07/11/2025
कानपुर शहर का गोविंदनगर मोहल्ला, जहाँ पुरानी, सटकर बनी गलियों में अब भी एक अजीब सी धीमी रफ़्तार थी।
यह कहानी थी वीणा की, जो अपने भाई के घर में रहती थीं। मोहल्ले वाले उन्हें ‘वीणा बुआ’ कहते थे।
वीणा बुआ का जीवन उस पुरानी चौखट की तरह था, जिसे घर के सब लोग पार करते थे, पर किसी का ध्यान नहीं जाता था कि वो कितने सालों से चुपचाप वहीं टिकी हुई है।
बुआ का भाई रमेश, उनकी पत्नी रीता, और उनके बच्चे अंकुर और पिंकी— यही वीणा बुआ का संसार था।
रीता, यानी बुआ की भाभी, स्वभाव से थोड़ी रूखी थीं। उनकी बातों में कानपुर की गर्मी जैसी तपिश थी।
उन्हें हमेशा लगता था कि वीणा बुआ उनके घर पर एक बोझ हैं, भले ही बुआ घर के सारे छोटे-मोटे काम चुपचाप करती रहती थीं।
बुआ कभी सुबह की चाय, कभी शाम की सब्ज़ी काटना, तो कभी बच्चों के स्कूल से लौटने पर उनकी देखभाल करना— इन सब में अपना दिन बिता देती थीं।
रीता कभी सीधे मुँह कुछ नहीं कहती थीं, पर उनके बोलने के अंदाज़ में, उनके हर इशारे में एक अजीब सी बेरुखी और रोब की झलक होती थी, जो बुआ के दिल को धीरे-धीरे छलनी करती रहती थी।
सबसे ज़्यादा बुआ को तब अकेलापन महसूस होता था, जब शाम ढलने लगती थी।
सूरज की आखिरी किरनें जब आँगन की चौखट से फिसलकर जाती थीं, तो घर में एक अजीब सी खामोशी छा जाती थी।
यही वो वक़्त था, जब रमेश दफ़्तर से लौटते थे और रीता अपने घर के काम में व्यस्त हो जाती थीं।
बच्चे बाहर खेलने निकल जाते, और बुआ अकेली चौखट पर बैठकर आसमान के बदलते रंगों को देखती रहती थीं।
उन्हें लगता था, जैसे ये ढलती शाम उनकी अपनी ज़िंदगी की परछाईं है— रंग ख़त्म हो रहे हैं और बस एक उदासी भरा धुंधलका बाक़ी है।
रीता अक्सर उन्हें कहती थीं, "बुआ, आप चौखट पर क्यों बैठी हैं? अंदर जाइए, मच्छर काटेंगे। वैसे भी, सारा दिन तो कोई काम होता नहीं है।"
ये बात बुआ के दिल में चुभ जाती थी, पर वह कभी पलटकर जवाब नहीं देती थीं।
उन्हें लगता था कि अगर वह बोलेंगी, तो घर की शांति भंग हो जाएगी, और यही शांति उनके भाई के लिए सबसे ज़रूरी थी।
एक दिन, पिंकी, जो क़रीब आठ साल की थी, स्कूल से रोती हुई आई।
उसका छोटा भाई अंकुर, जो अपने दोस्तों के साथ खेल रहा था, उसने पिंकी को चिढ़ा दिया था।
पिंकी रोते-रोते चौखट पर बैठी वीणा बुआ के पास गई और उनके आँचल में मुँह छिपाकर सुबकने लगी।
रीता उस समय फ़ोन पर किसी से बात कर रही थीं और उन्हें पिंकी का रोना पसंद नहीं आया।
उन्होंने फ़ोन पर ही ज़ोर से कहा, "ये बच्ची भी ना, बस रोना जानती है। बुआ, ज़रा इसे चुप कराइए, मेरा सिर दर्द कर रहा है।"
वीणा बुआ ने पिंकी को बड़े प्यार से अपनी गोद में उठाया। उनके हाथ, जो बरसों से बर्तन मांजने और कपड़े धोने से सख़्त हो गए थे, पिंकी के गालों को सहला रहे थे।
बुआ ने पिंकी के कान में एक पुरानी, मीठी लोरी गाई, जो उन्होंने अपने बचपन में अपनी माँ से सुनी थी।
उस लोरी की धीमी आवाज़ और बुआ के स्पर्श में जो अपनापन था, वो पिंकी के सारे आँसू सोख गया।
पिंकी ने ऊपर देखा। "बुआ, आप मुझे बहुत प्यार करती हो ना?"
