Midnight Hindi Stories

Midnight Hindi Stories धीमी, और भावनाओं के रस से भरी कहानियाँ... 🎧 बंद आँखों से महसूस कीजिए... 💤 और खुद को बहने दीजिए उन रिश्तों में, जो कहे नहीं जाते - बस महसूस किए जाते हैं।

Hindi Story | Storytelling | Story Time | Quotes | Motivational Speaker

यह कहानी आपके दिल को छू जाएगी, क्योंकि यह सिर्फ़ एक स्त्री की नहीं बल्कि उन असंख्य औरतों की दास्तान है जो सम्मान और स्वा...
18/08/2025

यह कहानी आपके दिल को छू जाएगी, क्योंकि यह सिर्फ़ एक स्त्री की नहीं बल्कि उन असंख्य औरतों की दास्तान है जो सम्मान और स्वाभिमान की तलाश में अपना सबकुछ छोड़कर भी अकेले जीवन जी लेना पसंद करती हैं। यह कहानी आपको रुककर पढ़ने पर मजबूर कर देगी।

मीरा देवी की उम्र अब पैंसठ साल हो चुकी थी। उनके चेहरे की झुर्रियों में बीते वर्षों की कठिनाइयाँ और संघर्ष साफ झलकते थे, लेकिन उनकी आँखों में अब भी आत्मविश्वास और स्वाभिमान की चमक मौजूद थी। पति राजेश बाबू का निधन हुए लगभग पाँच साल हो गए थे। राजेश बाबू कस्बे में छोटी सी किराने की दुकान चलाते थे। पैसे बहुत नहीं थे, पर इतना ज़रूर था कि घर सम्मान से चल सके। मीरा देवी को उन्होंने हमेशा यही समझाया था कि “इंसान को कभी भी अपना सम्मान खोकर नहीं जीना चाहिए। चाहे सूखी रोटी खाओ, लेकिन सिर ऊँचा रखकर।”

पति के जाने के बाद भी मीरा देवी अपने पैतृक घर में, जहाँ उनके जेठ का परिवार रहता था, सम्मान और आत्मीयता के साथ जीवन गुज़ार रही थीं। जेठ की बड़ी बहू सरिता उन्हें हमेशा माँ का दर्जा देती थी और अपने घर का खाना बिना उनके साथ बाँटे खाती ही नहीं थी। मीरा देवी को लगता था कि यह परिवार ही उनका सहारा है।

लेकिन उनका बेटा अमन बार-बार आग्रह करता रहा कि माँ अब अकेली क्यों रहें, उसके साथ शहर में क्यों न चलें। अमन की नौकरी दिल्ली में थी, पत्नी नेहा भी वहीं जॉब करती थी। माँ को अकेला सोचकर वह परेशान हो जाता था। बहुत मनुहार और वादों के बाद मीरा देवी बेटे के साथ दिल्ली आ गईं।

दिल्ली का छोटा सा फ्लैट उनके गाँव के विस्तृत और खुले घर से बिल्कुल उल्टा था। मीरा देवी को शुरुआत से ही असहज महसूस होने लगा। अमन ने उनका सामान बरामदे में रखवाया और कहा कि फिलहाल यहीं से काम चलाना होगा। नेहा ने ज़रा भी आपत्ति नहीं की। पहली ही रात बरामदे में मच्छरों और नमी के बीच मीरा देवी सोईं। अगली सुबह जब नेहा ने उन्हें सोफ़े पर सिकुड़े हुए देखा, तो नाराज़ होकर बोली कि “सोफ़ा कोई सोने की जगह है क्या, ये तो बिगड़ जाएगा।”

दिन बीतते गए लेकिन हालात और खराब होते गए। नेहा ऑफिस जाने से पहले अपने और अमन के लिए ही खाना बनाती, कभी-कभी दो रोटियाँ मीरा देवी के लिए रख देती। कई बार तो खाना भी नहीं बनता, बाहर से मंगवाया जाता और मीरा देवी को यह कहकर छोड़ दिया जाता कि “आप अपने लिए कुछ बना लेना।”

मीरा देवी को यह सब असहनीय लगने लगा। बेटे और बहू की बेरुख़ी ने उन्हें भीतर तक तोड़ दिया। कई दिनों तक लगातार अपमान सहते-सहते उनका मन पूरी तरह भर गया। उन्हें बार-बार पति की बातें याद आने लगीं। राजेश बाबू हमेशा कहते थे कि अपमान की छाया में जीवन जीने से अच्छा है कि सम्मान के साथ सूखी रोटी खाई जाए।

एक दिन मीरा देवी ने बेटे से कहा, “अमन, एक हफ्ता हो गया, मैं यहाँ हूँ लेकिन एक दिन भी मुझे ऐसा नहीं लगा कि मैं अपने घर में हूँ। नेहा तो बात तक नहीं करती, तुम भी मुझे बस बोझ समझते हो। अब मैं अपने घर वापस जाऊँगी।”

अमन ने चौंककर कहा, “माँ, ये आपका भी घर है।”
मीरा देवी ने दृढ़ आवाज़ में कहा, “नहीं बेटा, घर वह होता है जहाँ इज़्ज़त और अपनापन हो। जहाँ कोई सुबह पूछे कि चाय पी है या नहीं। जहाँ कोई यह कहे कि माँ खाना खाओ। यहाँ मुझे सिर्फ़ बोझ समझा जा रहा है। मैं वापस वहीं जाऊँगी जहाँ लोग मुझे माँ कहते हैं और मेरा सम्मान करते हैं।”

अगले ही दिन उन्होंने अपने पति के पुराने दोस्त विजय राय को फोन किया। विजय राय जी, जो अब सेवानिवृत्त हो चुके थे, ने बिना देर किए उनका टिकट बनवाया और स्टेशन तक पहुँचाया। जाते समय अमन बस चुप खड़ा रहा। मीरा देवी ने उसकी ओर देखा और कहा, “बेटा, तूने सब कुछ दिया लेकिन सम्मान नहीं। और बिना सम्मान के ज़िंदगी नहीं चलती।”

अपने पैतृक घर लौटकर उन्होंने राहत की साँस ली। उन्होंने तय कर लिया कि अब किसी के घर अपने सम्मान के साथ समझौता नहीं करेंगी। उन्होंने अपने घर के दो कमरे किराए पर दे दिए और एक कमरा अपने लिए रख लिया। अब उनका खर्च आराम से निकलने लगा। जेठ की बहू सरिता रोज़ उनका हाल पूछती, बेटा जैसा मानने वाले भतीजे-बेटियाँ उनका ख्याल रखते।

मीरा देवी ने मन ही मन सोचा कि असली अपनापन खून के रिश्तों से नहीं बल्कि उन रिश्तों से मिलता है जिनमें इज़्ज़त और आत्मीयता हो। अब वह अकेली जरूर थीं, लेकिन आत्मसम्मान से जी रही थीं।

