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पत्नी ने बच्चे को जन्म दिया, पति प्रेमिका संग तलाक माँगने आया — तीन महीने बाद वह रो पड़ा।यह कहानी एक ऐसी महिला की है, जि...
03/11/2025

पत्नी ने बच्चे को जन्म दिया, पति प्रेमिका संग तलाक माँगने आया — तीन महीने बाद वह रो पड़ा।

यह कहानी एक ऐसी महिला की है, जिसका नाम सिया है। सिया ने अपने जीवन में कई कठिनाइयों का सामना किया, लेकिन उसने कभी हार नहीं मानी। उसकी कहानी हमें सिखाती है कि जीवन की चुनौतियों का सामना कैसे किया जाए और कैसे एक नई शुरुआत की जा सकती है।

पहली मुलाकात

सिया एक छोटे से गांव में रहती थी। उसकी शादी राघव से हुई थी, जो एक अच्छे परिवार से था। शादी के कुछ सालों बाद, सिया को पता चला कि वह गर्भवती है। यह खबर उसके लिए खुशी की थी, लेकिन राघव की प्रतिक्रिया अलग थी। उसने कहा, "अब हमें जिम्मेदारियों का सामना करना होगा।" सिया ने सोचा कि शायद राघव अपनी जिम्मेदारियों को समझेगा।

मुश्किलें शुरू होती हैं

जैसे-जैसे समय बीतता गया, राघव का व्यवहार बदलने लगा। वह काम में बहुत व्यस्त रहने लगा और घर पर कम समय बिताने लगा। सिया ने बच्चे के जन्म के लिए तैयारी की, लेकिन राघव ने उसकी मदद नहीं की। जब सिया ने अपने पहले बच्चे को जन्म दिया, तो राघव अस्पताल नहीं आया।

अकेलापन

सिया ने अकेले ही बच्चे की देखभाल की। वह बहुत थक गई थी, लेकिन उसने कभी शिकायत नहीं की। उसने अपने बच्चे को प्यार से पालने की पूरी कोशिश की। लेकिन राघव का व्यवहार और भी बुरा होता गया। वह अक्सर देर रात घर आता और सिया से बात करने की बजाय अपने दोस्तों के साथ समय बिताता।

एक दिन का फैसला

एक दिन, सिया ने फैसला किया कि अब और नहीं। उसने अपने लिए एक नया रास्ता चुनने का निर्णय लिया। उसने अपने माता-पिता से मदद मांगी, और वे उसके लिए हमेशा खड़े रहे। उन्होंने उसे समर्थन दिया और कहा, "तू मजबूत है, तू अपनी जिंदगी को फिर से शुरू कर सकती है।"

नई शुरुआत

सिया ने एक छोटे से काम की शुरुआत की। उसने गांव में एक कपड़े की दुकान खोली। धीरे-धीरे, उसकी मेहनत रंग लाई। लोग उसकी दुकान पर आने लगे और उसकी बिक्री बढ़ने लगी। सिया ने अपने बच्चे के लिए एक बेहतर भविष्य बनाने का संकल्प लिया।

राघव का लौटना

कुछ महीने बाद, राघव ने सिया से संपर्क किया। उसने कहा, "मैंने अपनी गलतियों को समझ लिया है। क्या तुम मुझे माफ करोगी?" सिया ने उसे माफ करने का फैसला नहीं किया। उसने कहा, "तुम्हारी गलतियों का मुझे कोई मतलब नहीं। मैं अपने बच्चे के लिए एक मजबूत मां बनना चाहती हूं।"

आत्मनिर्भरता

सिया ने अपनी दुकान को और बड़ा किया। उसने कुछ महिलाओं को नौकरी पर रखा और उन्हें भी आत्मनिर्भर बनने में मदद की। उसने महसूस किया कि जब एक औरत अपने पैरों पर खड़ी होती है, तो वह दूसरों को भी प्रेरित कर सकती है।
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बच्चे की शक्ल पति जैसी नहीं थी… पत्नी और बच्चे दोनों को घर से निकाला… फिर जो हुआ…प्रयागराज के चौड़ी गलियों और पुराने भवन...
02/11/2025

बच्चे की शक्ल पति जैसी नहीं थी… पत्नी और बच्चे दोनों को घर से निकाला… फिर जो हुआ…

प्रयागराज के चौड़ी गलियों और पुराने भवनों के बीच खड़ा चौधरी निवास, बाहर से जितना भव्य था, अंदर से उतना ही ठंडा और अहंकार से भरा हुआ। रिया ने कभी नहीं सोचा था कि एक दिन यही दरवाजा उसके लिए जिंदगी का सबसे बड़ा मोड़ बन जाएगा। रिया, रसूलाबाद मोहल्ले की रहने वाली एक सीधी सादी लड़की थी, जो एक प्राइवेट स्कूल में असिस्टेंट टीचर थी। उसकी जिंदगी में सब कुछ सामान्य था, जब तक उसकी मुलाकात वेदांत चौधरी से नहीं हुई।

वेदांत, जो अपने भतीजे का एडमिशन कराने आया था, रिया की विनम्रता और उसकी सच्चाई से प्रभावित हुआ। रिया भी वेदांत के शांत स्वभाव और परिपक्व व्यवहार से आकर्षित हुई। धीरे-धीरे उनकी बातचीत बढ़ी और कुछ महीनों बाद वेदांत ने रिया से कहा, "रिया, मुझे लगता है तुम ही वो हो जिसके साथ मैं पूरी जिंदगी बिताना चाहता हूं।" रिया की पलकों में एक शर्माई चमक थी, और उसने हंसते हुए कहा, "हां, मैं भी यही चाहती हूं।"

लेकिन वेदांत के घर की दीवारें इस रिश्ते के लिए कभी तैयार नहीं थीं। जब उसने अपनी मां यशोदा देवी को रिया के बारे में बताया, तो उनका पहला वाक्य था, "एक मिडिल क्लास टीचर चौधरी परिवार की बहू? यह तुम्हारी जिद है, प्यार नहीं।" वेदांत ने रिया के लिए खड़ा होने की कोशिश की, और मजबूरी में शादी की अनुमति मिल गई। पर वह अनुमति आशीर्वाद नहीं, बल्कि एक समझौता थी।

शादी के दिन, रिया साधारण लाल बनारसी साड़ी में दुल्हन बनी थी, भोली खुश और उम्मीदों से भरी। लेकिन जैसे ही वह चौधरी निवास में कदम रखी, यशोदा देवी की पहली बात उसके दिल में बर्फ की तरह उतर गई। "घर में कदम रख देने से कोई बहू नहीं बन जाती।" रिया ने मुस्कुराकर सब स्वीकार किया और सोचा कि समय के साथ सब ठीक हो जाएगा। लेकिन घर की हर दीवार उसे यह एहसास दिला रही थी कि वह यहां मेहमान भी नहीं, बल्कि किसी बोझ की तरह है।

