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बकरियां चराते हुए एक लड़की रास्ता भटक गई और भारतीय सीमा पार कर गई। फिर सेना के जवानों ने...देहरादून के एक शांत और मध्यमव...
09/09/2025

बकरियां चराते हुए एक लड़की रास्ता भटक गई और भारतीय सीमा पार कर गई। फिर सेना के जवानों ने...
देहरादून के एक शांत और मध्यमवर्गीय मोहल्ले में शर्मा परिवार को हमेशा एक आदर्श के रूप में देखा जाता था। पति अर्जुन शर्मा एक सिविल इंजीनियर थे और एक बड़े ठेकेदार के लिए काम करते थे। पत्नी नेहा एक स्थानीय ब्यूटी सैलून में काम करती थी। दोनों छोटे बच्चों के साथ उनका जीवन बाहर से बेहद सामान्य और सुखी दिखाई देता था। हर सुबह बच्चे नीली वर्दी पहनकर स्कूल जाते, मोहल्ले के लोग कहते – “देखो, यह घर तो मंदिर की तस्वीर जैसा है।”

लेकिन यह तस्वीर ज्यादा दिनों तक कायम न रह सकी। एक ठंडी सुबह खबर आई कि पूरा शर्मा परिवार हिमालय की पहाड़ियों में पिकनिक पर जाने के बाद अचानक लापता हो गया है। उनकी एसयूवी नाग टिब्बा ट्रेल के पास खड़ी मिली, गाड़ी का दरवाज़ा आधा खुला था, लेकिन सामान सही-सलामत था। न अर्जुन, न नेहा, और न ही बच्चे कहीं दिखाई दिए। पूरे मोहल्ले में सन्नाटा छा गया, पुलिस ने तुरंत जाँच शुरू कर दी और मीडिया ने इस गुमशुदगी को सुर्खियों में ला दिया।

जाँच के दौरान एक अजीब बात सामने आई – वहाँ संघर्ष के कोई निशान नहीं थे। न पैरों के निशान, न ही जानवरों के हमले का कोई सबूत। ऐसा लग रहा था जैसे पूरा परिवार हवा में गायब हो गया हो। अफ़वाहें फैलने लगीं – कोई कहता जंगली जानवर ले गए, कोई कहता आत्मा का खेल है। मगर पुलिस ने साफ़ कहा – “यह सिर्फ़ गुमशुदगी का मामला नहीं है।”

इस बीच, पुलिस ने नेहा की आखिरी तस्वीर देखी, जो राजपुर रोड पर एक दुकान के बाहर सीसीटीवी कैमरे में कैद हुई थी। उसकी आँखों में अजीब उदासी थी, होंठ भींचे हुए थे, मानो वह अंदर ही अंदर कोई बड़ा फैसला कर चुकी हो।

असलियत यह थी कि बाहर से देखने में जितना खूबसूरत परिवार लगता था, अंदर उतना ही दबाव और टूटन बढ़ चुकी थी। अर्जुन रोज़ ओवरटाइम करता था ताकि अपार्टमेंट का किराया और बच्चों की पढ़ाई चल सके। नेहा सैलून में घंटों खड़ी रहती, हाथों पर रसायनों के दाग पड़ गए थे। दोनों के बीच बहसें बढ़ने लगीं।

एक रात नेहा ने अर्जुन से कहा –
“मैं क्या कर रही हूँ इस शहर में? बस मशीन बन गई हूँ।”
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मेरे जीवन की शुरुआत बहुत साधारण थी। पढ़ाई ख़त्म करने के बाद मैं एक निर्माण कंपनी में काम करने लगा। शुरू-शुरू में मेरा का...
08/09/2025

मेरे जीवन की शुरुआत बहुत साधारण थी। पढ़ाई ख़त्म करने के बाद मैं एक निर्माण कंपनी में काम करने लगा। शुरू-शुरू में मेरा काम सिर्फ़ मजदूरों और कर्मचारियों की टीम का प्रबंधन करना था। धीरे-धीरे मुझे काम की आदत हो गई, और जब लोगों से अच्छे रिश्ते बन गए तो मैंने हिम्मत जुटाई और अलग होकर अपनी एक छोटी सी कंपनी खड़ी कर दी।

मेरी कंपनी देहरादून में थी, लेकिन काम पूरे उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में मिलता था। इसलिए मैं हमेशा यात्रा करता रहता था। जब भी घर लौटता, मेरी पत्नी सुनीता अपने चेहरे पर वही संतोष और अपनापन लिए मेरा इंतज़ार करती। उसने तीन बच्चों—दो बेटे और एक बेटी—को जन्म दिया। मैंने उससे कहा कि अब खेती-बाड़ी छोड़कर सिर्फ़ बच्चों और घर पर ध्यान दे। आर्थिक बोझ मैं उठा लूँगा। सुनीता ने मेरी बात मान ली।