वह रोज़ भगवान की पूजा करतीं, मोहल्ले की औरतों से बातें करतीं और शाम को छत पर बैठकर अपने जीवन के सफर पर विचार करतीं। उन्हें अब किसी पर निर्भर नहीं रहना था। उन्होंने ठान लिया कि उनके जीवन की अंतिम यात्रा भी इसी घर से निकलेगी, उसी घर से जहाँ उन्हें सम्मान और स्नेह दोनों मिले।

मीरा देवी के चेहरे पर अब पहले जैसी उदासी नहीं थी। उनकी आँखों में आत्मविश्वास और अपनेपन की चमक साफ दिखाई देती थी। उन्होंने खुद को एक बार फिर से जीवन जीने का हौसला दे दिया था।

क्या आपने कभी किसी ऐसे इंसान का इंतज़ार किया है जो आपके लिए सबकुछ हो, लेकिन वक्त की चाल उसे आपसे बहुत दूर ले जाए? क्या आ...
18/08/2025

क्या आपने कभी किसी ऐसे इंसान का इंतज़ार किया है जो आपके लिए सबकुछ हो, लेकिन वक्त की चाल उसे आपसे बहुत दूर ले जाए? क्या आपने कभी महसूस किया है कि सपनों की जीत भी अधूरी लगती है अगर आपके अपने साथ न हों? यह कहानी है आदित्य और रिद्धिमा की।

उत्तर प्रदेश के एक छोटे कस्बे मिर्जापुर में जुलाई की उमस भरी दोपहर थी। आदित्य अपने किराए के तंग से कमरे में बेचैन इधर-उधर घूम रहा था। पसीने से भीगा उसका शर्ट शरीर से चिपक चुका था, और माथे पर बार-बार हाथ फेरने के बावजूद चिपचिपे पसीने की परत उतरने का नाम ही नहीं ले रही थी।

आज उसके जीवन का सबसे अहम दिन था।

पिछले तीन सालों से वह प्रशासनिक सेवा की परीक्षा दे रहा था और हर बार उसे असफलता हाथ लगती थी। इस बार का परिणाम उसकी ज़िंदगी का रुख तय करने वाला था। परंतु उसके पास इंटरनेट वाला स्मार्टफोन नहीं था, और साइबर कैफे जाकर नतीजा देखने की हिम्मत भी उसमें नहीं बची थी।

डर था कि कहीं फिर से नाकामी न हाथ लग जाए।

आदित्य की जिंदगी में एक इंसान था जो हर पल उसका हौसला बनता, उसे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता और उसके सपनों को अपना सपना मानता। वह थी रिद्धिमा, उसके मकान मालिक की बेटी।

उम्र में आदित्य से दो साल छोटी लेकिन सोच और आत्मविश्वास में कई कदम आगे। रिद्धिमा ने आदित्य से वादा किया था कि जब उसके पिता के पास अखबार आएगा, वह उसमें से रिज़ल्ट ढूंढकर उसके पास ले आएगी। बारह बज चुके थे और आदित्य की धड़कनें तेज़ होती जा रही थीं, पर रिद्धिमा का कहीं नामोनिशान नहीं था।

आदित्य और रिद्धिमा पिछले चार सालों से एक-दूसरे को पसंद करते थे। रिद्धिमा हमेशा आदित्य के संघर्ष का हिस्सा बनी रही।

कभी पढ़ाई के लिए रात में लालटेन और मिट्टी का तेल जुटाना, कभी अपनी बालियां बेचकर उसकी किताबें खरीदना, और कभी अपनी थाली से खाना निकालकर आदित्य की प्लेट में रखना वह हर तरह से उसका सहारा बनी थी। आदित्य भी यह जानता था कि उसकी मेहनत आधी अधूरी होती अगर रिद्धिमा उसकी ज़िंदगी में न होती। दरवाजे पर अचानक दस्तक हुई।

आदित्य ने जैसे ही दरवाजा खोला, सामने हांफती हुई रिद्धिमा खड़ी थी। पसीने से उसका चेहरा लाल हो गया था, बाल माथे पर चिपक गए थे और आंखों में बेचैनी झलक रही थी। उसके हाथ में अखबार का एक टुकड़ा था।

उसने बिना कुछ कहे वह टुकड़ा आदित्य की ओर बढ़ाया।

आदित्य ने कांपते हाथों से अखबार पकड़ा और देखा कि पीले मार्कर से उसका रोल नंबर घेरा गया था। उसकी आंखें यकीन करने से इनकार कर रही थीं।

वह पास हो गया था।

आखिरकार वह सपनों की उस मंज़िल तक पहुंच गया था जिसके लिए वह दिन-रात मेहनत कर रहा था। रिद्धिमा ने मुस्कुराते हुए उसकी ओर देखा और चुटकी ली, "अब तो मिठाई बनती है आदित्य।" आदित्य की आंखों में आंसू भर आए। उसने भावुक होकर उसका हाथ थाम लिया और कहा, "रिद्धिमा, तुम्हारे बिना शायद मैं ये मुकाम कभी हासिल नहीं कर पाता।" रिद्धिमा ने हल्की सी मुस्कान दी, अपना हाथ छुड़ाया और बाहर चली गई।

आदित्य का दिल उस पल अजीब सी खुशी और डर से भरा हुआ था। उसने अपनी जेब और कमरे के हर कोने में पैसे ढूंढे और कुल मिलाकर केवल 120 रुपये निकले। सोचने लगा कि इन पैसों में वह घर भी जा सकता है या भरपेट खाना भी खा सकता है।

तभी दरवाजे पर फिर दस्तक हुई।

इस बार रिद्धिमा हाथ में थाली लेकर आई थी।

थाली में तरह-तरह के स्वादिष्ट व्यंजन थे।

उसने बिना कुछ कहे थाली सामने रख दी।

आदित्य की आंखों से आंसू बह निकले।

उसने कहा, "रिद्धिमा, तुम्हारे एहसान का कर्ज मैं कभी नहीं उतार पाऊंगा।" रिद्धिमा ने उसके कंधे पर हाथ रखा और दृढ़ स्वर में बोली, "ये सब एहसान नहीं है आदित्य, ये मेरा प्यार है।" कुछ दिनों बाद आदित्य अपने गांव गया। उसका स्वागत ढोल-नगाड़ों और पटाखों के साथ हुआ।

पिता की आंखों में गर्व छलक रहा था।

गांव का हर बच्चा उसे आदर्श मानने लगा।

फिर ट्रेनिंग का बुलावा आया और आदित्य को जाना पड़ा।

ट्रेनिंग पूरी करने के बाद जब उसकी पोस्टिंग हुई, तो सबसे पहले वह मिर्जापुर लौटा। दिल में केवल एक ही नाम था रिद्धिमा।

वह मकान मालिक, यानी बाबूजी के घर पहुंचा।

आंखों में आंसू छिपाने के लिए उसने काले चश्मे पहन रखे थे। बाबूजी उसे देख भावुक हो गए।