घर में करण नाम का एक लड़का था, जो औपचारिक रूप से नौकर था। लेकिन उसके चेहरे और व्यवहार में एक अलग ही डर छिपा रहता था। वह रिया से नजरें चुराता, पर कभी-कभी उसके हावभाव बताते थे कि वह रिया को किसी अनदेखी मुसीबत से बचाना चाहता है। रिया ने कई बार उसकी आंखों में अजीब सा दर्द देखा था, लेकिन करण हमेशा सिर झुका कर चुप हो जाता।

शादी के कुछ ही हफ्तों बाद रिया पर तानों की बारिश शुरू हो गई। "बहू, खाना अच्छा नहीं।" "बहू, काम में तेजी नहीं है।" "बहू, अपने घर की आदतें यहां मत लाना।" यशोदा देवी का हर वाक्य एक नया घाव था। और वेदांत धीरे-धीरे अपनी मां की बातों में बहने लगा। पहले वह रिया का साथ देता था, फिर उदासीन हो गया।

फिर एक सुबह रिया के चेहरे पर चमक आई। वह मां बनने वाली थी। उसने वेदांत को यह खबर दी, और वह मुस्कुराया जरूर, लेकिन उसकी आंखों में वह खुशी नहीं थी जो रिया देखना चाहती थी। यशोदा देवी का जवाब और भी चोट देने वाला था। "देखते हैं बच्चा किस पर जाता है। खून की पहचान होती है।"

समय बीतने लगा, गर्भ बढ़ रहा था, और उसी के साथ बढ़ रहा था करण का डर। कई बार वह रिया के पास आकर धीमे से कहता, "भाभी जी, अगर कभी कुछ गलत लगे तो घबराना मत।" रिया पूछती, "तुम कहना क्या चाहते हो?" लेकिन करण हर बार किसी छाया से डरकर चुप हो जाता।

डिलीवरी का दिन आया। रिया घंटों दर्द में थी। यशोदा देवी ने करण से कहा, "गाड़ी निकाल।" करण की आंखों में वही डर आज फिर तैर रहा था। कई घंटों की पीड़ा के बाद रिया ने एक प्यारे से बेटे को जन्म दिया। उसे गोद में लेते ही रिया रो पड़ी। खुशी से उसे लगा अब घर बदल जाएगा, अब सब ठीक होगा।

लेकिन शाम को दुनिया बदल गई। वेदांत कमरे में आया। रिया ने बेटे को आगे बढ़ाया, "देखो वेदांत, हमारा बेटा।" वेदांत ने बच्चे को देखा। 2 सेकंड, 3 सेकंड और अचानक उसका चेहरा सख्त हो गया। "यह बच्चा मेरा नहीं हो सकता।" रिया का दिल धड़कना भूल गया। "क्या?" तभी यशोदा देवी कमरे में आईं। बच्चे पर उंगली रखकर बोलीं, "इसकी शक्ल देखो। यह चौधरी खानदान पर नहीं गया। यह करण जैसी शक्ल का है।"

रिया हिल गई। "मां जी, यह क्या कह रही हैं? यह झूठ है।" लेकिन वेदांत अब शक में जल रहा था। उसने रिया की कलाई पकड़ ली। "तुम दोनों अभी इस घर से निकलो।" रिया चिल्लाई, "वेदांत, मैं कसम खाती हूं। यह बच्चा तुम्हारा है।" लेकिन वेदांत ने कुछ नहीं सुना। उसने रिया को धक्का दिया। रिया लड़खड़ा कर गिरी, लेकिन बच्चे को बचा लिया।

यशोदा देवी की ठंडी आवाज आई, "इसे हमारे घर से बाहर कर दो। अभी!" रिया खून से भीगी थी, चल भी नहीं पा रही थी, लेकिन उसे अस्पताल के बाहर धकेल दिया गया। नवजात को सीने से चिपकाए आधी रात की ठंडी सड़क पर। उसे नहीं पता था कि जिस शक के कारण उसे घर से निकाला गया, उस शक की असली जड़ किसी और के भीतर छिपी थी जो एक दिन फटने वाली थी।

रिया अपने नवजात बेटे को सीने से लगाए अस्पताल के बाहर पड़ी थी, जैसे दुनिया ने उससे सारी पहचान, सारी इज्जत और सारी उम्मीद छीन ली हो। उसके गले से आवाज ही नहीं निकल रही थी। शरीर वैसे ही दर्द में था जैसे किसी ने उसके भीतर की पूरी हिम्मत को निचोड़ लिया हो। और ऊपर से वेदांत का वह थप्पड़, वह इल्जाम, वह नफरत भरी आंखें, सब कुछ उसके सीने में पत्थर बनकर धंस चुका था।

बच्चा उसके सीने पर हल्के-हल्के रो रहा था, जैसे उसे भी इस दुनिया की बेरहमी का एहसास हो रहा हो। हर सांस के साथ रिया को अपने बदन में झटके लगते थे। लेकिन वह अपने बच्चे को ढकने के लिए दुपट्टे का आखिरी कोना उसके ऊपर डाल देती ताकि उसकी एक सांस भी खतरे में न पड़े।

रात बढ़ती जा रही थी। सड़क के ऊपर टिमटिमाते पीले लैंप झुककर जैसे रिया की हालत देख रो रहे थे। कुछ लोग वहां से गुजरते हुए उसे अजीब नजरों से देखते। कोई रुकने की हिम्मत नहीं करता। किसी को क्या फर्क पड़ता कि एक औरत अपने नवजात के साथ ऐसे पड़ी है जैसे कोई ठुकराई हुई छाया।

रिया उस रात बस यही सोचती रही, "मैंने आखिर ऐसा क्या किया था? मैंने तो सारी जिंदगी इसी घर को बस अपना घर माना था। मैंने तो बस प्यार किया था।" लेकिन सवालों के जवाब उस रात हवा में भी नहीं थे।

सुबह की पहली किरण के साथ जब शहर धीरे-धीरे जागने लगा, रिया के अंदर एक फैसला और भी पक्का हो चुका था। अब उसे मदद की जरूरत नहीं थी। उसे एक ऐसी जगह चाहिए थी जहां इंसानियत का आखिरी टुकड़ा बाकी हो। उसे याद आया मंदिर देवी के चरणों वाला वो मंदिर, जो उसके घर से ज्यादा साफ, शांत और सुकून देने वाला था।

वह लड़खड़ाते कदमों से उठी, रिक्शा बुलाया और अपने बेटे को सीने में कसकर मंदिर की ओर निकल पड़ी। रिक्शा वाला उसे हैरानी से देख रहा था। "बहन जी, कुछ हुआ है क्या?" "हॉस्पिटल से आ रही हूं," रिया बस सिर झुका ली। "मंदिर ले चलो।" वह शब्द उसकी टूटती सांसों से निकले थे।

मंदिर पहुंचकर उसे पहली बार लगा कि वह सुरक्षित है। यहां कोई उसे शर्म की नजर से नहीं देख रहा था। कोई उसके बच्चे के रंग, शक्ल, शक या उसके पति का नाम नहीं पूछ रहा था। घंटी की आवाज, जलती अगरबत्तियां और ठंडा संगमरमर उसका दर्द थोड़ी देर के लिए थाम रहे थे।

