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हमारी शादी की रात, अपने पति को देखते हुए, मैं यह समझकर काँप उठी कि मेरे पति के परिवार ने मुझे मुझ जैसी गरीब पत्नी से शाद...
24/09/2025

हमारी शादी की रात, अपने पति को देखते हुए, मैं यह समझकर काँप उठी कि मेरे पति के परिवार ने मुझे मुझ जैसी गरीब पत्नी से शादी करने के लिए लगभग ₹7 करोड़ का झील किनारे का विला क्यों दिया...
मेरा नाम ललिता है, छब्बीस साल की, ओडिशा के तटीय इलाके में एक गरीब परिवार में पैदा हुई। मेरे पिता का जल्दी निधन हो गया, मेरी माँ लगातार बीमार रहती थीं, मुझे दसवीं कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़कर मज़दूरी करनी पड़ी। कई सालों के संघर्ष के बाद, आखिरकार मुझे मुंबई के सबसे अमीर परिवारों में से एक - मल्होत्रा ​​परिवार में नौकरानी की नौकरी मिल गई।

मेरे पति - अर्नव मल्होत्रा ​​- उस परिवार के इकलौते बेटे हैं। वह सुंदर, पढ़े-लिखे और शांत स्वभाव के हैं, लेकिन उनके आसपास हमेशा एक अदृश्य दूरी रहती है। मैंने वहाँ लगभग तीन साल काम किया, चुपचाप सिर झुकाए रहती थी, कभी यह सोचने की हिम्मत नहीं हुई कि मैं उनकी दुनिया में आ सकती हूँ। और फिर भी एक दिन, सविता मल्होत्रा ​​ने मुझे लिविंग रूम में बुलाया, मेरे सामने विवाह प्रमाणपत्र रखा और वादा किया:
“ललिता, अगर तुम अर्नव से शादी करने के लिए राज़ी हो, तो लोनावला में पावना झील के किनारे वाला विला तुम्हारे नाम होगा। यह परिवार की ओर से शादी का तोहफ़ा है।”

मैं दंग रह गई। मेरे जैसी नौकरानी उनके प्यारे बेटे से कैसे तुलना कर सकती है? मुझे लगा कि वे मज़ाक कर रहे हैं, लेकिन उनकी आँखें गंभीर थीं। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि उन्होंने मुझे क्यों चुना; मैं बस इतना जानती थी कि मेरी माँ गंभीर रूप से बीमार थीं, और इलाज का खर्च एक अकल्पनीय बोझ था। मेरा मन मुझे मना करने को कह रहा था, लेकिन मेरे कमज़ोर दिल और माँ के लिए मेरी चिंता ने मुझे सिर हिला दिया।

शादी मेरी कल्पना से कहीं ज़्यादा भव्य थी। मैंने सोने की कढ़ाई वाला लाल लहंगा पहना था, अर्नव के बगल में हाथीदांत की शेरवानी पहने बैठी थी, और अब भी सोच रही थी कि मैं सपना देख रही हूँ। लेकिन उसकी आँखें मुझे ठंडी और दूर से देख रही थीं, मानो कोई राज़ छिपा रही हों जिसे मैंने अभी तक छुआ नहीं था।

शादी की रात, कमरा गुलाबों से भरा हुआ था। सफ़ेद कमीज़ पहने अर्नव, उसका चेहरा मानो मूर्ति जैसा था, लेकिन आँखें उदास और खामोश थीं। जब वो पास आया, तो मेरा पूरा शरीर काँप उठा। बस उसी पल, वो क्रूर सच्चाई सामने आई।

अर्नव दूसरे आम आदमियों जैसा नहीं है... वो
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अरबपति अप्रत्याशित रूप से जल्दी घर आ जाता है... और नौकरानी को अपने बच्चे के साथ ऐसा करते देखकर चौंक जाता है...उस दिन, यु...
24/09/2025

अरबपति अप्रत्याशित रूप से जल्दी घर आ जाता है... और नौकरानी को अपने बच्चे के साथ ऐसा करते देखकर चौंक जाता है...
उस दिन, युवा अरबपति - श्री रजत मेहरा - अपने साथी के साथ एक ज़रूरी मीटिंग खत्म कर ही रहे थे कि उन्हें एक टेक्स्ट मैसेज मिला जिसमें बताया गया था कि उनकी सिंगापुर की फ्लाइट रद्द हो गई है। उन्होंने तय समय से पहले घर लौटने का फैसला किया। मन ही मन उन्होंने कल्पना की कि उनका छोटा बेटा - आरव, 6 साल का, जिसकी आँखें चमक रही हैं, लेकिन पैर लाचार हैं - अपने पिता को देखकर कितना हैरान और खुश होगा। श्री रजत आमतौर पर व्यस्त रहते थे, रात 9 बजे से पहले शायद ही कभी घर आते थे, और आज तो बस अंधेरा होने ही वाला था।
नई दिल्ली के वसंत विहार स्थित बंगले के सामने लग्ज़री कार रुकी। श्री रजत अंदर आए, उन्हें सरप्राइज़ देने के लिए हल्के से चलने की कोशिश कर रहे थे। शांत लिविंग रूम से उन्हें ऊपर से आती हुई हल्की-फुल्की हंसी, जयकार और मधुर गायन की आवाज़ें सुनाई दीं। अजीब बात यह थी कि यह आशा की आवाज़ थी - तीस साल की एक देहाती नौकरानी, ​​सौम्य और शांत, जिस पर रजत ने शायद ही कभी ध्यान दिया हो।
वह धीरे-धीरे सीढ़ियाँ चढ़ रहा था, उसका दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था। आरव का दरवाज़ा बस थोड़ा सा खुला था। दरार से उसने एक ऐसा दृश्य देखा जिसे देखकर वह दंग रह गया...👇👇👇
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"मां का त्याग और बेटे की भूल"जहां बड़े-बड़े अफसर और अमीर लोग रहते थे, वहां एक शानदार बंगला था – वर्मा विला। ऊंचा गेट, चम...
24/09/2025

"मां का त्याग और बेटे की भूल"

जहां बड़े-बड़े अफसर और अमीर लोग रहते थे, वहां एक शानदार बंगला था – वर्मा विला। ऊंचा गेट, चमचमाती कारें और चारों ओर फैली रौनक देखकर कोई भी समझ जाता कि यह घर किसी बड़े ओहदे वाले का है।

इसी गेट के सामने सड़क किनारे एक बूढ़ी औरत आकर ठहर गई। उसकी उम्र साठ के पार रही होगी। सिर पर एक पुरानी लेकिन साफ साड़ी का पल्लू, कंधे पर कपड़े की गठरी जिसमें शायद उसकी सारी पूंजी और जरूरत का सामान था। पैर में घिसी हुई चप्पलें और चेहरे पर थकान की गहरी लकीरें।

पर उस थकान के पीछे भी एक अजीब सी चमक थी – वो चमक जो सिर्फ मां की आंखों में होती है। कांपते हाथों से गेट पर लगी नेमप्लेट पढ़ने लगी – "अमित वर्मा, IAS कलेक्टर"।

यह नाम देखते ही उसकी आंखें भर आईं। होठों पर अनायास मुस्कान फैल गई – "मेरा बेटा, मेरा अमित, कलेक्टर साहब!"