उसने हर ज़िम्मेदारी बख़ूबी निभाई। मेरे माता-पिता ने भी कभी उसकी शिकायत नहीं की। बच्चे लगातार पढ़ाई में अव्वल आते रहे। धीरे-धीरे हम इतने सक्षम हो गए कि तीनों बच्चों की शादी के वक़्त उन्हें दिल्ली में एक-एक अपार्टमेंट तक दे सके। मुझे अपनी पत्नी पर गर्व था। मैं जितना भी कमाता, सब उसे भेज देता। सुनीता फिज़ूलखर्च नहीं थी। वह हर पैसे को भविष्य के लिए सँभालना जानती थी।

सालों तक सब कुछ सुचारू चलता रहा। फिर समय आया और मैंने सेवानिवृत्ति ले ली। सोचा कि अब गाँव लौटकर चैन से ज़िंदगी बिताऊँगा। मगर लौटने के कुछ ही महीनों बाद मेरी दुनिया उलट गई।

एक दिन अचानक तीस साल की एक महिला अपने साथ एक बच्चा लेकर मेरे घर पहुँची। उसने सीधे मेरे सामने कहा कि यह बच्चा मेरा है। वह चाहती थी कि मैं ज़िंदगी भर उस माँ और बेटे की ज़िम्मेदारी लूँ। सुनीता यह सुनते ही भड़क उठी। उसने मुझे बोलने का मौका भी नहीं दिया और माँ-बेटे को तुरंत घर से बाहर निकाल दिया।

उस रात उसने मुझसे जवाब माँगा। मजबूर होकर मैंने स्वीकार किया कि दस साल पहले चमोली में एक प्रोजेक्ट के दौरान मेरा उस महिला से संबंध रहा था। लेकिन मुझे यह नहीं पता था कि उस रिश्ते से एक बच्चा भी पैदा हुआ। मेरी यह स्वीकारोक्ति सुनते ही सुनीता ने बच्चों को बुलाया और घोषणा कर दी कि वह मुझे हमेशा के लिए अस्वीकार करती है। मुझे घर से निकाल दिया गया।

बच्चों ने भी मेरी कोई सफ़ाई नहीं सुनी। वे सुनीता को दिल्ली ले गए और मुझे गाँव में बूढ़ी माँ के साथ अकेला छोड़ दिया। कुछ महीनों बाद माँ भी चली गई। अंतिम संस्कार के समय मैंने बच्चों को बुलाया, लेकिन सुनीता नहीं आई। उसने साफ़ कह दिया—अब हमारे बीच कोई रिश्ता नहीं है।
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सिर्फ एक रात के लिए घर में सहारा माँगा था, उसने जिंदगी ही बदल दी 🥺😭शाम का वक़्त था। सूरज पहाड़ों के पीछे ढल रहा था और आक...
08/09/2025

सिर्फ एक रात के लिए घर में सहारा माँगा था, उसने जिंदगी ही बदल दी 🥺😭
शाम का वक़्त था। सूरज पहाड़ों के पीछे ढल रहा था और आकाश पर गहराते सन्नाटे का रंग छा चुका था। गाँव के एक छोटे से घर में विक्रम अकेला बैठा था। उसकी आँखों में उदासी साफ झलक रही थी। पत्नी के निधन के बाद उसका जीवन सूना हो गया था। न कोई हँसी, न कोई साथ। अकेलापन हर दिन उसके सीने को कुरेदता था।

अचानक दरवाज़े पर दस्तक हुई। विक्रम ने उठकर दरवाज़ा खोला तो सामने उसके चाचा श्यामलाल खड़े थे। उनके साथ एक औरत और एक चार साल का बच्चा भी था। विक्रम ने हैरानी से पूछा,
— “चाचा, यह कौन हैं? और इतनी रात को आप इन्हें मेरे घर क्यों लाए?”

श्यामलाल ने गंभीर स्वर में कहा,
— “बेटा, यह औरत बेसहारा है। यह मेरी दुकान पर रात बिताने आई थी। लेकिन वहाँ सुरक्षित नहीं है। मैंने सोचा, इसे तुम्हारे पास छोड़ दूँ। बस एक रात की बात है, सुबह यह अपने बच्चे के साथ चली जाएगी।”

विक्रम सकपका गया। उसने कहा,
— “चाचा, मैं अकेला रहता हूँ। अगर लोगों को पता चला तो क्या कहेंगे?”