पंडित जी ने रिया की हालत देखकर तुरंत एक पुराना सा छोटा कमरा दे दिया। छत पर बना हुआ जर्जर सा कोना, जिसमें एक टूटी चारपाई और दो बर्तन पड़े थे। लेकिन रिया के लिए वह किसी महल से कम नहीं था। कम से कम वहां किसी की नफरत नहीं थी।

रिया अपने बेटे को आरव नाम देती है। अपनी सबसे बड़ी ताकत, अपनी सबसे बड़ी उम्मीद और उसी मंदिर के उसी कमरे में अपने नए जीवन की शुरुआत करती है। एक टूटी हुई औरत की तरह नहीं, बल्कि एक मां की तरह। दिन बीतता गया। रिया मंदिर की सीढ़ियों पर बैठती। लोग दान में दिया खाना उसे भी दे देते। कभी किसी ने चाय थमा दी, कभी किसी ने दूध।

आरव धीरे-धीरे उसकी बाहों में मजबूत होता जा रहा था। और जैसे-जैसे आरव की आंखें खुलने लगीं, रिया के अंदर एक नई हिम्मत जागने लगी। लेकिन इसके बीच एक अजीब सी बेचैनी हमेशा उसके आसपास रहती थी। निकाल दिया गया होना नहीं, इल्जाम नहीं, डर नहीं, बल्कि एक चेहरा, एक आवाज, एक डर जो दीवारों की तरह रिया के पीछे-पीछे आता था।

करण, हां वही करण जिसके लिए कहा गया था कि बच्चे की शक्ल उससे मिलती है। रिया नहीं जानती थी कि यह सवाल ही उसका रास्ता बदल देंगे। एक शाम जब मंदिर की भीड़ कम थी, रिया अपने बेटे को गोद में लिए प्रांगण के कोने में बैठी थी। तभी मंदिर के मुख्य दरवाजे से एक टूटा हुआ, कमजोर कांपता हुआ साया भीतर आया।

रिया ने जैसे ही उस चेहरे को देखा, उसकी सांसे हलक में अटक गई। वह करण था, पर वैसा करण नहीं। वो मिट्टी से भरा था। कपड़े फटे हुए थे। चेहरा सूजा हुआ था और उसकी आंखों में डर से ज्यादा पछतावा था। वह सीधे मंदिर में जाकर कोने में बैठ गया। लोगों को देखते हुए अपने हाथ जोड़कर कांपती आवाज में वही शब्द दोहराने लगा जो रिया ने कभी चुपके से सुने थे। "हे भगवान, भाभी जी का बच्चा कृपया इसे दुनिया में मत आने देना या सच्चाई को दफन रहने देना।"

रिया का दिल जोर से धड़का। यह क्या बकवास है? कौन सी सच्चाई? कौन सा डर? किसका रिश्ता? उसकी नसें तंग गईं। उसने आरव को कसकर पकड़ा। वो जानती थी आज जो भी सुनेगी, उसे फिर कभी चैन से जीने नहीं देगा। रिया धीरे-धीरे उसकी तरफ चली और उसके बिल्कुल सामने जाकर खड़ी हो गई। करण की नजरें ऊपर उठीं और उसे देख वह जैसे पत्थर हो गया।

उसने इतना ही कहा, "भाभी जी, आप और रिया की आवाज पहली बार इतनी तेज निकली। बोल करण, आज बोल तुम जिस सच्चाई से भाग रहे थे, आज वो मैं सुनना चाहती हूं। मेरे बच्चे का तेरा क्या रिश्ता? मेरा घर क्यों उजड़ा? कौन सी आग है जो तुम छुपा रहे हो?" करण फूट-फूट कर रोने लगा। घुटनों पर गिर गया। उसके शब्द टूटते जा रहे थे।

"भाभी जी, मैं दोषी नहीं हूं। लेकिन सच बहुत खौफनाक है।" रिया का दिल अब उसके सीने में नहीं था। गले में आ चुका था। उसने कहा, "सच बताओ करण, वरना आज मैं मर जाऊंगी। लेकिन इस अनिश्चितता में नहीं जी पाऊंगी।"
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पति को बेसहारा छोड़ गई पत्नी, पर ऊपरवाले ने थाम लिया हाथ!लखनऊ के पुराने मोहल्ले में एक छोटा सा घर था, जिसकी पहचान वहां स...
02/11/2025

पति को बेसहारा छोड़ गई पत्नी, पर ऊपरवाले ने थाम लिया हाथ!

लखनऊ के पुराने मोहल्ले में एक छोटा सा घर था, जिसकी पहचान वहां से आती चंदन और सागोन की खुशबू से थी। यह घर था विपिन का, एक कुशल कारीगर जिसका हुनर उसकी पहचान था। विपिन के हाथों में जादू था; जब वह छेनी और हथौड़ी पकड़ता, तो बेजान लकड़ी के टुकड़े भी जीवन से भर जाते। वह नाचते हुए मोर और करुणा से भरी गौतम बुद्ध की प्रतिमा बनाता। विपिन की कला उसकी आत्मा का आईना थी।

विपिन की दुनिया छोटी और खूबसूरत थी। उसकी पत्नी सारिका, जो बड़े शहरों के सपने देखती थी, और उनकी छह साल की बेटी मायरा, जिसकी खिलखिलाहट में विपिन की पूरी कायनात बसती थी। विपिन सुबह से शाम अपनी वर्कशॉप में काम करता, जहां लकड़ी के बुरादे की महक और औजारों की ठकठक उसकी दिनचर्या का हिस्सा थे। कभी-कभी, मायरा दौड़कर आती और पूछती, "पापा, यह चिड़िया कब उड़ेगी?" यही उसके जीवन का सबसे हसीन संगीत था।

सारिका अक्सर कहती, "विपिन, कब तक इस छोटी सी दुकान में बैठे रहोगे? तुम्हारे हुनर की कीमत इन गलियों में नहीं है, बड़े-बड़े शोरूम तुम्हें पहचान सकते हैं। चलो, दिल्ली या मुंबई चलते हैं।" लेकिन विपिन मुस्कुराकर कहता, "सारिका, सुकून यहां है। अगर मैं अपनी कला को दौलत से तौलने लगूंगा, तो यह हाथ कांपने लगेंगे।" सारिका की आंखों में बसी चमक विपिन की सादगी को नहीं समझ पाती थी।

फिर एक दिन वक्त ने ऐसी करवट ली कि सब कुछ बिखर गया। वर्कशॉप में काम करते हुए एक भारी मशीन का हिस्सा विपिन के दाहिने हाथ पर गिर गया। जब उसे होश आया, तो वह अस्पताल के बिस्तर पर था। डॉक्टर ने कहा, "चोट बहुत गहरी है। हाथ काम तो करेगा, पर पहले जैसी पकड़ और ताकत शायद कभी वापस नहीं आएगी।" एक पल में विपिन कारीगर से मरीज बन गया। वह गिलास पानी पकड़ने में भी कांपने लगा।