उसकी आंखों में यादों की बाढ़ उमड़ पड़ी। जाने कितनी रातें जागकर, भूखे पेट काटकर उसने इस नाम के पीछे अपनी जिंदगी दांव पर लगा दी थी। और आज वही नाम इस ऊंचे बंगले की पहचान बन गया था।

वह हिम्मत जुटाकर गेट की तरफ बढ़ी। गार्ड ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा और नागभ सिकोड़ते हुए बोला,

"अरे अम्मा, कहां चली आ रही हो? यह कोई भीख देने की जगह नहीं है। समझी?"

बूढ़ी औरत ने कांपती आवाज में कहा, "बेटा, मैं यहां भीख मांगने नहीं आई। मैं तो अपने बेटे से मिलने आई हूं। यही तो उसका घर है ना?"

गार्ड ने हंसते हुए कहा, "तुम्हारा बेटा? यह कलेक्टर साहब का बंगला है। जाओ-जाओ, यहां से हटो वरना डंडा पड़ेगा।"

उसकी आंखों में आंसू छलक आए। मगर उसने हिम्मत नहीं हारी। कांपते पैरों से धीरे-धीरे चलकर वो गेट के अंदर घुस गई।

गार्ड कुछ कहता उससे पहले ही गाड़ी का हॉर्न बजा। सफेद रंग की सरकारी गाड़ी बंगले के बाहर आकर रुकी। गाड़ी से एक लंबा चौड़ा आदमी निकला – 32 साल का, कोट-पैंट पहने, चेहरे पर तेज और आंखों में आत्मविश्वास।

गार्ड ने तुरंत सलामी ठोकी – "जय हिंद साहब।"

वो शख्स और कोई नहीं बल्कि अमित वर्मा, रांची का नया कलेक्टर था।

बूढ़ी औरत ने उसे देखते ही गठरी जमीन पर रख दी और दौड़ते हुए उसके पास पहुंची। आंसू भरी आंखों से बोली,

"अमित, बेटा अमित, देख आज तेरी मां तुझसे मिलने आई है।"

उसने कांपते हाथों से अमित का चेहरा छूना चाहा। अमित ने एक पल के लिए ठिठक कर उसे देखा, फिर आंखें सिकोड़ते हुए बोला,

"कौन? कौन हो तुम? किस अधिकार से मुझे बेटा कह रही हो?"

उसकी बात सुनकर बूढ़ी औरत का दिल कांप उठा।

"बेटा, मैं तेरी मां हूं। तेरी गोमती। तेरी मां जिसने तुझे पाल-पोस कर बड़ा किया। जिसने तुझे पढ़ाया-लिखाया। तू मुझे नहीं पहचान रहा?"
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कपड़ों से नहीं, दिल से पहचानसुबह का समय था। शहर के सबसे आलीशान पाँच सितारा होटल, एमिनेंस ग्रैंड पैलेस के बाहर चमचमाती गा...
24/09/2025

कपड़ों से नहीं, दिल से पहचान

सुबह का समय था। शहर के सबसे आलीशान पाँच सितारा होटल, एमिनेंस ग्रैंड पैलेस के बाहर चमचमाती गाड़ियाँ खड़ी थीं। वेलकम स्टाफ सफेद पोशाक में, काँच के दरवाजे और अंदर से आती वायलिन की मधुर धुन—हर चीज़ शाही थी।

इन्हीं दरवाजों की ओर एक बुजुर्ग व्यक्ति धीरे-धीरे चले आ रहे थे। उम्र लगभग 75 साल, पुराने कपड़े, घिसी चप्पलें, बिखरे बाल और झुकी पीठ, लेकिन चाल में गरिमा थी। वह सीधे रिसेप्शन पर पहुँचे। वहाँ एक लड़की मोबाइल पर व्यस्त थी। बुजुर्ग ने विनम्रता से पूछा, “बिटिया, एक गिलास पानी मिल सकता है? और पाँच मिनट बैठ जाऊँ तो? थक गया हूँ।”

लड़की ने ऊपर से नीचे तक देखा और कहा, “यहाँ बैठने की अनुमति नहीं है अंकल। गार्ड से कहिए, बाहर पानी दे देगा।”
तभी होटल मैनेजर मृदुल खुराना, ब्रांडेड सूट में, घमंड भरे चेहरे के साथ आया। उसने बुजुर्ग को देखा और तीखे स्वर में बोला, “यह कोई धर्मशाला नहीं है बाबा। पाँच सितारा होटल है, भिखारी यहाँ नहीं घुसते।”
मेहमान हँसने लगे, विदेशी टूरिस्ट मुस्कुराने लगे। गार्ड ने बुजुर्ग को बाहर निकाल दिया। बुजुर्ग ने होटल को गहराई से देखा, हल्की मुस्कान दी और सिर झुकाकर बाहर चले गए।

अगले दिन सुबह, होटल में हलचल थी। वीआईपी विजिट की सूचना थी, हेलीपैड तैयार था। सबको लगा कोई मंत्री या विदेशी मेहमान आ रहे हैं।
तभी होटल के पीछे बने हरे लॉन में हेलीकॉप्टर उतरा। सिक्योरिटी कमांडो, अधिकारी और सेक्रेटरी के साथ एक व्यक्ति सफेद शेरवानी में उतरा। सबसे बड़ा झटका तब लगा जब किसी ने पहचाना—यह वही बुजुर्ग हैं जिन्हें कल बाहर निकाला गया था।
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बरसात की शाम – हरिशंकर वर्मा की कहानीसुबह की हल्की बूंदा-बांदी अब दोपहर तक घने बादलों में बदल चुकी थी। खिड़की के बाहर पे...
23/09/2025

बरसात की शाम – हरिशंकर वर्मा की कहानी

सुबह की हल्की बूंदा-बांदी अब दोपहर तक घने बादलों में बदल चुकी थी। खिड़की के बाहर पेड़ों की टहनियाँ हवा में झूम रही थीं, और हर थोड़ी देर में बिजली की चमक के साथ बादल गरजते। अंदर, एक छोटे से ड्राइंग रूम में एक वृद्ध व्यक्ति, करीब 70-72 साल के, धीरे-धीरे अपने पुराने चप्पल पहन रहे थे। उनके कपड़े साफ थे, पर पुराने। कुर्ता थोड़ा सा धुला हुआ, पायजामा घुटनों तक चढ़ा हुआ।

"बेटा, अगर एक छाता मिल जाए तो बाहर बारिश बहुत है," उन्होंने धीमी आवाज में कहा।

डाइनिंग टेबल पर बैठा उनका बेटा रजत, 35 साल का, मोबाइल में व्यस्त था। उसकी पत्नी नीता रसोई में थी। रजत ने बिना ऊपर देखे कहा,
"पापा, रोज कुछ ना कुछ चाहिए आपको। अब छाता कहाँ से लाएँ अचानक? थोड़ी देर इंतजार कर लीजिए।"