आदित्य ने तुरंत पूछा, "बाबूजी, रिद्धिमा कहां है?" बाबूजी का चेहरा एकदम उतर गया। उन्होंने धीमी आवाज़ में कहा, "बेटा, जिस दिन उसकी शादी होनी थी, उससे एक दिन पहले वो घर से चली गई। जाने कहां... अक्सर उसे देखा था कि वो तुम्हारे रोल नंबर वाले अखबार के टुकड़े को सीने से लगाए रहती थी और कहती थी कि 'वो आएगा और मुझे ले जाएगा'।" आदित्य का दिल जैसे बिखर गया।

उसने बाबूजी से माफी मांगी और वहां से निकल पड़ा।

उसने कई साल तक रिद्धिमा को ढूंढा, लेकिन नाकाम रहा।

धीरे-धीरे उसने उम्मीद छोड़ दी।

समय बीतता गया।

एक दिन उसका बचपन का दोस्त कबीर उसे अपने घर पटना ले गया। कबीर चाहता था कि आदित्य अपनी थकान और अकेलेपन को भूल सके। कबीर की पत्नी ने आदित्य के लिए चाय लाई।

तभी रसोई से बर्तनों के गिरने की आवाज़ आई।

कबीर की पत्नी ने आवाज़ लगाई, "रिद्धिमा, ज़रा संभाल कर!" नाम सुनते ही आदित्य का दिल तेजी से धड़कने लगा। वह तुरंत रसोई की ओर दौड़ा।

वहां वही थी रिद्धिमा।

उसके हाथ में गीले बर्तन थे, और आंखों में आंसुओं की परछाईं। उसने नजरें उठाईं और आदित्य को देखा।

दोनों की आंखों में एक पल को सन्नाटा छा गया।

फिर रिद्धिमा धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ी।

दोनों की आंखों से आंसू बहने लगे।

लेकिन इस बार यह आंसू ग़म के नहीं, बल्कि खुशी और मिलन के थे। उस पल आदित्य ने महसूस किया कि वक्त कितना भी बेरहम क्यों न हो, सच्चा प्यार हर दीवार को तोड़ देता है। रिद्धिमा ने भी जाना कि जिसने उसके संघर्ष को अपनाया था, वह इंसान आखिरकार उसके पास लौट आया।

दोनों एक-दूसरे को देखते रहे जैसे आंखों के ज़रिए सालों की सारी बातें कह रहे हों। उनकी कहानी अधूरी नहीं रही, बल्कि वक्त ने इसे और भी गहरा और अमर बना दिया।

क्या आपने कभी सोचा है कि एक औरत जब मां बनती है, तो उसकी दुनिया किस तरह बदल जाती है? लोग कहते हैं कि बच्चे का जन्म सबसे ख...
17/08/2025

क्या आपने कभी सोचा है कि एक औरत जब मां बनती है, तो उसकी दुनिया किस तरह बदल जाती है? लोग कहते हैं कि बच्चे का जन्म सबसे खूबसूरत पल होता है, लेकिन असली जंग तो उसके बाद शुरू होती है।

मुंबई के अंधेरी इलाके की सुबह थी। घड़ी की सुई 8 बजा चुकी थी और घर के लैंडलाइन की घंटी लगातार बज रही थी। 32 वर्षीय अजय ने जल्दी से रिसीवर उठाया। दूसरी तरफ उसकी मां, सविता जी थीं।

"कैसा है तू अजय? और राधिका कहां है, जो तू उसका फोन लेकर बैठा है?" उनकी आवाज में सवालों का पहाड़ और थोड़ी नाराजगी छिपी हुई थी।

"मां, राधिका अभी सो रही है। उसकी तबीयत थोड़ी खराब है। सातवां महीना चल रहा है न, इसलिए रात भर बेचैन थी, नींद नहीं आई।"

यह सुनते ही सविता जी का पारा चढ़ गया। "क्या? आठ बज चुके हैं और घर की बहू अब भी बिस्तर पर है? अरे, हमारे जमाने में तो सातवें महीने तक खेतों में काम किया है। ये आजकल की लड़कियां तो बस बहाने ढूंढती हैं।"

अजय ने धीरे से कहा, "मां, अभी उसकी हालत ठीक नहीं है। आराम करने दो उसे।"

लेकिन सविता जी को यह सब समझाना आसान नहीं था। फोन कटने के बाद भी उनके मन में एक ही विचार घूम रहा था कि बहू घर संभालने लायक नहीं है।

समय बीता और नियत दिन पर राधिका ने एक स्वस्थ बेटे को जन्म दिया। खुशियों का माहौल था। और फिर तय समय पर सविता जी भी गांव से मुंबई आ गईं, पोते को देखने और संभालने।

आप सोच रहे होंगे कि अब राधिका को आराम मिला होगा। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। असल में तो राधिका के लिए असली परीक्षा अब शुरू हुई।

सिर्फ पंद्रह दिन बाद ही सविता जी ने फरमान सुना दिया। "अब बहू, तू उठकर काम संभाल। सुबह 7 बजे मुझे गरमा-गरम अदरक वाली चाय चाहिए। उसके बाद नाश्ता, दोपहर का खाना और रात का खाना सब तू ही बनाएगी। नौकर के हाथ का खाना मुझे नहीं जंचता।"

राधिका थोड़ी सकपकाई, पर कुछ बोली नहीं। उस पर बच्चे की जिम्मेदारी भी उसी पर थी। "जितना मां बच्चे को छुएगी, उतना ही लगाव बढ़ेगा," सविता जी कहतीं और फिर हर जिम्मेदारी राधिका पर डाल देतीं। मसाज से लेकर नैपी बदलने और नहलाने तक सब उसी को करना पड़ता।

धीरे-धीरे राधिका की हालत बिगड़ने लगी। नींद की कमी, पौष्टिक आहार का अभाव और लगातार काम ने उसकी ताकत छीन ली।

एक दिन उसने सुना कि सविता जी अपनी बहन से फोन पर कह रही थीं, "मैं ही सब कुछ करती हूं। राधिका को तो कुछ आता-जाता ही नहीं है। बच्चा और घर दोनों मेरे भरोसे हैं।"

उस पल राधिका का सब्र टूट गया। लेकिन उसने खुद को संभाला और तय किया कि वह स्थिति को समझदारी से बदलेगी।

शाम को जब अजय ऑफिस से लौटा, तो राधिका ने बड़ी शालीनता से कहा, "सुनो, मांजी से कहो अब गांव लौट जाएं। पापा जी अकेले होंगे, उन्हें भी उनकी जरूरत होगी।"

अजय ने थोड़ा झिझकते हुए कहा, "लेकिन मां तो सोचती हैं कि बच्चे को तू संभाल नहीं पाएगी।"

राधिका ने दृढ़ता से जवाब दिया, "मेरे बच्चे को मैं खुद संभाल सकती हूं। और अगर मुझे कोई दिक्कत हुई तो मैं मांजी से फोन पर पूछ लूंगी। अब तक उन्होंने बहुत मदद कर दी, अब उन्हें आराम करना चाहिए।"

अजय ने पहली बार राधिका की आंखों में वह आत्मविश्वास देखा, जो उसने शादी के बाद से कम ही देखा था। वह मुस्कुराया और बोला, "ठीक है। कल ही टिकट करवा देता हूं।"

