Midnight Hindi Stories

Midnight Hindi Stories धीमी, और भावनाओं के रस से भरी कहानियाँ... 🎧 बंद आँखों से महसूस कीजिए... 💤 और खुद को बहने दीजिए उन रिश्तों में, जो कहे नहीं जाते - बस महसूस किए जाते हैं।

Hindi Story | Storytelling | Story Time | Quotes | Motivational Speaker

कानपुर शहर का गोविंदनगर मोहल्ला, जहाँ पुरानी, सटकर बनी गलियों में अब भी एक अजीब सी धीमी रफ़्तार थी।यह कहानी थी वीणा की, ...
07/11/2025

कानपुर शहर का गोविंदनगर मोहल्ला, जहाँ पुरानी, सटकर बनी गलियों में अब भी एक अजीब सी धीमी रफ़्तार थी।

यह कहानी थी वीणा की, जो अपने भाई के घर में रहती थीं। मोहल्ले वाले उन्हें ‘वीणा बुआ’ कहते थे।

वीणा बुआ का जीवन उस पुरानी चौखट की तरह था, जिसे घर के सब लोग पार करते थे, पर किसी का ध्यान नहीं जाता था कि वो कितने सालों से चुपचाप वहीं टिकी हुई है।

बुआ का भाई रमेश, उनकी पत्नी रीता, और उनके बच्चे अंकुर और पिंकी— यही वीणा बुआ का संसार था।

रीता, यानी बुआ की भाभी, स्वभाव से थोड़ी रूखी थीं। उनकी बातों में कानपुर की गर्मी जैसी तपिश थी।

उन्हें हमेशा लगता था कि वीणा बुआ उनके घर पर एक बोझ हैं, भले ही बुआ घर के सारे छोटे-मोटे काम चुपचाप करती रहती थीं।

बुआ कभी सुबह की चाय, कभी शाम की सब्ज़ी काटना, तो कभी बच्चों के स्कूल से लौटने पर उनकी देखभाल करना— इन सब में अपना दिन बिता देती थीं।

रीता कभी सीधे मुँह कुछ नहीं कहती थीं, पर उनके बोलने के अंदाज़ में, उनके हर इशारे में एक अजीब सी बेरुखी और रोब की झलक होती थी, जो बुआ के दिल को धीरे-धीरे छलनी करती रहती थी।

सबसे ज़्यादा बुआ को तब अकेलापन महसूस होता था, जब शाम ढलने लगती थी।

सूरज की आखिरी किरनें जब आँगन की चौखट से फिसलकर जाती थीं, तो घर में एक अजीब सी खामोशी छा जाती थी।

यही वो वक़्त था, जब रमेश दफ़्तर से लौटते थे और रीता अपने घर के काम में व्यस्त हो जाती थीं।

बच्चे बाहर खेलने निकल जाते, और बुआ अकेली चौखट पर बैठकर आसमान के बदलते रंगों को देखती रहती थीं।

उन्हें लगता था, जैसे ये ढलती शाम उनकी अपनी ज़िंदगी की परछाईं है— रंग ख़त्म हो रहे हैं और बस एक उदासी भरा धुंधलका बाक़ी है।

रीता अक्सर उन्हें कहती थीं, "बुआ, आप चौखट पर क्यों बैठी हैं? अंदर जाइए, मच्छर काटेंगे। वैसे भी, सारा दिन तो कोई काम होता नहीं है।"

ये बात बुआ के दिल में चुभ जाती थी, पर वह कभी पलटकर जवाब नहीं देती थीं।

उन्हें लगता था कि अगर वह बोलेंगी, तो घर की शांति भंग हो जाएगी, और यही शांति उनके भाई के लिए सबसे ज़रूरी थी।

एक दिन, पिंकी, जो क़रीब आठ साल की थी, स्कूल से रोती हुई आई।

उसका छोटा भाई अंकुर, जो अपने दोस्तों के साथ खेल रहा था, उसने पिंकी को चिढ़ा दिया था।

पिंकी रोते-रोते चौखट पर बैठी वीणा बुआ के पास गई और उनके आँचल में मुँह छिपाकर सुबकने लगी।

रीता उस समय फ़ोन पर किसी से बात कर रही थीं और उन्हें पिंकी का रोना पसंद नहीं आया।

उन्होंने फ़ोन पर ही ज़ोर से कहा, "ये बच्ची भी ना, बस रोना जानती है। बुआ, ज़रा इसे चुप कराइए, मेरा सिर दर्द कर रहा है।"

वीणा बुआ ने पिंकी को बड़े प्यार से अपनी गोद में उठाया। उनके हाथ, जो बरसों से बर्तन मांजने और कपड़े धोने से सख़्त हो गए थे, पिंकी के गालों को सहला रहे थे।

बुआ ने पिंकी के कान में एक पुरानी, मीठी लोरी गाई, जो उन्होंने अपने बचपन में अपनी माँ से सुनी थी।

उस लोरी की धीमी आवाज़ और बुआ के स्पर्श में जो अपनापन था, वो पिंकी के सारे आँसू सोख गया।

पिंकी ने ऊपर देखा। "बुआ, आप मुझे बहुत प्यार करती हो ना?"

बुआ की आँखें भर आईं। उन्होंने पिंकी को कसकर गले लगा लिया। "हाँ मेरी बच्ची। तुम मेरी जान हो।"

पिंकी ने बुआ के माथे पर हाथ फेरा और बोली, "आप इस चौखट पर अकेली क्यों बैठती हो? मैं रोज़ आपके पास बैठूँगी।"

उस दिन के बाद, शाम ढलते ही, वीणा बुआ और पिंकी का एक अनजाना सा रिश्ता बन गया।

जब भी बुआ चौखट पर बैठती थीं, तो पिंकी दौड़कर उनके पास आ जाती और उनके कंधे पर सिर रखकर कहानियाँ सुनती।

यह देखकर रीता को भी अजीब सा लगने लगा। उन्हें ये दोनों का साथ एक आँख नहीं सुहाता था।

एक दिन रीता ने गुस्से में आकर बुआ को टोक दिया। "बुआ, आपको बच्चों को ज़्यादा सिर नहीं चढ़ाना चाहिए। अब इनकी पढ़ाई का वक़्त है। आप क्यों इन्हें रोज़ शाम को फुसलाती रहती हैं?"

यह बात वीणा बुआ के दिल पर तीर की तरह लगी। उन्हें लगा, अब तो उन्हें इस घर से चले ही जाना चाहिए।

वह उठीं और चुपचाप अपने छोटे से बक्से में कपड़े रखने लगीं। उन्होंने सोचा कि वह कहीं दूर जाकर किसी छोटे से मंदिर में रह लेंगी।

अगले दिन सुबह, जब बुआ जाने के लिए तैयार थीं, तो उन्होंने देखा कि रीता जल्दी से रसोई में काम कर रही हैं।

रीता ने पलटकर बुआ को देखा और बुआ के हाथ में उनका छोटा बक्सा देखकर चौंक गईं।

"बुआ! यह क्या है? आप कहाँ जा रही हैं?" रीता की आवाज़ में आज पहली बार रोब नहीं, बल्कि घबराहट थी।

वीणा बुआ ने बिना कुछ कहे, सिर्फ़ आँसू भरी आँखों से रीता को देखा।

तभी पिंकी दौड़कर आई और बुआ के बक्से से चिपक गई। "नहीं बुआ! आप कहीं नहीं जाओगी। आपने कहा था कि आप मुझे रोज़ शाम को कहानी सुनाओगी।"

पिंकी ने रोना शुरू कर दिया। रमेश भी उठकर बाहर आ गए। जब उन्होंने सारा माजरा समझा, तो वह चुपचाप खड़े रहे।

रीता अचानक आगे बढ़ीं और वीणा बुआ के पैरों पर गिर गईं।

"बुआ, मुझे माफ़ कर दो! मेरे मुँह से पता नहीं क्या-क्या निकल जाता है। मुझे पता है कि आप हमारे लिए क्या हैं। आप इस घर की नींव हैं। आप चली गईं, तो पिंकी का क्या होगा? मेरा क्या होगा?"

