Suhana Safar With Annu Kapoor

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29/05/2025

उस दिन नौशाद की गर्दन पकड़कर महबूब खान उन्हें खींचते हुए कैमरा से दूर ले गए और बोले,"ये तुम्हारा काम नहीं है। तुम बस अपनी पेटी बजाओ।" नौशाद बहुत प्यार से मुस्कुराए और बोले,"मैं जानता हूं हुजूर कि ये मेरा काम नहीं है। आपका काम है। और संगीत मेरा काम है। आपका नहीं।"

ये घटना है साल 1946 में रिलीज़ हुई फ़िल्म "अनमोल घड़ी" के सेट पर। उस वक्त इस फ़िल्म के बहुत मशहूर गीत "जवां है मुहब्बत, हंसी है ज़माना" का पिक्चराइज़ेशन चल रहा था। अनमोल घड़ी ही वो फ़िल्म भी थी जिसके संगीत के सिलसिले में पहली दफ़ा नौशाद और महबूब खान की मुलाक़ात हुई थी।

नौशाद को उन दिनों लोकप्रियता मिलनी शुरू ही हुई थी। और तब वो कारदार प्रोडक्शन में बतौर संगीतकार नौकरी कर रहे थे। महबूब खान ने भी नौशाद का बड़ा नाम सुना था। और नौशाद के कंपोज़ किए कुछ गाने सुने भी थे। उन्हें भी नौशाद का काम पसंद आया था। इसलिए ए.आर. कारदार को महबूब खान ने नौशाद से अपनी फ़िल्म का संगीत कंपोज़ कराने के लिए मनाया। कारदार मान भी गए।

अनमोल घड़ी के लिए नौशाद ने जो गीत सबसे पहले कंपोज़ किया था वो यही था जिसका ज़िक्र शुरुआत में है। "जवां है मुहब्बत, हंसी है ज़माना।" ये गीत नूरजहां पर पिक्चराइज़ होना था। गाया भी नूरजहां ने ही था। नौशाद ने नूरजहां से इस गीत की खूब रिहर्सल कराई। फिर एक दिन महबूब खान नौशाद का काम देखने स्टूडियो पहुंचे। महबूब खान को सुनाने के लिए नूरजहां जी ने फिर से गीत गाया।

पूरा गीत सुनने के बाद महबूब खान ने कई तरह के बदलाव नौशाद को बता दिए। नौशाद को महबूब खान की वो बात अच्छी तो नहीं लगी। मगर महबूब खान उनसे बहुत सीनियर थे। और रुतबे में बहुत बड़े भी। तो नौशाद उनसे कुछ कह ना सके। महबूब खान ने जो कहा था, वैसे बदलाव नौशाद ने धुन में कर दिए।

कुछ ही दिनों में नौशाद ने फ़िल्म का दूसरा गाना भी तैयार कर लिया। नौशाद महबूब खान के पास गए और उनसे बोले कि दूसरा गाना तैयार है। आप सुन लीजिए और बताइए कि कोई बदलाव तो नहीं करना है। जवाब में महबूब खान ने नौशाद से कहा,"अभी रुको। अभी मैं एक शॉट ले रहा हूं। ये तुम्हारे पहले गीत का पिक्चराइज़ेशन ही चल रहा है।

तभी नौशाद महबूब खान से बोले,"महबूब साहब, क्या मैं भी कैमरे में देख सकता हूं?"

"हां हां, क्यों नहीं। ये तुम्हारे गाने का पिक्चराइज़ेशन ही तो चल रहा है। बिल्कुल देखो।" महबूब खान ने नौशाद से कहा।

नौशाद ने कुछ सेकेंड्स के लिए कैमरे के व्यू फाइंडर पर आंख लगाई और फिर महबूब खान से कहा,"मेरे ख्याल से उस तस्वीर को आपको बाईं तरफ़ से हटाकर दांयी तरफ़ लगवाना चाहिए। और उस तरफ़ की लाइट बुझाकर इस तरफ़ की लाइट जलवा लेनी चाहिए" महबूब खान को नौशाद की वो बात बड़ी अजीब लगी।

सेट पर मौजूद जिन-जिन लोगों ने नौशाद को वो सब कहते सुना था, वो सभी शॉक्ड हो गए। क्योंकि सब महबूब खान के गुस्से से वाकिफ़ थे। कोई महबूब खान से ऐसे बात करेगा, ऐसी उम्मीद किसी को नहीं थी। तभी महबूब खान नौशाद की गर्दन पकड़कर उन्हें एक तरफ खींचकर ले गए थे और बोले थे कि तुम बस पेटी बजाओ। ये तुम्हारा काम नहीं है।

और जवाब में नौशाद ने महबूब खान से कहा था कि मैं जानता हूं ये मेरा नहीं, आपका काम है। और संगीत मेरा काम है। आपका नहीं। नौशाद की ये बात सुनकर महबूब खान कन्फ्यूज़ हो गए। उन्हें समझ ही नहीं आया कि इस बात पर वो नौशाद को क्या कहें? किस तरह से रिएक्ट करें? कुछ देर सोचने के बाद महबूब खान ने नौशाद से कहा,"पहले मैं ये शॉट पूरा कर लूं। फिर मैं तुम्हें ज़रूर जवाब दूंगा।"

महबूब खान की वो बात सुनकर नौशाद ज़रा टेंशन में आ गए। वो सोच रहे थे कि जाने महबूब खान उन्हें क्या जवाब देंगे? कैसे रिएक्ट करेंगे? आखिरकार जब महबूब खान ने वो शॉट कंप्लीट कर लिया तो वो नौशाद के पास आए और बोले,"क्या तुम यहां दूसरे गाने के बारे में बात करने आए थे?" नौशाद ने उन्हें बताया कि कि दूसरा गाना भी तैयार है। उसे सुनिए और अपनी राय ज़ाहिर कीजिए। महबूब खान मुस्कुराकर बोले,"तुमने फ़ाइनल कर दिया तो फ़ाइनल है। वो तुम्हारा काम है, मेरा नहीं।"

साथियों ये सभी बातें नौशाद साहब ने एक इंटरव्यू में बताई थी। यूट्यूब पर मौजूद है वो इंटरव्यू। नौशाद साहब ने ये भी बताया था कि उस दिन के बाद फिर कभी महबूब खान ने नौशाद के किसी गाने में कोई कमी नहीं निकाली। और तो और, उसके बाद तो कई दफ़ा ऐसा होता था जब महबूब खान रिकॉर्डिंग के दौरान भी मौजूद नही रहते थे। नौशाद ने भी कभी महबूब खान को निराश नहीं होने दिया।

