02/11/2025
बच्चे की शक्ल पति जैसी नहीं थी… पत्नी और बच्चे दोनों को घर से निकाला… फिर जो हुआ…
प्रयागराज के चौड़ी गलियों और पुराने भवनों के बीच खड़ा चौधरी निवास, बाहर से जितना भव्य था, अंदर से उतना ही ठंडा और अहंकार से भरा हुआ। रिया ने कभी नहीं सोचा था कि एक दिन यही दरवाजा उसके लिए जिंदगी का सबसे बड़ा मोड़ बन जाएगा। रिया, रसूलाबाद मोहल्ले की रहने वाली एक सीधी सादी लड़की थी, जो एक प्राइवेट स्कूल में असिस्टेंट टीचर थी। उसकी जिंदगी में सब कुछ सामान्य था, जब तक उसकी मुलाकात वेदांत चौधरी से नहीं हुई।
वेदांत, जो अपने भतीजे का एडमिशन कराने आया था, रिया की विनम्रता और उसकी सच्चाई से प्रभावित हुआ। रिया भी वेदांत के शांत स्वभाव और परिपक्व व्यवहार से आकर्षित हुई। धीरे-धीरे उनकी बातचीत बढ़ी और कुछ महीनों बाद वेदांत ने रिया से कहा, "रिया, मुझे लगता है तुम ही वो हो जिसके साथ मैं पूरी जिंदगी बिताना चाहता हूं।" रिया की पलकों में एक शर्माई चमक थी, और उसने हंसते हुए कहा, "हां, मैं भी यही चाहती हूं।"
लेकिन वेदांत के घर की दीवारें इस रिश्ते के लिए कभी तैयार नहीं थीं। जब उसने अपनी मां यशोदा देवी को रिया के बारे में बताया, तो उनका पहला वाक्य था, "एक मिडिल क्लास टीचर चौधरी परिवार की बहू? यह तुम्हारी जिद है, प्यार नहीं।" वेदांत ने रिया के लिए खड़ा होने की कोशिश की, और मजबूरी में शादी की अनुमति मिल गई। पर वह अनुमति आशीर्वाद नहीं, बल्कि एक समझौता थी।
शादी के दिन, रिया साधारण लाल बनारसी साड़ी में दुल्हन बनी थी, भोली खुश और उम्मीदों से भरी। लेकिन जैसे ही वह चौधरी निवास में कदम रखी, यशोदा देवी की पहली बात उसके दिल में बर्फ की तरह उतर गई। "घर में कदम रख देने से कोई बहू नहीं बन जाती।" रिया ने मुस्कुराकर सब स्वीकार किया और सोचा कि समय के साथ सब ठीक हो जाएगा। लेकिन घर की हर दीवार उसे यह एहसास दिला रही थी कि वह यहां मेहमान भी नहीं, बल्कि किसी बोझ की तरह है।
घर में करण नाम का एक लड़का था, जो औपचारिक रूप से नौकर था। लेकिन उसके चेहरे और व्यवहार में एक अलग ही डर छिपा रहता था। वह रिया से नजरें चुराता, पर कभी-कभी उसके हावभाव बताते थे कि वह रिया को किसी अनदेखी मुसीबत से बचाना चाहता है। रिया ने कई बार उसकी आंखों में अजीब सा दर्द देखा था, लेकिन करण हमेशा सिर झुका कर चुप हो जाता।
शादी के कुछ ही हफ्तों बाद रिया पर तानों की बारिश शुरू हो गई। "बहू, खाना अच्छा नहीं।" "बहू, काम में तेजी नहीं है।" "बहू, अपने घर की आदतें यहां मत लाना।" यशोदा देवी का हर वाक्य एक नया घाव था। और वेदांत धीरे-धीरे अपनी मां की बातों में बहने लगा। पहले वह रिया का साथ देता था, फिर उदासीन हो गया।
फिर एक सुबह रिया के चेहरे पर चमक आई। वह मां बनने वाली थी। उसने वेदांत को यह खबर दी, और वह मुस्कुराया जरूर, लेकिन उसकी आंखों में वह खुशी नहीं थी जो रिया देखना चाहती थी। यशोदा देवी का जवाब और भी चोट देने वाला था। "देखते हैं बच्चा किस पर जाता है। खून की पहचान होती है।"
समय बीतने लगा, गर्भ बढ़ रहा था, और उसी के साथ बढ़ रहा था करण का डर। कई बार वह रिया के पास आकर धीमे से कहता, "भाभी जी, अगर कभी कुछ गलत लगे तो घबराना मत।" रिया पूछती, "तुम कहना क्या चाहते हो?" लेकिन करण हर बार किसी छाया से डरकर चुप हो जाता।