रीता रो रही थीं। उनके रोने में कोई बनावट नहीं थी। बुआ को पहली बार लगा कि रीता के दिल में भी उनके लिए कहीं न कहीं अपनापन ज़रूर था, बस वो उसे ज़ाहिर नहीं कर पाती थीं।

वीणा बुआ ने रीता को उठाया। "बस, चुप हो जा मेरी बच्ची। मैं कहीं नहीं जा रही हूँ।"

उस दिन, बुआ ने अपना बक्सा वापस कोने में रख दिया। शाम ढली, और वीणा बुआ फिर से आँगन की चौखट पर बैठीं।

पर आज वह अकेली नहीं थीं। पिंकी और अंकुर उनके दोनों तरफ़ बैठे थे, और पीछे से रीता चाय की ट्रे लेकर आईं।

रीता ने बड़े प्यार से चाय बुआ के हाथ में दी और कहा, "बुआ, आज चौखट पर क्यों बैठी हैं? अंदर आइए, यहाँ ठंड है।"

पर बुआ हँस दीं। उन्हें मालूम था कि अब यह चौखट उदासी की नहीं, बल्कि रिश्तों के सबसे सच्चे और गहरे अपनापन की निशानी बन गई है।

घरेलू रिश्तों में बुआ-काकी जैसे लोग अक्सर घर की चौखट की तरह होते हैं, जो सबको सहारा देते हैं पर ख़ुद चुपचाप सहते रहते हैं। यही जीवन है, जहाँ सबसे गहरा अपनापन अक्सर सबसे अनकही और अनदेखी जगह पर छिपा होता है।

दिल्ली की पुरानी सुबह थी, जब सर्दी की ठंडी हवा हड्डियों तक को छू रही थी। धुंध इतनी घनी थी कि स्टेशन के बल्बों की पीली रौ...
07/11/2025

दिल्ली की पुरानी सुबह थी, जब सर्दी की ठंडी हवा हड्डियों तक को छू रही थी। धुंध इतनी घनी थी कि स्टेशन के बल्बों की पीली रौशनी भी बेबस लग रही थी।

नई दिल्ली स्टेशन पर, मुंबई जाने वाली लंबी दूरी की ट्रेन, 'पश्चिमी एक्सप्रेस', अपनी अंतिम सीटी का इंतज़ार कर रही थी। भीड़ कम थी, क्योंकि यह सफ़र दो दिन और दो रातों का था। इसी भीड़ में, एक कोने की लोअर बर्थ पर, विहान नाम का एक युवक अपना सामान जमा रहा था।

विहान, जो क़रीब अट्ठाईस साल का था, अपनी आँखों में छोटे शहर के सपने और एक अजीब सा अकेलापन लिए हुए था। वह ग्वालियर का था और मुंबई में एक मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी के लिए इंटरव्यू देने जा रहा था।

ट्रेन ने धीमी, घिसाव वाली आवाज़ के साथ चलना शुरू किया। जैसे ही वह शहर की अंतिम इमारतों से गुज़र रही थी, विहान ने अपनी गर्म चादर ओढ़ी और खिड़की से बाहर झाँकने लगा।

बाहर का नज़ारा, दिल्ली की भागती हुई और फिर सिमटती हुई ज़िंदगी, उसकी आँखों में एक धुंधली परछाईं बना रही थी। उसके साथ वाली बर्थ अभी तक खाली थी।

विहान को लगा कि उसका यह लंबा सफ़र अकेलेपन की चादर ओढ़कर गुज़रेगा, जो उसके दिल के अकेलेपन से ज़रा भी अलग नहीं होगी।

क़रीब आधे घंटे बाद, जब ट्रेन ने अपनी रफ़्तार पकड़ ली थी और सूरज की किरनें हल्की सी धुंध को भेदकर अंदर आने की कोशिश कर रही थीं, तभी उसके सामने वाली अपर बर्थ पर एक महिला, आरुषि, आकर बैठ गईं।

आरुषि की उम्र विहान से थोड़ी ज़्यादा होगी, क़रीब चौंतीस के आस-पास। वह बेहद साधारण, पर करीने से पहनी हुई, गहरे नीले रंग की सूती साड़ी में थीं।

उनके चेहरे पर एक ऐसी शांत मुस्कान थी, जो किसी भी हलचल को अपने अंदर समेट लेने की ताक़त रखती थी। उनके पास भी सिर्फ़ एक छोटा सा बैग था, मानो वह बस कुछ देर की यात्रा पर निकली हों।

ट्रेन की ठंडक और खिड़की से आती हवा के बावजूद, आरुषि ने एक मोटी शॉल ओढ़ रखी थी। उन्होंने विहान को एक पल देखा और बड़े सहज ढंग से कहा, "माफ़ करना, मैंने आपको जगा तो नहीं दिया? मैं अभी-अभी सफ़र शुरू कर रही हूँ, मुझे आगरा से बैठना था।"

विहान ने सिर हिलाया। "नहीं, नहीं, मैं तो जाग ही रहा था। इतनी सर्दी है कि नींद आ भी नहीं रही।"

आरुषि हल्की सी हँसीं। उनकी हँसी की आवाज़ वैसी ही शांत और धीमी थी जैसी किसी पुराने झरने के पानी की आवाज़ होती है। "हाँ, इस सर्दी में सफ़र करना भी एक तपस्या है। मैं मुंबई जा रही हूँ, किसी काम से।"

"मैं भी वहीं जा रहा हूँ, नौकरी के इंटरव्यू के लिए," विहान ने जवाब दिया, पर उसकी आवाज़ में वो उत्साह नहीं था जो एक नौजवान के सपने में होना चाहिए।

इसके बाद, दोनों के बीच एक लंबी चुप्पी छा गई। विहान फिर से खिड़की से बाहर के गाँव-देहात और सरसों के पीले खेतों को देखने लगा।

खेतों की गंध, जो हल्की सी हवा के साथ अंदर आ रही थी, विहान को अपने गाँव की याद दिला रही थी। वह मुंबई जैसे बड़े शहर में जाना तो चाहता था, पर दिल के किसी कोने में वह अपनी सादगी और अपनेपन को खोने से डर रहा था।

आरुषि ने अपनी शॉल को कसकर लपेटा, और अचानक एक धीमी आवाज़ में बोलीं, "पता है, जब भी मैं ट्रेन की खिड़की से इन खेतों को देखती हूँ, तो मुझे लगता है कि हम इंसान भी इसी तरह हैं।

बाहर से हम भागते-दौड़ते, हरे-भरे या सूखे दिखते हैं, पर हमारे अंदर क्या चल रहा है, ये बस हमें ही मालूम होता है।"