अगले दिन सविता जी गांव लौट गईं। जाते वक्त वे थोड़ा आहत थीं, लेकिन राधिका ने इतनी विनम्रता से बात रखी थी कि उन्हें खुलकर विरोध करने का मौका ही नहीं मिला।

उस शाम अजय और राधिका बालकनी में बैठे थे। बच्चे की मासूम नींद और समंदर की लहरों की आवाज बीच में सुकून घोल रही थी। अजय ने आंखों-आंखों में राधिका का शुक्रिया अदा किया कि उसने इस मुश्किल को बिना किसी कलह के हल कर दिया।

राधिका ने मन ही मन सोचा कि जिंदगी तभी आसान होती है जब औरत खुद को कमजोर मानना बंद कर दे। और अब वह तय कर चुकी थी कि अपने बच्चे के साथ अपना जीवन अपनी शर्तों पर जिएगी।

क्या आपने कभी सोचा है कि एक ट्रेन का सफर किसी की पूरी ज़िंदगी बदल सकता है? कभी-कभी सफर सिर्फ़ मंज़िल तक पहुँचने का जरिया...
17/08/2025

क्या आपने कभी सोचा है कि एक ट्रेन का सफर किसी की पूरी ज़िंदगी बदल सकता है? कभी-कभी सफर सिर्फ़ मंज़िल तक पहुँचने का जरिया नहीं होता, बल्कि वो हमें ऐसी सच्चाइयों से रूबरू कराता है जो शायद हमें हमेशा के लिए सबक दे जाए। यही कहानी है मेरे साथ हुई, जो आज भी मेरे दिल में गहरे पैवस्त है।

सितंबर की 18 तारीख थी, मुझे लखनऊ से दिल्ली एक काम के सिलसिले में जाना था। ऑफिस का अचानक मीटिंग का कॉल आया और मैंने बिना देर किए तत्काल का टिकट बुक किया। ट्रेन का नाम थी शताब्दी एक्सप्रेस। मेरी बोगी में हल्की भीड़ थी और मैं अपनी स्लीपर सीट पर आराम से बैठा हुआ था। हाथ में एक मोटी सी किताब थी, जिसे पढ़ते-पढ़ते मैं पूरी तरह खो गया था।

करीब तीन घंटे गुजरने के बाद अचानक मेरी नजर सामने से आती हुई एक लड़की पर पड़ी। वह सलवार सूट पहने थी, गोरी रंगत, गहरी आँखें और हाथ में एक बैग। वो सीधे मेरी सीट के एक कोने पर आकर बैठ गई। उसके चेहरे पर एक अजीब-सी घबराहट साफ़ झलक रही थी। वो बार-बार इधर-उधर देख रही थी, जैसे कोई उसे पकड़ न ले या कहीं कोई उसे सीट से उतार न दे।

मैंने किताब बंद की और मुस्कुराते हुए उससे पूछा, “कहाँ जा रही हो?”
उसने हल्के स्वर में कहा, “दिल्ली।”
मैंने फिर पूछा, “और तुम्हारी सीट कहाँ है?”
वो हिचकिचाते हुए बोली, “मेरे पास जनरल टिकट है।”

मैंने धीरे से कहा, “ठीक है, अभी टीटी आएगा तो टिकट कन्फर्म करवा लेना। तब तक यहाँ बैठ जाओ, कोई दिक्कत नहीं है।”
उसकी आँखों में जैसे राहत की चमक आ गई। थोड़ी देर बाद टीटी आया, उसने उसका टिकट चेक किया और उसे स्लीपर का टिकट बना दिया लेकिन सीट नहीं दी। उसने साफ कहा कि कोई सीट खाली नहीं है।

हम दोनों बातचीत करने लगे। मैंने उससे पूछा, “पढ़ाई कर रही हो या काम?”
वो मुस्कुराकर बोली, “जी, मैं 12वीं क्लास में पढ़ती हूँ।”
मैंने कहा, “अच्छा, और घर में कौन-कौन हैं?”
उसने सहज होकर बताया, “मम्मी-पापा, भाई-बहन सब हैं।”

कुछ देर बाद उसने मोबाइल निकाला और उसमें सिमकार्ड डालकर किसी को कॉल किया। मैं बस इतना सुन पाया कि वह किसी को अपनी लोकेशन बता रही थी। मुझे लगा शायद अपने घरवालों से बात कर रही होगी।

मैंने पूछा, “पापा से बात कर रही थी क्या?”
उसने कहा, “नहीं, पापा तो गाँव में हैं।”
“तो फिर भाई?” मैंने फिर पूछा।
वो हल्के से मुस्कुराई और कहा, “नहीं… दरअसल… मैं शादी करने जा रही हूँ।”

मैं थोड़ा चौंका। “मतलब? अभी तुम्हारी शादी होने वाली है?”
वो धीमे स्वर में बोली, “हाँ, दो-तीन दिन में। दिल्ली में एक लड़का है, उससे। हम दोनों एक-दूसरे से प्यार करते हैं। वो वहाँ नौकरी करता है और बोला है मुझे भी नौकरी दिला देगा।”

मैंने उसकी आँखों में चमक देखी, लेकिन उसके भीतर छिपा डर भी साफ नज़र आ रहा था।
मैंने मुस्कुराते हुए कहा, “मैं भी प्रेम विवाह किया हूँ।”
वो तुरंत उत्सुक होकर बोली, “सच? आप भी घर से भागकर शादी किए थे?”

मैंने सिर हिलाकर कहा, “नहीं, मैंने लड़की को समझाया था कि भागकर शादी करने का मतलब माँ-बाप की इज्जत को ठेस पहुँचाना है। मैंने कहा था कि हम दोनों तभी शादी करेंगे जब हमारे घरवाले मानेंगे। और आखिरकार उन्होंने मान भी लिया।”

वो चुपचाप मेरी बातें सुन रही थी। मैंने धीरे से पूछा, “क्या तुम्हारे घरवाले उस लड़के को जानते हैं?”
उसने साफ कहा, “नहीं।”
“क्या तुमने उसका घर देखा है या उसके घरवाले तुमसे मिले हैं?”
वो थोड़ी असहज हो गई और बोली, “नहीं।”

मेरे मन में तुरंत एक शक आया। मैंने सीधे कहा, “ये लड़का तुम्हारे साथ खेल कर रहा है। तुम्हारे साथ धोखा होने वाला है।”
वो नाराज़ होकर बोली, “नहीं, ऐसा मत कहिए। वो मुझसे बहुत प्यार करता है।”

मैंने थोड़ी गंभीरता से कहा, “ठीक है, फिर एक टेस्ट कर लो। अगर वो सच्चा है तो सामने आ जाएगा।”
वो बोली, “कौन सा टेस्ट?”
मैंने कहा, “उसे फोन करो और बोलो कि तुम्हारे मम्मी-पापा मान गए हैं। अब वे शादी के लिए तैयार हैं और दिल्ली आ रहे हैं। साथ ही मामा-मामी भी वहीं हैं और सब लोग चाहते हैं कि शादी तुरंत कर दी जाए। उससे कहो कि वह भी अपने माँ-बाप को लेकर आ जाए।”