घर लौटकर, जब उसने अपनी वर्कशॉप का दरवाजा खोला, तो औजार उसे देखकर जैसे मजाक उड़ा रहे थे। वही छेनी अब पत्थर की तरह भारी लग रही थी। लकड़ी की खुशबू अब उसे सुकून नहीं, बल्कि उसकी बेबसी का एहसास दिलाती थी। शुरुआती कुछ हफ्ते सहानुभूति में बीते; रिश्तेदार आते, अफसोस जताते और चले जाते। लेकिन असली तूफान तो अभी आना बाकी था। सारिका का सब्र अब जवाब दे रहा था। उसकी आंखों से सपने टूटने की हताशा साफ झलकती थी।

घर में अब मायरा की खिलखिलाहट नहीं, बल्कि सारिका की शिकायतों और तानों की गूंज सुनाई देती थी। "कैसे चलेगा घर? सारी जमापूंजी तुम्हारे इलाज में लग गई। अब क्या भीख मांगेंगे?" विपिन चुपचाप सब सुनता रहता। शारीरिक चोट से ज्यादा तकलीफ उसे सारिका के बदलते व्यवहार से होती थी।

एक सुबह, विपिन जब सोकर उठा, तो घर में अजीब सी खामोशी थी। सारिका कहीं नजर नहीं आ रही थी। मायरा भी अपने बिस्तर पर नहीं थी। घबरा कर उसने मेज पर एक छोटा सा खत देखा। कांपते हाथों से उसने खत खोला। सारिका ने लिखा था कि वह उसे और उसकी टूटी हुई किस्मत को छोड़कर जा चुकी थी। उसने कहा कि वह ऐसे बोझ के साथ अपनी जिंदगी बर्बाद नहीं कर सकती।

विपिन के पैरों तले जमीन खिसक गई। वह भागा अलमारी की तरफ गया, लेकिन जो थोड़े बहुत गहने और पैसे थे, सब गायब थे। बैंक पासबुक देखी तो अकाउंट खाली था। सारिका ना सिर्फ उसे छोड़कर गई थी, बल्कि उसे पूरी तरह से कंगाल और बेसहारा कर गई थी। लेकिन उसके लिए सबसे बड़ा सदमा यह था कि वह अपनी बेटी मायरा को भी साथ ले गई थी।

वह चीखना चाहता था, रोना चाहता था, पर आवाज जैसे हलक में ही जम गई थी। उसका घर, उसकी दुनिया, सब कुछ एक ही झटके में खाक हो गया था। वह बेतहाशा घर से बाहर भागा, गलियों में, बाजार में, हर उस जगह जहां सारिका जा सकती थी। वह पागलों की तरह लोगों से पूछता रहा, "क्या आपने एक औरत को एक छोटी बच्ची के साथ देखा है?" पर किसी के पास कोई जवाब नहीं था।

शाम ढल गई, अंधेरा गहराने लगा। विपिन थक हार कर घर लौटा। खाली घर उसे खाने को दौड़ रहा था। वर्कशॉप के कोने में लकड़ी की एक अधूरी चिड़िया पड़ी थी, जिसे मायरा ने उड़ाने की जिद की थी। उसे देखकर विपिन टूट गया। वह जमीन पर बैठकर किसी बच्चे की तरह फूट-फूट कर रोने लगा। उसे अपनी चोट का दर्द, अपना अधूरा हुनर सब भूल गया था।

रात के अंधेरे में जब उम्मीद की कोई किरण नजर नहीं आ रही थी, तभी दरवाजे पर एक हल्की सी दस्तक हुई। विपिन ने सोचा शायद कोई पड़ोसी होगा। उसने हिम्मत जुटाकर दरवाजा खोला। सामने एक पुलिस वाला खड़ा था और उसके पीछे सहमी डरी हुई रोती हुई मायरा खड़ी थी।

विपिन उसे देखते ही दौड़कर उससे लिपट गया। "मेरी बच्ची, तुम कहां थी?" पुलिस वाले ने बताया कि उन्हें मायरा बस स्टॉप पर अकेले रोती हुई मिली थी। सारिका उसे वहीं छोड़कर किसी बस में बैठकर चली गई थी। यह सुनकर विपिन के अंदर का बचा खुचा विश्वास भी टूट गया।

विपिन ने उस रात अपनी बेटी को सीने से लगाए बस यही सोचता रहा। वह टूट चुका था, कंगाल हो चुका था, पर अब उसके पास जीने की एक वजह थी। मायरा, उसकी बेटी जिसे उसकी जरूरत थी। उसने अपनी बेटी के माथे को चूमा और अपने बेजान हाथ की तरफ देखा।

रास्ता अंधेरा और मुश्किलों भरा था। उसे नहीं पता था कि वह कल सुबह मायरा के लिए दूध का इंतजाम भी कैसे करेगा। लेकिन उस रात, जब पूरी दुनिया सो रही थी, विपिन ने एक ऐसा फैसला लिया जो उसकी और मायरा की जिंदगी हमेशा के लिए बदलने वाला था।

सुबह की पहली किरण के साथ उस पर अमल करने का वक्त आ गया था। मायरा उसके सीने पर सिर रखे सुकून से सो रही थी, बेखबर कि उसके पिता ने बीती रात खुद से कितनी बड़ी जंग लड़ी थी। घर में खाने को कुछ नहीं था, सिवाय मुट्ठी भर चावल के।

विपिन ने मायरा को धीरे से बिस्तर पर लिटाया और अपनी वर्कशॉप का दरवाजा खोला। हवा में वही पुरानी चंदन और सागोन की महक थी। लेकिन आज विपिन ने उसे एक नए नजरिए से महसूस किया। उसने अपने औजारों को देखा जो महीनों से धूल खा रहे थे। फिर उसने अपने दाहिने हाथ को देखा जो अभी भी कमजोर और बेजान था और आखिर में उसने अपने बाएं हाथ को देखा।

उसने लकड़ी का एक छोटा हल्का टुकड़ा उठाया और उसे वाइस में कस दिया। फिर उसने सबसे छोटी और हल्की छेनी अपने बाएं हाथ में पकड़ी। हाथ कांप रहा था। उंगलियों को औजार पकड़ने की आदत नहीं थी। उसने हथौड़ी से एक हल्की चोट की लेकिन छेनी फिसल गई और लकड़ी पर एक बेढंगा निशान छोड़ गई।

उसने फिर कोशिश की। इस बार चोट थोड़ी बेहतर लगी पर नतीजा वही था। घंटों बीत गए। पसीना माथे से बहकर आंखों में जा रहा था। पर विपिन लगा रहा। हर गलत चोट, हर फिसलता औजार, उसके सब्र का इम्तिहान ले रहा था। कई बार गुस्से और बेबसी में उसकी आंखों में आंसू आ गए।