विहान चौंककर आरुषि की तरफ़ देखने लगा। उसे लगा जैसे आरुषि ने बिना कुछ जाने ही उसके मन के अंदर की बात कह दी हो।

"आप ठीक कह रही हैं," विहान ने धीरे से कहा, "बड़ा शहर मुझे अपनी तरफ़ खींच रहा है, पर... पर मुझे डर लगता है कि वहाँ ये सब अपनापन नहीं मिलेगा। सब मशीन जैसे होते हैं।"

आरुषि ने अपनी शॉल से हाथ बाहर निकाला और सामने वाली सीट पर बैठीं। "बड़ा शहर लोगों को मशीन नहीं बनाता, विहान। बड़ा शहर लोगों को मास्क पहनना सिखाता है। लोग इतने अकेले होते हैं कि अपनी असली भावनाओं को दिखाने से डरते हैं। उन्हें लगता है कि उनकी कमज़ोरी दूसरों को पता चल जाएगी।" उनकी आँखों में एक हल्की सी नमी थी, जो तुरंत गायब हो गई।

अगले कई घंटों तक, उन दोनों के बीच ज़िंदगी की सबसे निजी बातें हुईं। विहान ने बताया कि वह कैसे अपने मामा-मामी के घर पला-बढ़ा, कैसे उसे हमेशा लगा कि वह बोझ है, और कैसे वह मुंबई जाकर अपनी पहचान बनाना चाहता है। आरुषि ने उसे बड़े धैर्य से सुना, उनकी आँखों में कोई फ़ैसला नहीं था, बस एक गहरा अपनापन था, जो विहान ने बरसों से महसूस नहीं किया था।

जब विहान ने अपनी सारी भावनाएँ खोलकर रख दीं, तो आरुषि ने एक गहरी साँस ली। "विहान, क्या तुम जानते हो, मेरे पति को गुज़रे दस साल हो गए। मैं भी छोटे से गाँव की थी। जब वो गए, तो मुझे लगा कि मेरा सब कुछ ख़त्म हो गया। मैं भी उसी तरह डरती थी, जैसे तुम डर रहे हो। पर मैंने सोचा, अगर मैं अपनी ख़ुद की पहचान नहीं बनाऊँगी, तो दुनिया मुझे बस 'उसकी विधवा' के नाम से जानेगी। इसलिए मैं मुंबई आई, एक छोटी सी टीचर की नौकरी करने। आज मैं वहाँ बच्चों को पढ़ाती हूँ, और उनके मासूम चेहरे देखकर लगता है कि मैंने सही फ़ैसला किया।"

आरुषि ने अपनी कहानी में कोई भड़काऊ शब्द, कोई चीख़ या शिकायत नहीं रखी। उनकी बातें धीमी थीं, पर उनका प्रभाव विहान के दिल पर बहुत गहरा हुआ। विहान को लगा कि यह अनजान मुसाफ़िर, जो ट्रेन में अचानक मिली है, वह उसकी सबसे पुरानी दोस्त बन गई है।

रात होने लगी थी। ट्रेन की खिड़की के बाहर अब अँधेरा था, और ट्रेन की बत्तियाँ ज़मीन पर लंबी लकीरें खींच रही थीं। आरुषि ने विहान के लिए अपनी पोटली से घर के बने बेसन के लड्डू निकाले। "ये मेरी माँ ने बनाए थे, पर मैं इन्हें तुम्हें दे रही हूँ। ये तुम्हें मुंबई में भी अपनेपन का स्वाद देंगे।"

विहान ने जब वो लड्डू खाए, तो उन्हें लगा जैसे दस साल बाद उन्हें माँ के हाथ का प्यार मिला हो। उस पल, उन्हें महसूस हुआ कि रिश्ते नाम से नहीं बनते, वे तो बस दो आत्माओं के बीच की अनकही समझ से बनते हैं।

अगले दिन दोपहर तक, ट्रेन महाराष्ट्र की सूखी, पर तेज़ धूप वाली ज़मीन पर पहुँच चुकी थी। आरुषि का स्टेशन आ गया था, जो मुंबई से थोड़ी दूरी पर था। आरुषि उठकर खड़ी हुईं।

"विहान," उन्होंने अपना छोटा सा बैग उठाया, "तुम्हें वहाँ डरने की ज़रूरत नहीं है। तुम अकेले नहीं हो। तुम्हारा सपना तुम्हारी सबसे बड़ी ताक़त है। और हाँ... अगर तुम वहाँ अपना कोई दोस्त न बना पाओ... तो याद रखना कि तुम्हारी एक दोस्त हमेशा ट्रेन की खिड़की से तुम्हें झाँकती रहेगी।"

यह कहकर, आरुषि ने विहान को एक आखिरी, शांत मुस्कान दी और ट्रेन से उतर गईं। विहान ने उन्हें तब तक देखा, जब तक वह भीड़ में कहीं खो नहीं गईं।

ट्रेन ने फिर से रफ़्तार पकड़ी। विहान ने अपनी सीट पर बैठकर देखा कि आरुषि ने अपनी शॉल के अंदर से एक छोटी सी चिट्ठी, उसकी सीट पर रख दी थी। विहान ने उसे खोला। उसमें बस एक ही लाइन लिखी थी:

"आगे बढ़ो, विहान। ज़िंदगी को अपना बनाओ, और याद रखना कि कभी-कभी हमें किसी को बेहिसाब चाहने के लिए, उसके साथ रहने की ज़रूरत नहीं होती। बस उसे दूर से ख़ुश देखना ही काफ़ी होता है।"

विहान की आँखों में आँसू आ गए। अब ये आँसू अकेलेपन के नहीं थे, बल्कि एक अनजाने, आत्मीय रिश्ते की गहराई के थे। मुंबई पहुँचते-पहुँचते, विहान का डर पूरी तरह ख़त्म हो चुका था। उसे अब यक़ीन था कि वह इस बड़े शहर में अकेला नहीं होगा।

जीवन के सफ़र में कई मुसाफ़िर मिलते हैं। कुछ लम्हे इतने सच्चे होते हैं कि वो नाम या रिश्ते की मोहताज नहीं होते। जो रिश्ता नाम नहीं पा सका, वही सबसे ज़्यादा याद आता है, क्योंकि उस रिश्ते में कोई स्वार्थ नहीं होता, बस एक गहरी, अनमोल चाहत छिपी होती है।

लखनऊ शहर की पुरानी नवाबी शान और धीमी, थकी हुई रफ़्तार वाली ज़िंदगी के बीचों-बीच, चौक की गलियों से थोड़ी दूर एक बड़ी, पुर...
07/11/2025

लखनऊ शहर की पुरानी नवाबी शान और धीमी, थकी हुई रफ़्तार वाली ज़िंदगी के बीचों-बीच, चौक की गलियों से थोड़ी दूर एक बड़ी, पुरानी हवेली थी जिसका नाम था 'आराधना भवन'। ये हवेली नहीं थी, बल्कि ईंटों और चूने से बना एक जीता-जागता इतिहास था, जिसकी हर दरार में पिछली तीन पीढ़ियों की कहानियाँ दफ़न थीं।

इस समय, श्रावण का महीना था। बाहर रिमझिम बारिश हो रही थी, और बारिश की ठंडी हवा पूरे घर में एक अजीब सी, घुली हुई नमी और एकांत का भाव भर रही थी। हवा के हर झोंके के साथ, पुराने दरवाज़ों की हल्की चरमराहट सुनाई देती थी, जैसे हवेली ख़ुद अपने अतीत से बात कर रही हो।