लड़की ने वैसा ही किया। उसने फोन मिलाया और लड़के को ये सारी बातें बताईं। दूसरी तरफ से लड़का भड़क उठा। उसने गुस्से में कहा, “तुम जैसी कितनी लड़कियाँ आईं और चली गईं। मुझे बेवकूफ समझा है क्या?” और फोन काट दिया।

लड़की ने दुबारा कॉल करने की कोशिश की लेकिन इस बार फोन स्विच ऑफ बता रहा था। उसके चेहरे पर सदमे का साया छा गया। उसकी आँखें भर आईं।

मैंने शांत स्वर में कहा, “देखा, यही असली सच है। ऐसे लोग अलग-अलग लड़कियों से बात करने के लिए अलग-अलग सिमकार्ड इस्तेमाल करते हैं। अगर तुम उसके पीछे जाती तो शायद तुम्हारी ज़िंदगी बर्बाद हो जाती।”

वो फूट-फूट कर रोने लगी। मैंने उसका कंधा थपथपाते हुए कहा, “रोना मत। अभी कुछ नहीं बिगड़ा है। तुम्हारे पास अभी भी घर है, माँ-बाप हैं। बस उन्हें सब सच बता दो।”

उसने कांपते हाथों से फोन निकाला और पापा को कॉल लगाया। जैसे ही कॉल लगी, दूसरी तरफ से आवाज़ आई, “बिटिया, कहाँ हो? हम सब तुम्हें ढूँढ रहे हैं। खाना-पीना छोड़ दिया है तुम्हारी चिंता में।”

वो रोते हुए बोली, “पापा, मुझसे गलती हो गई थी। लेकिन अब सब ठीक है। मैं कल घर आ जाऊँगी।”

उसके पापा की आवाज़ में राहत थी। मैंने देखा कि उस लड़की के चेहरे पर भी एक नई चमक लौट आई थी। अगले स्टेशन पर उसने मुझे धन्यवाद कहा और दूसरी ट्रेन से घर लौटने का फैसला किया।

उस दिन मुझे एक गहरी सीख मिली। बच्चों को इतना प्यार और भरोसा देना चाहिए कि वो अपने दिल की हर बात बिना डरे कह सकें। अगर हम उनकी बातें सुनें, समझें और सही दिशा दें, तो वे कभी गलत राह नहीं चुनेंगे।

अगर आप सोचते हैं कि शादी के बाद असली कहानियां खत्म हो जाती हैं तो ज़रा ठहर जाइए, क्योंकि असली ड्रामा तो तभी शुरू होता है...
17/08/2025

अगर आप सोचते हैं कि शादी के बाद असली कहानियां खत्म हो जाती हैं तो ज़रा ठहर जाइए, क्योंकि असली ड्रामा तो तभी शुरू होता है। और अगर आपने कभी किसी उत्तर भारतीय परिवार में शादी देखी है तो आपको पता होगा कि शादी का असली मज़ा विदाई के बाद शुरू होता है।

जनवरी की शुरुआती सुबह थी. लखनऊ के बाहरी इलाके में बसे पुराने से घर में कड़ाके की ठंड दस्तक दे चुकी थी। घड़ी में सात बज चुके थे लेकिन घर का माहौल अब भी सुस्त और नींद से भरा था। बीती रात परिवार की सबसे छोटी बेटी प्रज्ञा की शादी हुई थी और दुल्हन को विदा कर दिया गया था। बरामदे और कमरों में रिश्तेदार ऐसे पसरे पड़े थे जैसे किसी मेले के बाद बचे बिखरे सामान हों। कहीं से खर्राटों की आवाज़ आ रही थी तो कहीं से कंबल के अंदर से हंसी-दबी बातचीत की। लग रहा था जैसे खर्राटों की प्रतियोगिता चल रही हो और विजेता का फैसला होना बाकी हो।

घर की बुज़ुर्ग औरतें रज़ाई में दुबकी हुई चाय की चुस्कियाँ ले रही थीं। जो लड़कियाँ कल रात तक सज-धज कर इधर-उधर घूम रही थीं, वही अब सुबह उठकर बिना मेकअप, सूजी आँखों और अस्त-व्यस्त बालों के साथ पहचान में भी मुश्किल से आ रही थीं।

घर की बहुएँ, सुनयना और मीरा, सुबह से ही इधर-उधर भागदौड़ में लगी थीं। कोई गर्म पानी माँग रहा था तो कोई चाय। जो महाराज खाना बनाने आते थे, वो अभी तक पहुँचे ही नहीं थे। ऐसे में बहुओं की भाग-दौड़ ने उनकी सुबह की कसरत पूरी कर दी थी।

सभी को चाय बाँटने के बाद जब दोनों बहुएँ रसोई में जाकर खुद एक कप चाय लेकर बैठीं, तभी कंपकपाती हुई सास, सुनीता देवी, अंदर आईं। उन्होंने काँपती आवाज़ में कहा,
"अरे, तुम दोनों यहाँ बैठकर चाय पी रही हो? अभी तो कितना काम बाकी है।"

मीरा ने सहमते हुए कहा, "अम्मा जी, ठंड बहुत ज्यादा है। हाथ-पाँव सुन्न हो रहे हैं, सोचा पहले चाय पी लें तो थोड़ा गर्माहट मिल जाए।"

सुनीता देवी ने भौंहें चढ़ाते हुए कहा, "गर्माहट की पड़ी है तुम्हें? अभी तो रिश्तेदार रवाना होने लगेंगे। उनके लिए शगुन के लिफाफे और मिठाई के डिब्बे तैयार करने हैं। और हाँ, इस बार गलती मत करना। तीन तरह के डिब्बे बनाने हैं। पिछली बार की तरह मेरी नाक मत कटवाना।"

यह सुनकर मीरा ने हैरानी से पूछा, "तीन तरह के डिब्बे? मतलब?"

सुनीता देवी ने तुनकते हुए कहा, "छोटी बहूरिया, तुझे क्या पता! बड़ी बहू से पूछ ले। उसने तेरी शादी में ये सब किया था। बस लापरवाही मत करना।"

इतना कहकर वो वापस अपने कंबल में दुबक गईं।

मीरा ने सुनयना की तरफ देखा। सुनयना ने धीमे से मुस्कुराते हुए कहा, "चल, कोठरी में चलते हैं। वहीं सब सामान रखा होगा।"

दोनों कोठरी पहुँचीं। ताला खोला और दरवाज़ा बंद करके अंदर घुसीं तो देखा कि वहाँ तीन आकार के खाली मिठाई के डिब्बे रखे हुए थे। सुनयना ने कहा, "मीरा, तू ज़मीन पर दरी बिछा। मैं लड्डू और मठरी ले आती हूँ।"

कुछ ही देर में सुनयना दोनों बर्तनों के साथ लौटी। मीरा उत्साह से बोली, "जीजी, मुझे भी बताओ कैसे करना है।"

सुनयना ने बड़े धैर्य से पहले तीन डिब्बे तैयार किए। सबसे बड़े डिब्बे में दस लड्डू और दस मठरी, मझोले डिब्बे में पाँच-पाँच, और सबसे छोटे में दो-दो रख दिए। फिर मुस्कुराते हुए मीरा से पूछा, "समझ गई?"