श्यामलाल ने कंधे पर हाथ रखते हुए कहा,
— “बेटा, मजबूरी बड़ी चीज़ होती है। किसी की मदद करना इंसानियत है। चिंता मत कर, यह सुबह चली जाएगी।”

विक्रम चाचा की बात मान गया। उसने औरत और बच्चे को अंदर बुलाया और एक कमरे की ओर इशारा कर दिया।
— “यहाँ आराम करो। कुछ चाहिए तो बता देना।”

औरत की आँखों में बेबसी और डर था। बच्चा उसकी गोद में चिपका हुआ था। विक्रम अपने कमरे में चला गया, लेकिन नींद उसकी आँखों से कोसों दूर थी। उसे लगा कि शायद औरत और बच्चा भूखे होंगे। उसने रसोई में जाकर दूध गरम किया और दो कप चाय बनाई।

वह उस कमरे की ओर गया। दरवाज़ा हल्का खुला था। अंदर देखा तो औरत कोने में बैठी थी और बच्चा उसकी गोद में सो रहा था। दोनों थके और उदास दिख रहे थे। विक्रम ने दरवाज़े पर दस्तक दी और मुस्कुराकर बोला,
— “डरने की ज़रूरत नहीं। बस यह चाय पी लो, थोड़ी राहत मिलेगी।”

औरत ने धीरे से कप लिया और बिना कुछ बोले दरवाज़ा बंद कर लिया। उसकी आँखों में डर तो था, मगर कृतज्ञता भी साफ झलक रही थी।

अगली सुबह जब विक्रम उठा तो दंग रह गया। महीनों से गंदा पड़ा घर चमक रहा था। आँगन साफ़ था, बर्तन चमक रहे थे, और रसोई में ताज़गी महसूस हो रही थी। तभी औरत एक ट्रे में चाय लेकर आई। उसके चेहरे पर हल्की मुस्कान थी। उसने कहा,
— “यह चाय आपके लिए है। मैं थोड़ी देर में अपने बेटे के साथ चली जाऊँगी।”

विक्रम ने हैरानी से कहा,
— “यह सब तुमने किया? घर तो जैसे किसी ने प्यार से सजा दिया हो।”

औरत ने सिर झुकाकर कहा,
— “आपने हमें रात दी, तो मेरा फर्ज़ था कि आपके घर को सँवार दूँ। गंदगी देखकर चैन नहीं आया।”
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देहरादून की ठंडी सर्दियों की एक सुबह। पहाड़ों पर बर्फ की हल्की चादर बिछी थी और सूरज की किरणें धीरे-धीरे बादलों के बीच से...
08/09/2025

देहरादून की ठंडी सर्दियों की एक सुबह। पहाड़ों पर बर्फ की हल्की चादर बिछी थी और सूरज की किरणें धीरे-धीरे बादलों के बीच से झाँक रही थीं। शहर के मध्यमवर्गीय रिहायशी इलाक़े में बसे शर्मा परिवार को लोग अक्सर सफलता और संतुलित जीवन का उदाहरण कहते थे।

पति अर्जुन शर्मा एक सिविल इंजीनियर थे और एक नामी ठेकेदार कंपनी में काम करते थे। काम का दबाव भले ही ज़्यादा था, पर स्थिर आय और इमानदारी के लिए लोग उनका सम्मान करते थे। पत्नी नेहा, जो कुछ ही गलियों दूर स्थित एक छोटे से ब्यूटी सैलून में काम करती थी, पड़ोस की औरतों के बीच लोकप्रिय थी। उनके दो छोटे बच्चे—राघव और प्रिया—हर सुबह नीली यूनिफ़ॉर्म पहने, हाथों में पानी की बोतल और बैग लेकर हँसते-खेलते स्कूल जाते। मोहल्ले वाले अकसर कहते:

“शर्मा परिवार का घर मंदिर जैसा शांत है, जहाँ से हमेशा हँसी-खुशी की आवाज़ें आती हैं।”

पहली दरारें

पर तस्वीरें हमेशा सच नहीं बतातीं। घर की चारदीवारी के भीतर हालात धीरे-धीरे बदल रहे थे। अर्जुन सुबह से देर रात तक काम में डूबे रहते। ठेकेदार की मांगें और प्रोजेक्ट की समयसीमाएँ उन्हें थका देतीं। वहीं नेहा, दिनभर सैलून में काम करती, तेज़ रसायनों की गंध और लगातार खड़े रहने की वजह से थक चुकी थी।

एक रात जब अर्जुन देर से घर लौटे, खाना ठंडा हो चुका था और बच्चे सो चुके थे। नेहा ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा:

“मैं शहर में क्या कर रही हूँ? सुबह से शाम तक मशीन की तरह काम करती हूँ। ना अपने लिए वक्त, ना परिवार के लिए।”

अर्जुन ने चिड़चिड़े स्वर में जवाब दिया:
“कम से कम यहाँ हमारे बच्चों का भविष्य तो सुरक्षित है। गाँव लौटकर क्या मिलेगा?”