पापा चुप हो गए। न झल्लाए, न दोबारा कुछ कहा। बस एक कमजोर सी मुस्कान दी और दीवार से टिक कर धीरे-धीरे चलने लगे। नीता ने हल्की आवाज में कहा,
"पानी तो गिर ही रहा है, अकेले क्यों जा रहे हैं बाजार? बस दूध और कुछ दवाई लेनी है, मैं जल्दी लौट आऊँगा।"

उनकी आवाज में कोई शिकायत नहीं थी, बस एक आदत थी – सब सुन लेने की।

भीगते हुए, पुराने चप्पल घिसटते, वे दरवाजे से बाहर निकल गए। बेटे ने एक बार खिड़की से झाँका, फिर सिर घुमा लिया – "बारिश में भी जिद पकड़े बैठे हैं।"

बारिश तेज हो चुकी थी। सड़कें खाली थीं, दुकानें आधी बंद। आसमान में घना कोहरा था। वृद्ध व्यक्ति का पूरा बदन भीग चुका था, लेकिन वे रुकते नहीं। धीरे-धीरे चलते गए। एक हाथ में प्लास्टिक की थैली थी, जिसमें दवाई और दो ब्रेड के पैकेट थे। लेकिन उनका ध्यान बार-बार बाईं ओर मुड़ती एक झाड़ी की तरफ जा रहा था। वहाँ कुछ हलचल थी।

उन्होंने कदम बढ़ाया और देखा – एक नन्हा पिल्ला काँपता हुआ भीग रहा था। उसके पैर से खून टपक रहा था, शायद किसी गाड़ी ने टक्कर मारी थी। वे वहीं बैठ गए – कीचड़ में, बारिश में, और उस थैली को धीरे से पिल्ले पर ढक दिया। खुद पूरी तरह भीगते रहे। कोई इंसान पास नहीं था, लेकिन वे वहाँ से उठे नहीं।
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रामलाल काका की कहानी – इज्जत, संघर्ष और सच की जीतछोटे से कस्बे के एक कोने में, जहां बड़े-बड़े अपार्टमेंट्स बन रहे थे, सड...
23/09/2025

रामलाल काका की कहानी – इज्जत, संघर्ष और सच की जीत

छोटे से कस्बे के एक कोने में, जहां बड़े-बड़े अपार्टमेंट्स बन रहे थे, सड़कों को चौड़ा किया जा रहा था और हर पक्की दीवार पर "विकास योजना 2024" के पोस्टर लगे थे, वहीं एक बूढ़ा आदमी चुपचाप अपनी जिंदगी के बचे हुए दिन गिन रहा था। उसका नाम था रामलाल काका। उम्र लगभग 75 साल, पतली हड्डियां, सफेद घुंघराले बाल, और गहरा सांवला चेहरा जिसमें वक्त और संघर्ष की लकीरें साफ दिखती थीं।

उसकी झोपड़ी टूटी-फूटी थी, जिसे उसने लकड़ी, प्लास्टिक और पुराने टिन के टुकड़ों से खुद बनाया था। वही उसकी दुनिया थी। वह कभी बर्तन मांजता, कभी रिक्शा चलाता, तो कभी मंदिर के बाहर बैठकर दिन काटता। कुछ लोग उसे "फुटपाथ वाला बाबा" कहते, कुछ बेघर समझते, और कई लोग बस नजरअंदाज कर देते। लेकिन रामलाल काका के लिए वही झोपड़ी सब कुछ थी – वही छत, जहां उसकी बीमार पत्नी ने आखिरी सांस ली थी; वही दीवार, जहां उसके बेटे की पहली तस्वीर टंगी थी, जो अब विदेश में था।

एक सुबह करीब 8 बजे, जब काका तसले में पानी भरकर अपने झोपड़ी के बाहर पुराने बर्तन धो रहा था, तभी धूल उड़ाते हुए तीन ट्रैक्टर और एक सरकारी बोलेरो गाड़ी वहां आकर रुकी। गाड़ी से एक अफसर उतरा, चेहरे पर सख्ती, आंखों में आदेश, और पीछे दो सिपाही।

"अरे ओ, हटाओ इस झुग्गी को! जमीन कब्जा किया हुआ है इसने। आज सफाई अभियान है।"

काका चौंक गया, हाथ रोक लिए –
"बाबूजी, यह मेरी जगह है। बरसों से हूं यहां। मेरा घर है ये।"

लेकिन अफसर ने उसकी एक ना सुनी –
"यह सरकारी जमीन है। फालतू का ड्रामा मत कर। बुलडोजर चलाओ!"

रामलाल दौड़ा, हाथ फैलाए झोपड़ी के सामने खड़ा हो गया –
"रुक जाओ बेटा! अंदर मेरी बीवी की तस्वीरें हैं, कुछ कागज हैं, बस थोड़ा वक्त दो।"
सिपाही ने उसे धक्का दे दिया, वो गिर पड़ा। आसपास के लोग बस देखते रहे – कुछ हंसते, कुछ मोबाइल से वीडियो बनाते।

फिर एक पल में बुलडोजर चला, आग लग गई। जली हुई लकड़ी, पिघली प्लास्टिक और धुएं में रामलाल की जिंदगी राख बन गई। वो वहीं बैठ गया, जैसे अब उसमें कुछ कहने की ताकत ही न बची हो। आंखों से आंसू भी नहीं निकले – शायद वो भी जल चुके थे।

कुछ मिनटों तक सब चुप था। फिर रामलाल धीरे-धीरे उठा, कांपते हाथों से राख में कुछ खोजने लगा। किसी को समझ नहीं आया कि वह क्या ढूंढ रहा है। तभी उसने एक कोना खोदा और वहां से एक पॉलिथीन में लिपटी पुरानी, जर्द हो चुकी फाइल निकाली। लोग सोच ही रहे थे कि यह क्या है, जब काका ने उसे खोलकर असली जमीन के दस्तावेज निकाले। उस पर साफ लिखा था –
स्वामित्व प्रमाण पत्र, खसरा संख्या 129 बी, स्वामी श्री रामलाल शर्मा, पुत्र स्व. हरिप्रसाद शर्मा, दिनांक 1972।
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सुपरमार्केट की नेक दिल कैशियर – रिया वर्मा की कहानीकभी-कभी ज़िंदगी में कुछ ऐसा होता है, जो हमें सोचने पर मजबूर कर देता ह...
23/09/2025

सुपरमार्केट की नेक दिल कैशियर – रिया वर्मा की कहानी

कभी-कभी ज़िंदगी में कुछ ऐसा होता है, जो हमें सोचने पर मजबूर कर देता है कि क्या सच में इस दुनिया में अच्छाई की कोई कदर नहीं है। लेकिन किस्मत का खेल भी बड़ा अजीब होता है।

सुबह के 10 बजे थे। रिया वर्मा अपने काम पर पहुंच चुकी थी। दिल्ली के एक बड़े सुपरमार्केट में वह कैशियर थी। अपनी मुस्कान के साथ ग्राहकों का स्वागत करना, बिलिंग करना और खुद को सबसे तेज़ और सटीक कैशियर साबित करना – यही उसकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी थी। रिया को यह नौकरी बहुत पसंद थी। वह साधारण परिवार से थी और यह नौकरी उसके घर के लिए बहुत जरूरी थी। उसकी मां बीमार रहती थी और छोटे भाई की पढ़ाई का खर्च भी उसी के कंधों पर था।