मीरा ने सिर हिलाया और बोली, "जीजी, काम तो समझ में आ गया लेकिन ये तीन तरह क्यों? और हलवाई से ही पैक क्यों नहीं कराए?"

सुनयना हल्की हँसी के साथ बोली, "अरे भोली! हलवाई से पैक कराएँ तो खर्चा ज़्यादा होता है। अम्मा जी को पैसा बचाना है। और डिब्बे अलग-अलग इसलिए कि मेहमान भी अलग-अलग तरह के होते हैं। खास रिश्तेदारों को बड़ा डिब्बा, सामान्य जान-पहचान वालों को मझोला, और दूर-दराज़ के औपचारिक रिश्तेदारों को छोटा।"

मीरा ने उत्सुकता से पूछा, "और आपके मायके वालों को?"

यह सुनकर सुनयना का चेहरा एक पल को गंभीर हो गया। उसने धीरे से कहा, "मेरी सबसे बड़ी गलती तो यही थी। जब मेरी शादी के बाद मेरे मायके वाले यहाँ आए थे तो अम्मा जी ने कहा था उन्हें छोटा डिब्बा देना। लेकिन मुझे शर्म आई और मैंने अपनी मर्ज़ी से बड़ा डिब्बा दे दिया। उसी दिन से अम्मा जी मुझे लापरवाह मानती हैं। तीन दिन मुझसे बात तक नहीं की और मन ही मन कोसती रहीं।"

मीरा ने सहानुभूति से कहा, "पर घर में किसी ने कुछ नहीं कहा?"

सुनयना हँस पड़ी, "कौन कहेगा? अम्मा जी सबके सामने मीठी बनी रहती हैं। असली ताने तो अकेले में सुनाती हैं।"

मीरा ने मन ही मन सोचा कि अब वो गलती नहीं दोहराएगी।

दोनों बहुओं ने मिलकर सभी डिब्बे पैक कर दिए। अब रिश्तेदारों की विदाई शुरू हुई। सुनीता देवी बिस्तर पर बैठी-बैठी ही शगुन और डिब्बे दे रही थीं, लेकिन मिठाई उठाने और देने का काम मीरा को सौंप दिया था।

कुछ ही देर बाद सुनयना के मायके से उसके भाई और भाभी विदा होने आए। सुनीता देवी ने इशारा किया कि मीरा छोटा डिब्बा दे। लेकिन मीरा की आँखों में शरारती चमक थी। उसने एक बड़ा थैला उठा लिया जिसमें चार बड़े मिठाई के डिब्बे और विदाई के कपड़े रखे थे। उसने साथ ही नारियल और 51 रुपये निकालकर सुनयना को पकड़ा दिए।

मीरा बोली, "लो जीजी, अपने भाइयों को तिलक करके विदा करो। ससुराल की इज्ज़त यही है। देखो, अम्मा जी ने भी अपने मायके वालों को सम्मान देकर भेजा है। अब आपकी बारी है।"

सुनयना अवाक खड़ी थी। सुनीता देवी का चेहरा गुस्से से लाल हो गया लेकिन वहाँ बैठे रिश्तेदारों के सामने वो कुछ कह नहीं पाईं।

ससुर, राजेंद्र प्रसाद, हँसते हुए बोले, "अरे बड़ी बहू, अब देर मत करो। जल्दी अपने भाई-भाभी को विदा करो, वरना उनकी गाड़ी छूट जाएगी।"

सुनयना ने भावुक होकर तिलक किया और उन्हें विदा किया।

मीरा वहीं खड़ी मुस्कुरा रही थी। उसने साहस दिखाकर ससुराल की मर्यादा निभाई थी। सुनीता देवी के गुस्से का ताप कुछ दिनों तक रहा, लेकिन मीरा ने यह साफ़ कर दिया था कि वो सिर्फ आदेश मानने वाली बहू नहीं, बल्कि Smart और समझदार भी है।

क्या आपने कभी सुना है कि किसी साधारण लड़की ने अपनी बुद्धिमानी और हिम्मत से पूरे परिवार की तकदीर बदल दी हो? यह सिर्फ कहान...
17/08/2025

क्या आपने कभी सुना है कि किसी साधारण लड़की ने अपनी बुद्धिमानी और हिम्मत से पूरे परिवार की तकदीर बदल दी हो? यह सिर्फ कहानी नहीं, बल्कि एक ऐसी दास्तान है जो यह साबित करती है कि सही सोच और थोड़ी सी समझदारी से जर्जर झोपड़ी भी खुशियों का आँगन बन सकती है। यह दास्तान है आरती की, जिसने अपने छोटे से घर को उम्मीदों का महल बना दिया।

उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गाँव में, करीब पचास साल पहले, रघुनाथ नाम का एक जमींदार रहता था। उसके पास सैकड़ों बीघे जमीन थी। उसकी शान-शौकत गाँव भर में चर्चित थी। बड़े-बड़े बैलगाड़े, खलिहानों में भरे अनाज के ढेर और हवेली के बाहर खड़े दर्जनों नौकर, यह सब उसकी रियासत का हिस्सा थे। गाँव वाले उसे मालिक कहकर बुलाते और उसके आदेश का पालन करना अपना कर्तव्य समझते।

उसी गाँव की बस्ती में गिरधारी नाम का एक साधारण किसान मजदूरी करता था। वह विधुर था। कई साल पहले उसकी पत्नी का देहांत हो गया था और उसके बाद से ही वह अपने चार बेटों को अकेले पाल रहा था।

उसकी झोंपड़ी कच्ची मिट्टी और फूस से बनी थी, बरसात में छत टपकती थी और गर्मी में अंदर भट्ठी जैसा माहौल रहता था। गिरधारी और उसके बेटे जमींदार के खेतों में दिन-रात मेहनत करते और बदले में उन्हें मजदूरी के तौर पर अनाज, चना और थोड़ा गुड़ मिलता। यही उनका जीवन था।

गिरधारी का बड़ा बेटा करण जवान हो चुका था। गाँव के बुजुर्गों ने उसे सलाह दी कि अब करण की शादी कर देनी चाहिए ताकि घर का बोझ थोड़ा हल्का हो सके। कुछ महीनों बाद ही शादी तय हुई और एक दिन घर में आरती बहू बनकर आई।

गाँव की बस्ती में उस दिन खूब हलचल थी। लोग नई बहू को देखने के लिए झोंपड़ी के बाहर जमा हो गए। जब सब चले गए तो आरती ने पहली बार अपना घूँघट उठाया और अपने नए घर को देखा। टूटी दीवारें, जगह-जगह रखे फटे बर्तन, और बाहर बने अलग-अलग पाँच चूल्हे। हर चूल्हा एक बेटे का था, और सब अपने-अपने हिसाब से खाना पकाते थे। यह नज़ारा देखकर आरती का दिल बैठ गया। उसके मन में सवाल उठे कि वह ऐसे घर में कैसे खुश रह पाएगी।