तभी वर्कशॉप के दरवाजे पर मायरा आ खड़ी हुई। उसने अपने छोटे-छोटे हाथों में एक कागज पकड़ रखा था। जिस पर उसने टेढ़ी-मेढ़ी लकीरों से एक सूरज और एक मुस्कुराता हुआ चेहरा बनाया था। "पापा, देखो आप और मैं।"

विपिन ने उस तस्वीर को देखा और फिर अपनी बेटी के मासूम चेहरे को। उस एक पल में उसकी सारी हताशा, सारा गुस्सा पिघल गया। उसे याद आया कि वह यह सब क्यों कर रहा है। यह सिर्फ लकड़ी का एक टुकड़ा नहीं था। यह उसकी बेटी का भविष्य था।

उसने मायरा को गोद में उठाया, उसे प्यार किया और एक नई हिम्मत के साथ वापस काम पर लग गया। अब उसका लक्ष्य बड़ा नहीं था। वह कोई मूर्ति या कलाकृति नहीं बना रहा था। वह बस अपने हाथ को साधना चाहता था।

दिन गुजर रहे थे। घर में रखा चावल खत्म हो रहा था। विपिन की चिंता बढ़ती जा रही थी। एक दोपहर जब वह पूरी तरह थक कर अपनी वर्कशॉप के बाहर बैठा था, तभी पड़ोस के चाय वाले रहीम चाचा आए।

रहीम चाचा ने विपिन के बाएं हाथ को देखा, जिस पर कई खरोचे और निशान पड़ गए थे। उन्होंने कहा, "विपिन, जब सीधा हाथ थक जाए तो उल्टे हाथ से काम लेना पड़ता है। वक्त भी तो ऐसा ही होता है। कभी सीधा चलता है, कभी उल्टा। पर चलना बंद तो नहीं करता ना? हिम्मत मत हार। हाथ बदला है, हुनर नहीं। वह तो तेरी रूह में है।"

रहीम चाचा उस दिन से रोज सुबह शाम विपिन और मायरा के लिए खाना और चाय लाने लगे। उन्होंने मोहल्ले के परचून वाले से कहकर विपिन के घर महीने भर का राशन भी भिजवा दिया।
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पत्नी ढाबे पर खाना परोस रही थी... उसका करोड़पति पति सामने खड़ा था!ऑटो-डबदिल्ली की सर्दी की एक सुबह थी। सूरज की किरणें धी...
02/11/2025

पत्नी ढाबे पर खाना परोस रही थी... उसका करोड़पति पति सामने खड़ा था!
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दिल्ली की सर्दी की एक सुबह थी। सूरज की किरणें धीरे-धीरे आसमान में उग रही थीं, लेकिन धरती पर ठंड की चादर अभी भी बिछी हुई थी। एक छोटी सी गली में, जहां हमेशा हलचल रहती थी, एक पुरानी इमारत थी। इस इमारत के एक कोने में एक छोटा सा ढाबा था, जिसका नाम था "शेर पंजाब ढाबा"। इस ढाबे की पहचान उसके लजीज खाने और गर्मजोशी से भरे माहौल की वजह से थी। यहां काम करने वाली नेहा, एक साधारण सी महिला थी, जिसकी आंखों में जिम्मेदारियों का बोझ साफ झलकता था।

नेहा की उम्र 30 के आस-पास थी। वह पिछले पांच सालों से इस ढाबे में काम कर रही थी। उसकी दिनचर्या सुबह सूरज उगने से पहले शुरू होती थी। वह अपने 7 साल के बेटे हितेश को तैयार करती और फिर ढाबे के काम में जुट जाती। ग्राहकों को खाना परोसना, मेजें साफ करना, हिसाब-किताब में मदद करना, वह हर काम पूरी लगन से करती थी। लेकिन उसकी जिंदगी में एक खालीपन था, जिसे वह हर दिन महसूस करती थी।

एक दिन, जब दिन का समय था और सड़क पर ट्रैफिक कुछ कम था, एक चमचमाती काली Mercedes ढाबे के सामने आकर रुकी। गाड़ी से एक ऊंचे कद का युवक उतरा। यह अरनव मेहरा था, जो देश के सबसे बड़े टेक्सटाइल साम्राज्यों में से एक का मालिक था। उसकी दुनिया कांच की इमारतों, करोड़ों की डील्स और आलीशान पार्टियों तक ही सीमित थी। अचानक एक सड़क किनारे ढाबे पर रुकना उसके लिए किसी बुरे सपने जैसा था।

अरनव ने अंदर कदम रखा। वहां का माहौल उसके लिए अजीब था। मसालों की महक, तंदूर की सौधी खुशबू और लोगों की हल्की-फुल्की बातचीत ने उसे थोड़ी राहत दी। लेकिन जैसे ही उसकी नजर नेहा पर पड़ी, उसका दिल धड़क उठा। नेहा का चेहरा, उसकी मासूमियत, और उसकी आंखों में छिपा दर्द, सब कुछ उसे अतीत की याद दिलाने लगा।

अरनव ने नेहा को पहचान लिया। वह वही नेहा थी, जिसे उसने सालों पहले एक पल में पराया कर दिया था। उनके बीच की दूरी, जो समय और परिस्थितियों ने बनाई थी, आज अचानक मिटती हुई महसूस हुई। नेहा ने भी उसे पहचाना, लेकिन उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं थे। वह बस अपने काम में लगी रही, जैसे कुछ हुआ ही न हो।

अरनव ने अपने दिल की धड़कन को नियंत्रित किया और नेहा के पास जाकर कहा, "नेहा, तुम यहां कैसे हो?" नेहा ने सिर झुकाकर जवाब दिया, "मैं यहां काम कर रही हूं।" उसकी आवाज में कोई शिकायत नहीं थी, बस एक अजीब सी शांति थी।

अरनव ने उसे बताया कि उसने अपनी जिंदगी में बहुत कुछ खोया है। उसने अपनी सौतेली मां के जहर से भरे शब्दों को सुना था, जिसने उसे नेहा से दूर कर दिया था। लेकिन अब, जब वह उसे देख रहा था, तो उसे एहसास हुआ कि उसने अपनी सबसे बड़ी गलती की थी।

नेहा ने कहा, "अरनव, जो हुआ, वह हुआ। अब मैं अपनी जिंदगी में आगे बढ़ चुकी हूं।" लेकिन उसके दिल में एक उम्मीद थी, एक उम्मीद कि शायद अरनव उसे वापस पा सके।

अरनव ने नेहा से कहा, "मैं जानता हूं कि मैंने तुम्हारे साथ अन्याय किया। लेकिन मैं अब बदल चुका हूं। मैं तुम्हारे और हितेश के लिए कुछ करना चाहता हूं।"

नेहा ने उसकी तरफ देखा, उसकी आंखों में एक सवाल था। "क्या तुम सच में ऐसा कर सकते हो?"