डिलीवरी का दिन आया। रिया घंटों दर्द में थी। यशोदा देवी ने करण से कहा, "गाड़ी निकाल।" करण की आंखों में वही डर आज फिर तैर रहा था। कई घंटों की पीड़ा के बाद रिया ने एक प्यारे से बेटे को जन्म दिया। उसे गोद में लेते ही रिया रो पड़ी। खुशी से उसे लगा अब घर बदल जाएगा, अब सब ठीक होगा।
लेकिन शाम को दुनिया बदल गई। वेदांत कमरे में आया। रिया ने बेटे को आगे बढ़ाया, "देखो वेदांत, हमारा बेटा।" वेदांत ने बच्चे को देखा। 2 सेकंड, 3 सेकंड और अचानक उसका चेहरा सख्त हो गया। "यह बच्चा मेरा नहीं हो सकता।" रिया का दिल धड़कना भूल गया। "क्या?" तभी यशोदा देवी कमरे में आईं। बच्चे पर उंगली रखकर बोलीं, "इसकी शक्ल देखो। यह चौधरी खानदान पर नहीं गया। यह करण जैसी शक्ल का है।"
रिया हिल गई। "मां जी, यह क्या कह रही हैं? यह झूठ है।" लेकिन वेदांत अब शक में जल रहा था। उसने रिया की कलाई पकड़ ली। "तुम दोनों अभी इस घर से निकलो।" रिया चिल्लाई, "वेदांत, मैं कसम खाती हूं। यह बच्चा तुम्हारा है।" लेकिन वेदांत ने कुछ नहीं सुना। उसने रिया को धक्का दिया। रिया लड़खड़ा कर गिरी, लेकिन बच्चे को बचा लिया।
यशोदा देवी की ठंडी आवाज आई, "इसे हमारे घर से बाहर कर दो। अभी!" रिया खून से भीगी थी, चल भी नहीं पा रही थी, लेकिन उसे अस्पताल के बाहर धकेल दिया गया। नवजात को सीने से चिपकाए आधी रात की ठंडी सड़क पर। उसे नहीं पता था कि जिस शक के कारण उसे घर से निकाला गया, उस शक की असली जड़ किसी और के भीतर छिपी थी जो एक दिन फटने वाली थी।
रिया अपने नवजात बेटे को सीने से लगाए अस्पताल के बाहर पड़ी थी, जैसे दुनिया ने उससे सारी पहचान, सारी इज्जत और सारी उम्मीद छीन ली हो। उसके गले से आवाज ही नहीं निकल रही थी। शरीर वैसे ही दर्द में था जैसे किसी ने उसके भीतर की पूरी हिम्मत को निचोड़ लिया हो। और ऊपर से वेदांत का वह थप्पड़, वह इल्जाम, वह नफरत भरी आंखें, सब कुछ उसके सीने में पत्थर बनकर धंस चुका था।
बच्चा उसके सीने पर हल्के-हल्के रो रहा था, जैसे उसे भी इस दुनिया की बेरहमी का एहसास हो रहा हो। हर सांस के साथ रिया को अपने बदन में झटके लगते थे। लेकिन वह अपने बच्चे को ढकने के लिए दुपट्टे का आखिरी कोना उसके ऊपर डाल देती ताकि उसकी एक सांस भी खतरे में न पड़े।
रात बढ़ती जा रही थी। सड़क के ऊपर टिमटिमाते पीले लैंप झुककर जैसे रिया की हालत देख रो रहे थे। कुछ लोग वहां से गुजरते हुए उसे अजीब नजरों से देखते। कोई रुकने की हिम्मत नहीं करता। किसी को क्या फर्क पड़ता कि एक औरत अपने नवजात के साथ ऐसे पड़ी है जैसे कोई ठुकराई हुई छाया।
रिया उस रात बस यही सोचती रही, "मैंने आखिर ऐसा क्या किया था? मैंने तो सारी जिंदगी इसी घर को बस अपना घर माना था। मैंने तो बस प्यार किया था।" लेकिन सवालों के जवाब उस रात हवा में भी नहीं थे।
सुबह की पहली किरण के साथ जब शहर धीरे-धीरे जागने लगा, रिया के अंदर एक फैसला और भी पक्का हो चुका था। अब उसे मदद की जरूरत नहीं थी। उसे एक ऐसी जगह चाहिए थी जहां इंसानियत का आखिरी टुकड़ा बाकी हो। उसे याद आया मंदिर देवी के चरणों वाला वो मंदिर, जो उसके घर से ज्यादा साफ, शांत और सुकून देने वाला था।
वह लड़खड़ाते कदमों से उठी, रिक्शा बुलाया और अपने बेटे को सीने में कसकर मंदिर की ओर निकल पड़ी। रिक्शा वाला उसे हैरानी से देख रहा था। "बहन जी, कुछ हुआ है क्या?" "हॉस्पिटल से आ रही हूं," रिया बस सिर झुका ली। "मंदिर ले चलो।" वह शब्द उसकी टूटती सांसों से निकले थे।