उसकी आँखों से आँसू बह निकले। उसे लगा कि काश वह अपने मायके लौट जाती, लेकिन वह जानती थी कि वहाँ भी कोई सुख नहीं है। माँ अब दुनिया में नहीं थी और भाई-भाभी के घर में उसका सम्मान बस नाम का होता। उसने खुद को संभाला और ठान लिया कि चाहे हालात कैसे भी हों, वह इस घर को बदलकर रहेगी।

अगली ही सुबह उसने अपना पहला कदम उठाया। वह पास की बूढ़ी औरत अम्मा शांति के घर गई और बोली, “अम्मा, मुझे एक झाड़ू चाहिए, और अगर गोबर और मिट्टी भी मिल जाए तो दे दीजिए।” अम्मा ने उसे सब दिया और मदद के लिए अपनी पोती को भी भेज दिया।

आरती ने लौटकर झोंपड़ी की सफाई की। फिर पाँच चूल्हों में से चार तोड़ दिए और सिर्फ एक चूल्हा छोड़ा। शुरू में घर के सब लोग नाराज हुए। करण के भाई चिल्लाने लगे कि यह बहू आते ही सबका हिस्सा खत्म कर रही है। लेकिन आरती ने शांत स्वर में कहा, “आप सब हाथ-मुँह धोकर बैठ जाइए, मैं खाना परोसती हूँ।”

उस शाम पहली बार झोंपड़ी में एक ही चूल्हे पर बनी रोटियाँ, साग और चटनी की महक फैली। सब हैरान रह गए कि गुड़ और चने के साथ भी खाना इतना स्वादिष्ट हो सकता है। धीरे-धीरे सबको समझ में आने लगा कि आरती का तरीका बेहतर है।

दिन बीतने लगे। आरती ने सभी को सिखाया कि मजदूरी के अनाज में से थोड़ा-थोड़ा अलग रखा जाए और बाकी को मिलाकर ज़रूरत का सामान खरीदा जाए। छोटे देवर से वह लकड़ी लाने को कहती, तो दूसरे से कहती कि वह घर के लिए सब्ज़ियाँ ले आए। धीरे-धीरे घर का ढर्रा बदलने लगा। झोंपड़ी जो पहले बिखरी-बिखरी लगती थी, अब सँवरी-सँवरी नजर आने लगी।

गाँव में आरती की चर्चा होने लगी। लोग कहते, “देखो, यह लड़की आई और गिरधारी का घर बदलकर रख दिया।”

एक दिन जमींदार रघुनाथ खुद बस्ती में आया। उसने देखा कि गिरधारी की झोंपड़ी अब पहले से बेहतर हो गई है। घर में एक चूल्हा है और सब मिलकर खाते हैं। उसे यह बदलाव अचरज में डाल गया। उसने आरती को बुलाया और उसकी बुद्धिमानी की तारीफ करते हुए एक सोने का हार भेंट किया।

लेकिन आरती ने मुस्कुराते हुए कहा, “मालिक, यह हार मेरे किसी काम का नहीं। अगर आप सचमुच हमारी मदद करना चाहते हैं, तो इस झोंपड़ी के पास की दो लाठी जमीन हमें दे दीजिए ताकि हम एक मजबूत कोठरी बना सकें।”

जमींदार उसकी चतुराई देखकर हँस पड़ा और बोला, “तुम सच में बड़ी समझदार हो। यह जमीन गिरधारी की होगी और यह हार भी तुम्हारा है।”

उस दिन के बाद से गिरधारी का परिवार और भी खुशहाल होने लगा। अब झोंपड़ी में सिर्फ एक ही चूल्हा था, लेकिन उसमें पकता भोजन पूरे परिवार को जोड़कर रखता था। आरती की सूझबूझ और उसकी हिम्मत ने घर की किस्मत बदल दी थी।

गाँव की औरतें अक्सर आरती से सलाह लेने आतीं। वह सबको कहती, “घर छोटा हो या बड़ा, उसमें प्यार और एकता हो तो खुशियाँ अपने आप चली आती हैं।”

आरती की यह बात धीरे-धीरे गाँव की पहचान बन गई। उसके साहस और समझदारी की कहानियाँ पीढ़ियों तक सुनाई जाने लगीं।

क्या आपने कभी सोचा है कि कुछ मुलाकातें ज़िंदगी भर के लिए दिल पर दस्तक दे जाती हैं, चाहे वक्त कितना भी क्यों न गुजर जाए? ...
17/08/2025

क्या आपने कभी सोचा है कि कुछ मुलाकातें ज़िंदगी भर के लिए दिल पर दस्तक दे जाती हैं, चाहे वक्त कितना भी क्यों न गुजर जाए? कुछ लम्हे ऐसे होते हैं जो कभी पुरानी यादों की तरह धुंधले नहीं होते, बल्कि और गहरे होकर दिल की जड़ों तक समा जाते हैं। अगर आपके साथ भी ऐसा कुछ हुआ है, तो आप इस कहानी को पढ़कर खुद को इसमें ज़रूर देखेंगे।

साल 2015, मुंबई का महीना था जुलाई का। बारिश उन दिनों शहर की गलियों में यूं उतरती थी जैसे हर कोना किसी फिल्म का सेट हो। सड़कों पर पानी का बहाव, चाय की दुकानों से उठती भाप, और समंदर की ओर से आती ठंडी हवाएं। यही बारिश एक ऐसी दास्तां लेकर आई जो शुरू तो हुई, लेकिन पूरी कभी न हो सकी।

विक्रम, 27 साल का एक लेखक, जिसकी दुनिया किताबों और कहानियों में सिमटी हुई थी। उसकी आँखों में हमेशा एक बेचैनी झलकती थी, जैसे वो किसी ऐसे पन्ने की तलाश में हो जिसे अब तक लिखा ही न गया हो। उसी दौरान उसकी राहों में आई रिया। 25 साल की, स्मार्ट, बोल्ड और उतनी ही आत्मविश्वासी जितनी एक आधुनिक लड़की को होना चाहिए। रिया एक एडवरटाइजिंग एजेंसी में काम करती थी, उसके पास सपनों की कमी नहीं थी। उसने खुद को अपने करियर, अपने स्टाइल और अपनी बात रखने के अंदाज़ से हमेशा भीड़ से अलग साबित किया।

उनकी पहली मुलाकात अचानक हुई। विक्रम किताब लेने “फोर्ट” इलाके की पुरानी लाइब्रेरी गया था। बारिश शुरू हो चुकी थी और सड़कों पर भीड़ छतरियों के नीचे सिमट गई थी। वहीं लाइब्रेरी की सीढ़ियों पर रिया खड़ी थी, काले रंग की ड्रेस में, बालों में हल्की नमी और हाथ में कॉफी का कप। उसकी मुस्कान में एक अजीब सा आत्मविश्वास था। विक्रम ने पहली नज़र में ही महसूस किया कि ये कोई आम मुलाकात नहीं है।