अरनव ने कहा, "हां, मैं तुम्हारी मदद करना चाहता हूं।"

लेकिन नेहा ने कहा, "मदद की जरूरत नहीं है। मैं अपने बेटे के लिए खुद लड़ सकती हूं।"

इस बीच, हितेश ने अपनी मां को बुलाया। वह अपनी मां के पास आया और बोला, "मां, क्या यह अंकल मेरे पापा हैं?" नेहा का दिल एक पल के लिए रुक गया। उसने सोचा, "क्या हितेश ने सच में पहचान लिया?"

अरनव ने कहा, "मैं तुम्हारा पिता हूं, बेटा।"

हितेश ने मुस्कुराते हुए कहा, "मैंने हमेशा सुना था कि मेरे पापा बहुत अच्छे हैं।"

नेहा ने अपने बेटे को गले लगाया और कहा, "बेटा, यह सब बहुत मुश्किल है।"

अरनव ने कहा, "मैं जानता हूं कि तुम्हारे लिए यह सब आसान नहीं है। लेकिन मैं तुम्हें कभी छोड़ना नहीं चाहता।"
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कॉलेज की अधूरी मोहब्बत... सड़क किनारे जलेबी बेचती मिली… आगे जो हुआ, रुला देगाजयपुर, राजस्थान का गुलाबी शहर, अपनी हलचल और...
01/11/2025

कॉलेज की अधूरी मोहब्बत... सड़क किनारे जलेबी बेचती मिली… आगे जो हुआ, रुला देगा

जयपुर, राजस्थान का गुलाबी शहर, अपनी हलचल और रंग-बिरंगी गलियों के लिए मशहूर है। यहां की हर गली में एक कहानी छिपी होती है। इसी शहर में एक दिलचस्प कहानी बुनती है रवि और प्रिया की। यह कहानी केवल प्यार की नहीं, बल्कि समाज की कड़वी सच्चाई और इंसान की पहचान की भी है। आइए, जानते हैं इस कहानी को जो हमें सिखाती है कि हालात कभी भी इंसान की पहचान नहीं बनाते।

रवि की जिंदगी

रवि एक सफल बिजनेसमैन है। उसकी चमचमाती गाड़ी में बैठकर वह जयपुर की सड़कों पर चल रहा था। उसकी नजरें सड़क किनारे भटक रही थीं, शायद वह किसी छोटे से ठेले पर कुछ देसी खाने का स्वाद लेना चाहता था। सूरज ढल चुका था और ठंडी हवा ने जयपुर की सड़कों को और भी खुशनुमा बना दिया था। तभी उसकी नजर एक छोटे से ठेले पर पड़ी, जहां जलेबी की मिठास हवा में घुल रही थी।

ठेले पर एक लड़की सादे कपड़ों में, सिर पर दुपट्टा लिए, बड़े ही शांत और सादगी भरे अंदाज में ग्राहकों को जलेबी परोस रही थी। उसकी मुस्कान में एक अनकही कहानी थी। जैसे वह सिर्फ जलेबी नहीं, बल्कि अपने जीवन का एक हिस्सा परोस रही हो। रवि ने बिना सोचे अपनी गाड़ी ठेले के पास रोकी और स्टूल पर बैठ गया। उसने हल्की मुस्कान के साथ कहा, "मैडम, जरा एक प्लेट जलेबी बना दीजिए। लेकिन थोड़ा जल्दी।"

प्रिया से मुलाकात

लड़की ने सिर हिलाया और अपने हाथों से गरमा-गरम जलेबी को चाशनी में डुबोते हुए एक प्लेट में सजाने लगी। उसका हर काम इतना सहज था कि रवि उसकी सादगी में खो गया। जैसे ही उसकी नजर लड़की के चेहरे पर पड़ी, उसका दिल धक से रह गया। वह चेहरा, जो सालों पहले उसकी जिंदगी का सबसे खूबसूरत सपना हुआ करता था। कॉलेज के दिनों में, जब वह उसे चुपके से देखा करता था, उसकी हंसी, उसकी बातें, उसकी छोटी-छोटी हरकतें, सब कुछ रवि के दिल में बस गई थीं।

रवि ने धीरे से कहा, "माफ कीजिए मैडम, लेकिन मुझे लगता है मैं आपको कहीं से जानता हूं। क्या आपका नाम प्रिया है?" लड़की के हाथ एक पल के लिए रुक गए। उसकी सांसें भारी हो गईं और उसने जल्दी से कहा, "साहब, मैं तो एक साधारण सी लड़की हूं। आप जैसे लोग मुझे कैसे जान सकते हैं?" उसकी आवाज में एक हल्का सा डर था, जैसे कोई पुराना जख्म फिर से हरा होने वाला हो।

पुरानी यादें

रवि ने शांति से दोबारा पूछा, "क्या आपका नाम प्रिया है?" लड़की ने झिझकते हुए धीमी आवाज में कहा, "जी, मेरा नाम प्रिया ही है। लेकिन आप कौन हैं?" रवि ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, "मैं रवि हूं। प्रिया, तुम्हारी ही क्लास में पढ़ता था। वही रवि जो तुम्हें चुपके-चुपके देखा करता था।"

प्रिया की आंखें चौड़ी हो गईं। उसने जल्दी से अपना चेहरा दुपट्टे से छुपाया। जैसे कोई पुरानी याद अचानक उसके दिल को चीर गई हो। वह ठेले की चीजें ठीक करने का बहाना करने लगी, लेकिन उसकी कांपती उंगलियां उसकी बेचैनी बयां कर रही थीं। रवि ने नरम स्वर में कहा, "प्रिया, मुझे बताओ तुम इस हाल में कैसे? कॉलेज में तो तुम वो लड़की थी जो अपने सपनों में जीती थी। आज सड़क किनारे जलेबी बेचते देख मेरा दिल कांप रहा है। तुम्हारे साथ क्या हुआ?"

प्रिया की कहानी

प्रिया की आंखों से आंसू छलक पड़े। वह फूट-फूट कर रोने लगी। उसकी हिचकियां रवि के दिल को चाक कर रही थीं। रवि ने धीरे से उसे संभाला और कहा, "प्रिया, प्लीज मुझे सब सच बता दो।" प्रिया ने कांपती आवाज में शुरू किया, "रवि, कॉलेज के बाद मेरे पिताजी ने मेरी शादी कर दी थी। मैं अपने पति के साथ बहुत खुश थी। उन्होंने मुझे बहुत प्यार किया। हमने एक छोटा सा घर बनाया, सपने देखे, लेकिन 2 साल बाद उनकी एक बीमारी ने उन्हें मुझसे छीन लिया।"