यह बहस रोज़ की ज़िंदगी का हिस्सा बन गई। छोटे-मोटे झगड़े गहरी खाई में बदलते जा रहे थे। बाहर से खुशहाल दिखने वाला परिवार अंदर ही अंदर दरक रहा था।

नेहा और नया रिश्ता

इसी बीच सैलून में एक नियमित ग्राहक आता था—राहुल खन्ना। लंबा, आत्मविश्वासी और मीठी बातें करने वाला। वह नेहा की थकान पहचान लेता, उसकी तारीफ़ करता और उसके दुखों को सुनता। धीरे-धीरे नेहा उसके साथ सहज महसूस करने लगी।

छोटी-छोटी बातें अब गुप्त मुलाक़ातों तक पहुँच गईं। नेहा को लगा कि राहुल उसकी दुनिया समझता है, जो अर्जुन कभी नहीं कर पाया। अपराधबोध और आकर्षण के बीच झूलती नेहा ने मन ही मन सोचना शुरू कर दिया:
“अगर अर्जुन न होता, तो मेरी ज़िंदगी कुछ और होती।”
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बारिश में लड़की ने सिर्फ मदद की थी… करोड़पति लड़के ने उस रात जो किया, इंसानियत रो पड़ीबरसात की वह रात इंदौर शहर पर जैसे ...
08/09/2025

बारिश में लड़की ने सिर्फ मदद की थी… करोड़पति लड़के ने उस रात जो किया, इंसानियत रो पड़ी
बरसात की वह रात इंदौर शहर पर जैसे किसी इम्तहान की तरह उतरी थी। सड़कें खाली, बादलों की गरज और पानी की बौछारें हर किसी को घरों में कैद कर चुकी थीं। मगर अरमान—एक युवा करोड़पति उद्यमी—अपनी लंबी मीटिंग के बाद लौट रहा था। वह जानता था कि उसकी मां दरवाजे पर बैठी होंगी और छोटी बहन रात का खाना उसी के साथ खाने का इंतजार कर रही होगी। घड़ी की सुइयां रात के साढ़े दस को पार कर चुकी थीं। तभी अचानक उसकी कार झटके से रुक गई।

बोनट खोला तो भाप का गुबार उसके चेहरे पर पड़ा। मोबाइल भी बंद हो चुका था। अंधेरे और बरसात के बीच वह असहाय सा बैठा था कि अचानक खिड़की पर दस्तक हुई। बाहर खड़ी थी एक लड़की—भीगी साड़ी, कांपती उंगलियां और आंखों में एक अजीब सा भरोसा। उसने कहा,
“डरिए मत, मेरा घर पास में है। रात यही गुजार लीजिए। सुबह मैकेनिक बुला दूंगी।”

अरमान पल भर को झिझका। अजनबी लड़की, सुनसान रास्ता—पर मां की चिंता और बरसात की निर्दयी बौछारें देखकर उसने विवेक का रास्ता चुना। लड़की ने अपना नाम काव्या बताया और आगे-आगे चल दी। कीचड़ में उसके पांव के निशान पड़ते और बारिश उन्हें तुरंत मिटा देती। थोड़ी दूर चलकर दोनों एक छोटे से घर में पहुंचे।

टिन की छत पर बारिश की लय बज रही थी। बरामदे में पुरानी कुर्सी और दरवाजे पर रखा दीपक अभी भी धधक रहा था। काव्या ने मुस्कुराकर दरवाजा खोला। अंदर सूखे कपड़े, तौलिए और रसोई से आती अदरक-तुलसी वाली चाय की खुशबू—जैसे किसी अनदेखे मेहमान के लिए पहले से इंतजाम हो।

अरमान सतर्क था, पर काव्या की आंखों का अपनापन उसे भरोसा दिला रहा था। उसने कपड़े बदल लिए और चाय का प्याला हाथ में लिया। उसने हल्के स्वर में पूछा,
“क्या आप हर रात किसी अनजान को यूं घर में जगह देती हैं?”

काव्या ने भाप उठते प्याले को देखा और शांत स्वर में बोली,
“हर रात नहीं। पर जब भी कोई मुसीबत में दिखता है, मैं ठहरना सीख चुकी हूं।”

उसके शब्दों ने अरमान को भीतर तक झकझोर दिया। जैसे इन वाक्यों के पीछे कोई गहरा तूफान हो। उसने धीरे से पूछा,
“आप अकेली इस सुनसान जगह पर रहती हैं? डर नहीं लगता?”
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Dm साहिबा ने 14 साल के लड़के से सादी कर ली 32 साल की विधवा Dm साहिबा ने 14 साल के लड़के से सादी किउ कीsee more :https://rb...
08/09/2025

