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उत्तराखंड: मुनस्यारी की जोहार घाटी, जहां भीड़ नहीं, सिर्फ पहाड़ों की असली खूबसूरती मिलती है। मिलम ग्लेशियर, रालम घाटी और...
21/11/2025

उत्तराखंड: मुनस्यारी की जोहार घाटी, जहां भीड़ नहीं, सिर्फ पहाड़ों की असली खूबसूरती मिलती है। मिलम ग्लेशियर, रालम घाटी और पंचाचूली चोटियों का नज़ारा आपका मन मोह लेगा!

उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में बसी जोहार घाटी उन दुर्लभ जगहों में से है, जहां आज भी पहाड़ अपनी पूरी आत्मा के साथ जिंदा महसूस किए जा सकते हैं। यहां न सिर्फ प्रकृति का अनछुआ सौंदर्य मिलता है, बल्कि ऐसा लोकजीवन भी देखने को मिलता है जो आधुनिक दुनिया से अब भी काफी दूर है। भीड़ से बचकर, शांत और असली पहाड़ी संस्कृति का अनुभव करने वाले सैलानियों के लिए यह जगह किसी खजाने से कम नहीं।

पंचाचूली की बर्फीली चोटियां- घाटी की पहचान

जोहार घाटी का सबसे बड़ा आकर्षण
पंचाचूली पर्वत श्रृंखला, जिसकी पांच ऊंची चोटियां आसमान को मानो छूती हुई दिखती हैं। सुबह की पहली किरण जब इन चोटियों पर पड़ती है, तो ऐसा लगता है जैसे पहाड़ सोने के रंग से रंग गए हों। यह नजारा देखने के लिए देश भर से कुछ ही चुनिंदा सैलानी यहाँ आते हैं।

मिलम ग्लेशियर- भारत के सबसे बड़े ग्लेशियरों में शामिल

जोहार घाटी का असली रोमांच शुरू होता है मिलम ग्लेशियर से, जो 18 किलोमीटर लंबा है। यहां तक पहुंचने के लिए ट्रेक करना पड़ता है, इसलिए साधारण पर्यटक अक्सर इसे छोड़ देते हैं। यही वजह है कि यहां प्रकृति अपने सबसे शांत और शुद्ध रूप में मिलती है।

बर्फ से ढकी चोटियां

नदियां जिनका पानी कांच जैसा साफ

रास्ते में पुराने गांव, जहां लोग आज भी पारंपरिक जीवन जीते हैं
यह ट्रेक अनुभवी सैलानियों के लिए एक सपने जैसा माना जाता है।

रालम घाटी- बेहद सुंदर लेकिन कम जानते हैं लोग
मुनस्यारी के पास की रालम घाटी भी कमाल की सुंदर है, लेकिन अधिकांश लोग इसके बारे में जानते ही नहीं। यह घाटी मिलम के मुकाबले शांत है और यहां के रास्तों में जंगली फूल, घने जंगल और बर्फ गिरने के दृश्य मिलते हैं। जो लोग भीड़ से बिल्कुल दूर रहकर पहाड़ों में खोना चाहते हैं, उनके लिए यह आदर्श जगह है।

जोहार घाटी की असली पहचान- शौका (जोहारिया) समुदाय

इस घाटी का सबसे अनोखा अनुभव है यहां का शौका समुदाय, जिसे स्थानीय लोग जोहारिया भी कहते हैं।

सैलानी अक्सर इन बातों के बारे में नहीं जानते

यहां के लोग कभी तिब्बत व्यापार करते थे, इसलिए इनके घर, कपड़े और संस्कृति में तिब्बती रंग झलकते हैं। गर्मियों में ये लोग अपने ऊंचे गांवों में बसते हैं और सर्दियों में नीचे उतर आते हैं।
पुरानी पत्थर की बस्तियां आज भी वैसी ही हैं, बिना आधुनिक बदलाव के।
अगर कोई सैलानी असली पहाड़ी संस्कृति समझना चाहता है, तो जोहार घाटी उससे बेहतर कोई जगह नहीं।

मुनस्यारी से आगे का रास्ता और भी अनोखे गांव

मुनस्यारी से आगे कई ऐसे गाँव पड़ते हैं, जहाँ पहुँचना मुश्किल तो है, लेकिन अनुभव अनमोल:

बिलजु– यह गांव बादलों के बीच बसा हुआ लगता है
मार्तोली– यहां आज भी लकड़ी और पत्थर के बने पुराने घर मौजूद हैं
बोगड्योर– स्थानीय तिब्बती संस्कृति का मजबूत असर
मिलम गांव– मिलम ग्लेशियर के पास बसा ऐतिहासिक गांव
इन गांवों की यात्रा आपको बिल्कुल अलग दुनिया में ले जाती है।

क्यों आएं जोहार घाटी?
जो लोग यह सोचते हैं कि पहाड़ों में ऐसा क्या नया है-
जोहार घाटी उनका नजरिया बदल सकती है:
यहां मोबाइल नेटवर्क कई जगह नहीं मिलता

होटल की जगह होमस्टे का अनुभव है
व्यापारीकरण बहुत कम है
पहाड़, जंगल, ग्लेशियर और झरने अपने कच्चे, असली रूप में मिलते हैं
यह सब मिलकर जोहार घाटी को उन यात्रियों के लिए खास बना देता है जो भीड़ से दूर “पहाड़ों का असली स्वाद” लेना चाहते हैं।

यहां कब जाएं?

बेस्ट टाइम: मई से अक्टूबर
(सर्दियों में भारी बर्फबारी के कारण कई रास्ते बंद हो जाते हैं)

अगर आप भी पहाड़ों को उसके असली रूप में महसूस करना चाहते हैं, तो जोहार घाटी आपकी अगली यात्रा जरूर होनी चाहिए।

उत्तरकाशी जिले के देवलांग मेले (देवलांग पर्व) की पौराणिकता, इतिहास, आयोजन, और उसके महत्व को समझिए!देवलांग मेला (देवलांग ...
20/11/2025

उत्तरकाशी जिले के देवलांग मेले (देवलांग पर्व) की पौराणिकता, इतिहास, आयोजन, और उसके महत्व को समझिए!

देवलांग मेला (देवलांग पर्व) कहां मनाया जाता है?

यह मेला उत्तरकाशी जिले की रवांई घाटी में मनाया जाता है। खासकर गैर गांव (बनाल पट्टी), गंगटाड़ी और कुथनौर में यह पर्व बनाने की परंपरा रही है।

कब मनाया जाता है?

देवलांग पर्व मंगसीर महीने की अमावस्या की रात को मनाया जाता है- यानी दीपावली के ठीक एक महीने बाद।

स्थानीय लोग इसे “मंगसीर की बग्वाल” के नाम से भी जानते हैं।

पौराणिक और सांस्कृतिक महत्व

इस पर्व को “अंधेरे से उजाले की ओर” का प्रतीक माना जाता है।
देवदार के लंबे पेड़ (देवलांग) को मंदिर परिसर में लाकर खड़ा किया जाता है और फिर उस पर अग्नि लगाई जाती है।
आग जलने के बाद मंदिर परिसर में जयकारे लगते हैं, जैसे महाराजा रघुनाथ, मड़केश्वर महादेव, और संगटारू वीर को याद किया जाता है।
पर्व पूरा होने के बाद लोगों को उस जलती देवलांग की राख से टीका (लाल चंदन या रश्मि) लगाई जाती है।

लोक संस्कृति और भागीदारी

मेले में क्षेत्र के गांवों से स्थानीय लोग बड़ी संख्या में आते हैं।
वहां लोक नृत्य, ढोल-दमाऊ और पारंपरिक संगीत की प्रस्तुति होती है।

पारंपरिक रीति-रिवाज (जैसे “छिलकों की तैयारी” और “देवलांग उठाना”) पौराणिक काल से चली आ रही हैं।

लोक मान्यताएं

कुछ लोग मानते हैं कि ये पर्व राम विजय या श्री राम की वापसी से जुड़ा है।

स्थानीय विद्वानों और निवासी इस पर्व की उत्पत्ति को अलग-अलग कहानियों के साथ जोड़ते हैं, लेकिन इसकी सांस्कृतिक और धार्मिक महत्ता बहुत अधिक है।

समय-समय पर आयोजन और बदलाव

मेले की तैयारियां स्थानीय ग्रामीण समुदाय (जैसे साठी-पानशाही पीढ़ियां) बहुत पहले से शुरू करते हैं।

मेले के दौरान मंदिर में विशेष पूजा-अर्चना और हवन आयोजित किए जाते हैं।

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