आज महबूब खान की डेथ एनिवर्सरी है। साल 1964 की 28 मई को महबूब खान का देहांत हुआ था। किस्सा टीवी महबूब खान को सस्मान याद करते हुए उन्हें नमन करता है।

29/05/2025

ये किस्सा आपको एकदम फ़र्ज़ी, कोरी गप्प और सफ़ेद झूठ लग सकता है। लेकिन इस किस्से को कहने वाले किदार शर्मा के मुताबिक ये वास्तविक घटना है। अपनी आत्मकथा "द वन एंड लोनली किदार शर्मा" में उन्होंने इस किस्से का ज़िक्र किया है। और किदार शर्मा खुद ये कहते हैं कि लोग इसे फ़िक्शन समझेंगे। मगर ये सच है। उनके साथ वास्तव में घटित एक घटना है। इस किस्से के दो पात्र हैं। एक किदार शर्मा खुद। और दूसरे हैं पृथ्वीराज कपूर जी। उन्हीं की वजह से तो ये किस्सा आज मैं लिख रहा हूं। क्योंकि आज पृथ्वीराज कपूर जी की पुण्यतिथि है। साल 1972 में आज ही के दिन, 29 मई को पृथ्वीराज कपूर जी का देहांत हुआ था। चलिए कहानी शुरू करते हैं।

ये साल 1938 के किसी महीने की घटना है। उस ज़माने में किदार शर्मा और पृथ्वीराज कपूर, दोनों कलकत्ता के मशहूर न्यू थिएटर्स में नौकरी करते थे। न्यू थिएटर्स में काम करने वाले कुछ ही कलाकार थे तब जिनके पास अपनी खुद की कार हुआ करती थी। वो थे के.एल.सहगल, उमा शशि व पहाड़ी सान्याल। न्यू थिएटर्स में काम करने वाले बाकी कलाकार ट्राम से सफ़र करके नौकरी पर आते थे। किदार शर्मा जी ट्राम से ही काम पर जाते थे। उनके साथ नवाब कश्मीरी नाम के उनके एक सहकर्मी भी थे। जबकी पृथ्वीराज कपूर जी ने एक साइकिल खरीद ली थी।

पृथ्वीराज कपूर से कलकत्ता में जब किदार शर्मा की पहली मुलाक़ात हुई थी तब पृथ्वीराज जी एक दूसरी जगह रहते थे। मगर अब उन्होंने भवानीपुर इलाके में एक बड़ा सा फ़्लैट ले लिया था। और अपने परिवार संग वहां शिफ्‍ट हो गए थे। न्यू थिएटर्स वहां से लगभग चार मील की दूरी पर था। तो पृथ्वीराज जी ने काम पर आने-जाने के लिए एक साइकिल खरीद ली। किदार शर्मा इस वक्त तक पृथ्वीराज कपूर के बहुत अच्छे दोस्त बन चुके थे। कई दफ़ा ऐसा होता था कि काम जल्दी खत्म हो जाता था। तब स्टाफ़ को छुट्टी दे दी जाती थी। ऐसी स्थिति में किदार शर्मा और पृथ्वीराज कपूर न्यू थिएटर्स से पैदल ही किदार शर्मा जी के किराए के घर तक आते थे, जो रास्ते में ही पड़ता था। साइकिल पृथ्वीराज जी के साथ ही रहती थी।

किदार शर्मा का घर जहां था वहां पास में ही एक लैम्प पोस्ट भी था। अक्सर किदार शर्मा जी और पृथ्वीराज कपूर जी उस लैम्प पोस्ट के पास खड़े होकर गप्पे मारते थे। दुनिया-जहान के मुद्दों पर बातें करते थे। और तब तक बातें करते थे जब तक की अंधेरा नहीं हो जाता था। अंधेरा होने के बाद पृथ्वीराज कपूर जी अपनी साइकिल पर लगी लाइट जलाकर अपने घर की तरफ़ निकल जाते थे।

अपनी आत्मकथा "द वन एंड लोनली किदार शर्मा" में किदार शर्मा जी लिखते हैं,""जिस घटना का ज़िक्र मैं कर रहा हूं वो किसी फिक्शन जैसा लगेगा। लेकिन वो सच है। और ऐसे ही हुआ था जैसे कि मैं नैरेट कर रहा हूं। एक शाम मैं और पृथ्वीराज मेरे घर के पास लगे उसी लैम्प पोस्ट के नीचे खड़े बात कर रहे थे। उस दिन हम बातों में कुछ ज़्यादा ही खो गए। लगभग छह बजे करीब हमारे बॉस, न्यू थिएटर्स के मालिक बी.एन.सिरकार अपनी कार से वहां से निकले। वो अपने घर जा रहे थे। हम दोनों ने उन्हें ग्रीट किया। उन्होंने मुस्कुराकर अपनी गर्दन हिलाई। और फिर उनकी कार आगे निकल गई।"

"फिर हम दोनों अपनी बातों में मगन हो गए। हम उर्दू शायरी के बारे में कुछ बात कर रहे थे। पृथ्वीराज को बातें करना बहुत पसंद था। मुझे भी बहुत अच्छा लगता था। पृथ्वीराज को मुझसे उर्दू शायरी सुनना, या किस्से कहानियां सुनना बहुत पसंद आता था। मेरे जॉक्स भी उन्हें बहुत अच्छे लगते थे। वास्तव में पृथ्वीराज को मेरे साथ वक्त बिताना बहुत अच्छा लगता था। उनकी पत्नी भी इस बारे में शिकायत कर चुकी थी। उस शाम बातों में हम कुछ ज़्यादा ही खो गए। पृथ्वीराज ने अपनी साइकिल की लाइट भी नहीं जलाई। ना ही मैं अपने फ्लैट की तरफ गया। सारी रात हम दोनों बातें करते रहे। हम दोनों दोस्त उस दिन सारी रात उस लैम्प पोस्ट के नीचे खड़े रहे।"
"अगली सुबह कोई साढ़े नौ बजे बी.एन.सिरकार फिर वहीं से गुज़रे। वो स्टूडियो जा रहे थे। हम दोनों को एक शाम पहले की तरह वहां खड़े बातें करते देखकर बी.एन.सिरकार को बहुत हैरत हुई। उन्होंने अपनी कार रोकी और हमारे पास आए और। बोले,"तुम दोनों कल रात अपने घर गए थे? या सारी रात यहीं खड़े रहे?" उस वक्त हम दोनों को अहसास हुआ कि हम पिछले सोलह घंटों से यहां खड़े हैं। बिना कुछ खाए। बिना कुछ पिए। और बिना एक सेकेंड की नींद लिए।"

