनजान था। पूछा नमक कहाँ है? मैंने कहा कि नमक क्या करेंगी माता जी? उन्होंने कहा खीर में डालना है। मेरे लिए यह एक झटके जैसा था। पूछा, क्यों। बताया कि मीठे का स्वाद तभी खुलकर आता है, जब कुछ तीखा या नमकीन भी उसके साथ हो। इसलिए हम खीर में नमक डालते हैं, ताकि मीठापन और खिले। बहरहाल खीर खाया। सच में उसका स्वाद अलग था। अब भी यादों में है। दिल्ली में वैसी खीर खाने का मन होता है, तो नीलांचल मंदिर चला जाता हूँ।
लंगड़ा के स्वाद में वही नमक वाली मीठी खीर जैसा कुछ है, जो अनकहा है। यह स्वाद बनारस के जीवन-दर्शन को प्रतिबिंबित करता है। बनारस वह नगरी है, जहां हर सुख में दुख की छाया और हर दुख में सुख की किरण छिपी है। लंगड़ा आम का यह स्वाद उस संतुलन की याद दिलाता है, जो जीवन को अर्थ देता है। इसमें हर रस, हर भाव, हर ध्वनि एक साथ गूंजती है। इसे चखना केवल स्वाद का मसला नहीं है। साँच बात तो यह है कि यह एक साधना है। इसमें मनुष्य प्रकृति के साथ एकाकार हो जाता है।
इस आम का रंग, उसकी बनावट, उसका रस, सब कुछ बनारस की मिट्टी से जुड़ा है। बनारस की माटी खुद ही एक जीवंत सत्ता है। इसमें सदियों की साधना, तप और संस्कृति का रस घुला है। लंगड़ा आम उसी माटी का पैदाइश है, जो अपने स्वाद में उस सांस्कृतिक गहराई को समेटे हुए है। इसे खाते हुए सहसा बनारसी ठाठ का अनुभव होता है। इसमें जीवन को जीने की कला छिपी है। न लालसा में डूबकर, न विरक्ति में खोकर। दोनों के बीच एक मधुर संतुलन बनाकर।
लंगड़ा आम का पेड़ भी अपने आप में एक दर्शन है। बहुत ऊंचा नहीं होता है। पर, छतनार। फैला हुआ। जमीन से जुड़ा हुआ। जैसे बनारस की संस्कृति, जो कभी आकाश की ओर नहीं भागती, बल्कि धरती पर ही अपनी जड़ें फैलाती है। इसकी शाखाएं मानो कहती हैं कि जीवन ऊंचाइयों का पीछा करने में नहीं, बल्कि विस्तार में है। इसके फल वैसे ही लटकते हैं, जैसे कोई साधु अपनी माला लिए ध्यानमग्न हो। और जब यह फल पकता है, तो वह अपने रस से शाखा को भारी कर देता है। मानो कह रहा हो कि सच्चा सुख वही है, जो दूसरों को भी दे सकें। इसकी शाखों के नीचे ‘थुन्ही’ लगानी पड़ती है।
बनारसी लंगड़ा आम का स्वाद केवल जीभ तक सीमित नहीं, वह मन को भी छूता है। यह सीधे बचपन की स्मृतियों में डिपोर्ट कर देता है। जबरिया। हमारे अपने बगीचे में लंगड़ा के कुछ पेड़ थे। हर साल उनमें फल नहीं आता था। दो साल में एक बार। पर, जब आता, तो खूब आता है। गर्मी की छुट्टियों में हम ननिहाल ही चले जाते। मनभर आम खाने। दोपहर में खटिया पर बैठकर आम चूसा जाता था। यह उस दोस्ती की गर्माहट है, जब दोस्तों के साथ आम की गुठलियां बांटी जाती थीं। उन्हें जतन से रोपा जाता था। बरसात बाद उनमें से ‘अमोला’ निकलता। फिर उसे उखाड़ कर, शेष बची अठुलियों को हम ‘ईंटा’ पर घसते थे। पीपीहड़ी बनाते थे। बजाते थे। यह अकेलेपन की उदासी भी है। कोई अकेला परदेसी अपने कमरे में बैठकर इसे चखता है, उसमें बनारस की गलियों की सैर कर आता है। लंगड़ा आम वह काव्य है, जो हर मनुष्य के भीतर की कथा को स्वर देता है।
इसकी महिमा केवल इसके स्वाद में नहीं, बल्कि इसके होने में है। यह बनारस की उस आत्मा का प्रतीक है, जो कभी नष्ट नहीं होती। बनारस, जो बार-बार उजड़ता है, बार-बार बनता है, और हर बार अपने रंग, अपनी गंध, अपने स्वाद को और गहरा करता है। लंगड़ा आम भी उसी तरह है। वह हर गर्मी में लौटता है। अपने रस के साथ, अपनी कहानी के साथ। हर बार वह याद दिलाता है कि जीवन एक रस है। इसे चखना ही उसका उत्सव है।
जब कोई लंगड़ा आम को हाथ में लेता है, तो वह केवल एक फल नहीं, बल्कि बनारस की पूरी सभ्यता को थाम लेता है। उसका रस केवल जीभ को नहीं, बल्कि आत्मा को भी तरावट देता है। वह एक क्षण में मनुष्य को उसकी जड़ों से जोड़ देता है। याद दिलाता है कि वह प्रकृति का हिस्सा है, उस माटी का हिस्सा है, जिसने उसे जन्म दिया। एक ऐसा काव्य, जो न केवल पढ़ा जाता, बल्कि जिया जाता है; एक ऐसा दर्शन, जो न केवल समझा जाता, बल्कि चखा जाता है। बनारसी लंगड़ा आम, महज मौसमी फल नहीं है। यह जीवन उत्सव है। स्मृति है। स्वाद-साधना है।
साभार : डॉ. देवेन्द्र नाथ तिवारी