लेकिन उसे क्या पता था कि आज की यह शिफ्ट उसकी ज़िंदगी को पूरी तरह बदल देगी।

दोपहर के समय एक बूढ़े आदमी ने कांपते हुए हाथों से सामान की टोकरी काउंटर पर रखी। रिया ने मुस्कान के साथ उनका स्वागत किया, बिलिंग करने लगी –
“नमस्ते बाबा, कैसे हैं आप?”
बूढ़े आदमी ने हल्की मुस्कान दी, “बेटा, बस किसी तरह गुजर-बसर कर रहा हूं। दवाई भी लेनी थी, पर पहले राशन लेना जरूरी है।”

रिया ने स्कैन करना शुरू किया – चावल, दाल, तेल, ब्रेड, सब्जियां। बिल कुल 870 रुपये हुआ।
बाबा ने जेब से सिक्के और मुड़े-तड़े नोट निकाले, लेकिन कुल 100 रुपये ही निकले।
बाबा घबरा गए – “लगता है पैसे कम पड़ गए, शायद कुछ सामान वापस करना पड़ेगा।”
उन्होंने तेल और ब्रेड वापस रखने की कोशिश की, लेकिन रिया के दिल में हलचल मच गई।
एक बुजुर्ग आदमी, जो खुद के लिए दो वक्त की रोटी नहीं जुटा पा रहा, क्या उसे खाली हाथ भेजना सही रहेगा?

रिया ने इधर-उधर देखा, सुपरवाइजर दूर खड़ा था, सीसीटीवी कैमरा भी ठीक ऊपर था।
लेकिन उसका दिल इस बूढ़े आदमी को खाली हाथ नहीं जाने देना चाहता था।
रिया ने अपनी जेब से 770 रुपये निकाले और चुपचाप काउंटर में डाल दिए।
“बाबा, चिंता मत करिए, आपका बिल पूरा हो गया। सामान ले जाइए।”
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समीना फातिमा की कहानी: हिम्मत, हुनर और मोहब्बत की मिसालमुंबई एयरपोर्ट के हैंगर में एक जंगी मोर्चे जैसा माहौल था। एक बड़ा...
23/09/2025

समीना फातिमा की कहानी: हिम्मत, हुनर और मोहब्बत की मिसाल

मुंबई एयरपोर्ट के हैंगर में एक जंगी मोर्चे जैसा माहौल था। एक बड़ा प्राइवेट जेट खड़ा था, जिसका इंजन बार-बार फेल हो रहा था। दर्जनों इंजीनियर अपने औजारों के साथ उसके चारों तरफ जमा थे, माथे पर पसीना, कपड़ों पर ग्रीस के दाग और चेहरों पर मायूसी। छह घंटे बीत चुके थे लेकिन समस्या हल नहीं हो रही थी।

अरबपति बिजनेसमैन मिस्टर वर्मा, जिसकी यह जेट थी, बार-बार अपनी घड़ी देख रहा था। उसे उसी शाम दिल्ली के अहम मीटिंग में जाना था। सब जानते थे कि यह जेट सिर्फ आम विमान नहीं, देश की अर्थव्यवस्था और बिजनेस फैसलों से जुड़ा था। मगर इंजन के टेस्ट बार-बार फेल हो रहे थे। कभी लाल बत्ती, कभी अलार्म, कभी इंजन की अजीब आवाज।

इसी तनाव भरे माहौल में अचानक हैंगर के दरवाजे पर एक दुबली पतली लड़की दिखाई दी। पुराने कपड़े, फटा दुपट्टा, उलझे बाल, चेहरे पर थकान लेकिन आंखों में आत्मविश्वास। उसका नाम था **समीना फातिमा**। वह धीरे-धीरे अंदर आई। सब हैरान थे - यह कौन है? एक गार्ड ने ऊंची आवाज में कहा, "यह कौन है? किसने इसे अंदर आने दिया? बाहर निकालो इसे!"

मगर समीना ने शांत लहजे में कहा, "अगर इजाजत दें तो मैं देख सकती हूं?" उसकी आवाज में ऐसा यकीन था कि सब एक पल के लिए चुप हो गए। एक इंजीनियर ने तंज किया, "छह घंटे से हम हल नहीं कर पाए, यह लड़की क्या कर लेगी?" बाकी इंजीनियर भी हंसने लगे।

तभी मिस्टर वर्मा ने सख्त लहजे में कहा, "रुक जाओ। इसे देखने दो।" सबकी निगाहें समीना पर थीं। समीना आगे बढ़ी, पुराने दस्ताने उतारे, साफ दस्ताने पहने और इंजन के पास झुक गई। उसने इंजन के पार्ट्स को छुआ, क्लैंप पर हल्की चोट दी, सेंसर वायर को गौर से देखा। समीना ने कहा, "यह क्लैंप गलत नाली में है, हवा लीक हो रही है। सेंसर वायर की इंसुलेशन फटी है, ब्रैकेट से टकरा रही है। जब गर्म होती है तो इंजन को गलत सिग्नल देती है।"

इंजीनियर हैरान थे। चीफ इंजीनियर बोला, "हमसे यह कैसे छूट गया?" समीना ने जवाब दिया, "क्योंकि दोनों खराबियां एक-दूसरे को छुपा रही थी। असली हल दोनों को एक साथ ठीक करना है।"

मिस्टर वर्मा ने पूछा, "क्या तुम ठीक कर सकती हो?" समीना ने कहा, "जी, इजाजत हो तो अभी कर दूंगी।" सब जानते थे कि यह इंजन लाखों का है, एक गलती सब बर्बाद कर सकती है। मगर उस लड़की की आंखों में यकीन था।

मिस्टर वर्मा ने कहा, "करो।" समीना ने क्लैंप खोला, सही नाली में सेट किया, सेंसर वायर की इंसुलेशन टेप से ठीक की, ब्रैकेट से हटाकर सुरक्षित बांधा। सबकी सांसें थम गई थीं। समीना ने दस्ताने उतारे और बोली, "हो गया।"

मिस्टर वर्मा ने टेस्ट कराया। इंजन स्टैंड पर फिट हुआ, केबल्स जोड़े गए। मिस्टर वर्मा ने बटन दबाया। एक हल्की आवाज आई, फिर इंजन की गड़गड़ाहट तेज हुई। अचानक लाल बत्ती जली। इंजीनियर घबरा गए। समीना ने बुलंद आवाज में कहा, "रुको, सेंसर नए सिग्नल ले रहा है। वक्त दो।" कुछ देर बाद हरी बत्ती जल उठी। इंजन की आवाज अब एकदम सही थी। पूरा हॉल तालियों से गूंज उठा।
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अनन्या पटेल : साड़ी में आई बिजनेस क्वीन की कहानीअनन्या पटेल, उम्र 30 साल, गुजरात के अहमदाबाद शहर से एक ऐसी महिला थी जिसन...
23/09/2025