तो ये कहानी होती है यहां पर खत्म। अब आप इस पर अपनी प्रतिक्रिया दीजिएगा। मैं अपनी कहूं तो मुझे ये पॉसिबल लगता है। ये कलाकार टाइप के लोग कुछ-कुछ ऐसे होते हैं। कभी-कभार ये लोग वाकई में ऐसी हरक़तें कर जाते हैं जिससे लोग इन्हें पागल समझने लगते हैं। उस दिन अगर किसी ने किदार शर्मा जी और पृथ्वीराज कपूर जी को वहां उस लैंप के पास घंटों तक खड़े देखा होगा तो वो पक्का मानकर बैठ गया होगा कि या तो ये लोग कोई शातिर अपराधी हैं जो किसी घटना को अंजाम देने की प्लानिंग कर रहे हैं। या पागल-वागल हैं।

बाकि आखिर, में पृथ्वीराज कपूर जी को नमन। शत शत नमन। किदार शर्मा जी को भी नमन। कोई कहे उससे पहले ही बता देता हूं, किदार शर्मा जी अपना नाम ऐसे ही लिखते थे। वो केदार शर्मा नहीं लिखते थे।

"साउथ के एवीएम प्रोडक्शन वालों ने मेरे पिता को एज़ ए हीरो लॉन्च किया था। उनके साथ मेरे पिता का पांच साल का कॉन्ट्रैक्ट ह...
29/03/2025

"साउथ के एवीएम प्रोडक्शन वालों ने मेरे पिता को एज़ ए हीरो लॉन्च किया था। उनके साथ मेरे पिता का पांच साल का कॉन्ट्रैक्ट हुआ था। उन्होंने अच्छी सैलेरी और मद्रास में एक घर दिया था मेरे पिता को। भाभी फ़िल्म से उन्हें एज़ ए रोमांटिक लीड लॉन्च किया गया था। मुख्य हीरो तो बलराज साहनी साहब थे। मेरे पिता ने उनके छोटे भाई का किरदार निभाया था। उनके अपोज़िट नंदा थी जो छोटी उम्र में विधवा हो जाती हैं। और आखिर में मेरे पिता से उनकी शादी हो जाती है। इस फ़िल्म का एक गीत बहुत हिट हुआ था। वो मेरे पिताजी पर ही फ़िल्माया गया था। गीत था 'चली चली रे पतंग मेरी चली रे।' बहुत अच्छा गीत था।"

साथियों जावेद जाफ़री जी के इंटरव्यू का ये दूसरा हिस्सा है। इससे पहले हमने इस इंटरव्यू का पहला भाग भी अभी थोड़ी देर पहले पोस्ट किया है। जिन साथियों ने ना पढ़ा हो, आप उसे किस्सा टीवी पर विज़िट करके पढ़ सकते हैं। पसंद आएगा। उसमें जगदीप साहब के शुरुआती जीवन व संघर्षों के बारे में जावेद जाफ़री जी ने बात की है। चलिए, इंटरव्यू के इस भाग को आगे बढ़ाते हैं।

"भाभी के बाद उन्होंने नंदा जी के साथ बरखा नामक एक और फ़िल्म में काम किया। उस फ़िल्म में नंदा जी और मेरे पिता जी भाई-बहन बने थे। बरखा का एक गीत मुझे बहुत पसंद है जो मेरे पिता जी पर पिक्चराइज़्ड हुआ था और रफ़ी साहब ने गाया था। उस गीत के बोल हैं 'छोड़ भी दे मझधार।' चित्रगुप्त जी ने संगीत दिया था उस फ़िल्म का। लेकिन फिर कुछ ऐसा हुआ जो अच्छा नहीं था।"

"मेरे पिता को बहुत सारी फ़िल्मों के ऑफ़र्स आ रहे थे। मगर वो एवीएम के साथ कॉन्ट्रैक्ट में थे तो किसी फ़िल्म में काम नहीं कर सके। दूसरे बैनर्स की फ़िल्मों में काम करने के बदले एवीएम वालों ने उनसे पैसों की डिमांड कर दी। मेरे पिता जी का बड़ा नुकसान हुआ। उन्हें काम मिलना कम होने लगा। उन्हें जंगली फ़िल्म में काम करने को कहा गया था। मगर एवीएम के कॉन्ट्रैक्ट की वजह से वो जंगली में काम नहीं कर सके।"

"वो फ्रस्ट्रेट रहने लगे। उन्होंने शराब पीना शुरू कर दिया। वो हीरो बनना चाहते थे। मगर उन्हें सैकेंड लीड के रोल्स मिलने लगे। उन्हें उन लोगों के सामने सैकेंड लीड बनना पड़ा जो उनके बाद फ़िल्म इंडस्ट्री में आए थे। उनकी फ्रस्ट्रेशन और ज़्यादा बढ़ने लगी। जब एवीएम वालों के साथ उनका प्रोडक्शन खत्म हुआ तो उन्होंने पी एल संतोषी जी की रूप रुपैया, अज़रा जी की बैंड मास्टर व सलीम साब की लुटेरा में काम किया। अमीता आंटी के साथ उन्होंने पनुर्मिलन नामक एक फ़िल्म में काम किया था। उस फ़िल्म का गीत 'पास बैठो तबियत बहल जाएगी' बड़ा हिट हुआ था। लेकिन करियर उनका कुछ खास नहीं चल रहा था।"

"जब पिता जी की शादी हो गई तो वो मद्रास छोड़कर बॉम्बे वापस आ गए। फिर 1962 में मेरा जन्म हुआ। 1968 में उन्होंने ब्रह्मचारी फ़िल्म में एक कॉमिक रोल किया। और वहीं से एज़ ए कॉमेडियन उनका सफ़र शुरू हो गया। पिताजी को अच्छा तो नहीं लगता था कि उन्हें कॉमेडियन के तौर पर टाइपकास्ट कर दिया गया है। लेकिन वो काम करते रहे। हालांकि दिल के किसी कोने में उन्हें दुख ज़रूर होता था। कभी जो कलाकार उनके बाद फ़िल्म इंडस्ट्री में आए थे, जो उन्हें देखकर खड़े हो जाते थे, उनके लिए दरवाज़ा खोलते थे। वो उनसे आगे निकल गए। हालांकि उनमें से कुछ हमेशा उनके दोस्त रहे।"

