30/08/2025
शिर्षक:- "सच तुम्हारी और हमारी"
पहला दिन... (सोनू , सुप्रिया)
हाय
हाय
(कोई बातचीत नहीं)
दूसरा दिन...(सोनू , सुप्रिया)
ठीक है
ठीक हूँ
(कोई बातचीत नहीं
तीसरा दिन...
नंबर दो। (सोनू)
क्यों? (फिर चुपचाप लिख दि सुप्रिया)
(सोनू मन ही मन)
बड़ी सुंदर है, आँखों की ग़ज़ल कहानी है,
धड़कन में बसा कर रखूँगा,
मनोहर दृश्य सुहानी है।
खूबसूरती बहती धारा,
मन रंग सप्तबयानी है,
झिलमिल-झिलमिल करती,
कणिका बहता पानी है।
सुंदर संरचना जैसे मोती,
परी रूप सुहानी है,
बड़ी ही प्यारी खनकती आवाजें,
दिल को छूती बानी हैं।
(सुप्रिया अंदर ही अंदर)
बड़े उतावले हैं,
मन के गोरे-चिट्ठे हैं,
कितने रंग समेटे,
निर्मल धारा बहते हैं।
किधर से भी एक चक्कर,
देखने मुझको एक नजर आते हैं,
भले कुछ कह नहीं पाते,
लेकिन मन ही मन बहते हैं।
चितवन के चकोर में,
चंद रूप बिखराते हैं,
प्रयास तो करते,
पर बोल नहीं पाते हैं।
एक सप्ताह बाद
ट्रीग-ट्रीग (कॉल बजी उठाई — कौन?)
नहीं पहचाना।(सोनू)
नहीं। (सुप्रिया)
ओ, हां सोनू पहचान ली बोलिए
बोलों(सोनू)
क्या बोलूँ? किस काम से नंबर लिए थे (सुप्रिया)
आपसे बात करने के लिए।(सोनू)
हमने तो यह सोचकर नंबर नहीं दिया था।(सुप्रिया)
तो क्या सोचा था?(सोनू)
शायद कोई विशेष काम हो।(सुप्रिया)
पर मैंने आपसे...(सोनू अधुरा वाक्य)
क्या "पर मैंने आपसे"?(सुप्रिया)
गुमसुम.... फिर कुछ देर बाद (सोनू)
समय के साथ समझ जाओगी कि मैं क्या कहना चाहता हूँ।
जो कहना है, कहिए। (धीरे-धीरे हँसने लगी और दबाव बनाने लगी सुप्रिया)
चुप्पी... (गले में आवाज नहीं , क्या बोलूँ? शब्द कहाँ से लाऊँ? असमंजस भरा क्षण मोनू के लिए)
बोलों क्या बोलना है?(शेर की तरह सवाल दागती सुप्रिया जैसे इसके मन से सब कुछ उगलवाकर ही छोड़ूँगी।")
खामोश — चुपचाप, कुछ नज़र नहीं आता, क्या बोलूँ? क्या जवाब दूँ?(सोनू)
कुछ बोल नहीं रहे हैं, तो कॉल रखती हूँ। (सुप्रिया)
ठीक है, एक कविता भेज देता हूँ। सब समझ आ जाएगा कि मैं क्या कहना चाहता हूँ। (सोनू)
आप कविता लिखते हैं? (थोड़ी नर्म आवाज में)
हाँ। (सोनू)
ठीक है... आप कुछ बोलते नहीं हैं कांल रखती हूं बाय-बाय।
बाय-बाय।
नमस्ते।
नमस्ते।
अब कुछ ध्यान आया, कुछ कहना चाह रहा था... कि तब तक कॉल कट गया।(सोनू)
(सोनू — कॉल कटने के बाद)
मन की उत्प्लावित धारा को,
कहते-कहते रह गए,
चाहा भावना में बहना,
बहते-बहते रह गए।
समय सार्थक न हुआ,
कुछ गढ़ते-गढ़ते रह गए,
दिल की दिल को दिल से,
छूते-छूते रह गए।
निकल गई समय वेग से,
मन को संवारते-संवारते रह गए,
कोयल प्यारी को,
प्यारा दो शब्द कहते-कहते रह गए।
ढल गई साँझ द्वंद्व लिए,
मन की उद्दीपन खोलते-खोलते रह गए,
सुमन पहर की सुंदर स्मृति,
हृदय में निकलते-निकलते ठहर गए।
(सुप्रिया मन ही मन)
सोचा तो होगा उड़ानें,
पर हमारी सवाल घाल गईं,
कुछ न कह पाए,
मन की बातें मन ही रह गईं।
हरा-भरा सवेरा, किरण
जैसे शांत निशा कर गई,
जगमगाती हुई दिल की बानी,
शब्दों में ही पहर गई।
उड़ते थे मन की गरिमा में,
पर रक्तिम दिल की हो लहर गई,
लगता है कि अब वह,
यहाँ से आगे आने को ठहर गई।
हिम्मत-कुंज धरा,
द्रवित आँखों की मोती कर गई,
बनाने की मन की दुल्हन,
मन ही मन में रह गई।
कभी मिली तो सुनाऊँगी...
(मोनू)
एक नाम तुम्हारे होठों पर,
बसता डेरा-डेरा,
तुझसे ही जग में हरियाली,
तू खिला सवेरा।
तू नभ की चादर,
सैर-समर दिलारा,
रंग ओढ़ी मधुबन की,
आकर्षित मन हमारा।
तू स्वप्नों की रचना,
तूं पुष्प यादों भरा गुज़ारा,
निर्मल निर्झर बहती,
आँसुओं में तड़प की धारा।
अंतस-गगन मधुबन,
तुमसे नूतन सवेरा,
तेरे बिन अधूरे हम
अधूरा संसार हमारा।