अनन्या पटेल : साड़ी में आई बिजनेस क्वीन की कहानी

अनन्या पटेल, उम्र 30 साल, गुजरात के अहमदाबाद शहर से एक ऐसी महिला थी जिसने अपनी मेहनत और जिद से बिजनेस की दुनिया में अपनी पहचान बनाई थी। एक सुबह, मुंबई से न्यूयॉर्क की फ्लाइट उतर चुकी थी। एयरपोर्ट पर लोग तेज़ कदमों से बाहर निकल रहे थे, कोई सूट-टाई में, कोई महंगे ब्रांड्स से लदी औरतें, कोई अपने टैक्सी की ओर भागते अमेरिकी।

लेकिन इन सबके बीच एक महिला सबसे अलग दिख रही थी। उसके कंधे पर हल्के गुलाबी रंग की साड़ी बड़ी सलीके से डली थी। साड़ी पर सुनहरी जरी की पतली किनारी चमक रही थी। माथे पर छोटी सी बिंदी, बालों को साधारण जोड़े में बांधा गया था। उसके चेहरे पर आत्मविश्वास साफ झलक रहा था। वह कोई पर्यटक नहीं थी, बल्कि एक बिजनेस वूमन थी जो अपनी होटल चेन की नई शाखा का निरीक्षण करने अमेरिका आई थी।

एयरपोर्ट से निकलते ही न्यूयॉर्क की ठंडी हवा ने उसका स्वागत किया। ऊंची-ऊंची इमारतें, सड़क पर दौड़ती टैक्सियां, हर सिग्नल की चमक, सब कुछ चकाचौंध कर देने वाला था। अनन्या की टैक्सी एक भव्य होटल के सामने रुकी—यह वही होटल था जिसे उसने भारत से पैसे लगाकर खड़ा किया था। नाम था "द रॉयल हेरिटेज"।

अनन्या ने गहरी सांस ली और टैक्सी से बाहर निकली। उसकी साड़ी के पल्लू पर हल्की हवा खेल रही थी। वह सीधे होटल के मुख्य दरवाजे पर पहुंची। दरवाजे पर खड़े दो गार्ड्स और अंदर खड़ा रिसेप्शन स्टाफ उसे देखते ही चौंक गए। गार्ड ने सिर से पांव तक उसे देखा—साड़ी, चूड़ियां, बिना मेकअप का साधारण चेहरा।
गार्ड हंसते हुए बोला,
"एक्सक्यूज मी मैम, यह कोई शादी का हॉल नहीं है। यह फाइव स्टार होटल है।"

अनन्या ने मुस्कुराते हुए कहा,
"मुझे पता है, मैं यहीं आई हूं।"

गार्ड ने आंखें तरेरी,
"लेकिन आपके जैसे लोग यहां गेस्ट नहीं हो सकते। यहां सिर्फ हाई क्लास लोग आते हैं।"
रिसेप्शन पर खड़ी लड़की ने भी ताना मारा,
"मैम, यह कोई इंडियन वेडिंग नहीं है। यू मस्ट बी लुकिंग फॉर सम कम्युनिटी सेंटर।"
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समय का असली मूल्य: एक घड़ी शोरूम की कहानीदोपहर की धूप कांच की दीवारों से छनकर फर्श पर चौकोर पैटर्न बना रही थी। साउथ दिल्...
23/09/2025

समय का असली मूल्य: एक घड़ी शोरूम की कहानी
दोपहर की धूप कांच की दीवारों से छनकर फर्श पर चौकोर पैटर्न बना रही थी। साउथ दिल्ली की एक आलीशान मार्केट, ऊंची-ऊंची इमारतें, संगमरमर की सीढ़ियां और बीचों-बीच एक चमचमाता वॉच शोरूम। अंदर हल्की सी महक, नरम संगीत और रोशनी में नहाए कांच के काउंटर, जिनमें घड़ियां ऐसे सजी थीं, मानो किसी शाही संग्रहालय की नाजुक निशानियां हों।
इसी दरवाजे से धीरे-धीरे एक बुजुर्ग ने कदम रखा। उम्र लगभग 75-77 साल, दुबला शरीर, लंबी सांसे, लेकिन चाल में ठहराव। धोती-कुर्ता साधारण था, धुला हुआ मगर पुराना। पैरों में घिसे हुए सैंडल और हाथ में एक छोटा सा कपड़े का थैला, जिसमें शायद दवा की पर्ची, एक पुराना चश्मा और एक तह किया हुआ अखबार रखा था। आंखों में चमक थी—जिज्ञासा की, अपनत्व की—जैसे किसी पुराने दोस्त से मिलने आए हों।
कांच के भीतर लगी एक स्टील ग्रेड डायल पर उनकी नजर ठिठक गई। घड़ी की बारीक सुइयां, किनारे की महीन पॉलिश, वह इसे देखकर मुस्कुरा दिए। सुइयां जैसे उनके भीतर के किसी भूले अध्याय की ओर इशारा कर रही थीं। उन्होंने काउंटर के पास जाकर धीमे से पूछा,
"बेटा, इसे जरा पास से देख सकता हूं?"
काउंटर पर खड़ा सेल्समैन, 24-25 साल का, चमकदार जैकेट में, पहले तो बुजुर्ग को ऊपर से नीचे तक देखता रहा। फिर होठों पर तिरछी हंसी आई। उसने कांच पर हथेली टिका कर कहा,
"सर, यह रेंज आपके लिए नहीं है। बाहर स्ट्रीट में छोटे स्टॉल हैं, वहीं से देख लीजिएगा। यहां की घड़ियां काफी ऊपर की चीज है।"
पास ही दो ग्राहक खड़े थे—एक युवक और उसकी मित्र। दोनों ने एक दूसरे की ओर देखा और धीमी हंसी फूट पड़ी। शोरूम के भीतर बैठी एक महिला ने मोबाइल का कैमरा ऑन किया। उसकी आंखों में व्यंग्य साफ था। बुजुर्ग कुछ पल चुप रहे। उनकी उंगलियां काउंटर की चिकनाई पर रुक-रुक कर चलने लगीं। मानो कांच की ठंडक में भी कोई पुरानी गर्मी तलाश रहे हों।
उन्होंने बहुत विनम्रता से कहा,
"बस करीब से देख लूंगा बेटा। समय पढ़ने का ढंग बदल गया है क्या?"
सेल्समैन अब खुलकर मुस्कुराया, लेकिन मुस्कान में खारापन था।
"सर, समय पढ़ना सबको आता है, लेकिन इस समय तक पहुंचना हर किसी के बस की बात नहीं।"
उसने काउंटर की चाबी घुमाते हुए भीतर की घड़ी की ओर एक तिरछी नजर डाली। फिर बुजुर्ग की ओर देखकर कंधे उचकाए, "समझे ना?"
अंदर केबिन से सुपरवाइजर बाहर आया—सुथरा सूट, चुस्त चाल। उसने सेल्समैन की बात सुनी और बिना किसी संकोच के जोड़ दिया,
"प्लीज सर, आप बाहर रेस्ट एरिया में बैठिए। यहां भीड़ हो जाएगी।"
उसकी आवाज में औपचारिक विनम्रता थी, मगर शब्दों का चयन अपमान से भी तेज चुभ रहा था। बुजुर्ग ने एक क्षण के लिए उस घड़ी को फिर देखा, जिसे आंखों में समेट लेना चाहते थे। फिर धीमे से सर हिला दिया,
"ठीक है। समय सामने हो और छूने ना दिया जाए, यह भी तो एक तरह का समय ही है।"
वे पलटे, थैला थोड़ा खिसका, कंधा झुक गया। दरवाजे की ओर चलते हुए उनकी पीठ कुछ और झुक गई। जैसे शोरूम की रोशनी के बीच से गुजरते-गुजरते कोई परछाई लंबी हो गई हो। ग्लास डोर के पास पहुंचते ही पीछे से फुसफुसाहट आई,
"आजकल हर कोई अंदर चला आता है। दिवाली में डिस्काउंट पूछने आए होंगे। इन्हें बताओ यह घड़ियां ईएमआई पर भी नहीं मिलती।"
पर बाहर निकलते वक्त बुजुर्ग के होठों पर वैसी हंसी नहीं थी जो हार कर आती है, बल्कि वैसी जो ठहराव से जन्म लेती है। आंखें जरूर भीग आई थीं, पर नमाज की तरह खामोश।
शोरूम के बाहर पोर्टिको के स्तंभों के बीच हवा जरा तेज चल रही थी। गमलों में लगे पौधे हिल रहे थे। बुजुर्ग ने अपने थैले से रुमाल निकाला, धीरे-धीरे आंखें पोंछी। पास के सिक्योरिटी बॉय का बच्चा, इंटर्न, लगभग 19-20 का, हिचकते हुए करीब आया। उसने कॉर्नर में खड़ी पानी की बोतल आगे की,
"अंकल, पानी?"
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दिखावा और असलियत का पर्दाकविता ने ऊंचे स्वर में कहा, "आप मेरी मर्जी के खिलाफ यह रिश्ता कैसे तय कर सकते हैं, पापा?" विजय ...
19/09/2025