इस 'आराधना भवन' में इन दिनों दो भाइयों का परिवार रहता था: बड़े भाई अरुण और उनकी पत्नी सुनीता, और छोटे भाई विकास और उनकी पत्नी राधा। अरुण और सुनीता, यानी घर के जेठ और जेठानी, बरसों से इस हवेली के एक बड़े हिस्से पर अपना रौब और नियम चला रहे थे।

अरुण सरकारी दफ्तर में बड़े बाबू थे, उनकी आवाज़ में एक अधिकार था जो हमेशा विकास को चुप करा देता था। पर असली राज तो सुनीता का चलता था। सुनीता, जिनकी कमर की चाबियों का गुच्छा सुबह से शाम तक खनकता रहता था, पूरे घर की रफ़्तार, यहाँ तक कि हर सदस्य की साँस लेने की गति तक तय करती थीं।

राधा, छोटे घर से आई थी, पर उसका दिल बड़ा साफ़ और भोला था। उसके चेहरे पर एक चंचल मन की झलक हमेशा रहती थी, पर हवेली की इस भारी-भरकम और नियमानुसार ज़िंदगी में आकर, उसकी वो चंचलता धीरे-धीरे कहीं गुम हो गई थी। वह हमेशा सुनीता की नज़रों में रहती थी। जैसे ही वह ज़रा सा भी रुकती, या किसी से खुलकर हँसती, सुनीता की आवाज़ किसी ठंडी हवा की तरह पीछे से आती, "राधा! अभी तो झाड़ू लगी नहीं है? काम को टालो मत।" यह रौब इतना सीधा नहीं होता था, यह हमेशा बातों के अंदर छुपा रहता था, जो सीधे दिल पर ज़ख्म करता था।

हवेली में एक कमरा ऐसा था, जो सबके लिए अनबोला था। यह कमरा दालान के आख़िरी कोने में था, जिसके दरवाज़े पर एक भारी, पुराना ताला लगा रहता था। यह कमरा जेठ-जेठानी के हिस्से में था, पर वह उसे कभी खोलते नहीं थे, न किसी को उसके बारे में कुछ बताते थे। राधा को हमेशा लगता था कि इस कमरे में कोई ख़ज़ाना या फिर कोई बहुत कीमती चीज़ रखी है, जिसे सुनीता ने बस अपने अधिकार और रौब को दिखाने के लिए बंद कर रखा है। जब भी घर में कोई बाहर का मेहमान आता, सुनीता उस कमरे की तरफ़ इशारा करती और कहतीं, "हमारा बड़ा कमरा तो यही है, पर पिताजी की कुछ पुरानी और बहुत निजी चीज़ें हैं, इसलिए बंद रखते हैं।" इस बात को कहने के अंदाज़ में एक अजीब सी अधिकार भावना होती थी, जो राधा के मन में ईर्ष्या की एक बारीक सी लकीर खींच देती थी। राधा सोचती, 'यह सब उनका है, तभी तो इतना रौब है।'

एक दोपहर, जब बारिश लखनऊ को अपनी धीमी, मीठी बूँदों से भिगो रही थी, और हवेली की हवा में गीली मिट्टी और रातरानी की महक घुल गई थी, राधा अकेली रसोई में बैठकर सब्ज़ी काट रही थी। विकास शहर में अपना छोटा सा काम शुरू करने की भाग-दौड़ में लगा था, और अरुण-सुनीता अपनी दोपहर की नींद ले रहे थे। तभी राधा की नज़र खिड़की के रास्ते, उस अनबोले कमरे के दरवाज़े पर गई। हवा के तेज़ झोंके से, ताला अपनी जगह पर हल्का सा हिला था, और राधा को लगा जैसे ताला लगा ही नहीं है, बस टिका हुआ है। उसका मन, जो इतने दिनों से उस रहस्य को जानने के लिए तड़प रहा था, अब रुक नहीं सका।

उसने धीरे से अपनी चप्पल उतारी, ताकि चलने की आवाज़ न हो, और दबे पाँव उस कमरे के दरवाज़े तक पहुँची। हवा की गंध अब और भी तेज़ हो गई थी, और बारिश का शोर उसके मन की धड़कन को छिपा रहा था। उसने दरवाज़े को हल्का सा धकेला। ताला सचमुच लगा नहीं था, बस कुंडी में अटका था। दरवाज़ा धीमी आवाज़ के साथ खुल गया। कमरे के अंदर घुप अँधेरा था।

राधा ने डरते-डरते दियासलाई जलाई। अंदर कोई ख़ज़ाना नहीं था। कमरा सादा था, पर उसमें एक बहुत पुरानी लकड़ी की संदूक़ और एक बड़ा, लोहे का तख्ता रखा था। दीवार पर सिर्फ़ एक पुरानी, फ्रेम की हुई तस्वीर टँगी थी— अरुण और विकास के पिताजी की। पर संदूक़ पर पड़ी धूल की मोटी परत पर उसकी नज़र नहीं गई, बल्कि उस कागज़ के टुकड़े पर गई, जो संदूक़ के ऊपर रखा था। यह कागज़ एक वसीयत का हिस्सा लग रहा था, पर वह पुराना, फटा हुआ था।

राधा ने काँपते हाथों से कागज़ उठाया। हवा के कारण दियासलाई बुझ गई, पर बाहर खिड़की से आती हल्की रौशनी में, उसने आँखें गड़ाकर पढ़ने की कोशिश की। वो वसीयत नहीं थी, वो एक पारिवारिक समझौता था। उसमें लिखा था कि इस हवेली का मालिक अब विकास होगा, क्योंकि अरुण को पिताजी ने उसकी पढ़ाई और सरकारी नौकरी के लिए एक बड़ी रक़म पहले ही दे दी थी, और यह कमरा, 'अनबोला कमरा', ही उसका हिस्सा था। यह कमरा नहीं, बल्कि उस समय के सबसे पुराने क़र्ज़ का कागज़ था, जिसे चुकाने का भार अरुण ने ख़ुद अपने ऊपर लिया था।

राधा पूरी तरह हिल गई। उस कागज़ में साफ़ लिखा था कि हवेली का ज़्यादातर हिस्सा विकास के नाम इसलिए किया गया था, क्योंकि अरुण ने अपने छोटे भाई के भविष्य को सुरक्षित करने के लिए, अपने हिस्से का सब कुछ दाँव पर लगा दिया था और एक बड़ा क़र्ज़ लिया था ताकि विकास बिना किसी बोझ के अपनी ज़िंदगी शुरू कर सके। और यह 'अनबोला कमरा' उस क़र्ज़ की पहली किस्त चुकाने का सबूत था, जिसे अरुण ने अपनी नौकरी के पहले पाँच सालों में चुकाया था।

उस कमरे में कोई ख़ज़ाना नहीं था। उसमें तो अरुण का सबसे बड़ा त्याग छुपा था।

राधा को याद आया, सुनीता हमेशा कहती थीं, "राधा, तुम लोग छोटे हो, पर तुम बस विकास के काम पर ध्यान दो, घर का हिसाब हम संभाल लेंगे।" राधा ने इसे रौब समझा था, पर अब उसे लगा कि सुनीता यह इसलिए कहती थीं ताकि विकास और राधा पर कभी यह बोझ न पड़े कि हवेली असल में उनकी है, और इस पर किसी तरह का क़र्ज़ है, या फिर अरुण ने उनके लिए कितना बड़ा त्याग किया है।