"मेरे पिता जी एक सीरियस एक्टर थे। इसलिए उनके लिए कॉमेडी करना, जो कई दफ़ा फ़िज़ूल भी होती थी, मुश्किल होता था। कई दफ़ा ऐसा होता था जब स्क्रिप्ट्स बहुत खराब होती थी। तब उन्हें अपने फ़ेशियल एक्सप्रेशन्स के ज़रिए कॉमेडी करनी पड़ती थी।"

"मैं 13 साल का था जब शोले रिलीज़ हुई थी। मुझे याद है शुरुआत में लोग शोले के बारे में कहते थे कि शोले का छोले हो गया। खोदा पहाड़ निकली चुहिया, वगैरह वगैरह। लेकिन एक सप्ताह बाद, जब मिनर्वा थिएटर में शोले की स्टीरियोफोनिक स्क्रीनिंग हुई तो सबकुछ बदल गया। शोले सबको पसंद आने लगी। कल्ट क्लासिक बन गई शोले। शोले का हर कैरेक्टर लोगों को याद है।"

"मैं बांद्रा में पला-बढ़ा हूं। मेरी पढ़ाई एक कैथोलिक स्कूल में हुई है जिसका नाम है सेंट टेरेसाज़ हाई स्कूल। मेरी बेंच पर मेरे साथ एक सिंधी और एक पंजाबी बैठते थे। उस स्कूल में किसी तरह का भेदभाव नहीं था। किसी तरह का क्लास डिफ़रेंस भी नहीं था। जिस बेंच पर किसी अमीर डॉक्टर का बेटा बैठता था उसी पर स्लम से आया कोई बच्चा भी बैठता था। मेरी परवरिश ऐसे हुई है। मेरे बच्चों को ऐसा माहौल नहीं मिला।"

"मेरे पिता बहुत बिज़ी रहते थे। तो उनके साथ बहुत ज़्यादा बाहर जाना हमारा हुआ नहीं। कभी-कभी हम उनके साथ फ़िल्म देखने चले जाते थे। जब लोग उन्हें पहचान जाते थे तो ऑटोग्राफ़ के लिए भीड़ लगा लेते थे। अक्सर गर्मियों की छुट्टियों में पिताजी कहीं ना कहीं आउटडोर शूटिंग पर होते थे। तब वो हमें भी साथ ले जाते थे। उन दिनों अधिकतर बड़ी फ़िल्में कश्मीर में शूट होती थी। तो गर्मियों की छुट्टियों में हम भी अपने पिता के साथ कश्मीर खूब जाते थे। लेकिन जब बॉम्बे में उनकी शूटिंग होती थी तब हम उनकी फ़िल्मों के सेट पर नहीं जाते थे।"

"मेरे पिताजी बहुत कूल थे। लेकिन मां बहुत स्ट्रिक्ट थी। पिताजी ने हमें हर वो चीज़ दी जो उन्हें उनके बचपन में नहीं मिल सकी थी। उनका बचपन बिल्कुल भी अच्छा नहीं रहा था। लेकिन हमारे बचपन को अच्छा बनाने में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी। मैं कभी-कभी उनके नाम का मज़ाक बनाता था। मैं कहता था कि इनका जग बहुत डीप है।"

"जब हमारी दादी का निधन हुआ था तब वो बहुत रोए थे। वो हमेशा अपनी मां के साथ ही रहे थे। वो कभी कब्रिस्तान नहीं जाते थे। शायद बचपन में उन्हें कोई बुरा तजुर्बा हुआ हो। मगर जब उनकी मां की मौत हुई तो वो कब्रिस्तान गए थे। वो उनके लिए बहुत मुश्किल था। वो बहुत ज़्यादा रो रहे थे। जब उनका निधन हुआ तो हमने उन्हें उसी कब्र में दफ़नाया जिसमें उनकी मां को दफ़नाया गया था। मैं जानता हूं कि उन्हें अच्छा लगा होगा।"

"मेरे पिता एक अच्छे खानदान से थेे। उनके पिता, यानि मेरे दादा दतिया के महाराज के वकील हुआ करते थे। 10 भाई बहनों में मेरे ...
29/03/2025

"मेरे पिता एक अच्छे खानदान से थेे। उनके पिता, यानि मेरे दादा दतिया के महाराज के वकील हुआ करते थे। 10 भाई बहनों में मेरे पिता सबसे छोटे थे। उनके बड़े भाई उनसे 25-30 साल बड़े थे। मेरे पिता की उम्र 6-7 साल रही होगी जब मेरे दादा जी की मौत हुई थी। मेरी दादी मेरे पिता को लेकर कराची चली गई। वहां उनके दो बड़े बेटे रहा करते थे। उस वक्त तक देश का विभाजन नहीं हुआ था। मगर कुछ दिन बाद जब विभाजन हुआ तो मेरी दादी और पिता वहीं थे। उन्होंने भारत लौटने का फै़सला किया। जबकी उस वक्त अधिकतर मुस्लिम पाकिस्तान जा रहे थे। मेरे पिता ने उस दौर में हुए दंगे और क़त्ल-ओ-ग़ारत अपनी आंखों से देखी थी।"

अभिनेता जावेद जाफ़री ने अपने पिता व नामी कॉमेडियन रहे जगदीप को याद करते हुए एक इंटरव्यू में ये बातें कही थी। वो इंटरव्यू जावेद जाफ़री जी ने पत्रकार पैट्सी एन. को दिया था। आज जगदीप जी का जन्मदिन है। साल 1939 को जगदीप जी का जन्म हुआ था। उनका रियल नेम था सैयद इश्तियाक अहमद जाफ़री। फ़िल्म इंडस्ट्री में आने से पहले व आने के बाद भी जगदीप साहब को बहुत संघर्ष करना पड़ा था। उसी संघर्ष की कहानी आज हम और आप जगदीप साहब के पुत्र जावेद जाफ़री के शब्दों में जानेंगे। उम्मीद है आपको जगदीप जी के संंघर्षों की ये कहानी पसंद आएगी।