दिखावा और असलियत का पर्दा
कविता ने ऊंचे स्वर में कहा, "आप मेरी मर्जी के खिलाफ यह रिश्ता कैसे तय कर सकते हैं, पापा?" विजय शर्मा ने शांत लेकिन दृढ़ आवाज़ में कहा, "क्योंकि मैं तुझसे प्यार करता हूँ, बेटी और आर्यन जैसा जीवन साथी हर किसी को नहीं मिलता।" कविता ने तमतमाकर कहा, "वह साधारण लड़का! न नौकरी, न कोई स्टेटस और ऊपर से आप चाहते हैं कि वह हमारे घर में घर जमाई बनकर रहे?" विजय ने गंभीर होकर उत्तर दिया, "अगर इस घर और जायदाद से रिश्ता रखना है तो यही शादी होगी, वरना तुम्हारी मर्जी।"

कविता ने अपनी नज़रें झुका लीं। उसने मजबूरी में, पिता के डर से और संपत्ति से ना कटने के लिए शादी को मंजूरी दे दी। शहर के सबसे महंगे होटल में एक भव्य शादी हुई। सजे हुए फूल, झिलमिलाती लाइटें और मेहमानों की भीड़ थी, पर दूल्हा-दुल्हन के बीच एक अनकही दूरी थी।

आर्यन ने धीरे से कहा, "अगर तुम यह शादी नहीं चाहती, तो अभी भी रुक सकते हैं। मैं तुम्हारे फैसले का सम्मान करूंगा।" कविता ने रूखे स्वर में कहा, "यह रिश्ता मेरे लिए सिर्फ एक समझौता है और तुम सिर्फ एक नाम।" आर्यन चुप रहा। उसने सिर्फ इतना सोचा, ‘कभी-कभी लोग जो देख नहीं पाते, वही सबसे बड़ा सच होता है।’

अपमान और एक रहस्य
ससुराल में आर्यन का पहला कदम पड़ते ही, कविता की माँ मालविका देवी ने आँखों में तिरस्कार भरकर कहा, "दामाद जी, आपका स्वागत है। अब यही आपका घर है। घर जमाई जो ठहरे।" आर्यन ने आदर से कहा, "धन्यवाद माँ जी। मैं कोशिश करूंगा कि इस घर में कोई तकलीफ ना हो।" मालविका ने हल्की हँसी के साथ कहा, "तकलीफ तो तब होती है जब कोई बोझ बन जाए। उम्मीद है आप नहीं बनेंगे।" आर्यन ने मुस्कुराकर सिर झुका दिया।

अगली सुबह आर्यन ने रसोई में पराठे बनाए। कविता ने बैठते हुए कहा, "कम से कम खाना तो बना लेते हो। घर में रहने वालों को यही तो आना चाहिए।" आर्यन ने शांति से कहा, "जीवन में कोई भी काम छोटा नहीं होता।" मालविका ने अख़बार से नज़रें हटाते हुए कहा, "वैसे भी बाहर की दुनिया तो आपके बस की है नहीं, तो घर के काम ही ठीक हैं।" कविता ने अपनी सहेली से फोन पर मज़ाक उड़ाया, "लगता है तुमने एक अच्छा घरेलू सहायक चुन लिया है, पति के नाम पर।" आर्यन यह सब सुनता, लेकिन कभी जवाब नहीं देता। उसके मन में कोई शिकवा नहीं था, पर भीतर कहीं एक ज्वाला जल रही थी।

रात को जब सब सोते तो आर्यन बालकनी में बैठकर चाँद की रोशनी में कुछ सोचता रहता। कभी-कभी वह एक विशेष नंबर पर फ़ोन करता और सिर्फ इतना कहता, "प्रोजेक्ट ए के डॉक्यूमेंट्स भेजो। कॉन्फिडेंशियल होना चाहिए," और फिर फ़ोन काट देता।

एक दिन कविता के चेहरे पर चिंता थी। उसकी कंपनी स्काइलिंक के शेयर गिर रहे थे और एक विदेशी कंपनी टेकओवर की कोशिश कर रही थी। मालविका ने चिंतित होकर कहा, "उस घर जमाई को तो बताना भी मत। उसे बिज़नेस की क्या समझ?" आर्यन सब सुन रहा था, पर उसने कुछ नहीं कहा।
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गरीबी का ताना, अमीरी का राज़गरीब समझकर कॉलेज की लड़कियां रोज-रोज़ मजाक उड़ाती थीं, लेकिन जब सच सामने आया, तो पूरा कॉलेज ...
19/09/2025

गरीबी का ताना, अमीरी का राज़
गरीब समझकर कॉलेज की लड़कियां रोज-रोज़ मजाक उड़ाती थीं, लेकिन जब सच सामने आया, तो पूरा कॉलेज हिल गया। यह कहानी है आरव सिंह की, जिसने अपनी सादगी के पीछे एक ऐसा राज़ छिपा रखा था, जिसने समाज के दिखावे भरे नजरिए को पूरी तरह से बदल दिया।

