20/07/2025
#आध्यात्मिक_ज्ञान_गंगा_Part31 के आगे पढ़िए .....)
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#आध्यात्मिक_ज्ञान_गंगा_Part32
"पवित्र ऋग्वेद में सृष्टि रचना का प्रमाण"
मण्डल 10 सुक्त 90 मंत्र 1
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्ष सहस्रपात् ।
स भूमिं विश्वतों वृत्वात्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ।।। ।।
संधिछेद- सहस्रशिर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् स भूमिम् विश्वत वृत्वा अत्यातिष्ठत् दशंगुलम् । (1)
अनुवाद - (पुरूषः) विराट रूप काल भगवान अर्थात् क्षर पुरुष (सहस्रशिर्षा) हजार सिरों वाला (सहस्राक्षः) हजार आँखों वाला (सहस्रपात्) हजार पैरों वाला (स) वह काल (भूमिम्) पृथ्वी वाले इक्कीस ब्रह्मण्डों को (विश्वतः) सब ओर से (दशंगुलम्) दसों अगुलियों से अर्थात् पूर्ण रूप से काबू किए हुए (वृत्वा) गोलाकार घेरे में घेर कर (अत्यातिष्ठत्) इस से बढ़कर अर्थात् अपने काल लोक में सबसे न्यारा भी इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में ठहरा है अर्थात् रहता है।
भावार्थ :- इस मंत्र में विराट (काल-ब्रह्म) का वर्णन है। (गीता अध्याय 10-11 में भी इसी काल-ब्रह्म का ऐसा ही वर्णन है गीता अध्याय 11 श्लोक 46 में अर्जुन ने कहा है कि हे सहस्रबाहु अर्थात् हजार भुजा वाले आप अपने चतुर्भुज में दर्शन दीजिए। क्योंकि अर्जुन काल का वास्तविक रूप भी आँखों देख रहा था तथा अपनी बुद्धि से उसे कृष्ण अर्थात् विष्णु मान रहा था) जिसके हजारों हाथ, पैर, हजारों आँखे, कान आदि हैं वह विराट रूप काल प्रभु अपने आधीन सर्व प्राणियों को पूर्ण काबू करके अर्थात् 20 ब्रह्मण्डों को गोलाकार परिधी में रोककर स्वयं इनसे ऊपर (अलग) इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में बैठा है।
मण्डल 10 सुक्त 90 मंत्र 2
पुरूष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम् ।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति
संधिछेद :- पुरुष एव इदम् सर्वम् यत् भूतम् यत् च भाव्यम् उत अमृतत्वस्य इशानः यत् अन्नेन अतिरोहति ।
अनुवाद :- (एव) परब्रह्म ही कुछ (पुरुष) भगवान जैसे लक्षणों युक्त है (च) और (इदम्) इस के लोक में यह - (यत्) जो (भूतम्) उत्पन्न हुआ है (यत्) जो (भाव्यम्) भविष्य में होगा (सर्वम्) सब (यत्) प्रयत्न से अर्थात् मेहनत द्वारा (अन्नेन) अन्न से (अतिरोहति) विकसित होता है। यह अक्षर पुरूष भी (उत) सन्देह युक्त (अमृतत्वस्य) मोक्ष का - (इशानः) स्वामी है। अर्थात् भगवान तो अक्षर पुरुष भी कुछ सही है परन्तु पूर्ण मोक्ष दायक नहीं है।