"जब मेरे पिता पाकिस्तान से बॉम्बे आ गए तो उनका अपने भाईयों से कोई संपर्क नहीं रहा। अपनी मां के साथ उन्हें बॉम्बे की सड़कों पर ज़िंदगी गुज़रानी पड़ी। पेट भरने के लिए उन्हें हर वो सामान बेचना पड़ा जो उनके बैग में मौजूद था। कपड़े खिलौने इत्यादि। जब वो पैसा भी खत्म हो गया तो दादी और पिता बायकुला में एक पुल के नीचे आकर रहने लगे। छोटी उम्र में ही पिता ने काम करना शुरू कर दिया। कभी वो पतंगे बेचते थे। कभी साबुन, कंघा और कभी कुछ और। वो बहुत मुश्किल वक्त था।"

"उस इलाके में एक बेकरी थी जो फ़र्श पर बिखरे ब्रैड क्रम्ब्स बेचा करती थी। जब मेरी दादी और पिता के पास पैसे नहीं होते थे तब वो एक पैसा में उस बेकरी से वही ब्रैड क्रम्ब्स खरीदकर अपना पेट भरते थे। लेकिन उसे खाने से पहले उसमें मौजूद चूहो और कॉकरोच की गंदगी साफ़ करनी पड़ती थी। उन्होंने बहुत मुश्किल वक्त देखा था तब। मेरे पापा हमसे बताते थे कि शराबी और चोर किस्म के लोग, जिन्हें सब बुरा कहते थे, वो लोग उनकी मदद किया करते थे। यानि वो उतने भी बुरे नहीं थे। इसिलिए मेरे पिता कभी भी किसी को लेकर जजमेंटल नहीं होते थे।"

"मेरे पिता की पहली फ़िल्म थी बी.आर.चोपड़ा की अफ़साना। उन्हें वो फ़िल्म एक एजेंट ने दिलाई थी जो तब जूनियर आर्टिस्टों की तलाश कर रहा था। मेरी दादी तब छोटे-मोटे काम करती थी। लोगों के घरों में झाड़ू-खटका करने का काम था उनका। इसलिए मेरे पिता भी छोटी उम्र में ही ज़िम्मेदार बन गए थे। सब किस्मत की बात है। कहां तो एक वक्त वो था जब मेरे पिता जी के घर में नौकर-चाकर हुआ करते थे। और कहां अब वो कंगाल हो चुके थे।"

"अफ़साना 1949 में बननी शुरू हुई थी। और 1951 में रिलीज़ हो गई थी। पहले उस फ़िल्म में मेरे पिता का सिर्फ़ एक सीन था। उन्हें बस तालियां बजानी थी। लेकिन चोपड़ाज़ को एक ऐसा बच्चा चाहिए था जो कुछ हैवी उर्दू वाले डायलॉग्स बोल सके। दूसरे जो बच्चे थे उन्हें उर्दू बोलनी नहीं आती थी। मेरे पिता को जब वो सब पता चला तो उन्होंने अपने साथ के एक लड़के से पूछा कि अगर किसी ने वो डायलॉग्स बोल दिए तो क्या होगा। उस लड़के ने कहा कि डबल पैसे मिलेंगे।"

"मेरे पिता ने फ़ौरन यश चोपड़ा से कहा कि मैं ये डायलॉग्स बोलूंगा। आज भी मेरे फोन में वो क्लिप है जिसमें मेरे पिता अफ़साना फ़िल्म में वो उर्दू वाले डायलॉग्स बोल रहे हैं। यूट्यूब पर भी है। उस एक सीन ने उनकी किस्मत बदल दी। देखते ही देखते वो तब के मशहूर चाइल्ड एक्टर बन गए।"

"फुटपाथ में उन्होंने दिलीप कुमार के बचपन का किरदार निभाया था। मुहुर्त शॉट उन्हीं पर लिया गया था। उन्हें रोना था उस सीन में। मेरे पिता ने बिना ग्लिसरीन लगाए ही रोने का वो सीन प्ले किया। उन्होंने वो सीन इतनी अच्छी तरह से निभाया कि दिलीप कुमार भी उनकी एक्टिंग पर फ़िदा हो गए। दिलीप साहब ने मेरे पिता को सौ रुपए ईनाम दिया।"

"मेरे पिता और दादी तब तक माहिम में एक छोटी सी खोली किराए पर ले चुके थे। उस दिन की शूटिंग खत्म होने के बाद दिलीप साहब मेरे पिता को अपनी कार से छोड़ने माहिम आए थे। दिलीप साहब ने उन्हें एक पेट्रोल पंप के पास छोड़ा था। जब दिलीप साहब पेट्रोल पंप पर रुके तो वहां कुछ लोग उनके ऑटोग्राफ़ लेने आए। दिलीप साहब ने उनसे कहा कि इस बच्चे के ऑटोग्राफ़ लीजिए। ये आगे चलकर बड़ा स्टार बनेगा। उस दिन मेरे पिता ने अपना पहला ऑटोग्राफ़ साइन किया था।"

"मेरे पिता इमोशनल एक्टिंग करते थे। लेकिन "दो बीघा ज़मीन" में बिमल दा ने उनसे एक कॉमिक कैरेक्टर प्ले कराया। बिमल दा का मानना था कि जो इंसान लोगों को रुला सकता है, वो लोगों को बहुत अच्छे से हंसा भी सकता है। मेेरे पिता 'दो बीघा ज़मीन' में लालू उस्ताद बने थे। मेरे हिसाब से तो मेरे पिता भारतीय सिनेमा के सबसे नैचुरल चाइल्ड एक्टर थे। मैंने डेज़ी ईरानी मैम की फ़िल्में देखी हैं। सचिन और जूनियर महमूद को भी एज़ ए चाइल्ड एक्टर काम करते देखा है। लेकिन मेरे सबसे फ़ेवरिट चाइल्ड एक्टर मेरे पिता थे। जिस तरह की नैचुरसलनेस मेरे पिता में थी वो मैंने किसी और में नहीं देखी। मेरे पिता क्यूट लुकिंग नहीं थे। इस वजह से उन्हें बहुत सी फ़िल्मों में नहीं लिया जाता था।"