वो दोनों एक ही छज्जे के नीचे बारिश थमने का इंतज़ार कर रहे थे। एक अजीब सी खामोशी थी, लेकिन उस खामोशी में ही जैसे सैकड़ों बातें छिपी हों। रिया ने पहले बात शुरू की।
“आप भी बारिश से बचने आए हैं या किताबों से मोहब्बत करने?” उसकी आवाज़ में शरारत थी।
विक्रम ने हँसते हुए कहा, “दोनों से ही… बारिश से भी और किताबों से भी।”

उस दिन उन्होंने बस कुछ बातें कीं, लेकिन उन बातों का असर इतना गहरा था कि दोनों को लगा जैसे बरसों से एक-दूसरे को जानते हों। अगले कुछ हफ्तों में वो बार-बार एक-दूसरे से टकराने लगे। कभी कैफ़े में, कभी उसी लाइब्रेरी में, कभी किसी आर्ट गैलरी में। धीरे-धीरे मुलाकातें बढ़ने लगीं।

रिया अलग थी। वो सिर्फ बोल्ड कपड़े पहनकर या खुलकर हँसने वाली लड़की नहीं थी। वो अपने फैसलों को खुलकर जीने वाली थी। ऑफिस की पार्टियों में सबको हँसी में बांध लेना उसके लिए आम था, लेकिन दिल की गहराइयों में वो भी किसी अपने की तलाश में थी जो उसे उसके असली रूप में समझ सके। विक्रम को उसमें वही सच्चाई दिखी, और रिया को विक्रम की चुप्पी में एक अजीब सा सुकून।

एक शाम, जब बारिश शहर को फिर से भीगा रही थी, विक्रम ने उसे मरीन ड्राइव पर बुलाया। दोनों पत्थरों पर बैठे थे और समंदर की लहरें जैसे उनकी बेचैनी को आवाज़ दे रही थीं। विक्रम ने अपनी जेब से एक छोटा सा कागज़ निकाला और रिया के हाथ में रख दिया। उसमें लिखा था, “तुम मेरी कहानी का वो हिस्सा हो जिसे मैं सबसे ज़्यादा जीना चाहता हूँ, लेकिन डरता हूँ कि ये कहानी अधूरी न रह जाए।”

रिया ने उस कागज़ को पढ़कर उसकी आँखों में देखा और बिना कुछ कहे मुस्कुरा दी। वो मुस्कान साधारण नहीं थी, उसमें अपनापन, मोहब्बत और थोड़ा सा डर भी था।

दिन गुजरते गए। दोनों की दुनिया एक-दूसरे में घुलने लगी। सुबह की चाय, शाम की मुलाकातें, देर रात की बातें, और शहर के हर कोने में उनके कदमों के निशान। लेकिन ज़िंदगी हमेशा उतनी आसान नहीं होती जितनी हम चाहें।

रिया की ज़िंदगी में एक साया था। उसके घरवालों ने उसकी शादी सालों पहले ही तय कर दी थी। उसका मंगेतर लंदन में काम करता था और परिवार इस रिश्ते को तोड़ना नहीं चाहता था। रिया जानती थी कि उसका परिवार परंपरा और रिश्तों के बोझ से बंधा है। वो खुद बोल्ड थी, अपने फैसले खुद लेने वाली, लेकिन जब बात अपने माता-पिता की आई, तो उसके कदम डगमगा गए।

विक्रम ये सब समझता था। वो जानता था कि रिया को मजबूर करना आसान है, लेकिन उसे परिवार के खिलाफ खड़ा कर देना जिंदगी भर का बोझ होगा। एक रात उसने रिया को मिलने बुलाया। मरीन ड्राइव पर वही बारिश हो रही थी जैसी उनकी पहली मुलाकात में थी। उसने रिया की हथेली में एक कागज़ रखा और कहा, “ये मेरा आखिरी खत है, इसे तब पढ़ना जब मैं तुम्हारी दुनिया से बहुत दूर चला जाऊं।”

रिया ने रोते हुए उसे रोकना चाहा, लेकिन विक्रम सिर्फ इतना कहकर चला गया, “कुछ मोहब्बतें पूरी नहीं होतीं, लेकिन उनका एहसास हमेशा ज़िंदा रहता है।”

दो दिन बाद खबर आई कि विक्रम शहर छोड़कर चला गया है। किसी को नहीं पता था कि वो कहाँ गया। रिया ने वो खत खोला और उसमें सिर्फ एक पंक्ति लिखी थी, “अगर अगले जन्म में हम मिले, तो मैं तुम्हारा नाम लेने से पहले एक दिन भी इंतज़ार नहीं करूंगा।”

समय बीतता गया। रिया की शादी हो गई। उसका पति एक अच्छा इंसान था, लेकिन विक्रम जैसा नहीं। कुछ रिश्ते निभाने के लिए होते हैं, और कुछ दिल में बसने के लिए। रिया ने अपनी जिंदगी को संभाला, लेकिन दिल के किसी कोने में विक्रम और वो बारिश हमेशा ज़िंदा रहे।

सालों बाद, शहर में एक आर्ट एग्ज़ीबिशन लगी। रिया अपनी सहेली के साथ वहाँ गई। दीवार पर टंगी एक पेंटिंग ने उसके कदम रोक दिए। पेंटिंग में वही पुरानी लाइब्रेरी की सीढ़ियाँ थीं, वही छज्जा, और वही बारिश। पेंटिंग के कोने में छोटे अक्षरों में लिखा था, “कुछ मोहब्बतें पूरी नहीं होतीं, पर उनका एहसास हमेशा ज़िंदा रहता है।”

रिया का दिल तेज़ी से धड़कने लगा। उसने नीचे कलाकार का नाम देखा — “Vikram Sethi।” उसने आयोजक से पूछा, “क्या वो यहाँ हैं?” आयोजक ने मुस्कुराकर कहा, “हाँ, कोने में साइन कर रहे हैं।”

रिया ने नजर दौड़ाई और देखा, वो वही था। थोड़ा बदला हुआ, बालों में सफेदी, आँखों में गहराई, लेकिन मुस्कान वही थी। उनकी नज़रें मिलीं और वक्त जैसे थम गया।

विक्रम धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ा और कहा, “तुम वही हो, मेरी कहानी का सबसे खूबसूरत हिस्सा।” रिया की आँखें भर आईं और उसने फुसफुसाकर कहा, “और तुम, मेरी अधूरी दुआ।”

उस शाम दोनों ने कॉफ़ी पर बातें कीं, हँसे और रोए भी। लेकिन दोनों जानते थे कि ये मुलाकात भी आखिरी थी। जाते-जाते विक्रम ने कहा, “इस बार खत नहीं लिखूंगा, क्योंकि इस बार तुम मेरे सामने हो।”

रिया ने उसकी आँखों में देखा और समझ गई कि कुछ रिश्ते हमेशा अधूरे ही खूबसूरत लगते हैं।

और शायद मोहब्बत का सबसे सच्चा रूप वही होता है जब वो पूरी न हो।

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