भावार्थ :- इस मंत्र में परब्रह्म (अक्षर पुरुष) का विवरण है जो कुछ भगवान वाले लक्षणों से - युक्त है, परन्तु इसकी भक्ति से भी पूर्ण मोक्ष नहीं है, इसलिए इसे संदेहयुक्त मुक्ति दाता कहा है। इसे कुछ प्रभु के गुणों युक्त इसलिए कहा है कि यह काल की तरह तप्तशिला पर भून कर - नहीं खाता। परन्तु इस परब्रह्म के लोक में भी प्राणियों को परिश्रम करके कर्माधार पर ही प्राप्त - होता है तथा अन्न से ही सर्व प्राणियों के शरीर विकसित होते हैं, जन्म तथा मृत्यु का समय भले ही काल (क्षर पुरुष) से अधिक है, परन्तु फिर भी उत्पत्ति प्रलय तथा चौरासी लाख योनियों में यातना बनी रहती है।
मण्डल 10 सुक्त 90 मंत्र 3
एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पुरुषः ।
पादोस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ।। 3 ।।
संधिछेद :- एतावान अस्य महिमा अतः ज्यायान् च पुरुषः पादः अस्य विश्वा भूतानि त्रि पाद् अस्य अमृतम् दिवि। (3)
अनुवाद :- (अस्य) इस अक्षर पुरुष अर्थात् परब्रह्म की तो (एतावान्) इतनी ही (महिमा) प्रभुता है। (च) तथा (पुरुषः) वह परम अक्षर ब्रह्म अर्थात् पूर्ण ब्रह्म परमेश्वर तो (अतः) इससे भी (ज्यायान्) बड़ा है (विश्वा) समस्त - (भूतानि) क्षर पुरुष तथा अक्षर पुरूष तथा इनके लोकों में तथा सत्यलोक तथा इन लोकों में जितने भी प्राणी है (अस्य) इस पूर्ण परमात्मा परम अक्षर पुरूष का (पादः) एक पैर मात्र है अर्थात् एक अंश मात्र है। (अस्य) इस परमेश्वर के (त्रि) तीन (दिवि) दिव्य लोक जैसे सत्यलोक - अलख लोक - अगम लोक (अमृतम्) अविनाशी (पाद्) दूसरा पैर है अर्थात् जो भी सर्व ब्रह्मण्डों में उत्पन्न है वह सत्यपुरुष पूर्ण परमात्मा का ही अंश अर्थात् उन्हीं की रचना है।
भावार्थ :- इस उपरोक्त मंत्र 2 में वर्णित अक्षर पुरुष (परब्रह्म) की तो इतनी ही महिमा है तथा वह पूर्ण पुरुष कविर्देव तो इससे भी बड़ा है अर्थात् सर्वशक्तिमान है तथा सर्व ब्रह्मण्ड उसी के अंश मात्र पर ठहरे हैं। इस मंत्र में तीन लोकों का वर्णन इसलिए है क्योंकि चौथा अनामी (अनामय) लोक अन्य रचना से पहले का है। यही तीन प्रभुओं (क्षर पुरुष-अक्षर पुरुष तथा इन दोनों से अन्य परम अक्षर पुरूष) का विवरण श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 15 संख्या 16-17 में तथा गीता अध्याय 7 श्लोक 24-25 तथा गीता अध्याय 8 श्लोक 18 से 22 में भी है इस प्रकार तीन अव्यक्त प्रभु हैं (इसी का प्रमाण आदरणीय गरीबदास साहेब जी कहते हैं कि गरीब, जाके अर्ध रूम पर सकल पसारा, ऐसा पूर्ण ब्रह्म हमारा।।
गरीब, अनन्त कोटि ब्रह्मण्ड का, एक रति नहीं भार।
सतगुरु पुरुष कबीर हैं, कुल के सृजनहार ।।
इसी का प्रमाण आदरणीय दादू साहेब जी कह रहे हैं कि :-
जिन मोकुं निज नाम दिया, सोई सतगुरु हमार।
