27/09/2025
@ #, और रंग देखते हैं,तकदीरों का--
कर्म हो या इंसान-जिस समय में जन्म लेता है--
कुंडली उसी समय अनुसार ही बनती है--
ऊंची इमारतों में बसे शहरों से दूर,,
तंग हालातों पर झोपड़ियों में बसीं बस्तियां,,
बच्चे दीवाली की तैयारी करने लगे हैं,,
कबाड़ों के ढेरों से टूटे दियों के टुकड़े बीनकर,,
पानी में आटा घोलकर,,
बच्चे दियों के टुकड़े जोड़ने लगे हैं,,
ये मासूम दिवाली की तैयारी करने लगे हैं,,
ये मासूम दिवाली को पहचानते हैं,,
क्यों हर रोज अंधेरे के डसे हुए हैं,,
दीवाली की रौशनी में नहाते हैं--
(और देखते हैं रंग तकदीरों का--)
अंधी गरीबी की आंखों से तेल चुरा कर,,
बच्चे बिना तड़के की सब्जी खा रहे हैं,,
क्यों कि बच्चे दिवाली के स्वागत की तैयारी कर रहे हैं--
इमारतों का चकाचौंध पैसों से होता है--
चंद मिनटों में हो जाएगा ऊंचे घरानों के बच्चे इसी सोच में बैठे मोबाइल चला रहे हैं--
कूड़े की सडा़न से हर कोई मुंह ढक कर नहीं निकलता है जिस भोर में हमारे बच्चे सो रहे होते हैं,,
ये बच्चे उस बक्त तक उसी सड़ान से रोटी कमा लाते हैं--
सरकारें पब्लिक की माई बाप होती है उनके अधिकारों के साथ साथ उन्हें हर पर्वों पर समान रूप से इच्छा और सुविधा अनुसार त्योहारी तोहफे देने की पहल होनी चाहिए जैसे घर परिवार में माता पिता बच्चों के लिए कोई न कोई नई गिफ्ट अपनी सुविधा अनुसार देते हैं परिवर्तन में बच्चों की सोच इतनी आगे निकलती जा रही है कि पर्व क्या है मतलब ही भूलते जा रहे हैं सोचिए अगर अभी यह हाल है तो भविष्य कैसा होगा लेकिन हमें नये प्रयासों से अपनी संस्कृति और मानवता को लोटालना होगा क्योंकि आने बाले कल के यही बच्चे बडे़ होकर देश समाज घर के नये परवरिश दिगार होंगे तब-तक हमारी संस्कृति का नामो निशान ही मिट सकता है हमें समय रहते यह सब संभालना होगा कुछ नये प्रयासों से और इन तोहफों का अधिकार समान होना चाहिए जिससे हर दिल में खुशियां एक समान उगे और महकें, एसी सराहनीय नई पहलों से हर तरफ एकता और प्रेम का संदेश,स्नेह भरे तोहफों से पब्लिक में सरकारों के लिए निस्वार्थ एक नई पहल जरूर प्रेम और स्नेह रंग भर सकती है-
इलेक्शन टायम के तोहफे बेसक मेहगे हो सकते हैं लेकिन उन्हें हम निस्वार्थ नहीं कह सकते हैं फिर पक्ष विपक्ष पब्लिक की जुवां और उठती उंगलियां कभी नहीं रूक सकती है-- वोट खरीद जैसे इल्जाम जरूर लगेंगे चर्चा का विषय जरूर बनेंगे और हमेशा ऐसा ही होता भी है सरकारें चाहे किसी की भी रही हो जब पब्लिक के कार्य वर्षों तक संपूर्ण नहीं होते हैं और इलेक्शन टायम पर आकर किये जाते हैं यह भी तो निस्वार्थ नहीं कह सकते है,
काम बोलता है कुछ एसा करना चाहिए कि काम की जुवां बोले पब्लिक खामोश होकर आपकी पहल पर मुस्कराए--
आज बदलते परिवेश में सिर्फ पर्वों के नाम याद जरूर रह गये है,,
लेकिन पर्वों का मतलब मिलजुल कर एक दूसरे के साथ जो खुशी बांटते थे आज खत्म हो गई है,,
लेकिन कोई भी पर्व आने से पहले खर्चा वहीं होता है तैयारी भी वही होती है लेकिन पर्वों की खुशियां इंसानों से निकल कर सिर्फ सोशल मीडिया की मिट्टी में रील बनकर जरूर उगने लगी है फिर चाहे पर्व कोई भी हो, समय से लेकर हर चीज बदलती है फिर हमारी खुशियां क्यों नहीं बदल सकती है पर बदलाव वही अच्छा होता है जो बीते से आने बाला अच्छा हो बदलाव बहुत हो रहे हैं पर बहुत दर्द देय है अपने अपनों से दूर, समाज, समाज से दूर, बेस भूषा भाषा अपमान जनक सभ्यता असभ्यता मे, कहीं धर्मों की लड़ाई, कहीं दौलत और राजनीतिक की,घर बिखर गये, रिश्ते टूट गये हर रिश्ते पर आज कातिल का इल्जाम है, फिर चाहे, बाप बेटा पति पत्नी बहन भाई बेटी मां सांस बहू हो,हम हदों की दीवारें खसा कर इस तरह बाहर निकल गये कि मानुष से अमानुष के बदलाव हमारे अंदर--अमानुष, जब माता पिता के हम कत्ल चंद सिक्कों के लिए करने लगे फिर मानुष में मानुष जैसा क्या बचता है,आखिर समाज सिस्टम कानून और कलमकार कब तक देखते रहेंगे अपना ही तमाशा अपनों के द्वारा बनाया गया हमें बहुत मेहनत करनी होगी इन सब की वापसी के लिए,,
माना कि बहुत दूर जा चुका है कारवां,,
आवाज नहीं पहुंचेगी,,
पर इतनी भी दूर नहीं कि,,
कोशिश नहीं पहुंचेगी,,
बहुत पावर होती है सिस्टम,,
कलमकार और प्रेम में,,
चेहरे जब साफ हों तो,,
आईने कभी नहीं टूटेंगे,,
दौर पत्थरों का इस कदर चला,,
कि चेहरे संवरने के बाद,,
आईने ही टूटने लगे,,
बदलाव अगर है से बेहतर में होता है तो हमारे लिए अच्छा है लेकिन ये मशीनरी का बदलाव आदमी को-- कैसा बदलाव हुआ कि न हम न श्रद्धा न धर्म और इंसान सुरक्षित हैं एसे हालातों से आने बाले भविष्य की अच्छी कल्पना करना बड़ा मुश्किल है।
ये नये सिक्के बहुत पैने हैं,,
ये अपनों का कत्ल अपनों के हाथों से ही,,
पैनी नोक से करवा रहे हैं,,
हमें देर होने से पहले बहुत कुछ सोचना है जो हमारे हित मय हो।
लेखिका -पत्रकार-दीप्ति -चौहान।