26/08/2025
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आज वो तारीख है, जो भारतीय सिनेमा के एक नए मुकाम पर पहुंचने का गवाह बनी। 70 साल पहले आज के ही दिन 1955 में सत्यजित राय की फिल्म ‘पथेर पांचाली’ रिलीज़ हुई थी।
भारतीय सिनेमा में 'पथेर पांचाली' बेहद खास है क्योंकि यह भारतीय सिनेमा का एक महत्वपूर्ण मोड़ थी। इससे पहले भारतीय गांव के जीवन का ऐसा काव्यात्मक और यथार्थवादी चित्रण कभी नहीं हुआ। इससे पहले कम बजट व गैर-पेशेवर कलाकारों के साथ ऐसा कलात्मक सिनेमा कभी नहीं रचा गया और इससे पहले इन खूबियों वाले सिनेमा को इस कदर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान नहीं मिली।
'पथेर पांचाली' (1955) ने भारतीय सिनेमा में फ़िल्म बनाने के तरीक़े को पूरी तरह बदल दिया और फिल्मकारों को एक नई राह दिखाई (बल्कि आजतक दिखा रहा है)। यह उस दौर की फ़िल्मों से बिल्कुल अलग थी, जो अक्सर ज़्यादा ड्रामैटिक और बनावटी होती थीं।
'पथेर पांचाली' ने सिनेमा में एक नया यथार्थवाद (realism) और मानवतावाद (humanism) पेश किया। इस फ़िल्म में असली लोकेशन, आम कलाकार और गाँव के एक ग़रीब परिवार की ज़िंदगी का सच्चा चित्रण है। इसी वजह से इसे 'पैरलल सिनेमा' आंदोलन की पहली शुरुआत माना जाता है।
हालांकि इससे करीब 9 साल पहले चेतन आनंद ने फिल्म ‘नीचा नगर’ (1946) भी बनाई थी, जिसने कान फ़ेस्टिवल में सर्वोच्च सम्मान ग्रां प्री (Grand Prix) भी जीता, लेकिन इन दोनों में यथार्थवाद (realism) अलग-अलग तरह से दिखाया गया है। ‘नीचा नगर’ का यथार्थवाद एक राजनीतिक और समाजवादी (socialist) संदेश देने के लिए था। इसकी कहानी साफ़ तौर पर अमीर और ग़रीब के बीच के वर्ग संघर्ष (class conflict) को दिखाती है, जहाँ अमीर ज़मींदार ग़रीबों पर ज़ुल्म करता है। यह एक रूपक (allegory) या कहानी की तरह है जिसमें अच्छे और बुरे लोग अलग-अलग दिखाए गए हैं। इसमें पात्र (characters) अक्सर किसी सामाजिक वर्ग या विचार को दर्शाते हैं, न कि उनकी अपनी व्यक्तिगत भावनाओं को। इसका राजनीतिक संदेश शायद उस वक़्त के दर्शकों के लिए बहुत आगे का था.. इसीलिए भारत में यह व्यावसायिक रूप से उतनी सफल नहीं हुई और इसे जल्द ही भुला दिया गया।
जबकि ‘पथेर पांचाली’ का यथार्थवाद काव्यात्मक और मानवतावादी (poetic and humanist) है। इसका मक़सद ज़िंदगी को उसके असली रूप में दिखाना है - उसकी ख़ुशियों, दुखों और छोटे-छोटे पलों को।
‘पथेर पांचाली’ की कहानी में कोई साफ़-साफ़ विलेन या हीरो नहीं है। इसमें एक ग़रीब परिवार की रोज़मर्रा की ज़िंदगी के पल (slice of life) हैं। इसमें किसानों या ग़रीबों की समस्याओं को सीधे-सीधे राजनीतिक तरीक़े से नहीं दिखाया गया, बल्कि उनकी इंसानियत को महसूस कराया गया है। सत्यजित राय ने पेशेवर कलाकारों की जगह आम लोगों से अभिनय करवाया, जिस वजह से फ़िल्म बहुत स्वाभाविक (natural) लगती है।
मोटे तौर पर कहें तो, ‘नीचा नगर’ का यथार्थवाद एक पोलिटिकल स्टेटमेंट था, जबकि ‘पथेर पांचाली’ का यथार्थवाद इंसानी जज़्बातों और ज़िंदगी की सच्चाई को दिखाने का एक कलात्मक प्रयास था।
'पथेर पांचाली' ने कान फ़ेस्टिवल में Best Human Document का पुरस्कार जीता और भारतीय सिनेमा में पैरेलल सिनेमा (Parallel Cinema) आंदोलन की शुरुआत की। इसने भारतीय सिनेमा को दुनिया के सामने एक कलात्मक शक्ति (artistic force) के रूप में स्थापित किया… जो किसी देश की कला के लिए एक बहुत बड़ी पहचान होती है। राय साल दर साल इस पहचान और मज़बूत करते रहे और ऐसे तमाम फिल्मकारों को प्रेरित रहे, जिन्होने इस आंदोलन को और समृद्ध किया। ‘पथेर पांचाली’ की सफलता के बाद ही अपू त्रयी (Apu Trilogy) की दो और फ़िल्में बनीं और सत्यजित राय को एक वैश्विक निर्देशक (global director) के रूप में पहचान मिली। ‘पथेर पांचाली’ समेत सत्यजित राय की तमाम फिल्में विश्व सिनेमा की अमूल्य धरोहर हैं।