दादू दूसरा कोए नहीं, कबीर सृजनहार।।
इसी का प्रमाण आदरणीय नानक साहेब जी देते हैं कि:
यक अर्ज गुफतम पेश तो दर कून करतार। हक्का कबीर करीम तू, बेएब परवरदिगार।।
(श्री गुरु ग्रन्थ साहेब, पृष्ठ नं. 721, महला 1, राग तिलंग)
कून करतार का अर्थ होता है सर्व का रचनहार, अर्थात् शब्द शक्ति से सर्व रचना करने के कारण शब्द स्वरूपी प्रभु। हक्का कबीर का अर्थ है सत् कबीर, करीम का अर्थ दयालु, परवरदिगार का अर्थ सर्व सुखदाई परमात्मा है।]
मण्डल 10 सुक्त 90 मंत्र 4
त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरूषः पादोस्येहाभवत्पुनः । ततो विष्व ङ्व्यक्रामत्साशनानशने अभि ।। 4 ।।
संधिछेद :- त्रि पाद ऊर्ध्वः उदैत् पुरुषः पादः अस्य इह अभवत् पूनः ततः विश्वङ् व्यक्रामत् सः अशनानशने अभि। (4)
अनुवाद :- (पुरुषः) यह परम अक्षर ब्रह्म अर्थात् अविनाशी परमात्मा (ऊर्ध्वः) ऊपर (त्रि) तीन लोक जैसे सत्यलोक-अलख लोक अगम लोक रूप (पाद) पैर अर्थात् ऊपर के हिस्से में (उदैत्) प्रकट होता है अर्थात् विराजमान है (अस्य) इसी परमेश्वर पूर्ण ब्रह्म का (पादः) एक पैर अर्थात् एक हिस्सा जगत रूप (पुनर्) फिर (इह) यहाँ (अभवत्) प्रकट होता है (ततः) इसलिए (सः) वह अविनाशी पूर्ण परमात्मा (अशनानशने) खाने वाले काल अर्थात् क्षर पुरूष व न खाने वाले परब्रह्म अर्थात् अक्षर पुरूष के भी (अभि) ऊपर (विश्वङ) सर्वत्र (व्यक्रामत्) व्याप्त है अर्थात् उसकी प्रभुता सर्व ब्रह्माण्डों व सर्व प्रभुओं पर है वह कुल का मालिक है। जिसने अपनी शक्ति को सर्व के ऊपर फैलाया है।
भावार्थ :- यही सर्व सृष्टी रचनहार प्रभु अपनी रचना के ऊपर के हिस्से में तीनों स्थानों (सतलोक, अलखलोक, अगमलोक) में तीन रूप में स्वयं प्रकट होता है अर्थात् स्वयं ही विराजमान है। यहाँ अनामी लोक का वर्णन इसलिए नहीं किया क्योंकि अनामी लोक में कोई रचना नहीं है तथा अनामी अर्थात् अकह लोक अन्य रचना से पूर्व का है। फिर कहा है कि उसी परमात्मा के सत्यलोक से बिछुड़ कर नीचे के ब्रह्म व परब्रह्म के लोक उत्पन्न होते हैं और वह पूर्ण परमात्मा खाने वाले ब्रह्म अर्थात् काल से (क्योंकि ब्रह्म/काल विराट शाप वश एक लाख मानव शरीर धारी प्राणियों को खाता है) तथा न खाने वाले परब्रह्म अर्थात् अक्षर पुरुष से (परब्रह्म प्राणियों को खाता नहीं, परन्तु जन्म-मृत्यु, कर्मदण्ड ज्यों का त्यों बना रहता है) भी ऊपर सर्वत्र व्याप्त है अर्थात् इस पूर्ण परमात्मा की प्रभुता सर्व के ऊपर है, कबीर परमेश्वर ही कुल का मालिक है। जिसने अपनी शक्ति को सर्व के ऊपर फैलाया है जैसे सूर्य अपने प्रकाश को सर्व के ऊपर फैला कर प्रभावित करता है, ऐसे पूर्ण परमात्मा ने अपनी शक्ति रूपी रेंज (क्षमता) को सर्व ब्रह्मण्डों को नियन्त्रित रखने के लिए सर्व ओर छोड़ा हुआ है। जैसे मोबाइल फोन का टावर एक देशीय होते हुए अपनी शक्ति अर्थात् मोबाइल फोन की रेंज (क्षमता) सर्वत्र अपनी सीमा में फैलाए रहता है। इसी प्रकार पूर्ण परमात्मा ने अपनी निराकार शक्ति को सर्वव्यापक किया है। जिससे पूर्ण परमात्मा सर्व ब्रह्मण्डों को एक स्थान पर बैठ कर नियन्त्रित रखता है।