Dm साहिबा ने 14 साल के लड़के से सादी कर ली 32 साल की विधवा Dm साहिबा ने 14 साल के लड़के से सादी किउ की
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अमीर बाप की बेटी एक गरीब लड़के के साथ खिलौना समझकर खेलती रही.. फिर जो हुआ? see more :https://rb.celebshow247.com/klu5
08/09/2025

अमीर बाप की बेटी एक गरीब लड़के के साथ खिलौना समझकर खेलती रही.. फिर जो हुआ?
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यह पूरी कहानी एक स्त्री की आत्म-सम्मान, संघर्ष और पुनर्जन्म की यात्रा है।वह एक साधारण शादी से अर्जुन शर्मा की पत्नी बनी—...
08/09/2025

यह पूरी कहानी एक स्त्री की आत्म-सम्मान, संघर्ष और पुनर्जन्म की यात्रा है।

वह एक साधारण शादी से अर्जुन शर्मा की पत्नी बनी—बिना दहेज़, बिना तामझाम, सिर्फ़ एक प्रमाणपत्र और एक वादा कि “सेटल होने के बाद भरपाई कर दूँगा।” लेकिन तीन साल बाद भी उसके पास न तो पैसा था, न ही पति का सम्मान।

सुबह से रात तक घर और बच्चे की देखभाल, ऑनलाइन सामान बेचना, बाज़ार दौड़ना और रसोई सँभालना—उसने सबकुछ चुपचाप किया। फिर एक दिन अर्जुन के कॉलेज के दोस्त आए। उसने लज़ीज़ खाना पकाया, पसीना बहाकर सब सजाया। लेकिन मेज़ पर जाते ही, अर्जुन ने उसका परिचय पत्नी नहीं, बल्कि “गाँव से आई नौकरानी” के रूप में कराया।

उस क्षण उसकी चुप्पी टूटी। उसने सबके सामने कहा—“मैं उसकी कानूनी पत्नी हूँ, उसके बच्चे की माँ हूँ, तीन साल इस घर को दिया है। लेकिन आज से यह भूमिका खत्म।” फिर वह बच्चे को लेकर चली गई।

बेंगलुरु के फैमिली कोर्ट में तलाक़ की अर्जी डाली। इंदिरानगर में छोटे स्टूडियो से नई ज़िंदगी शुरू की। “घर की रसोई” नाम से टिफ़िन सेवा शुरू की—5 से 100 ग्राहकों तक पहुँची। अकेली माँओं को साथ जोड़ा। कोर्ट में सम्मान वापस पाया। जज ने साफ़ कहा—“इज्जत दूसरों को नीचा दिखाने में नहीं है।”
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Relatives were insulting the father, then what the boy did was something no one had even imagined...शहर के सबसे बड़े होट...
08/09/2025

Relatives were insulting the father, then what the boy did was something no one had even imagined...
शहर के सबसे बड़े होटल में उस रात रौशनी और शोर-शराबे का मेला लगा था। आलीशान हॉल, जगमगाते झूमर, फूलों से सजी दीवारें और चारों तरफ़ महंगे कपड़ों में सजे-धजे मेहमान। यह शादी किसी आम इंसान की नहीं थी, बल्कि शहर के सबसे रसूखदार परिवार की थी। हर तरफ़ कैमरे, मीडिया और सोशलाइट्स मौजूद थे।

इसी भीड़ में धीरे-धीरे चलकर विजय अपने बेटे आर्यन के साथ गेट की ओर बढ़े। विजय साधारण-सी सफ़ेद शर्ट और धोती पहने हुए थे, पैरों में साधारण जूते। आर्यन ने भी बहुत महंगे कपड़े नहीं पहने थे, बस साफ-सुथरे पर साधारण। गेट पर खड़ा गार्ड उन्हें देखकर भौंहें चढ़ा लेता है।

“नाम बताइए। गेस्ट लिस्ट में नाम होगा तभी अंदर एंट्री मिलेगी।”

विजय थोड़े हिचकिचाए। “बेटा, बुलावा आया था… दूल्हे के पापा हमारे पुराने रिश्तेदार हैं।”

गार्ड ने ऊपर से नीचे तक उन्हें देखा। उसके चेहरे पर तिरस्कार साफ़ झलक रहा था। उसने होंठ तिरछे करके कहा, “बुलावा तो सबको आता है, साहब। लेकिन लिस्ट में नाम होना चाहिए। वरना वापस जाइए।”

पास खड़े दो वेटर आपस में हंसी दबा रहे थे। उनमें से एक ने दूसरे से कहा, “लगता है गांव से आए हैं। देखो न कपड़े! पता नहीं कैसे मुंह उठाकर इतनी वीआईपी शादी में चले आए।”