मंदिर पहुंचकर उसे पहली बार लगा कि वह सुरक्षित है। यहां कोई उसे शर्म की नजर से नहीं देख रहा था। कोई उसके बच्चे के रंग, शक्ल, शक या उसके पति का नाम नहीं पूछ रहा था। घंटी की आवाज, जलती अगरबत्तियां और ठंडा संगमरमर उसका दर्द थोड़ी देर के लिए थाम रहे थे।
पंडित जी ने रिया की हालत देखकर तुरंत एक पुराना सा छोटा कमरा दे दिया। छत पर बना हुआ जर्जर सा कोना, जिसमें एक टूटी चारपाई और दो बर्तन पड़े थे। लेकिन रिया के लिए वह किसी महल से कम नहीं था। कम से कम वहां किसी की नफरत नहीं थी।
रिया अपने बेटे को आरव नाम देती है। अपनी सबसे बड़ी ताकत, अपनी सबसे बड़ी उम्मीद और उसी मंदिर के उसी कमरे में अपने नए जीवन की शुरुआत करती है। एक टूटी हुई औरत की तरह नहीं, बल्कि एक मां की तरह। दिन बीतता गया। रिया मंदिर की सीढ़ियों पर बैठती। लोग दान में दिया खाना उसे भी दे देते। कभी किसी ने चाय थमा दी, कभी किसी ने दूध।
आरव धीरे-धीरे उसकी बाहों में मजबूत होता जा रहा था। और जैसे-जैसे आरव की आंखें खुलने लगीं, रिया के अंदर एक नई हिम्मत जागने लगी। लेकिन इसके बीच एक अजीब सी बेचैनी हमेशा उसके आसपास रहती थी। निकाल दिया गया होना नहीं, इल्जाम नहीं, डर नहीं, बल्कि एक चेहरा, एक आवाज, एक डर जो दीवारों की तरह रिया के पीछे-पीछे आता था।
करण, हां वही करण जिसके लिए कहा गया था कि बच्चे की शक्ल उससे मिलती है। रिया नहीं जानती थी कि यह सवाल ही उसका रास्ता बदल देंगे। एक शाम जब मंदिर की भीड़ कम थी, रिया अपने बेटे को गोद में लिए प्रांगण के कोने में बैठी थी। तभी मंदिर के मुख्य दरवाजे से एक टूटा हुआ, कमजोर कांपता हुआ साया भीतर आया।
रिया ने जैसे ही उस चेहरे को देखा, उसकी सांसे हलक में अटक गई। वह करण था, पर वैसा करण नहीं। वो मिट्टी से भरा था। कपड़े फटे हुए थे। चेहरा सूजा हुआ था और उसकी आंखों में डर से ज्यादा पछतावा था। वह सीधे मंदिर में जाकर कोने में बैठ गया। लोगों को देखते हुए अपने हाथ जोड़कर कांपती आवाज में वही शब्द दोहराने लगा जो रिया ने कभी चुपके से सुने थे। "हे भगवान, भाभी जी का बच्चा कृपया इसे दुनिया में मत आने देना या सच्चाई को दफन रहने देना।"
रिया का दिल जोर से धड़का। यह क्या बकवास है? कौन सी सच्चाई? कौन सा डर? किसका रिश्ता? उसकी नसें तंग गईं। उसने आरव को कसकर पकड़ा। वो जानती थी आज जो भी सुनेगी, उसे फिर कभी चैन से जीने नहीं देगा। रिया धीरे-धीरे उसकी तरफ चली और उसके बिल्कुल सामने जाकर खड़ी हो गई। करण की नजरें ऊपर उठीं और उसे देख वह जैसे पत्थर हो गया।
उसने इतना ही कहा, "भाभी जी, आप और रिया की आवाज पहली बार इतनी तेज निकली। बोल करण, आज बोल तुम जिस सच्चाई से भाग रहे थे, आज वो मैं सुनना चाहती हूं। मेरे बच्चे का तेरा क्या रिश्ता? मेरा घर क्यों उजड़ा? कौन सी आग है जो तुम छुपा रहे हो?" करण फूट-फूट कर रोने लगा। घुटनों पर गिर गया। उसके शब्द टूटते जा रहे थे।
"भाभी जी, मैं दोषी नहीं हूं। लेकिन सच बहुत खौफनाक है।" रिया का दिल अब उसके सीने में नहीं था। गले में आ चुका था। उसने कहा, "सच बताओ करण, वरना आज मैं मर जाऊंगी। लेकिन इस अनिश्चितता में नहीं जी पाऊंगी।"
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