उसके मन का चंचल भ्रम टूट गया। जेठ-जेठानी का रौब, जो उसे हमेशा ख़लल देता था, अब प्रेम और बलिदान की एक मोटी परत जैसा लगा। वे बस इस सच को छुपाना चाहते थे, ताकि छोटे भाई-भाभी सुकून से रह सकें और कभी यह न सोचें कि वे किसी एहसान के बोझ तले दबे हैं।

राधा तुरंत दरवाज़ा बंद करके अपनी जगह पर लौट आई। उसकी आँखों में अब आँसू थे, पर ये आँसू उदासी के नहीं, बल्कि गहरी आत्मग्लानि के थे। उसने कितनी आसानी से सुनीता के व्यवहार को घमंड और रौब मान लिया था। उसने गेहूँ का एक दाना उठाया और उसे हथेली में दबाकर देखती रही, जैसे वह दाना नहीं, बल्कि उसके मन का मैल हो जो अब धुल गया था।

शाम को जब सुनीता चाय बनाने रसोई में आईं, तो राधा ने उन्हें पलटकर देखा। सुनीता ने आज भी वही अधिकार वाली आवाज़ में कहा, "आज चाय में अदरक ज़्यादा डालना, अरुण बाबू को ज़रा सर्दी लग रही है।" पर आज राधा के कानों में वो आवाज़ रौब नहीं लगी, बल्कि एक ऐसी ज़िम्मेदारी की आवाज़ लगी, जिसे सुनीता बरसों से बड़ी ख़ामोशी से निभा रही थीं।

राधा ने बिना कुछ कहे, सुनीता के पैर छुए। सुनीता चौंक गईं। "क्या हुआ राधा? तुम ठीक तो हो?"

राधा की आँखें भर आईं। "भाभी... मैं... मैं आपसे कुछ नहीं कहूँगी, बस इतना कहूँगी कि... आप बहुत अच्छी हैं।"

सुनीता का चेहरा बदल गया। वो चाबियों का गुच्छा एक पल के लिए रुक गया। उन्होंने राधा के सिर पर हाथ फेरा, और उस स्पर्श में बरसों का अनबोला प्रेम और अपनापन था। उस ठंडी, भीगी हुई शाम में, आराधना भवन के अंदर की उदास हवा अचानक प्रेम की गर्माहट से भर गई थी। जेठ-जेठानी का रौब, दरअसल, एक ऐसा कवच था जिसके पीछे उन्होंने अपने छोटे भाई-भाभी के लिए एक सुरक्षित, और प्रेम से भरा संसार छिपा रखा था।

राधा ने मन ही मन तय किया कि वह कभी किसी को उस कमरे का राज़ नहीं बताएगी, और न ही हवेली पर अपना अधिकार जताएगी। क्योंकि कुछ रिश्ते, रौब और अधिकार से नहीं, बल्कि त्याग और अनबोले प्रेम से सँभाले जाते हैं।

रतलाम शहर की पुरानी गलियों में, जहाँ सूरज की तपिश सीमेंट की दीवारों से टकराकर वापस लौटती थी, वहाँ एक पुराना, पर करीने से...
07/11/2025

रतलाम शहर की पुरानी गलियों में, जहाँ सूरज की तपिश सीमेंट की दीवारों से टकराकर वापस लौटती थी, वहाँ एक पुराना, पर करीने से सजा घर था जिसका नाम 'शांति सदन' था।

नाम में शांति थी, पर घर के अंदर पिछले कुछ सालों से एक अजीब सी खामोशी बस गई थी। यह खामोशी उन दो लोगों के बीच थी, जिनके रिश्ते को दुनिया पति-पत्नी कहती थी, यानी माधव और संध्या।

शादी को उनके ग्यारह बरस हो गए थे, पर उन ग्यारह सालों में से आख़िरी के तीन बरस तो जैसे एक लंबा, सूखा रेगिस्तान बन गए थे।

माधव का काम शहर से बाहर, एक फैक्टरी में हिसाब-किताब देखने का था। वह सुबह निकलता तो बस सूरज उगने के बाद, और लौटता तो रात की आखिरी आरती के बाद।

उसके आने-जाने का समय इतना पक्का था, मानो वह घड़ी की सुई हो; पर उसके और संध्या के बीच जो नाता था, उसका समय जैसे कहीं ठहर गया था।

घर में घुसते ही माधव की आँखें सबसे पहले रसोई की उस खिड़की पर टिकती थीं, जहाँ से कभी संध्या की हँसी की आवाज़ बाहर तक आती थी, पर अब बस बर्तन धोने की हल्की सी खनखनाहट सुनाई देती थी।

संध्या, जिसके बाल कभी उसकी हँसी की तरह उछलते थे, अब उन्हें कसकर एक जूड़े में बाँधकर रखती थी। उसकी आँखों में एक अजीब सी ठहरी हुई उदासी थी।

वह उदासी वैसी नहीं थी जो रोने से छलक जाए, बल्कि वैसी जो मन के अंदर धीरे-धीरे जगह बनाती जाती है, जैसे पीपल की जड़ें किसी पुरानी दीवार को फाड़कर आगे बढ़ें।

उसे याद था वो पहला साल, जब रतलाम की सर्दी में माधव आधी रात को उठकर उसके लिए अदरक वाली चाय बनाता था। उस चाय की ख़ुशबू आज भी उसे याद थी, पर वो ख़ुशबू अब उनके कमरे की हवा से दूर हो चुकी थी।

इस दुपहरी की गर्मी बड़ी सुस्त थी। बाहर हवा का एक झोंका भी नहीं था। घर के पीछे वाले हिस्से में लगा बबूल का पेड़ भी अपनी पत्तियाँ समेटे खड़ा था, जैसे वह भी इस माहौल की उदासी को महसूस कर रहा हो।

संध्या आँगन में बैठकर गेहूँ बीन रही थी। यह रोज़ का काम था, पर आज उसके हाथ बड़ी बेमन से चल रहे थे। उसका मन तो जैसे दूर कहीं, उस बीते हुए समय की गलियों में भटक रहा था, जब माधव देर रात घर लौटकर भी सबसे पहले उसके माथे पर हाथ फेरता था।

अब तो वह सीधे कमरे में जाता, अपनी कमीज़ उतारकर खूँटी पर टाँगता और बिना एक शब्द बोले करवट लेकर सो जाता। उनके बीच की ये चुप्पी एक भारी पत्थर बन गई थी, जिसे दोनों उठाते थे, पर किसी ने कभी आवाज़ नहीं दी कि 'यह पत्थर कितना भारी है।'

संध्या को सबसे ज़्यादा तकलीफ़ तब होती थी, जब उसकी पड़ोसन रूपा उसके पास आकर अपने पति की तारीफ़ करती। रूपा का पति भले ही कोई बड़ा अफ़सर न हो, पर वह उसे रोज़ शाम को अपनी बाहों में दबाकर पूछता था कि 'आज दिन कैसा गुज़रा?'