आर्यन सब सुन रहा था। उसकी आंखों में गुस्से की आग भड़क रही थी लेकिन उसने कुछ नहीं कहा। तभी अंदर से एक रिश्तेदार उन्हें पहचान गया और गार्ड से बोला, “अरे! यह हमारे गेस्ट हैं, इन्हें आने दो।”

गार्ड अनमने ढंग से किनारे हो गया। विजय और आर्यन अंदर पहुंचे। सामने वेलकम एरिया सजा था। बड़े-बड़े मेहमानों को फूल मालाएं पहनाई जा रही थीं, कैमरे उनकी तस्वीरें खींच रहे थे। लेकिन विजय और आर्यन वहां खड़े रह गए, किसी ने उन्हें नोटिस तक नहीं किया।

हॉल में जगह-जगह रिश्तेदार और मेहमान चकाचौंध में डूबे थे। रिया का कजिन करण अपनी सहेली सोनिया से बोला, “इन जैसे लोगों को बुलाने से पूरी क्लास खराब लगती है। देखो कैसी शर्मिंदगी हो रही है।”
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छात्र को रोज स्कूल देर से आने पर मिलती थी सजा, एक दिन टीचर ने पकड़ा...लखनऊ की सुबह हमेशा कुछ खास होती है—पुरानी हवेलियों...
07/09/2025

छात्र को रोज स्कूल देर से आने पर मिलती थी सजा, एक दिन टीचर ने पकड़ा...
लखनऊ की सुबह हमेशा कुछ खास होती है—पुरानी हवेलियों, संकरी गलियों और आधुनिकीकरण की रफ्तार के बीच घिरा हुआ यह शहर हर रोज़ एक नई कहानी कहता है। इन्हीं कहानियों में से एक है आदर्श विद्या मंदिर की, जो अपने अनुशासन और पढ़ाई के स्तर के लिए पूरे इलाके में जाना जाता था।

इस स्कूल की 10वीं कक्षा की अध्यापिका थीं श्रीमती शारदा यादव। उम्र करीब पैंतालीस साल, व्यक्तित्व में दृढ़ता, चेहरे पर गंभीरता और नियमों के प्रति अटूट आस्था। उनके लिए जीवन का पहला और अंतिम मंत्र था—अनुशासन। उनकी कक्षा में देर से आने वाले छात्रों के लिए कोई माफी नहीं थी। उनकी मान्यता थी कि जो बच्चा समय का पाबंद नहीं है, वह जीवन में कभी सफल नहीं हो सकता।

इसी सख़्त नियम का सबसे बड़ा शिकार था पंद्रह वर्षीय छात्र साहिल। दुबला-पतला, झुकी निगाहों वाला, चुपचाप रहने वाला लड़का। उसकी सबसे बड़ी ‘गलती’ थी—हर रोज़ देर से स्कूल आना। घड़ी में आठ बजते ही प्रार्थना सभा शुरू हो जाती, और साहिल आठ बजकर दस या पंद्रह मिनट बाद हाँफता हुआ गेट पर दिखाई देता। उसका यूनिफॉर्म पूरी तरह से साफ़ नहीं होता, जूतों पर धूल जमी होती और माथे पर पसीने की बूंदें चमक रही होतीं।

हर दिन वही दृश्य दोहराया जाता। शारदा जी की आवाज गूंजती—
“फिर लेट! क्या तुम्हें घर में घड़ी नहीं है? क्या तुम्हारे माँ-बाप को तुम्हारी फिक्र नहीं?”

पूरी कक्षा के सामने साहिल खड़ा रहता, बिना किसी जवाब के, सिर झुकाए। फिर आती बैंथ की मार, कभी सैकड़ों बार लिखने की सज़ा, कभी पूरे पीरियड तक क्लास से बाहर खड़ा रहना। सहपाठी उसका मज़ाक उड़ाते—‘लेट-लतीफ़ साहिल’ नाम पड़ गया था।

शारदा जी को लगता कि यह लड़का जानबूझकर उनकी सख़्ती को चुनौती दे रहा है। उन्होंने समझाया, डांटा, डराया, लेकिन साहिल का देर से आना कभी नहीं बदला।

लेकिन साहिल की ज़िंदगी स्कूल की दीवारों के बाहर एक और ही कहानी कहती थी। वह लखनऊ की झुग्गी बस्ती में अपनी बीमार माँ और छोटी बहन गुड़िया के साथ रहता था। पिता का देहांत फैक्ट्री दुर्घटना में हो चुका था। माँ कमला अब दूसरों के घरों में काम करके परिवार चलाती थी, लेकिन लगातार बीमारी ने उसके शरीर को तोड़ दिया था।
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मक्के के खेत का रहस्यमेरा नाम मीरा है। मेरी शादी अर्जुन से हुई और मैं उत्तर प्रदेश के एक गाँव में अपनी सास आशा देवी के स...
07/09/2025

