09/07/2023
पाठकीय समीक्षा-
किताब- पिताजी और तारीख़...................................................................
कमलाकर,
तुम्हारा उपन्यास पढ़ा। वास्तव में यह संस्मरण ही है,जो साहित्य की एक विधा है। राहुल सांकृत्यायन इस विधा के मूर्धन्य साहित्यकार हैं। अथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा। उनकी एक कृति है जिसे हमने बारहवीं कक्षा में पढ़ा था। तुम्हारे द्वारा प्रस्तुत संस्मरण मुझे अपने अनुभवो के नज़दीक ही महसूस हुआ, इसलिए अधिक रूचिकर लगा। इलाहाबाद में लल्ला चुंगी के पास महिला छात्रावास के सामने मेरा भी ५४ कमरों का पुश्तैनी घर था, जिसके मात्र ६ कमरों में हम रहते थे,शेष में सरकार द्वारा रेंट कंट्रोल एक्ट द्वारा सुरक्षा का आवरण लिए हुए काबिज़ गुंडे किरायेदार। वकील होने के बावजूद पिताजी सारी जिंदगी इन्हीं किरायेदारो से मुकदमे लड़ते रहे और ४७ वर्ष की अल्पायु में नश्वर शरीर और जगत को त्यागकर चले गए। मैंने भी इस क्रम को जारी रखा, परन्तु शीघ्र समझ में आया कि जब कोई भौतिक सम्पत्ति अथवा सम्बंध दुःख देने लगे ,तब उसका त्याग कर देना चाहिए। अतः सात साल की वकालत और पुश्तैनी संपत्ति के मोह को त्याग कर ईश्वर की कृपा को साथ लेकर कर्म भूमि पर कर्म करने डट गया। क्योंकि कर्म साकाम था, अतः फल विशेष अवश्यंभावी था,पुनः धन सम्पत्ति अर्जित हो गई। अब ईश्वर इसका उपयोग किस प्रकार से करवायेगा और करवा रहा है, यह उसी की इच्छा पर छोड़ निष्काम कर्म में प्रवृत्त होने का प्रयास है। वह भी उसी की प्रेरणा और कृपा से पूर्ण होगा ऐसा विश्वास है। जीवन के इस पड़ाव पर मैंने यह अनुभव किया भौतिक सम्पत्ति और सम्बन्धों को कर्तव्यों की पूर्ति हेतु ही महत्व देना उचित है, उससे किंचित मात्र है अधिक नही, अन्यथा यह मोह को जागृत करके जीवन को कलुषित कर दुःख का कारण बनते हैं। जीवन का एक महत्वपूर्ण समय जो सभी को प्रभु ने एक निश्चित अवधि के दिया है, निरर्थक ही व्यतीत हो जाता है और हम अपनी जीवन यात्रा समाप्त कर मानव शरीर को त्याग कर परलोक चले जाते हैं। तुम्हारे संस्मरण में मुझे सभी पात्रों और विभिन्न परिस्थितियों के अवलोकन के पश्चात यही संदेश मिलता दिखाई दिया।
इति।🙏