संध्या ये बातें सुनती और अंदर ही अंदर सिकुड़ जाती। उसका मन चाहता कि माधव भी उससे पूछे, बस एक बार... पर माधव अब सिर्फ़ काम की बातें करता था, या फिर बच्चों की पढ़ाई की। उनके रिश्ते का धागा, जो कभी रेशम सा मुलायम था, अब बबूल के काँटों में उलझकर जगह-जगह से फट चुका था।

एक दिन शाम को, जब आसमान में सिंदूरी रंग गहरा हो रहा था, माधव दफ्तर से लौटा। वह थका हुआ था, पर आज उसके माथे पर पसीना नहीं, चिंता की लकीरें ज़्यादा थीं।

संध्या ने उसे पानी दिया, और हमेशा की तरह बिना कुछ कहे वापस रसोई में मुड़ गई। पर माधव ने आज उसे आवाज़ दी, "संध्या, रुको।" संध्या का दिल ज़ोर से धड़का। ये 'रुको' शब्द उसने महीनों बाद सुना था।

माधव सोफे पर बैठ गया। उसने अपना ब्रीफ़केस ज़मीन पर रखा और गहरी साँस ली। "मालूम है, आज दफ्तर में क्या हुआ? हमारा सबसे पुराना मुंशी, विश्वनाथ काका, उन्हें दिल का दौरा पड़ गया। अचानक... किसी को पता भी नहीं चला।

" माधव की आवाज़ में एक अनजानी सी दहशत थी। "वह और उनकी पत्नी, वे भी कुछ सालों से बस काम-काज की बातें करते थे। मैं आज उनके घर गया था... काकी को रोता देख... मुझे लगा... यह कैसी ज़िंदगी है संध्या? भागते भागते हम कहाँ पहुँच गए हैं?"

संध्या चुपचाप माधव के पास बैठ गई। बरसों बाद, उसने माधव की आँखों में अपने लिए नहीं, पर इंसानियत के लिए एक दर्द देखा। माधव ने अपना सिर अपने हाथों में झुका लिया। उसकी गर्दन पर हाथ फेरने की पुरानी इच्छा संध्या के मन में फिर से जाग उठी, पर उसके हाथ जैसे बंधे हुए थे।

"हम दोनों..." माधव ने धीरे से कहा, उसकी आवाज़ में रेत का सा रूखापन था, "हम भी तो रोज़ मर रहे हैं, संध्या। यह ख़ामोशी... यह दूरी... इसने हमें एक ही छत के नीचे अजनबी बना दिया है।

मुझे पता है... मैं तुमसे दूर हो गया हूँ। काम... काम... बस काम... और फिर थककर... मैंने ये नहीं देखा कि तुम कैसी हो। मुझे माफ़ कर दो।"

पहली बार, संध्या ने माधव की आँखों में अपने लिए प्रेम नहीं, पर अपराधबोध और सच का स्वीकार देखा। उसके अपने आँसू भीग गए।

उसने पहली बार अपनी चुप्पी तोड़ी, पर उसकी आवाज़ एक फुसफुसाहट से ज़्यादा नहीं थी। "माधव... तुम हमेशा देर से आते थे... मुझे लगा... तुम्हें मेरी ज़रूरत नहीं है। तुम बस थककर आते हो और मैं बस घर की एक दीवार हूँ, जो आवाज़ नहीं देती।"

माधव ने अचानक अपना सिर उठाया और संध्या का हाथ पकड़ लिया। उस स्पर्श में बरसों का छूटा हुआ अपनापन था। वो हाथ गरम था, और संध्या को लगा जैसे उस तपती दुपहरी में उसे नीम की ठंडी छाँव मिल गई हो।

नहीं संध्या। तुम मेरी सब कुछ हो। मैंने तुम्हें नज़रअंदाज़ किया... तुम्हें नहीं, बल्कि उस समय को, जो हमें एक साथ बिताना चाहिए था। मुझे लगा पैसा ज़रूरी है, पर आज समझ आया... ये साथ, ये अपनापन... यही ज़िंदगी का सबसे बड़ा धन है।"

अगले दिन सुबह, जब सूरज की किरणें घर के दालान में पड़ रही थीं, तो माहौल अलग था। माधव आज काम पर जाने से पहले, रसोई में गया। संध्या चाय बना रही थी।

माधव ने धीरे से उसे पीछे से अपनी बाहों में ले लिया। संध्या चौंक गई, पर उसने अपने आपको छोड़ा नहीं। उस धीमी सुबह में, अदरक की चाय की मीठी गंध के साथ-साथ, उनके रिश्ते की गंध भी वापस लौट रही थी।

माधव ने फुसफुसाकर कहा, "आज से... मैं थोड़ा जल्दी लौटने की कोशिश करूँगा। और तुमसे शिकायत नहीं करूँगा कि चाय में चीनी कम है। मैं जानता हूँ, हमारे बीच कुछ सालों से सब कुछ कम हो गया था, पर अब नहीं।

संध्या ने मुड़कर माधव की आँखों में देखा। आज उन आँखों में बरसों बाद, उसने उस पुराने माधव को फिर से पाया। वो रेशम की डोर, जो बबूल के काँटों में उलझकर टूट गई थी, अब धीरे-धीरे सुलझने लगी थी। यह दूरी एक सज़ा थी, पर अब उन्हें उस सज़ा से आज़ादी मिल गई थी।

जो रिश्ता नाम नहीं पा सका, वही सबसे ज़्यादा याद आता है; पर जिस रिश्ते में चुप्पी की दरार पड़ जाए, उसे समय रहते प्यार के धागों से सींचना बहुत ज़रूरी है। यही जीवन है, जहाँ समय और मौन दोनों ही रिश्ते को या तो बना देते हैं, या फिर पूरी तरह मिटा देते हैं।

लखनऊ के पुराने चौक इलाके से सटी हुई, नवाबी दौर की एक सकरी गली थी, जिसका नाम था 'पीपल वाली गली'। यह जुलाई के महीने की सुस...
06/11/2025

लखनऊ के पुराने चौक इलाके से सटी हुई, नवाबी दौर की एक सकरी गली थी, जिसका नाम था 'पीपल वाली गली'। यह जुलाई के महीने की सुस्त, चिपचिपी दोपहर थी।

सूरज की तपिश सीमेंट की पुरानी दीवारों से टकराकर वापस लौट रही थी, जिससे गली के अंदर की हवा भी गर्म और भारी महसूस हो रही थी।

हवा में पुरानी लकड़ी, सीलन और मीठी-मीठी इत्र की हल्की सी गंध घुली हुई थी, जो लखनऊ के पुराने मिजाज़ की निशानी थी। इसी गली के बीच में, एक तीन मंजिला पुरानी हवेली थी, जिसके झरोखे और दरवाज़े बरसों के इतिहास को अपने अंदर समेटे हुए थे।

इस हवेली के सबसे ऊपर के कमरे में, जो हमेशा थोड़ा अँधेरा रहता था, मृणालिनी बैठी थी। मृणालिनी की उम्र चौबीस साल थी और वह इस घर की छोटी बहू थी। वह एक साधारण, गहरी लाल रंग की साड़ी और सूती ब्लाउज पहने थी।

उसका कद काठी भरा-पूरा था, जो शायद उसे इस घर के बड़े-बुजुर्गों के लिए और भी आसान शिकार बना देता था।

उसकी बड़ी-बड़ी आँखें हमेशा थोड़ी डरी हुई और उदास रहती थीं, मानो वह हमेशा किसी अनचाही परछाई से बचने की कोशिश कर रही हो। मृणालिनी की शादी को अभी मुश्किल से दो साल हुए थे।