उपरोक्त तीन प्रभुओं (1. क्षर पुरुष अर्थात् ब्रह्म, 2. अक्षर पुरूष अर्थात् परब्रह्म 3. परम अक्षर पुरूष अर्थात् पूर्ण ब्रह्म का प्रमाण पवित्र श्रीमद्भगवत्गीता अध्याय 15 श्लोक 16-17 तथा अध्याय 8 श्लोक 1 तथा 3 में भी है। क्योंकि श्रीमद्भगवत् गीता जी पवित्र चारों वेदों का सारांश है।
इसी का प्रमाण आदरणीय गरीबदास जी महाराज दे रहे हैं (अमृतवाणी राग कल्याण)
तीन चरण चिन्तामणी साहेब, शेष बदन पर छाए। माता, पिता, कुलन न बन्धु, ना किन्हें जननी जाये।।
मण्डल 10 सुक्त 90 मंत्र 5
तस्माद्विराळजायत विराजो अधि पूरुषः ।
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः ।। 5 ।।
संधिछेद :- तस्मात् विराट अजायत विराजः अधि पुरुषः सः जातः अत्यरिच्यत पश्चात् भूमिम् अथः पुरः। (5)
अनुवाद :- (तस्मात्) उसके पश्चात् उस परमेश्वर सत्यपुरूष की शब्द शक्ति से (विराट्) विराट अर्थात् ब्रह्म, जिसे क्षर पुरूष व काल भी कहते हैं (अजायत) उत्पन्न हुआ है (पश्चात्) इसके बाद (विराजः) विराट पुरुष अर्थात् काल भगवान से (अधि) बड़े (पुरुषः) परमेश्वर ने (भूमिम्) पृथ्वी वाले लोक अर्थात् काल ब्रहा तथा परब्रह्म के लोक को (अत्यरिच्यत) अच्छी तरह रचा (अथः) फिर (पुरः) अन्य छोटे-छोटे लोक (सः) वह (जातः) पूर्ण परमेश्वर ही उत्पन्न किया करता है अर्थात् उसी पूर्ण परमात्मा ने सर्व लोकों को स्थापित किया।
भावार्थ:- उपरोक्त मंत्र 4 में वर्णित तीनों लोकों (अगमलोक, अलख लोक तथा सतलोक) की रचना के पश्चात पूर्ण परमात्मा ने ज्योति निरंजन (ब्रह्म) की उत्पति की अर्थात् उसी सर्व शक्तिमान परमात्मा पूर्ण ब्रह्म कविर्देव (कबीर प्रभु) से ही विराट अर्थात् ब्रह्म (काल) की उत्पत्ति हुई (यही प्रमाण गीता अध्याय 3 मन्त्र 14 में है कि अक्षर पुरुष से अर्थात् अविनाशी परमात्मा से ब्रह्म की उत्पत्ति हुई।) उस पूर्ण ब्रह्म ने भूमिम् अर्थात् पृथ्वी तत्व से ब्रह्म तथा परब्रह्म के उसी ने छोटे-बड़े सर्व लोकों की रचना की। वह पूर्णब्रह्म इस विराट भगवान अर्थात् ब्रह्म से भी बड़ा है अर्थात् इसका भी मालिक है।
इस ऋग्वेद मण्डल 10 सुक्त 90 मन्त्र 5 में स्पष्ट है कि ब्रह्म अर्थात् क्षर पुरूष/काल की उत्पति पूर्ण परमात्मा से हुई है। यही प्रमाण पूर्वोक्त अथर्ववेद काण्ड 4 में अनुवाक 1 मन्त्र 3 में है तथा यही प्रमाण श्रीमद्भगवत् गीता अध्याय 3 मन्त्र 14-15 में है कि ब्रह्म की उत्पति अक्षरम् सर्वगतम् ब्रह्म अर्थात् अविनाशी सर्व व्यापक परमात्मा से हुई है।