पहला दिन और पहला अपमान
सेंट्रल यूनिवर्सिटी का विशाल परिसर अपनी हरियाली और छात्रों की चहल-पहल से हमेशा जीवंत रहता था। इसी भीड़ में एक लड़का था, आरव सिंह, जिसके कदम धीमे थे और वह सोच में डूबा हुआ था। यह कॉलेज में उसका पहला दिन था, लेकिन वह किसी और की तरह महंगे कपड़े या चमकदार मोबाइल फोन लिए नहीं था। उसकी सादगी ही उसकी पहचान थी। पीठ पर एक पुराना फटा हुआ बैग और काले रंग की एक साधारण टीशर्ट, जिसे उसने कई बार पहना था। जैसे ही वह कॉलेज में दाखिल हुआ, छात्रों की नज़रें तुरंत उस पर टिक गईं।

लड़कियों की एक टोली, जिसमें रिया, काव्या और नेहा थीं, ने एक-दूसरे की तरफ देखते हुए फुसफुसाना शुरू कर दिया।
"देखो, यह कौन नया लड़का है? ऐसे कपड़े कहीं किसी पुरानी फैक्ट्री से तो नहीं निकला।" नेहा ने तंज कसा।
"इसको देखकर तो लगता है कि हॉस्टल के खाने का भी शौक नहीं होगा।" काव्या ने मज़ाक उड़ाया।
रिया ने आरव की तरफ देखते हुए कहा, "लगता है हमारी दुनिया में यह फिट नहीं होगा।"
वे तीनों ठहाका मारकर आगे बढ़ गईं, लेकिन उनकी बातें कॉलेज की गलियों में गूंजने लगीं। यह पहला झटका था जो आरव ने महसूस किया था।

आरव ने उन बातों को सुना, लेकिन उसकी प्रतिक्रिया बिल्कुल शांत थी। उसने खुद को समेटा और एक कोने की सीट पर बैठ गया। उसके दिल में एक अजीब सी पीड़ा थी, लेकिन वह उसे बाहर नहीं आने दे रहा था। क्लास के बाकी छात्र भी उसे देखकर अजीब सी प्रतिक्रियाएं दे रहे थे, कुछ ने उसे देखने लगे तो कुछ ने अपने समूहों में उसके बारे में बातें करना शुरू कर दिया। आरव को पता था कि उसे खुद को साबित करना होगा।

लगातार ताने और बढ़ता धैर्य
दिन बीतते गए, लेकिन लड़कियों की टिप्पणियां नहीं रुकीं। हर दिन एक नया मज़ाक, एक नया ताना। आरव ने सोचा, "अगर मैं भी जवाब दूँ तो शायद लड़कियां और लड़के मुझसे दूर हो जाएंगे। मुझे चुप रहना होगा और खुद को बेहतर बनाना होगा।" उसने खुद से वादा किया कि वह हार नहीं मानेगा। वह अपनी पढ़ाई में पूरी लगन से जुड़ जाएगा और एक दिन सबको दिखा देगा कि असली कीमत पैसों से नहीं, बल्कि इंसान के कर्मों से होती है।

कॉलेज के दूसरे सप्ताह में, आरव को यह एहसास होने लगा कि उसके लिए यहाँ की जिंदगी आसान नहीं है। जहाँ कुछ छात्र नए दोस्त बना रहे थे और पार्टियों में व्यस्त थे, वहीं आरव अकेला और चुपचाप अपने दिन बिता रहा था। रिया, काव्या और नेहा हर दिन नए तानों के साथ उसका स्वागत करतीं।
"ओह, आज फिर वही पुरानी टीशर्ट पहन ली?" रिया ने कैंटीन में चुटकी ली।
लड़कों के बीच भी स्थिति अलग नहीं थी। एक दिन जब वह लाइब्रेरी जा रहा था, तो कॉलेज के कुछ लड़कों ने उसे रोक लिया। "अरे, यह तो वही लड़का है जो हमेशा अकेला रहता है। क्या भाई, घर पर मम्मी-पापा ने पैसे नहीं दिए नए कपड़े खरीदने के लिए?" यह सुनकर आरव की आँखों में आँसू आ गए, लेकिन उसने उन्हें दबा लिया।

एक दिन प्रोफेसर ने घोषणा की कि अगले सप्ताह एक बड़ी प्रतियोगिता होगी और हर किसी को टीम बनानी होगी। सभी छात्रों ने अपनी-अपनी टीमें बना लीं, लेकिन आरव को किसी ने नहीं बुलाया। यह और भी ज्यादा दर्दनाक था। वह एक बार फिर अकेला रह गया। तभी अनुज, जो आरव की तरह शांत और गंभीर स्वभाव का छात्र था, उसके पास आया। "आरव, अगर तुम चाहो तो मेरी टीम में शामिल हो जाओ।" आरव के चेहरे पर पहली बार हल्की मुस्कान आई। उसने खुशी से स्वीकार किया।

काबिलियत की पहचान
कॉलेज के तीसरे सप्ताह में आरव का दिनचर्या लगभग एक जैसी ही थी: सुबह जल्दी उठना, समय पर क्लास जाना, और शाम को लाइब्रेरी में घंटों बैठकर पढ़ाई करना। उसे पता था कि केवल मेहनत से ही वह अपने सपनों को पूरा कर सकता है। लेकिन कॉलेज के बाकी छात्रों के लिए आरव का यही व्यवहार और चुप्पी एक पहेली बन गई थी।

एक दिन प्रोफेसर ने एक कंप्यूटर प्रोजेक्ट असाइन किया, जो ग्रुप में करना था। रिया, काव्या और नेहा की टीम को प्रोजेक्ट का एक हिस्सा समझ नहीं आ रहा था। हार मानकर, रिया ने सुझाव दिया कि किसी की मदद लेनी होगी। काव्या ने सुझाया, "क्यों न हम आरव से मदद माँगें? वैसे भी वह तो क्लास में ज्यादा बोलता नहीं, पर शायद वह इस चीज में अच्छा हो।"

वे आरव के पास गईं। आरव अपनी किताबों में डूबा हुआ था। लड़कियों ने उससे मदद माँगी। आरव ने शांत आवाज़ में कहा, "बताइए क्या समस्या है?" रिया ने सारी परेशानी बताई। आरव ने अपने लैपटॉप पर प्रोजेक्ट की कोडिंग खोलकर उन्हें समझाने लगा। कुछ ही मिनटों में उसने सारी समस्या का समाधान निकाल दिया। लड़कियां हैरान रह गईं।
"तुमने यह सब खुद किया है?" काव्या ने उत्सुकता से पूछा।
"हाँ, मैं इससे पहले भी ऐसे प्रोजेक्ट पर काम कर चुका हूँ।" आरव ने सिर हिलाया।
लड़कों ने यह दृश्य देखा और तंज कसना शुरू कर दिया, "वाह, आरव तो असल में किसी बड़े कोडर से कम नहीं।" पर लड़कियों ने फिर तंज उड़ाया, "क्यों? क्या ट्यूशन में पढ़ाई करवा रहे हो?" आरव ने खुद को रोककर कोई जवाब नहीं दिया।
प्रोफेसर ने आगे आकर कहा, "आरव, तुमने बहुत अच्छा काम किया है। तुम दूसरों की मदद कर रहे हो। यह सराहनीय है।" इस तारीफ़ से क्लास में कुछ लोगों की सोच बदलने लगी।