उसके पति, गौरव, शहर के बाहरी इलाके में एक कपड़े की दुकान चलाते थे और रोज़ाना शाम को देर से लौटते थे।

गौरव स्वभाव से सीधे और थोड़े बेफिक्र थे, जो घर की अंदरूनी उठापटक से हमेशा अनजान बने रहते थे, या शायद अनदेखा करते थे। मृणालिनी इस कमरे में बैठी एक बहुत ही पुरानी, गहरे भूरे रंग की लकड़ी की अल्मारी को साफ कर रही थी।

यह अल्मारी इस घर की सबसे पुरानी चीज़ों में से एक थी, जिसकी लकड़ी में बरसों पुरानी नमी समाई हुई थी। अल्मारी के दरवाज़ों पर हाथों से नक्काशी की हुई थी, जो अंधेरे में भी चमकती थी। इस अल्मारी के अंदर घर के पुराने कपड़े, लिहाफ़ और ज़रूरी दस्तावेज़ रखे जाते थे।

पर मृणालिनी के लिए यह अल्मारी सिर्फ़ सामान रखने की जगह नहीं थी, यह एक भयानक याद की निशानी थी, एक ऐसी जगह जहाँ उसकी दबी हुई साँसें और उसकी ख़ामोश चीखें हमेशा गूँजती रहती थीं।

आज दोपहर को घर के सभी लोग नीचे के कमरों में आराम कर रहे थे। हवेली में अजीब सी खामोशी थी, सिर्फ़ पंखे के धीरे-धीरे घूमने और बाहर गलियों में किसी रेहड़ी वाले की धीमी आवाज़ सुनाई दे रही थी।

मृणालिनी मन मारकर अल्मारी के अंदर के कपड़े निकाल रही थी, तभी उसके कानों में सीढ़ियों पर किसी के धीरे-धीरे ऊपर आने की आहट सुनाई दी। उसका दिल तेज़ी से धड़कने लगा।

वह तुरंत अल्मारी के पीछे हट गई, मानो अल्मारी उसे छुपा लेगी। सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर आया था उसका जेठ, प्रताप।

प्रताप, गौरव से आठ साल बड़ा था।

वह एक सरकारी दफ़्तर में बाबू था, पर उसकी आँखों में हमेशा एक अजीब सी अक्खड़ता और लालसा रहती थी। वह भरी हुई आँखों से मृणालिनी को देखता था, जिससे मृणालिनी की रूह काँप जाती थी। प्रताप ऊपर आया और कमरे के दरवाज़े पर आकर खड़ा हो गया।

उसने मृणालिनी को अल्मारी साफ करते हुए देखा और उसके चेहरे पर एक फीकी, गंदी मुस्कान आई। "अरे, छोटी बहू," प्रताप ने धीमी, फुसफुसाहट वाली आवाज़ में कहा, जो उस सुस्त दोपहर में किसी ज़हरीले साँप की फुफकार जैसी लगी। "तुम क्यों अकेली इतना काम कर रही हो?

यह काम तो नौकरों का है।

दोपहर में तो आराम करना चाहिए।" मृणालिनी ने सिर झुका लिया। उसकी आवाज़ गले में ही अटक गई।

वह केवल इतना कह पाई, "जी, बस... सासू माँ ने कहा था कि इस अल्मारी की सफाई ज़रूरी है।" प्रताप धीरे-धीरे कमरे के अंदर आया। उसके हर कदम पर पुरानी लकड़ी का फर्श चरमरा रहा था।

"सासू माँ तो सो रही होंगी।

तुम झूठ बोल रही हो, छोटी बहू।

तुम हमेशा मुझसे दूर भागने की कोशिश क्यों करती हो?

मैं तुम्हारा जेठ हूँ, तुम्हारा बड़ा हूँ।

मैं तुम्हें सिर्फ़ काम करने से रोकना चाहता हूँ।" वह अल्मारी के पास खड़ा हो गया, जहाँ मृणालिनी सिकुड़कर खड़ी थी। अल्मारी के पास हवा और भी भारी हो गई थी, और मृणालिनी को लगा कि उसकी साँसें घुट रही हैं। उसे याद आया, ठीक एक साल पहले भी, इसी अल्मारी के पास, प्रताप ने पहली बार उसे गलत तरीके से छूने की कोशिश की थी।

उस समय उसकी दबी हुई चीख किसी ने नहीं सुनी थी, और उसके मन का डर उसके अंदर ही दफ़न हो गया था। उस दिन से मृणालिनी को यह अल्मारी भयानक लगने लगी थी। मृणालिनी ने हिम्मत जुटाई और तेज़ी से कहा, "जेठ जी, मुझे अभी और काम है।

आप जाइए, मुझे रसोई में देखना है।" प्रताप हँसा, एक ऐसी हँसी जिसमें कोई मिठास नहीं थी। "रसोई का काम तो होता रहेगा, बहू।

मैं तो बस तुम्हें थोड़ा आराम देना चाहता था।

तुम इतनी भोली क्यों हो?

तुम मुझे अपना मानती क्यों नहीं?

मैं तो बस..." तभी दरवाज़े के बाहर से किसी के खाँसने की आवाज़ आई। वह आवाज़ थी घर के ससुर जी, रामानंद की।

रामानंद जी अपनी उम्र के चलते अक्सर दिन में सोते थे, पर शायद आज उन्हें नींद नहीं आई थी। रामानंद जी भी स्वभाव से थोड़े सनकी और अपनी मर्ज़ी के मालिक थे। उनके मन में हमेशा एक अजीब सी हलचल रहती थी, और उनकी आँखें भी अक्सर मृणालिनी को घूरने लगती थीं।

प्रताप तुरंत सीधा खड़ा हो गया और उसका चेहरा तुरंत बदल गया। उसने मृणालिनी को गुस्से से घूरकर देखा, मानो वह उसे धमका रहा हो कि वह एक शब्द भी न बोले। रामानंद जी कमरे के अंदर आए।

उनकी आँखें प्रताप और मृणालिनी पर टिकी थीं।

"अरे प्रताप, तुम यहाँ क्या कर रहे हो?

इतनी दोपहर में?

और बहू, तुम यह पुरानी अल्मारी क्यों साफ कर रही हो?

इस अल्मारी की तो बरसों से सफाई नहीं हुई है।" प्रताप ने तुरंत बात पलटी। "जी पिताजी।

मैं तो बस बहू को डाँटने आया था कि वह इतनी दोपहर में अकेली इतना भारी काम क्यों कर रही है। मैंने कहा कि मैं उसकी मदद कर देता हूँ।" रामानंद जी ने प्रताप को जाने का इशारा किया। प्रताप चुपचाप नीचे चला गया, पर जाते-जाते उसने एक बार फिर मृणालिनी को डरावनी आँखों से देखा।

अब कमरे में केवल मृणालिनी और ससुर जी थे।

मृणालिनी को लगा कि वह एक जाल से निकलकर दूसरे जाल में फँस गई है। रामानंद जी अल्मारी के पास आए और उन्होंने अल्मारी के ऊपरी नक्काशी को छूकर देखा। "यह अल्मारी बहुत पुरानी है, बहू," रामानंद जी ने धीमी, गंभीर आवाज़ में कहा।

"तुम्हारी सासू माँ की शादी में आई थी।

इसमें बहुत सी यादें हैं।

तुम्हें नहीं पता होगा, पर इस अल्मारी के दरवाज़े में एक छोटा सा, गुप्त ताला है। वह ताला सिर्फ़ वही खोल सकता है, जिसे इस घर की चाबी पता हो।" रामानंद जी ने बात कहते-कहते मृणालिनी के नज़दीक आने की कोशिश की। मृणालिनी को उनकी बातों का मतलब समझ आ गया।

वह तुरंत अल्मारी से दूर हटी।

"पिताजी, मुझे यह सब नहीं पता।

आप बैठिए, मैं आपके लिए पानी लाती हूँ," मृणालिनी ने लड़खड़ाती हुई आवाज़ में कहा। रामानंद जी ने मृणालिनी का हाथ पकड़ने की कोशिश की, पर मृणालिनी झटके से पीछे हट गई। उनके चेहरे पर गुस्सा आ गया।

"तुम क्यों इतना दूर भागती हो, बहू?