मण्डल 10 सुक्त 90 मंत्र 15
सप्तास्यासन्परिचयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः।
देवा यद्यज्ञं तन्वाना अवघ्नन्पुरुषं पशुम् ।। 15।।
संधिछेद :- सप्त अस्य आसन् परिधयः त्रिसप्त समिधः कृताः देवा यत् यज्ञम् तन्वानाः अबध्नन् पुरुषम् पशुम् ।
अनुवाद :- (सप्त) सात संख ब्रह्मण्ड तो परब्रह्म के तथा (त्रिसप्त) इक्कीस ब्रह्मण्ड काल ब्रह्म के (समिधः) कर्मदण्ड दुःख रूपी आग से दुःखी (कृताः) करने वाले (परिधयः) गोलाकार घेरा रूप सीमा में (आसन) विद्यमान हैं । (यत्) जो (पुरूषम्) पूर्ण परमात्मा की (यज्ञम्) विधिवत् धार्मिक कर्म अर्थात् पूजा करता है (पशुम्) बलि के पशु रूपी काल के जाल में कर्म बन्धन में बंधे (देवा) भक्तात्माओं को (तन्वानाः) काल के द्वारा रचे अर्थात् फैलाये पाप कर्म बंधन जाल से (अबध्नन्) बन्धन रहित करता है अर्थात् बन्दी छुड़ाने वाला बन्दी छोड़ है।
भावार्थ :- वह पूर्ण परमात्मा सात संख ब्रह्मण्ड परब्रह्म के तथा इक्कीस ब्रह्मण्ड ब्रह्म के हैं जिन में गोलाकार सीमा में बंद पाप कर्मों की आग में जल रहे प्राणियों को वास्तविक पूजा विधि बता कर सही उपासना करवाता है जिस कारण से बली दिए जाने वाले पशु की तरह जन्म-मृत्यु के काल (ब्रह्म) के खाने के लिए तप्त शिला के कष्ट से पीड़ित भक्तात्माओं को काल के कर्म बन्धन के फैलाए जाल को तोड़कर बन्धन रहित करता है अर्थात् बंध छुड़वाने वाला बन्दी छोड़ है। इसी का प्रमाण पवित्र यजुर्वेद अध्याय 5 मंत्र 32 में है कि कविरंघारिसि= (कविर) कबिर परमेश्वर (अंघ) पाप का (अरि) शत्रु (असि) है अर्थात् पाप विनाशक कबीर है। बम्भारिसि (बम्भारि) बन्धन का शत्रु अर्थात् बन्दी छोड़ कबीर परमेश्वर (असि) है।
मण्डल 10 सुक्त 90 मंत्र 16
यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् । ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ।।16 ।। संधिछेद :- यज्ञेन यज्ञम् अयजन्त देवाः तानि धर्माणि प्रथमानि आसन् ते ह नाकम् महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः। (16)
अनुवाद जो (देवाः) देव स्वरूप भक्तात्मायें (यज्ञेन) सत्य भक्ति धार्मिक कर्म के आधार से अर्थात् शास्त्रवर्णीत विधि अनुसार (यज्ञम्) यज्ञ रूपी धार्मिक (अयजन्त्) पूजा करते हैं (तानि) वे (धर्माणि) धार्मिक शक्ति सम्पन्न (प्रथमानि) मुख्य अर्थात् उत्तम (आसन) हैं (ते ह) वे ही वास्तव में (महिमानः) महान भक्ति शक्ति युक्त होकर (साध्याः) सफल भक्त जन अपनी भक्ति कमाई के बल द्वारा (नाकम्) पूर्ण सुखदायक परमेश्वर को (सचन्त) भक्ति निमित कारण अर्थात् सत्भक्ति की कमाई से प्राप्त होते हैं, वे वहाँ चले जाते हैं। (यत्र) जहाँ पर (पूर्वे) पहले वाली सृष्टी के (देवाः) देव स्वरूप भक्त आत्मायें (सन्ति) रहती है।