प्रिया की आवाज टूटने लगी। रवि की आंखें भी नम हो गईं। प्रिया ने सिसकते हुए आगे बताया, "उनके जाने के बाद मेरे ससुराल वालों ने मुझे घर से निकाल दिया। उनका कहना था कि मेरा कोई बच्चा नहीं तो मेरा वहां क्या काम? मुझे ताने सुनने पड़े, धक्के खाने पड़े। मैं मायके लौटी लेकिन वहां भैया-भाभी मुझे बोझ समझने लगे। पिताजी मुझे जयपुर ले आए। उन्होंने अपनी जमा पूंजी से यह जलेबी का ठेला लगवा दिया ताकि मैं अपने दम पर जी सकूं। अब पिताजी इतने बूढ़े हो चुके हैं कि कुछ कर नहीं सकते। 5 साल से मैं यही ठेला चला रही हूं। यही मेरी दुनिया है।"

रवि का समर्थन

रवि की आंखों में आंसू आ गए। उसने प्रिया की तरफ देखा, जिसकी आंखें अब भी आंसुओं से भरी थीं। लेकिन उसमें एक अजीब सी ताकत थी। प्रिया ने जबरन मुस्कुराकर कहा, "छोड़ो रवि, यह सब बीती बातें हैं। तुम बताओ तुम्हारी जिंदगी कैसी है? शादी हो गई ना?" रवि ने गंभीर होकर कहा, "मैंने आज तक शादी नहीं की।"

प्रिया चौकी क्यों? "तुम तो कॉलेज में इतने स्मार्ट थे। सब लड़कियां तुम्हें पसंद करती थीं।" रवि ने हल्के से हंसकर कहा, "क्योंकि जिससे मैं प्यार करता था, वो किसी और की हो गई थी।" प्रिया ने उसकी आंखों में देखा, "कौन थी वो?" रवि ने गहरी सांस ली और कहा, "वह तुम थी प्रिया, जिसके लिए मैंने आज तक किसी और को अपने दिल में जगह नहीं दी।"

भावनाओं का ज्वार

प्रिया का चेहरा सन्न रह गया। उसकी आंखों से आंसू टपकने लगे। उसकी जुबान जैसे जड़ हो गई थी। वह कांपती आवाज में बोली, "रवि, क्या तुम सचमुच मुझसे प्यार करते थे? मेरी वजह से तुमने इतने साल शादी नहीं की?" रवि ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, "प्रिया, मैंने कॉलेज के पहले दिन से तुमसे प्यार किया था। तुम्हारी वो हंसी, तुम्हारी वो बेफिक्री, तुम्हारा वो हर दिन क्लास में देर से आना, सब कुछ मेरे दिल में बस गया था।"

"लेकिन एक बार तुमने मुझे डाल दिया था ना कि तुम मुझे ऐसे क्यों घूरते हो? उस दिन के बाद मेरी हिम्मत ही नहीं हुई कि मैं तुमसे अपने दिल की बात कह सकूं।" रवि की आंखें नम हो गईं। वह आगे बोला, "कॉलेज खत्म होने के बाद मैंने सोचा था कि मैं खूब मेहनत करूंगा, कुछ बनूंगा और फिर तुम्हारे घर जाकर तुम्हारा हाथ मांगूंगा। मैं विदेश चला गया। वहां दिन-रात मेहनत की। लेकिन जब लौटा तो पता चला कि तुम्हारी शादी हो चुकी है। उस दिन लगा जैसे मेरी सारी दुनिया खत्म हो गई। मैंने मां से कह दिया कि अब मैं कभी शादी नहीं करूंगा। क्योंकि मेरी दुल्हन किसी और की हो चुकी है।"

प्रिया का निर्णय

प्रिया के आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। वह अपने दुपट्टे से आंखें पोछने की कोशिश कर रही थी। लेकिन उसकी सिसकियां रवि के दिल को चीर रही थीं। प्रिया ने खुद को संभालते हुए कहा, "रवि, अगर उस दिन तुमने अपने दिल की बात कह दी होती तो शायद मैं भी हां कह देती। क्योंकि शायद मैं भी तुम्हें मन ही मन चाहती थी।" यह सुनकर रवि की आंखों में एक चमक आ गई। उसने कहा, "तो क्या अब बहुत देर हो चुकी है प्रिया? क्या मैं अब भी तुम्हें अपना नहीं बना सकता?"

प्रिया ने झट से कहा, "पागल हो गए हो रवि, तुम जानते हो तुम कौन हो और मैं कौन? तुम बड़े घर के हो, तुम्हारे पास पैसा, इज्जत सब कुछ है और मैं... मैं तो सड़क किनारे जलेबी बेचती हूं। मेरे पास तुम्हें देने को कुछ नहीं।" रवि ने तुरंत कहा, "मुझे कुछ नहीं चाहिए प्रिया, मुझे सिर्फ तुम चाहिए। मैं तुम्हें अपने घर ले जाना चाहता हूं, अपनी पत्नी बनाना चाहता हूं।"
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पति 2 साल बाद लौटा तो पत्नी नदी किनारे गाय चरा रही थीदोस्तों, एक लड़का अपनी जिंदगी में बहुत खुश था। किसी बात की कोई चिंत...
01/11/2025

पति 2 साल बाद लौटा तो पत्नी नदी किनारे गाय चरा रही थी

दोस्तों, एक लड़का अपनी जिंदगी में बहुत खुश था। किसी बात की कोई चिंता नहीं थी। अकेला रहता और एकदम मस्त जिंदगी काट रहा था। लेकिन एक दिन अचानक उसे अपनी पत्नी की याद आने लगती है, जिसे उसने 7 साल पहले छोड़ दिया था। उसे अपने ससुराल की याद आने लगती है और उस गांव की कच्ची सड़कों को वह याद करने लगता है, जहां उसने अपनी पत्नी के साथ कुछ हसीन पल गुजारे थे। उसे अपने बीते एक-एक पल की याद आने लगती है। अब उसे बहुत बेचैनी होने लगी थी। इतना ज्यादा वह परेशान हो जाता है कि अगले दिन ही वह अपनी गाड़ी उठाकर अपने गांव से 50 किलोमीटर दूर अपने ससुराल के लिए निकल पड़ता है।

गांव की यात्रा

गांव के अंदर दाखिल होते ही वह बहुत खुश हो जाता है, लेकिन साथ ही निराश भी। वह अपनी पत्नी के बारे में पता लगाने की कोशिश करता है। जब उसे अपनी पत्नी के बारे में जानकारी मिलती है, तो वह फूट-फूट कर रोने लगता है। दोस्तों, दो प्यार करने वालों की यह एक सच्ची प्रेम कथा है। तो चलिए पूरी कहानी को विस्तार के साथ जानने की कोशिश करते हैं।

रजत और महिमा की प्रेम कहानी

उत्तर प्रदेश के जिला कानपुर के एक छोटे से कस्बे में रजत नाम का एक लड़का रहता था। 7 साल पहले उसकी शादी महिमा नाम की एक बेहद खूबसूरत लड़की से हुई थी। उनकी शादी बहुत धूमधाम से हुई थी। दोनों अपने शादीशुदा जीवन में बहुत खुश थे। लेकिन रजत के घरवाले उनके बीच दरार डालने लग जाते हैं। वे दोनों के बीच नफरत पैदा करना शुरू कर देते हैं और आखिरकार वे इसमें सफल भी हो जाते हैं।