मक्के के खेत का रहस्य

मेरा नाम मीरा है। मेरी शादी अर्जुन से हुई और मैं उत्तर प्रदेश के एक गाँव में अपनी सास आशा देवी के साथ एक छोटे से घर में रहती हूँ। हमारा जीवन सरल था—छोटा-सा खेत, कुछ मवेशी और रोज़मर्रा की मेहनत। मेरी सास सख़्त मिज़ाज की थीं, गाँव भर में उनका नाम इज्ज़त से लिया जाता था। वे हमेशा साफ़-सुथरी रहतीं, सुबह-शाम पूजा करतीं और घर के काम में कोई कमी नहीं आने देतीं।

लेकिन एक शाम, मैंने कुछ ऐसा देखा जिसने मेरी नींद उड़ा दी।

संध्या ढल रही थी, आसमान लाल हो चला था। मैं घर के पीछे बर्तन धो रही थी तभी मेरी नज़र पड़ी—सास धीरे-धीरे मक्के के खेत की ओर बढ़ रही थीं। उनके हाथ में लाल रंग की थैली थी और चेहरे पर अजीब सी बेचैनी। जिज्ञासा के कारण मैं चुपचाप उनका पीछा करने लगी। खेत में घुसते ही मैंने देखा कि वहाँ एक आदमी खड़ा है। उम्र में वह भी लगभग मेरी सास जितना ही होगा, साधारण धोती-कुर्ता पहने, मानो कोई किसान।

फिर जो दृश्य मेरी आँखों के सामने आया, उसने मुझे हिला दिया। दोनों एक-दूसरे के क़रीब आए, फुसफुसाए और फिर अंतरंग हो गए। मेरा दिल धड़कने लगा। मेरे गले से आवाज़ तक नहीं निकली। मुझे लगा मेरी सास का कोई गुप्त प्रेमी है। डर और शर्म से मैं उल्टे क़दमों से घर लौट आई।

रातभर नींद नहीं आई। अंततः मैंने अर्जुन को सब कुछ बता दिया। मेरी आवाज़ काँप रही थी। अर्जुन ने ध्यान से सुना, फिर गंभीर होकर बोला—
“मीरा, जल्दबाज़ी में कुछ मत सोचो। माँ वैसी नहीं हैं। मुझे संभालने दो।”

मैं चुप हो गई।

अगली सुबह गाँव में हंगामा मचा हुआ था। हमारे खेत के पास पुलिस और कृषि विभाग के अधिकारी खड़े थे। उन्होंने मक्के के खेत को सील कर दिया था। मेरा दिल डूब गया—क्या सास का राज़ उजागर हो गया? लेकिन थोड़ी ही देर में सच सामने आया।

पुलिस और अधिकारियों ने उसी जगह खुदाई की जहाँ मैंने पिछली रात सास और उस आदमी को देखा था। वहाँ से बड़े-बड़े प्लास्टिक के डिब्बे निकले, जिनमें सफेद रंग का पाउडर भरा था। अधिकारी बोले—यह नकली उर्वरक है, अवैध सामान जिसे गिरोह गाँव-गाँव पहुँचाने की फिराक में है।

मैं स्तब्ध थी। तो क्या मैंने जो देखा वह प्रेम-प्रसंग नहीं, बल्कि तस्करी का सौदा था?

वह आदमी श्यामलाल वर्मा निकला—सास का पुराना परिचित, जो पहले सहकारी समिति (PACS) में काम करता था। समिति बंद हो गई तो उसने उर्वरक का धंधा शुरू किया, लेकिन बाद में नकली उर्वरक गिरोह से जुड़ गया। उसने आशा देवी को लालच दिया—“अपने खेत में माल छुपा दो, मुनाफे में हिस्सा मिलेगा।”

अर्जुन ने रात में ही खेत में जाकर संदिग्ध डिब्बे देखे थे। उसने बिना देर किए पुलिस को सूचना दे दी। इसीलिए सुबह छापा पड़ा।

पूछताछ में सास ने सिर झुकाकर सब स्वीकार कर लिया। उन्होंने कहा कि उनका मकसद परिवार की मदद करना था—घर की मरम्मत करनी थी, कर्ज़ चुकाना था। पुलिस ने उन्हें अस्थायी तौर पर छोड़ दिया लेकिन श्यामलाल को गिरफ़्तार कर लिया गया।

गाँव में तरह-तरह की बातें होने लगीं। कोई कहता—“आशा देवी लालच में फँस गईं।” कोई कहता—“श्यामलाल ने उन्हें फुसलाया।” मैं चुप थी, पर मन में ग्लानि थी कि मैंने सास को ग़लत समझा।