भावार्थ :- जो निर्विकार (जिन्होने मांस, शराब, तम्बाकू आदि नशीली व अखाद्य वस्तुओं का सेवन करना त्याग दिया है तथा अन्य बुराईयों से रहित है) देव स्वरूप भक्त आत्माएँ शास्त्रानुकूल साधना करते हैं वे भक्ति की कमाई से धनी होकर काल के ऋण से मुक्त होकर अपनी सत्य भक्ति की कमाई के कारण उस सर्व सुखदाई परमात्मा को प्राप्त करते हैं अर्थात् सत्यलोक में चले जाते हैं जहाँ पर सर्व प्रथम रची सृष्टी के देव स्वरूप अर्थात् पाप रहित हंस आत्माएँ रहती हैं।
जैसे कुछ आत्माएँ तो काल (ब्रह्म) के जाल में फंस कर यहाँ आ गई, कुछ परब्रह्म के साथ सात संख ब्रह्मण्डों में आ गई, फिर भी असंखों आत्माएँ जिनका विश्वास पूर्ण परमात्मा में अटल रहा, जो पतिव्रता पद से नहीं गिरे वे वहीं रह गई, इसलिए यहाँ वही वर्णन पवित्र वेदों ने भी सत्य बताया है। यही प्रमाण गीता अध्याय 8 के श्लोक संख्या 8 से 10 में वर्णन है कि जो साधक उस पूर्ण परमात्मा (परम दिव्य पुरूष) की साधना अंतिम स्वांस तक करता है वह शास्त्र अनुकूल की गई साधना की कमाई के बल के कारण उस परमात्मा पूर्ण ब्रह्म को प्राप्त होता है अर्थात् उस परम दिव्य पुरूष के पास चला जाता है। इससे सिद्ध हुआ की तीन प्रभु हैं ब्रह्म - परब्रह्म - पूर्णब्रह्म। इन्हीं को 1. ब्रह्म = ईश क्षर पुरुष 2. परब्रह्म अक्षर पुरुष - अक्षर ब्रह्म तथा 3. पूर्ण ब्रह्म = परम अक्षर ब्रह्म - परमेश्वर - सतपुरुष आदि पर्यायवाची शब्दों से जाना जाता है।
यही प्रमाण ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मंत्र 16 से 20 में स्पष्ट है कि पूर्ण परमात्मा कविर्देव (कबीर परमेश्वर) शिशु रूप धारण करके प्रकट होता है तथा अपना निर्मल ज्ञान अर्थात् तत्वज्ञान (कविर्गीर्भिः) कबीर वाणी के द्वारा अपने अनुयाईयों को बोल-बोल कर वर्णन करता है। इस कारण से उस परमात्मा को महान कवि की उपाधी से जाना जाता है परन्तु वह कविर्देव वही परमात्मा होता है। वह कविर्देव (कबीर परमेश्वर) ब्रह्म (क्षर पुरुष) के धाम तथा परब्रह्म (अक्षर पुरुष) के धाम से भिन्न जो पूर्ण ब्रह्म (परम अक्षर पुरुष) का तीसरा ऋतधाम (सतलोक) है, उसमें नराकार में विराजमान है तथा सतलोक से चौथा अनामी लोक है, उसमें भी यही कविर्देव (कबीर परमेश्वर) अनामी पुरुष रूप में मनुष्य सदृश अर्थात् नराकार में विराजमान है। अधिक जानकारी के लिए कृप्या पढ़ें वेदों में प्रमाण पृष्ठ 421 से 440 पर इसी पुस्तक में।
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