"वी. शांतराम मेरे पिता के साथ "तूफ़ान और दीया" फ़िल्म बनाना चाहते थे। किसी फ़िल्म की स्क्रीनिंग के दौरान मेरे पिता और वी. शांताराम जी की मुलाकात हुई थी। तब वी. शांताराम जी ने उनसे कहा था कि मैं तुम्हारे साथ एक फ़िल्म बनाऊंगा। लेकिन उस बात को चार साल हो गए। मेरे पिता भी भूल गए कि कभी वी. शांताराम जी ने उनसे कहा था कि वो उनके साथ फ़िल्म बनाएंगे। एक दिन अचानक वी. शांताराम जी का फोन आया। उन्होंने मेरे पिता से मिलने आने को कहा। जब मेरे पिता उनसे मिलने पहुंचे तो उन्हें देखकर वी. शांताराम डिसअपॉइन्ट हो गए। शांताराम जी ने बताया कि मैं तुम्हारे साथ एक फ़िल्म बनाना चाहता था। लेकिन अब तो तुम चाइल्ड रहे नहीं। तुम को काफ़ी लंबे हो गए हो। उस वक्त तक मेरे पिता की उम्र 14 साल हो चुकी थी।"

"मेरे पिता को याद नहीं कि उन्हें जगदीप नाम किसने दिया था। मगर उन्हें ये नाम पसंद था। उनका असली नाम सैयद इश्तियाक अहमद जाफ़री था। और फ़िल्म इंडस्ट्री में लोग उन्हें मुन्ना कहते थे। नेहरू जी ने उन्हें फ़िल्म 'हम पंछी एक डाल के' के लिए अपनी छड़ी गिफ़्ट की थी। नेहरू जी ने उस फ़िल्म के सभी बाल कलाकारों को अपने घर नाश्ते के लिए इनवाइट किया था। मेरे पिता की उम्र तब 15 साल थी। नेहरू जी ने सबको गिफ़्ट दिए। मगर जब मेरे पिता की बारी आई तो गिफ़्ट खत्म हो गए। तब नेहरू जी ने अपनी छड़ी उठाई और मेरे पिता से कहा,"मुझे मेरी ये छड़ी बहुत पसंद है। मगर आज से ये तुम्हारी हुई।" वो छड़ी मेरे पिता ने हमेशा संभालकर रखी।"

साथियों जगदीप साहब के बारे में जावेद जाफ़री जी ने ये सब बातें पत्रकार पैट्सी एन. को दिए इंटरव्यू में बताई थी। इस इंटरव्यू का एक दूसरा हिस्सा भी है। अगर हमारे पाठकों को इंटरव्यू का ये हिस्सा पसंद आया होगा तो हम उस दूसरे हिस्से को भी आज ही पाठकों संग शेयर करेंगे। तो कमेंट करके बताइएगा ज़रूर कि आप इस इंटरव्यू का दूसरा हिस्सा भी पढ़ना चाहेंगे कि नहीं। अगर अधिकतर लोगों ने डिमांड की दूसरे भाग के लिए तो हम उस भाग को ज़रूर शेयर करेंगे। जगदीप साहब की ये जानकारियां आपको पसंद आई हों तो इस लेख को लाइक-शेयर करना ना भूलिएगा। कमेटं करके ये भी बताइएगा कि जगदीप आपको कितने पसंद थे।

About The Photograph -This beautiful family portrait captures the legendary Kapoor clan, a name synonymous with Indian c...
25/03/2025

About The Photograph -

This beautiful family portrait captures the legendary Kapoor clan, a name synonymous with Indian cinema. Prithviraj Kapoor, the patriarch laid the foundation for Bollywood’s first film dynasty. His wife, Ramsarni Kapoor, was the strong and loving matriarch who kept the family together.

Surrounding them are their three sons—Raj Kapoor, Shammi Kapoor, and Shashi Kapoor—each a top star in his own right, and thier daughter Urmila.Raj, the visionary filmmaker and actor, earned the title of "The Showman" with his timeless films. Shammi, with his vibrant energy and style, redefined Rom-Com cinema on screen. Shashi, the charming actor won hearts both in Bollywood and international cinema.

Also in the picture is Krishna Kapoor, Raj’s devoted wife, who stood by him through every triumph and challenge. This rare moment beautifully captures the warmth, legacy, and magic of a family that shaped Indian cinema forever.








Tanveer Zaidi
Tanveer Zaidi

Karisma Kapoor and Kareena Kapoor, two of Bollywood’s most celebrated actresses, are seen here in their childhood, shari...
16/02/2025

Karisma Kapoor and Kareena Kapoor, two of Bollywood’s most celebrated actresses, are seen here in their childhood, sharing a heartfelt family moment with their maternal grandparents. This rare picture captures them with their grandfather, Hari Shivdasani, a noted actor of Indian cinema, and their grandmother, who was of British origin.

Hari Shivdasani was a well-known character actor in Bollywood, having appeared in numerous films during the golden era of Indian cinema. He was also the father of Babita Kapoor, Karisma and Kareena’s mother, who was a successful actress in the 1960s and 1970s. In this image, he is seen smiling warmly as he holds his granddaughters close, showcasing his affection for them.

Karisma, dressed in a black and white outfit, sits beside him with a poised expression, while little Kareena, wearing a white dress with a bow in her hair, is nestled in his arms. Their grandmother sits beside them, looking elegant in a soft-colored outfit, radiating warmth and grace.

This picture is a nostalgic glimpse into the Kapoor sisters' childhood, long before they became Bollywood icons. Karisma, the first female from the Kapoor family to enter films, went on to become a superstar in the 1990s, while Kareena followed, earning immense fame for her versatility and charisma. Their journey from an illustrious film family to achieving individual stardom is truly inspiring, making this moment from their early years even more special.

🌸 Remembering one of the great music directors of the Indian Cinema O. P. Nayyar on his Birth Anniversary : a tribute.ओम...
17/01/2025

🌸 Remembering one of the great music directors of the Indian Cinema O. P. Nayyar on his Birth Anniversary : a tribute.