रजत बहुत ही सीधा-साधा लड़का था। वह मेहनती और कमाऊ था। रजत दिल्ली में कपड़ों की सेल करता था। भगवान की कृपा से वह धनवान था। रजत की शादी होने के बाद भी महिमा अधिकतर अपने मायके में ही रहती थी। महिमा के अलावा उसके मां-बाप का कोई दूसरा सहारा नहीं था। महिमा की एक बड़ी बहन थी, लेकिन उसकी शादी हो चुकी थी और वह अपने ससुराल में रहती थी। इसीलिए महिमा को अपने मां-बाप की ज्यादा फिक्र रहती थी।

परिवार का दखल

जब रजत दिल्ली से घर आता, तो वह डायरेक्ट अपने ससुराल ही चला जाता और महिमा के साथ कुछ दिन वहीं रुक जाता था। वह उसे खर्चे के लिए पैसे देता था, लेकिन उसके परिवार वाले उसकी इस बात से नफरत करने लगते थे। वे सोचते थे कि कहीं ऐसा न हो कि यह सारा पैसा अपनी पत्नी और उसके मां-बाप पर ही लुटा दे।

इसलिए रजत के भाई और भाभी उसके कानों में जहर घोलने का काम करने लगते हैं। वे उसे बताते हैं कि तुम्हारी पत्नी तुम्हारी पीठ पीछे क्या-क्या कर रही है। घर तो रहती ही नहीं है। किसी को क्या पता चल रहा है, कहां जाती है, किससे मिलती है। उन्होंने पिछले हफ्ते ही गांव में चर्चा सुनी थी कि रजत की पत्नी तो बदचलन है।

झगड़ा और अलगाव

इस सब के चलते रजत और महिमा के बीच तनातनी रहने लगती है और इसी बात को लेकर लड़ाई-झगड़ा शुरू हो जाता है। रजत अपनी पत्नी पर इल्जाम तराशने लगता है। वह उसे बदचलन बोल देता है। महिमा उसे समझाने की कोशिश करती है, लेकिन रजत गुस्से में उस पर हाथ भी उठा देता है।

महिमा तेज में आकर हमेशा के लिए अपने मायके चली जाती है और रजत भी अपने काम पर दिल्ली के लिए निकल जाता है। वह अपने परिवार के इस षड्यंत्र में ऐसा फंसता है कि उसे अपना अच्छा-बुरा दिखाई नहीं देता। अब वह पैसा कमाता है और अपने परिवार वालों को भेजता रहता है।

दुर्घटना और आत्ममंथन

कुछ साल यूं ही बीत जाते हैं। एक दिन अचानक सड़क दुर्घटना में उसके एक हाथ में फ्रैक्चर हो जाता है। वह दिल्ली में ही अपने हाथ पर प्लास्टर लगवाता है और दवाई ले लेता है। फिर वह सोचता है कि चलो घर चलते हैं। घर पर सुकून से रहूंगा और मेरा परिवार भी मेरी देखरेख करेगा।

यही सोचकर वह घर आ जाता है और 2 महीने अपने घर गुजरता है। दो महीनों में वह देखता है कि सभी लोग सिर्फ पैसों के साथ हैं। पैसे के बिना ना तो कोई भाई अपना है, ना कोई दोस्त। पैसा है तो सभी अपने हैं, वरना कोई भी नहीं है।

परिवार की असलियत

जब वह घर आया था, तो सभी उसे बोलते हैं कि यहां क्यों चले आए हो? दिल्ली में तो बड़े-बड़े हॉस्पिटल हैं। पढ़े-लिखे डॉक्टर लोग हैं। तुम्हें यहां आने की क्या जरूरत थी? इस पर रजत कहता है कि हां, मैंने प्लास्टर करा लिया था और दवाई भी ले ली है। अब मुझे बस कुछ दिनों की आराम की जरूरत है। सुबह शाम ताजा खाना और दूध की जरूरत है।

लेकिन अब जब वह कमा नहीं रहा था, तो उसके घर वालों ने उसे एक-एक चीज के लिए झीकने पर मजबूर कर दिया। अब उसके साथ इस तरह से सलूक किया जाता कि उसके अपने परिवार वालों से ही भरोसा उठ जाता है। उसका दिल टूट जाता है।

अलगाव का निर्णय

उसका हाथ अभी सही से काम भी नहीं कर रहा था और प्लास्टर भी अभी तक खुला था। फिर भी उसके घर वाले उसे दिल्ली काम पर जाने के लिए प्रेशर देने लगते हैं कि यहां कब तक ऐसे ही थाली की रोटी खाते रहोगे। यहां घर में पैसे पेड़ पर नहीं झड़ रहे हैं। अब तुम अपने काम पर चले जाओ और दो पैसे कमाओ तभी तो घर का खर्चा भी चलेगा।

इतनी खरी-खोटी सुनने के बाद और अपने साथ हो रही बदसलूकी को देखने के बाद वह बहुत परेशान हो जाता है और एक दिन गुस्से में बोल ही देता है कि मैं अब अलग रहना चाहता हूं। आप सभी लोगों से मैं आपको एक फूटी कौड़ी तक नहीं दूंगा। फिर वह अपने मामाजी और दो-चार रिश्तेदारों को बुलाकर घर में बंटवारा करा लेता है।

नया घर और नई शुरुआत

रजत काफी अच्छा खासा पैसा कमाता था, तो उसने 78 लाख अपने बैंक अकाउंट में भी जमा कर रखे थे। वह उन पैसों से एक घर बनाने का फैसला करता है और घर बनवा देता है। घर को लेकर उसके परिवार वालों ने उसके साथ बहुत विवाद किया। गांव वाले भी उसकी मजाक बनाते थे।

ताना मारते हुए कहते थे कि घर तो बना लिया है। अब इसमें रहेगा कौन? तुम्हारी बीवी बच्चे हैं। परिवार से तुम्हारी बनती नहीं है। तुम्हारे ना कोई आगे है, ना कोई पीछे। हर कोई उसे तरह-तरह की बातें सुनाता था। इस सब से वह तंग आ जाता है।

पत्नी की याद

एक दिन उसे अचानक अपनी धर्मपत्नी की याद आने लगती है और वह अगले दिन ही अपनी गाड़ी से 50 किलोमीटर दूर अपने ससुराल में पहुंच जाता है। वहां अब सब कुछ बदल चुका था। नुक्कड़ पर एक चाय की टपरी हुआ करती थी, लेकिन अब वहां बड़े-बड़े ढाबे खुल चुके थे।

वहां बैठकर चाय पीते हुए उस जगह को गौर से देखने लगता है, जहां उसकी पत्नी उसे विदा करने के लिए आया करती थी। जब भी वह अपने ससुराल आता, तो उसकी पत्नी उसे जबरदस्ती रोक लेती थी। अब वह उस जगह को याद करने लगता है और सोचता है कि चलो उसके घर जाने का समय आ गया है।
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