
18/08/2025
यह कहानी आपके दिल को छू जाएगी, क्योंकि यह सिर्फ़ एक स्त्री की नहीं बल्कि उन असंख्य औरतों की दास्तान है जो सम्मान और स्वाभिमान की तलाश में अपना सबकुछ छोड़कर भी अकेले जीवन जी लेना पसंद करती हैं। यह कहानी आपको रुककर पढ़ने पर मजबूर कर देगी।
मीरा देवी की उम्र अब पैंसठ साल हो चुकी थी। उनके चेहरे की झुर्रियों में बीते वर्षों की कठिनाइयाँ और संघर्ष साफ झलकते थे, लेकिन उनकी आँखों में अब भी आत्मविश्वास और स्वाभिमान की चमक मौजूद थी। पति राजेश बाबू का निधन हुए लगभग पाँच साल हो गए थे। राजेश बाबू कस्बे में छोटी सी किराने की दुकान चलाते थे। पैसे बहुत नहीं थे, पर इतना ज़रूर था कि घर सम्मान से चल सके। मीरा देवी को उन्होंने हमेशा यही समझाया था कि “इंसान को कभी भी अपना सम्मान खोकर नहीं जीना चाहिए। चाहे सूखी रोटी खाओ, लेकिन सिर ऊँचा रखकर।”
पति के जाने के बाद भी मीरा देवी अपने पैतृक घर में, जहाँ उनके जेठ का परिवार रहता था, सम्मान और आत्मीयता के साथ जीवन गुज़ार रही थीं। जेठ की बड़ी बहू सरिता उन्हें हमेशा माँ का दर्जा देती थी और अपने घर का खाना बिना उनके साथ बाँटे खाती ही नहीं थी। मीरा देवी को लगता था कि यह परिवार ही उनका सहारा है।
लेकिन उनका बेटा अमन बार-बार आग्रह करता रहा कि माँ अब अकेली क्यों रहें, उसके साथ शहर में क्यों न चलें। अमन की नौकरी दिल्ली में थी, पत्नी नेहा भी वहीं जॉब करती थी। माँ को अकेला सोचकर वह परेशान हो जाता था। बहुत मनुहार और वादों के बाद मीरा देवी बेटे के साथ दिल्ली आ गईं।
दिल्ली का छोटा सा फ्लैट उनके गाँव के विस्तृत और खुले घर से बिल्कुल उल्टा था। मीरा देवी को शुरुआत से ही असहज महसूस होने लगा। अमन ने उनका सामान बरामदे में रखवाया और कहा कि फिलहाल यहीं से काम चलाना होगा। नेहा ने ज़रा भी आपत्ति नहीं की। पहली ही रात बरामदे में मच्छरों और नमी के बीच मीरा देवी सोईं। अगली सुबह जब नेहा ने उन्हें सोफ़े पर सिकुड़े हुए देखा, तो नाराज़ होकर बोली कि “सोफ़ा कोई सोने की जगह है क्या, ये तो बिगड़ जाएगा।”
दिन बीतते गए लेकिन हालात और खराब होते गए। नेहा ऑफिस जाने से पहले अपने और अमन के लिए ही खाना बनाती, कभी-कभी दो रोटियाँ मीरा देवी के लिए रख देती। कई बार तो खाना भी नहीं बनता, बाहर से मंगवाया जाता और मीरा देवी को यह कहकर छोड़ दिया जाता कि “आप अपने लिए कुछ बना लेना।”
मीरा देवी को यह सब असहनीय लगने लगा। बेटे और बहू की बेरुख़ी ने उन्हें भीतर तक तोड़ दिया। कई दिनों तक लगातार अपमान सहते-सहते उनका मन पूरी तरह भर गया। उन्हें बार-बार पति की बातें याद आने लगीं। राजेश बाबू हमेशा कहते थे कि अपमान की छाया में जीवन जीने से अच्छा है कि सम्मान के साथ सूखी रोटी खाई जाए।
एक दिन मीरा देवी ने बेटे से कहा, “अमन, एक हफ्ता हो गया, मैं यहाँ हूँ लेकिन एक दिन भी मुझे ऐसा नहीं लगा कि मैं अपने घर में हूँ। नेहा तो बात तक नहीं करती, तुम भी मुझे बस बोझ समझते हो। अब मैं अपने घर वापस जाऊँगी।”
अमन ने चौंककर कहा, “माँ, ये आपका भी घर है।”
मीरा देवी ने दृढ़ आवाज़ में कहा, “नहीं बेटा, घर वह होता है जहाँ इज़्ज़त और अपनापन हो। जहाँ कोई सुबह पूछे कि चाय पी है या नहीं। जहाँ कोई यह कहे कि माँ खाना खाओ। यहाँ मुझे सिर्फ़ बोझ समझा जा रहा है। मैं वापस वहीं जाऊँगी जहाँ लोग मुझे माँ कहते हैं और मेरा सम्मान करते हैं।”
अगले ही दिन उन्होंने अपने पति के पुराने दोस्त विजय राय को फोन किया। विजय राय जी, जो अब सेवानिवृत्त हो चुके थे, ने बिना देर किए उनका टिकट बनवाया और स्टेशन तक पहुँचाया। जाते समय अमन बस चुप खड़ा रहा। मीरा देवी ने उसकी ओर देखा और कहा, “बेटा, तूने सब कुछ दिया लेकिन सम्मान नहीं। और बिना सम्मान के ज़िंदगी नहीं चलती।”
अपने पैतृक घर लौटकर उन्होंने राहत की साँस ली। उन्होंने तय कर लिया कि अब किसी के घर अपने सम्मान के साथ समझौता नहीं करेंगी। उन्होंने अपने घर के दो कमरे किराए पर दे दिए और एक कमरा अपने लिए रख लिया। अब उनका खर्च आराम से निकलने लगा। जेठ की बहू सरिता रोज़ उनका हाल पूछती, बेटा जैसा मानने वाले भतीजे-बेटियाँ उनका ख्याल रखते।
मीरा देवी ने मन ही मन सोचा कि असली अपनापन खून के रिश्तों से नहीं बल्कि उन रिश्तों से मिलता है जिनमें इज़्ज़त और आत्मीयता हो। अब वह अकेली जरूर थीं, लेकिन आत्मसम्मान से जी रही थीं।
वह रोज़ भगवान की पूजा करतीं, मोहल्ले की औरतों से बातें करतीं और शाम को छत पर बैठकर अपने जीवन के सफर पर विचार करतीं। उन्हें अब किसी पर निर्भर नहीं रहना था। उन्होंने ठान लिया कि उनके जीवन की अंतिम यात्रा भी इसी घर से निकलेगी, उसी घर से जहाँ उन्हें सम्मान और स्नेह दोनों मिले।
मीरा देवी के चेहरे पर अब पहले जैसी उदासी नहीं थी। उनकी आँखों में आत्मविश्वास और अपनेपन की चमक साफ दिखाई देती थी। उन्होंने खुद को एक बार फिर से जीवन जीने का हौसला दे दिया था।