बुआ की आँखें भर आईं। उन्होंने पिंकी को कसकर गले लगा लिया। "हाँ मेरी बच्ची। तुम मेरी जान हो।"
पिंकी ने बुआ के माथे पर हाथ फेरा और बोली, "आप इस चौखट पर अकेली क्यों बैठती हो? मैं रोज़ आपके पास बैठूँगी।"
उस दिन के बाद, शाम ढलते ही, वीणा बुआ और पिंकी का एक अनजाना सा रिश्ता बन गया।
जब भी बुआ चौखट पर बैठती थीं, तो पिंकी दौड़कर उनके पास आ जाती और उनके कंधे पर सिर रखकर कहानियाँ सुनती।
यह देखकर रीता को भी अजीब सा लगने लगा। उन्हें ये दोनों का साथ एक आँख नहीं सुहाता था।
एक दिन रीता ने गुस्से में आकर बुआ को टोक दिया। "बुआ, आपको बच्चों को ज़्यादा सिर नहीं चढ़ाना चाहिए। अब इनकी पढ़ाई का वक़्त है। आप क्यों इन्हें रोज़ शाम को फुसलाती रहती हैं?"
यह बात वीणा बुआ के दिल पर तीर की तरह लगी। उन्हें लगा, अब तो उन्हें इस घर से चले ही जाना चाहिए।
वह उठीं और चुपचाप अपने छोटे से बक्से में कपड़े रखने लगीं। उन्होंने सोचा कि वह कहीं दूर जाकर किसी छोटे से मंदिर में रह लेंगी।
अगले दिन सुबह, जब बुआ जाने के लिए तैयार थीं, तो उन्होंने देखा कि रीता जल्दी से रसोई में काम कर रही हैं।
रीता ने पलटकर बुआ को देखा और बुआ के हाथ में उनका छोटा बक्सा देखकर चौंक गईं।
"बुआ! यह क्या है? आप कहाँ जा रही हैं?" रीता की आवाज़ में आज पहली बार रोब नहीं, बल्कि घबराहट थी।
वीणा बुआ ने बिना कुछ कहे, सिर्फ़ आँसू भरी आँखों से रीता को देखा।
तभी पिंकी दौड़कर आई और बुआ के बक्से से चिपक गई। "नहीं बुआ! आप कहीं नहीं जाओगी। आपने कहा था कि आप मुझे रोज़ शाम को कहानी सुनाओगी।"
पिंकी ने रोना शुरू कर दिया। रमेश भी उठकर बाहर आ गए। जब उन्होंने सारा माजरा समझा, तो वह चुपचाप खड़े रहे।
रीता अचानक आगे बढ़ीं और वीणा बुआ के पैरों पर गिर गईं।
"बुआ, मुझे माफ़ कर दो! मेरे मुँह से पता नहीं क्या-क्या निकल जाता है। मुझे पता है कि आप हमारे लिए क्या हैं। आप इस घर की नींव हैं। आप चली गईं, तो पिंकी का क्या होगा? मेरा क्या होगा?"
रीता रो रही थीं। उनके रोने में कोई बनावट नहीं थी। बुआ को पहली बार लगा कि रीता के दिल में भी उनके लिए कहीं न कहीं अपनापन ज़रूर था, बस वो उसे ज़ाहिर नहीं कर पाती थीं।
वीणा बुआ ने रीता को उठाया। "बस, चुप हो जा मेरी बच्ची। मैं कहीं नहीं जा रही हूँ।"
उस दिन, बुआ ने अपना बक्सा वापस कोने में रख दिया। शाम ढली, और वीणा बुआ फिर से आँगन की चौखट पर बैठीं।
पर आज वह अकेली नहीं थीं। पिंकी और अंकुर उनके दोनों तरफ़ बैठे थे, और पीछे से रीता चाय की ट्रे लेकर आईं।
रीता ने बड़े प्यार से चाय बुआ के हाथ में दी और कहा, "बुआ, आज चौखट पर क्यों बैठी हैं? अंदर आइए, यहाँ ठंड है।"
पर बुआ हँस दीं। उन्हें मालूम था कि अब यह चौखट उदासी की नहीं, बल्कि रिश्तों के सबसे सच्चे और गहरे अपनापन की निशानी बन गई है।
घरेलू रिश्तों में बुआ-काकी जैसे लोग अक्सर घर की चौखट की तरह होते हैं, जो सबको सहारा देते हैं पर ख़ुद चुपचाप सहते रहते हैं। यही जीवन है, जहाँ सबसे गहरा अपनापन अक्सर सबसे अनकही और अनदेखी जगह पर छिपा होता है।