ओमकार प्रसाद नय्यर Omkar Prasad Nayyar (16 January 1926 – 28 January 2007), known as O. P. Nayyar, was an Indian film music composer, singer, song-writer, music composer and musician. He won the 1958 Filmfare Award for Best Music Director for the film "Naya Daur". Nayyar worked extensively with singers Geeta Dutt, Asha Bhosle and Mohammed Rafi but not with leading Bollywood female singer Lata Mangeshkar. However, Mangeshkar's song Ek To Balam Teri Yaad Satayein... from the 1958 film Aji Bas Shukriya was used in the 1973 Hindi film Taxi Driver, for which music director was Nayyar. According to music, film expert Rajesh Subramanian, "Aap Ke Haseen Rukh..." from Baharen Phir Bhi Aayengi) was planned with full orchestra but many of the musicians were late for the recording. After a disagreement with Mohd. Rafi, Nayyar began working with singer Mahendra Kapoor. Kapoor performed Nayyar's songs "Badal Jaaye Agar Maali, Chaman Hotaa Nahi Khaali..." in Bahaaren Phir Bhi Aayengi. Based on a Bengali language work by Rabindranath Tagore, Nayyar composed "Chal Akelaa, Chal Akelaa..." sung by Mukesh in the 1969 film Sambandh. The song became an enormous hit and the movie celebrated a jubilee at Bombay's Maratha Mandir. Compiled by Suresh Sarvaiya

O. P. Nayyar co-produced songs with Shamshad Begum including "Kajra Mohabbatwala", & after Madhubala's 1969 death, Mala Sinha, Vyjayanthimala, Padmini, Asha Parekh and Sharmila Tagore lip-synced several Nayyar-Asha Bhosle songs. Nayyar & Ashs Bhosle parted ways in 1974, and he then worked with Dilraj Kaur, Alka Yagnik, Krishna Kale, Vani Jayaram and Kavita Krishanmurthy. Majrooh Sultanpuri and Sahir Ludhianvi wrote the lyrics for some of Nayyar's earlier songs, including "Naya Daur". Nayyar also worked with emerging lyricists such as Jan Nisar Akhtar, Qamar Jalalabadi, S. H. Bihari and Ahmed Wasi. He began the tradition of assigning full 3 minute songs to comedians. Om Prakash sang Nayyar's "Churi Bane Kanta Bane..." in "Jaali Note", & Johnny Walker sang "Aye Dil Hai Mushkil Jeena Yahaan..." in CID, "Jaane Kahan Mera Jigar Gaya Jee..." in Mr. & Mrs. 55, "Main Bambaika Baaboo, Naam Meraa Anjaana..." in Naya Daur and "Bajewala..." in Basant.

In addition to songs for Asha Bhosle and Geeta Dutt's Thandi Thandi Hawa..., Nayyar wrote that the song "Yeh Desh Hai Veer Jawanon kaa..." featuring Dilip Kumar and Ajit for Naya Daur (1957) earned him the 1958 Filmfare Best Music Director Award. The last Nayyar song performed by Bhosle was "Chain Se Humko Kabhi...". Intended for "Pran Jaye Par Vachan Na Jaye" (1973), disappeared in the film's final cut but won Bhosle the 1975 Filmfare Award for Best Female Playback Singer. Nayyar was more active during the 1960s than he was in the following decade, and did not compose music for younger actors such as Rajesh Khanna and Amitabh Bachchan. His films included Dilip Kumar, Raj Kapoor, Dev Anand, Guru Dutt, Dharmendra, Shammi Kapoor, Joy Mukherjee, Biswajit, Feroz Khan, Bharat Bhushan, Asha Parekh, Mumtaz, Sharmila Tagore, Madhubala, Rajshree, Rekha, Ameeta and Shyama. In addition to Hindi films, Nayyar composed for "Neerajanam" in Telugu. He made a brief comeback during the 1990s with "Mangni" and "Nishchay" in 1992 and "Zid" in 1994.

O. P. Nayyar was born on 16 January 1926 in Lahore, undivided India in present days in Pakistan. He then underwent music training. He composed the background score for "Kaneez" (1949) and 1952's "Aasmaan", produced by Dalsukh M. Pancholi, was his first film as music director. Nayyar then composed music for Chham Chhama Chham (1952) and Baaz (1953). Film producer, director and actor Guru Dutt enlisted him to compose and conduct music for Aar Paar (1954), Mr. & Mrs. '55 (1955) & C.I.D (1956). Nayyar's early work was primarily performed by Shamshad Begum, Geeta Dutt & Mohd. Rafi, with Asha Bhosle introduced in C.I.D.

In 1957 Filmalaya introduced Nasir Hussain, who wanted a composer to provide romantic scores for newcomers Shammi Kapoor and Ameeta. O. P. Nayyar's scores were featured in the Hussain films Tumsa Nahin Dekha (1957) and Phir Wohi Dil Laya Hoon (1964). During the decade, state-controlled All India Radio banned most of Nayyar's songs because the broadcaster considered them too "trendy".

In retirement, O. P. Nayyar stayed in touch with only a few people, including Gajendra Singh and Ahmed Wasi, Singh included him as a judge for his television show, Sa Re Ga Ma Pa. Wasi interviewed Nayyar twice on Vividh Bharati and presented a series of six one-hour episodes, Mujhe Yaad Sab Hai Zaraa Zaraa, about his life.

O. P. Nayyar had two brothers - P. P. Nayyar (a physician) and G. P. Nayyar (a dentist in Secunderabad). Nayyar's wife, Saroj Mohini Nayyar, wrote the lyrics to "Preetam Aan Milo..." originally sung by C H Atma in 1945 which was used later in the film "Mr & Mrs Fifty Five" by Geeta Roy nee Geeta Dutt).

Estranged from his family, O. P. Nayyar requested that they be barred from his funeral. Nayyar had moved out of his Mumbai home, staying with a friend in Virar and then with a friend in Thane. He died on 28 January 2007, survived by his wife, three daughters and a son. Nayyar's death was followed by tributes from many Bollywood figures, including Lata Mangeshkar, Sharmila Tagore, Mumtaz, Mahesh Bhatt, Khayyam, Shakti Samanta, Sonu Nigam, Ravindra Jain, Anu Malik, B R Chopra & Shammi Kapoor.

A commemorative stamp was issued by India Post on 3 May 2013 on O. P. Nayyar. His grand-daughter Niharica Raizada is also an actress.

🎭He never forgot his past.....During the initial days of his career, Md. Rafi used to walk-up to the studio and there we...
29/12/2024

🎭He never forgot his past.....

During the initial days of his career, Md. Rafi used to walk-up to the studio and there were times wherein he had to spend time at the railway station, in case the recording got cancelled.

Once Naushad due to some reasons cancelled the recording of his song in which Md.Rafi was a chorus singer. All the other artists left the studio one by one but Rafi was still standing there silently by holding his hands together. Seeing Rafi, Naushad Saheb asked him- “Aap abhi tak yahan kyon khade hain?” Then Rafi Saheb saw here & there and replied with lots of hesitation- “Janab mere paas keval ek hi rupiya tha jisse main yahan tak a to gaya, lekin wapas jaane ke liye mere paas kuchh bhi nahi..” On hearing this, Naushad gave him a rupee for returning, but Rafi did not spend that rupee and returned again on his feet.