अर्जुन ने मेरी ओर देखा और बस इतना कहा—
“मीरा, तुम गलत नहीं थी। तुमने वही देखा जो दिख रहा था। लेकिन हमें माँ का साथ देना है।”

उसके शब्दों ने मुझे ढाढ़स दिया।
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उत्तराखंड की पहाड़ियों में बसे छोटे-से कस्बे पौड़ी गढ़वाल में सुबह की धूप जब देवदार के जंगलों पर गिरती है, तो चारों ओर ए...
07/09/2025

उत्तराखंड की पहाड़ियों में बसे छोटे-से कस्बे पौड़ी गढ़वाल में सुबह की धूप जब देवदार के जंगलों पर गिरती है, तो चारों ओर एक अजीब-सी शांति बिखर जाती है। यही शांति चालीस वर्षीय राकेश के जीवन का हिस्सा थी। राकेश साधारण इंसान थे, लकड़ी की एक छोटी कार्यशाला में मजदूरी करके परिवार का पेट पालते थे। उनकी पत्नी मीरा घर संभालती थी और छोटी-सी बेटी आन्या उनके जीवन की सबसे बड़ी खुशी थी।

आन्या को बचपन से ही अपने पिता के साथ नदी किनारे मछली पकड़ने जाना बेहद पसंद था। यह उनके रिश्ते की सबसे प्यारी डोर थी। नदी के कल-कल बहते पानी के पास बैठकर वे बातें करते—पढ़ाई की, सपनों की, और उस भविष्य की जिसे आन्या रंगीन बनाना चाहती थी।

उस दिन भी मौसम साफ़ था। आसमान नीला, हवा में ठंडक और धूप नरम थी। आन्या ने परीक्षाएँ खत्म होने के बाद पिता से कहा था—
“पापा, आज हम मछली पकड़ने चलेंगे ना? और ढेर सारी तस्वीरें भी लेंगे।”

राकेश मुस्कुराए, उन्होंने पुराना डिजिटल कैमरा बैग में रखा। यह कैमरा उन्हें सालों पहले दोस्त ने शादी में तोहफ़े में दिया था। तस्वीरें खींचना उनका छोटा-सा शौक था। उन्होंने मछली पकड़ने की छड़ें, चारे का डिब्बा, और पानी की बोतल उठाई।

“चलो, आज की तस्वीरें तुम्हारे बचपन की सबसे कीमती याद बनेंगी।” — राकेश ने कहा।

नदी किनारे की हँसी

पिता-बेटी देवदार के जंगल से होकर अलकनंदा की एक शाखा पर पहुँचे। यह जगह सुनसान थी, बिल्कुल वैसी जैसी राकेश को पसंद थी। पानी पारदर्शी था, पक्षियों की चहचहाहट गूँज रही थी।

आन्या ने उत्सुकता से छड़ी डाली। पानी में चारा डालते ही उसकी आँखें चमक उठीं। राकेश ने कैमरा निकाला और क्लिक—क्लिक करते रहे। कैमरे में कैद हुए पल :

जब आन्या ने पहली मछली पकड़ी और खुशी से उछल पड़ी।

जब हवा ने उसके बालों को चेहरे पर उड़ा दिया।

जब उसने पापा की ओर मुड़कर मासूम हँसी बिखेरी।

इन तस्वीरों में उनकी आत्मा का सुकून बस गया था।

गायब हो जाना

शाम होते-होते हल्की धुंध छा गई। गाँव वाले राकेश और आन्या को अक्सर देर रात तक मछली पकड़ते देखते थे, इसलिए उस दिन किसी ने ध्यान नहीं दिया। लेकिन रात गहराने पर भी जब वे घर नहीं लौटे, मीरा बेचैन हो गई।

पहले उसने सोचा कि वे किसी परिचित के घर होंगे। लेकिन आधी रात बीतने लगी तो वह पड़ोसियों को लेकर टॉर्च हाथ में नदी की ओर भागी। रास्ते पर राकेश की मोटरसाइकिल करीने से खड़ी मिली। लेकिन न छड़ी थी, न चारा, न कोई सामान। बस डरावनी ख़ामोशी और काला पानी।

अगली सुबह पुलिस बुलाई गई। गोताखोरों ने नदी की तलहटी छानी, वन विभाग ने जंगल में खोजबीन की। पर कुछ नहीं मिला। बस मिट्टी पर कुछ धुँधले पैरों के निशान।

मीरा टूट गई। दिन-ब-दिन वह बरामदे में बैठकर आसमान की ओर ताकती, उम्मीद करती कि दरवाज़ा खुलेगा और राकेश व आन्या लौट आएँगे। लेकिन समय बीत गया। एक साल, फिर दो साल… गाँव वाले मान बैठे कि वे हमेशा के लिए खो गए हैं। सिर्फ़ मीरा ने उम्मीद छोड़ी नहीं।
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