क्या मैं तुम्हारा ससुर नहीं हूँ?

तुम इस घर की बहू हो, और तुम्हें बड़ों का सम्मान करना चाहिए। यह घर तुम्हारा है।

मैं तुम्हें... तुम्हें प्यार करता हूँ।" मृणालिनी का दिल डूब गया। उसे लगा कि वह आज कहीं नहीं बच पाएगी।

उस सुस्त, चिपचिपी दोपहर में, उस अँधेरे कमरे में, उसे लगा कि उसकी दबी हुई साँसें अब बाहर निकल आएंगी और वह चीख पड़ेगी। तभी, अचानक दरवाज़े पर ज़ोर से किसी ने दस्तक दी।

"कोई है क्या?

बुआ जी आई हैं!" आवाज़ थी माधव की, गौरव और प्रताप का छोटा भाई, जो घर का सबसे छोटा और सबसे सीधा-सादा सदस्य था। माधव अपनी बुआ जी को स्टेशन से लेने गया था और अब दोनों लौट आए थे। बुआ जी, शोभा, घर की सबसे सम्मानित सदस्य थीं, जिनकी बात कोई नहीं टाल सकता था।

रामानंद जी तुरंत सामान्य हो गए।

उनका गुस्सा गायब हो गया, और उन्होंने एक लंबी साँस ली। "अरे, शोभा आ गई?

बहू, तुम यहीं रुको, मैं नीचे जाता हूँ," रामानंद जी जल्दी से नीचे चले गए। मृणालिनी ने अल्मारी को पकड़ लिया और राहत की एक लंबी, गहरी साँस ली। उसे लगा कि वह मौत के मुँह से वापस आ गई है।

यह पुरानी अल्मारी आज फिर से उसकी गवाह बन गई थी, पर इस बार वह बच गई थी। शाम को जब गौरव दुकान से वापस आया, तो मृणालिनी ने उसे अलग कमरे में बुलाया। उसकी आँखें लाल थीं और वह बुरी तरह काँप रही थी।

उसने गौरव के सामने हाथ जोड़ लिए।

"गौरव, मैं अब इस घर में और नहीं रह सकती।

मुझे माफ़ कर दो, पर मुझे यहाँ बहुत डर लगता है।" गौरव ने परेशानी से पूछा, "क्या हुआ, मृणालिनी? क्या कोई झगड़ा हुआ है?" तब मृणालिनी ने पहली बार हिम्मत जुटाई और अपनी दबी हुई साँसें बाहर निकालीं। उसने गौरव को सब कुछ बताया।

प्रताप की हरकतें, पिताजी का व्यवहार, और उस पुरानी अल्मारी के पास हर दिन महसूस होने वाला डर। गौरव शुरू में तो विश्वास नहीं कर पाया।

उसे लगा कि मृणालिनी बढ़ा-चढ़ाकर बोल रही है।

"क्या कह रही हो, मृणालिनी?

यह कैसे हो सकता है?

पिताजी और भैया... ये सब...?" "हाँ, गौरव।

यही सच है," मृणालिनी ने रोते हुए कहा।

"तुम्हारे बड़े भाई और तुम्हारे पिताजी, दोनों मुझे हर पल गलत नज़रों से देखते हैं। मैं तुमसे पहले कभी नहीं कह पाई, क्योंकि मुझे लगा कि तुम विश्वास नहीं करोगे, या मुझे ही गलत समझोगे। पर अब... मैं और नहीं सह सकती।

मुझे इस घर से बाहर ले चलो।" गौरव का चेहरा पीला पड़ गया। उसे अपनी पत्नी की दबी हुई उदासी और डर का एहसास हुआ। उसे लगा कि वह अपनी पत्नी की रक्षा करने में कितना असफल रहा है।

वह शर्म और गुस्से से भर गया।

अगले दिन सुबह, गौरव ने हिम्मत जुटाई और पहले अपने बड़े भाई प्रताप से बात की, जिसने तुरंत इनकार कर दिया। फिर उसने पिताजी रामानंद जी से बात की।

रामानंद जी ने गौरव को डाँटकर चुप करा दिया और कहा कि यह सब मृणालिनी का वहम है। लेकिन गौरव ने हार नहीं मानी।

उसने अपनी बुआ जी, शोभा को सब कुछ बताया।

शोभा बुआ जी ने गंभीरता से बात सुनी।

उन्होंने मृणालिनी को अपने पास बुलाया और प्यार से कहा, "तुम डरो नहीं, बेटा। अब मैं आ गई हूँ, और मैं तुम्हें अकेला नहीं छोडूंगी।" शोभा बुआ जी ने अगले ही दिन पूरे परिवार को बैठक में बुलाया। उन्होंने साफ शब्दों में रामानंद जी और प्रताप को चेतावनी दी कि अगर उन्होंने मृणालिनी की ओर आँख उठाकर भी देखा, तो वह पुलिस में शिकायत दर्ज करवाएंगी और घर की सारी इज़्ज़त मिट्टी में मिल जाएगी।

शोभा बुआ जी के रौब और उनके साफ़ इरादों के सामने रामानंद जी और प्रताप दोनों चुप हो गए। उस दिन के बाद, प्रताप और रामानंद जी दोनों ने मृणालिनी से दूरी बना ली। गौरव ने भी तुरंत फैसला लिया और अपनी पत्नी के साथ शहर के बाहरी इलाके में एक छोटा सा किराए का घर ले लिया, ताकि वह उस पुरानी हवेली और उसकी डरावनी अल्मारी से दूर, एक नई और शांत ज़िंदगी जी सके।

जब मृणालिनी उस पुरानी हवेली से बाहर निकल रही थी, तो उसने एक बार मुड़कर उस अँधेरे कमरे और उस अल्मारी की ओर देखा। उस अल्मारी में अब उसकी साँसें नहीं, बल्कि केवल पुराने कपड़े दबे थे। वह अल्मारी अब उसकी दबी हुई साँसों की नहीं, बल्कि उसकी जीत और आज़ादी की निशानी बन गई थी।

रिश्तों में मर्यादा और सम्मान ही सबसे बड़ी दौलत होते हैं। कभी-कभी चुप्पी हमारा बचाव नहीं, बल्कि हमारा बंधन बन जाती है, और हमें अपने सम्मान के लिए आवाज़ उठानी ही पड़ती है, भले ही वह आवाज़ हमारे ही अपनों के ख़िलाफ़ क्यों न हो।

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