After few years when Mohd Rafi became an established singer, he kept that rupee in a golden frame in his drawing room. Thus, he never forgot his past.🌹
-society

"मेरे बाप ने भी दूसरा चंद्रमोहन पैदा करने की कोशिश की थी। लेकिन हुआ नहीं। चंद्रमोहन की जगह ब्रजमोहन पैदा हो गया। आप भी क...
18/11/2024

"मेरे बाप ने भी दूसरा चंद्रमोहन पैदा करने की कोशिश की थी। लेकिन हुआ नहीं। चंद्रमोहन की जगह ब्रजमोहन पैदा हो गया। आप भी कोशिश करके देख लीजिए।" एक्टर चंद्रमोहन ने ये बात वी. शांताराम की उस बात के जवाब में कही थी जब वी. शांताराम जी ने कहा था कि वो एक और चंद्रमोहन पैदा कर लेंगे। ये किस्सा आपको बहुत पसंद आने वाला है साथियों। बरसों पहले फिल्म इंडसट्री के दो के बीच घटी ये घटना आपको आज किस्सा टीवी बताएगा। और ये किस्सा आज बताने की वजह है महान फिल्मकार वी. शांताराम जी का जन्मदिवस। जी हां, आज वी. शांताराम जी का जन्मदिवस है। 18 नवंबर 1901 को वी. शांताराम जी का जन्म हुआ था। चलिए साथियों, वी. शांताराम जी को नमन करते हुए ये किस्सा शुरू करते हैं।

ये उस दौर की बात है जब वी. शांताराम जी प्रभात फिल्म कंपनी को पुणे शिफ्ट कर चुके थे। वी. शांताराम जी ने प्रभात फिल्म कंपनी के बैनर तले कई बेहद कामयाब फिल्मों का निर्माण किया था। अमृत मंथन, धर्मात्मा व अमर ज्योति। वी. शांताराम जी की बनाई ये कुछ वो फिल्में थी जो बहुत सफल रही थी। इन तीन फिल्मों का नाम इसलिए लिया गया है क्योंकि इन तीनों में ही वी. शांताराम जी ने नीली आंखों वाले हीरो चंद्रमोहन को मुख्य भूमिकाओं में लिया था। और इन फिल्मों की सफलता ने चंद्रमोहन को एक कामयाब हीरो बना दिया था। कामयाबी मिली तो इंडस्ट्री में चंद्रमोहन जी की डिमांड भी बढ़ गई। डिमांड बढ़ी तो उन्होंने अपनी फीस बढ़ाने का फैसला भी किया।

चंद्रमोहन जी का डेब्यू भी वी. शांताराम जी ने ही कराया था। 1934 में वी. शांताराम की ही अमृत मंथन चंद्रमोहन की पहली फिल्म थी। यानि वी. शांताराम जी ने ही चंद्रमोहन जी को स्टार बनाया था। अमर ज्योति के बाद वी. शांताराम चंद्रमोहन को अपनी अगली फिल्म में भी हीरो लेना चाहते थे। उन्होंने चंद्रमोहन को इस बारे में जानकारी दी। चंद्रमोहन बहुत खुश हुए। वो खुशी-खुशी वी. शांताराम जी से मिलने आए। बात हुई और चंद्रमोहन फिल्म में काम करने को तैयार हो गए। वैसे भी उन्हें पता था कि वी. शांताराम फिल्म बना रहे हैं तो फिल्म अच्छी ही होगी। लेकिन बात बिगड़ी तब जब चंद्रमोहन ने इस फिल्म का कॉन्ट्रैक्ट पढ़ा। चंद्रमोहन ने देखा कि इस फिल्म में भी उन्हें वही फीस दी जा रही है जो अब तक की तीनों फिल्मों के लिए दी गई थी।

जबकी चंद्रमोहन का मानना था कि चूंकि अब उनकी मार्केट वैल्यू बढ़ गई है तो उन्हें उसी हिसाब से फीस भी मिलनी चाहिए। चंद्रमोहन ने सकुचाते हुए वी. शांताराम से कहा कि अब उनका मार्केट प्राइस पहले से काफी अधिक हो गया है। अगर आप बढ़ी हुई फीस नहीं तो कम से कम जो पहले फीस थी उसमें ही कुछ इज़ाफा कर के दे दीजिए। वी. शांताराम को चंद्रमोहन की वो बात कई पसंद नहीं आई। उन्होंने कहा,"किसी भी कलाकार के लिए मेरी फिल्म में काम करना किसी सम्मान से हम नहीं है। गौरव की बात होती है वी. शांताराम की फिल्म में काम करना। इसलिए तुम्हें पैसे उतने ही मिलेंगे जितने की कॉन्ट्रैक्ट में लिखे हैं।"

चंद्रमोहन जी ने बड़ी विनम्रता से वी. शांताराम की जी की उस फिल्म को साइन करने से इन्कार कर दिया। वी. शांताराम को चंद्रमोहन की वो बात कतई पसंद नहीं आई। वो चुनौती देते हुए चंद्रमोहन से बोले,"अगर मैं एक चंद्रमोहन को पैदा कर सकता हूं तो मैं दूसरा भी पैदा कर दूंगा।" ये सुनकर चंद्रमोहन का धैर्य भी टूट गया। उन्होंने भी तैश में आकर वी. शांताराम को बड़ा करारा जवाब दे दिया। वो। बोले,"माफ़ कीजिएगा। मेरे बाप ने भी ऐसी कोशिश की थी। कि वो दूसरा चंद्रमोहन पैदा कर लेंगे। लेकिन चंद्रमोहन की जगह ब्रिजमोहन पैदा हो गया। आप भी एक कोशिश करके देख लीजिए।"

आगे चलकर चंद्रमोहन ने अपनी फिल्मी करियर में उस दौर के तमाम बड़े डायरेक्टर-प्रोड्यूसर्स जैसे महबूब खान, सोहराब मोदी व विजय भट्ट के साथ काम किया। लेकिन वी. शांताराम की किसी और फिल्म में चंद्रमोहन ने फिर कभी काम नहीं किया। एक्टर अन्नू कपूर ने अपने बहुचर्चित रेडियो शो सुहाना सफ़र विद अन्नू कपूर में इस किस्से का ज़िक्र किया था।

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