जब सच सामने आया
कॉलेज में दो महीने बीत चुके थे। आरव अब भी सबसे अलग था, लेकिन उसकी मेहनत प्रोफेसरों की नज़र में आ चुकी थी। वह हर सवाल का जवाब देता और लाइब्रेरी का सबसे नियमित छात्र था। एक दिन कॉलेज की डीन ने घोषणा की कि अगले हफ्ते स्कॉलरशिप अचीवर्स मीट होगा, जिसमें उन छात्रों का सम्मान किया जाएगा जिन्हें राष्ट्रीय स्तर पर छात्रवृत्ति मिली है।

इस खबर ने पूरे कॉलेज में हलचल मचा दी। रिया, काव्या और नेहा को जब पता चला कि आरव को भी इस मीट में बुलाया गया है, तो वे चौंक गईं।
"क्या? उस गरीब लड़के को?" रिया लगभग चिल्ला उठी।
"हाँ, मैंने लाइब्रेरी में नोटिस देखा था," नेहा ने धीमी आवाज़ में कहा।
वे तीनों सोच में पड़ गईं। कैसे एक लड़का, जो उनके लिए हर दिन का मज़ाक बन चुका था, अब कॉलेज का गर्व बन रहा था?

अगले दिन जब प्रोफेसर क्लास में आए, उन्होंने औपचारिक घोषणा की। "हम सबको गर्व है कि हमारे कॉलेज से आरव सिंह को भारत सरकार की प्रतिष्ठित राष्ट्रीय प्रतिभा छात्रवृत्ति मिली है। इसके लिए पूरे देश से केवल 25 छात्र चुने गए हैं।"
क्लास में एक क्षण के लिए सन्नाटा छा गया। लोग एक-दूसरे को देखने लगे। आरव की तरफ निगाहें उठीं। इस बार मज़ाक नहीं, बल्कि हैरानी और सम्मान था।

कॉलेज का सभागार खचाखच भरा हुआ था। हर चेहरा उत्सुक था। मंच पर नाम बुलाए जा रहे थे, और फिर उद्घोषक ने आरव का नाम पुकारा। "हम उस छात्र को बुलाना चाहेंगे जिसने बहुत साधारण हालातों से निकलकर असाधारण सफलता हासिल की है... मिस्टर आरव सिंह।"

पूरा कॉलेज तालियों से गूँज उठा। रिया, काव्या और नेहा एकदम सन्न थीं। उनकी आँखों के सामने एक नया आरव खड़ा था, गर्व और आत्मविश्वास से भरा हुआ। आरव ने मंच पर कदम रखा। उसके कपड़े अब भी साधारण थे, लेकिन उसकी चाल में एक ठहराव और गरिमा थी। माइक पर पहुँचकर उसने जो कहा, वह पूरा कॉलेज जिंदगी भर नहीं भूल पाया।

"नमस्ते। मैं आरव सिंह। आप सभी ने मुझे पिछले दो महीनों में देखा है। बहुत से लोगों ने मेरे कपड़े देखे, मेरे फटे बैग पर हँसे और मेरी चुप्पी को कमज़ोरी समझा। लेकिन आज मैं एक सच बताना चाहता हूँ।"
आरव ने गहरी साँस ली और कहा, "मैं गरीब नहीं हूँ। हाँ, आपने सही सुना। मैं उस शहर के सबसे बड़े उद्योगपति विक्रांत सिंह का बेटा हूँ।"

सभा में सनसनी फैल गई। लड़कियों हैरानी से एक-दूसरे को देखने लगीं।

"मेरे पिता के पास करोड़ों की संपत्ति है। लेकिन मैं जानना चाहता था कि इस देश में एक साधारण दिखने वाला इंसान, एक ब्रांडेड कपड़े पहनने वाले जितना सम्मान पाता है या नहीं। मैंने अपनी पहचान छिपाई ताकि मैं असली दुनिया को देख सकूँ, और मैं यह देखकर दुखी हूँ कि यहाँ व्यक्तित्व नहीं, पहनावा और मोबाइल का मॉडल देखा जाता है।"
"आपने मुझे गरीब समझकर ठहाके लगाए, मुझे तानों से नवाजा। लेकिन आपने मेरे हुनर को कभी जानने की कोशिश नहीं की। पर मैं आपसे नाराज नहीं हूँ, क्योंकि मैंने यहाँ आकर सीखा कि सच्चा इंसान वह होता है जो चुप रहकर भी दुनिया जीत सके।"

तालियों की गड़गड़ाहट इतनी जोर से गूँजी कि सभागार के शीशे तक काँप उठे। लड़कियों की आँखें शर्म से झुक गईं। रिया, जो आरव को सबसे अधिक ताने मारती थी, अब उसकी सच्चाई से घायल थी। काव्या और नेहा को भी अपनी गलती का एहसास हुआ।

एक नई शुरुआत
सभा के बाद जब आरव मंच से नीचे उतरा, तो बहुत से छात्र और प्रोफेसर उसे बधाई देने आए। रिया तीनों में सबसे पहले उसके पास आई।
"मुझे माफ़ करना, आरव," उसने काँपती आवाज़ में कहा। "मैंने तुम्हें कभी समझने की कोशिश नहीं की।"
आरव ने मुस्कुराकर जवाब दिया, "गलतियाँ सभी से होती हैं, लेकिन उन्हें स्वीकार करना साहस की निशानी है।"

उस दिन के बाद कॉलेज में बहुत कुछ बदल गया। जो लड़कियां उसे देखना तक नहीं चाहती थीं, अब उसके साथ एक फोटो के लिए भी उत्सुक थीं। लेकिन आरव अब सबको बराबरी की नज़र से देखता था, न कोई नफरत, न कोई घमंड। कॉलेज का माहौल अब पूरी तरह बदल चुका था। जो छात्र पहले फैशन और स्टाइल को ही सब कुछ मानते थे, वे अब मेहनत और प्रतिभा की कदर करने लगे थे।

कॉलेज के स्थापना दिवस पर आरव को 'स्टूडेंट ऑफ द ईयर' का खिताब मिला। समारोह में उसके पिता विक्रांत सिंह भी आए, लेकिन सादे कपड़ों में, बिल्कुल आरव की तरह। उन्होंने मंच से कहा, "मुझे गर्व है कि मेरा बेटा बिना नाम और पैसे के पहचान बना पाया।"

एक नया सेमेस्टर शुरू हुआ। अब रिया, काव्या और नेहा आरव के अच्छे मित्रों में गिनी जाती थीं। उनकी बातें, पहनावा, सोच सब बदल गया था। एक दिन रिया ने कहा, "काश, हम तुम्हें पहले समझ पाते।" आरव ने मुस्कुराकर जवाब दिया, "देर से ही सही, पर आपने सीखा, यही काफी है।"

आरव अब सिर्फ एक छात्र नहीं, बल्कि प्रेरणा का प्रतीक बन चुका था। उसके संघर्ष, सहनशीलता और सच्चाई ने सबका दिल जीत लिया था। जहाँ लोग पहले 'गरीब' कहकर मज़ाक उड़ाते थे, वहीं अब उसी नाम से मिसाल दी जाती थी। वह लड़का जिसे सबने छोटा समझा, आज सबसे बड़ा बन गया।
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