Writer Deepti chauhan

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@ #, मासूम और तोतले लहजे,,ये दवाओं का असर था,,या गुनाहों का,,कि मासूम इतनी जल्दी,,बड़ी कैसे हो गई,,ये शब्दों के दांत यूं...
29/08/2025

@ #, मासूम और तोतले लहजे,,
ये दवाओं का असर था,,
या गुनाहों का,,
कि मासूम इतनी जल्दी,,
बड़ी कैसे हो गई,,
ये शब्दों के दांत यूं ही तो नहीं उगे होंगे,,
बेटियों ने कितने दर्द निचोड़ कर पिए होंगे,,
ये बेटियों के कंकाल और दांत,,
यूं ही तो नहीं उगे होंगे--
बेटियों ने कितने धेर्य पिए होंगे,,
मिट्टी का धेर्य यूं हीं तो नहीं फूटा होगा,,
तब जाकर उगे होंगे वीरांगनाओं के दांत,,
हया बेखौफ थी मर्दानगी की सुरक्षा में,,
ये पलकें यूं ही तो नहीं खुली होंगी,,
याद आये तो होंगे कंकालों को देखकर वहीं मुस्कराते होंठ दबी जुबानों के भीतर मासूम कांपते और तोतले लहजे जो होंठों के बिना खुले महका देते थे घर आंगन और खामोश खड़ी दीवारें बोलने लगती थी,,
कितना इंतजार करती थी मां कितनी बार उंगलियों से खोलकर देखती थी मासूम के होंठ कि कब निकलेंगे मेरी लाडो के दांत,,
और कब मेरे जैसे निवाले खाकर बड़ी होगी मेरी लाडो जो हंसेगी खिलखिला कर और उसके नन्हें नन्हें से चमकेंगे दांत,,
मां बेखौफ उंगलियां डालकर मुंह में चबाने को कहती थी फिर आहिस्ता-आहिस्ता से चूसती थी लाडो मां की उंगलियों को पर चोट नहीं लगने देती थी मां चोट का ड्रामा करती थी और लाडो सहम जाती थी मां सारे ड्रामे छोड़ कर लाडो को सीने से लगाकर कहती थी कि देखो मुझे दर्द नहीं होता है क्योंकि मां को दर्द तो होता था पर मासूम के भरोसे के लिए मां चोट भी पी जाती थी सोच कर कि उंगली मासूम के मुंह में हमने ही तो दी थी उसने पकड़ कर तो नहीं चबाई थी मासूम भी भरोसे पर ही मुस्कराता है जिसके आंचल में प्यार और दुलार और भरोसा होता है जहां चोट होती है वहां दर्द तो होता है,
काश ये एहसास खुदके दर्द से पहले कराहा होता,,
तो खुद की चोट से पहले पराई चोट का एहसास जरूर होता,,
तो शायद आज किसी की बेटी न बदचलन दिखती न उसके लहजों में उगते दांत,,
जाने कितने दांतों से नोचे होंगे बेटियों के जिस्म,,
ये आत्मा यूं ही तो बेटियों के जिस्म से रूखसत नहीं हुई होगी,,
ये ढेरों कंकालों में बेटियों के हंसते खेलते जिस्म यूं ही तो धरा के सीने पर कंकालों में नहीं पड़े होंगे,,
मिट्टी का धेर्य यूं ही तो नहीं फूटा होगा,,
तब जाकर उगे होंगे वीरांगनाओं के दांत,,
लेखिका,पत्रकार,दीप्ति,चौहान

@ #,देर से हुई वापसी का दर्द भी है,पर नहीं भी,,क्यों कि फर्ज भी निभाने थे,,स्त्री हूं स्त्री होने के,,कर्ज भी उतारने थे,...
25/08/2025

@ #,देर से हुई वापसी का दर्द भी है,
पर नहीं भी,,
क्यों कि फर्ज भी निभाने थे,,
स्त्री हूं स्त्री होने के,,
कर्ज भी उतारने थे,,
मुद्दतों का अंधकार जब हुआ प्रकाश मय,,
जल उठे बुझे चिराग दीप्ति के प्रवेश मय,,

जब खुद के अंदर देखा तो एसा लगा कि व्यर्थ का जीवन गंवा दिया व्यर्थ का सफर करके फिर सोचा कि जो भी होता है अच्छे के लिए ही होता है एसा नहीं था कि हम खामोश बैठे थे हां जीवन के सफर को पांव पांव जरूर चल रहे थे और बहुत दूर तक चले भी और कामयाब भी हुए, जख्मों पर खुदके चलकर एक बेहतरीन सफर भी तय किया है यह लोग क्या जाने जो चार दिन की संवेदनाओं का मेला फिर वही जख्म और दर्द के, ये दुनियां बो नहीं थी जिसमें कभी ग़म सांझा सांझा किये जाते थे आज खुद के जख्मों पर खुद आशुओं के मरहम होते हैं या तो आंखों से दर्द बहा दो या दुनियां को देखलो क्यों कि जीना तो हमें तब तक होगा जब तक कि सांसें हैं,
(आशुओं को आंचल जो मिल जाता,,
तो हम आंखों को समंदर बना लेते,,
दर्द को मरहम जो मिल जाता,,
तो हम जख्मों की बस्तियां बसा लेते,,)
इस दुनियां ने दिमागी प्रोग्रेस इतनी कर ली है कि दिल पलायन कर गया जख्म तो जख्म होते हैं एक से तन एक रंग लहू, पर ये हुए कैसे यह तो वही बता सकता है जिसके तन पर लगे हो जैसे आशुओं का रंग भी तो पानी जैसा होता है पर पहचान उसी को होती है जिसने प्यास में आंशू पिये हों जिसने आशुओं का नमक पिया हो दर्द की अदायगी वहीं चुका सकता है,
अब न दोस्त हैं कोई न रिश्तेदार जो पानी में से आंशू छानकर ले आए,
कौन कहता है कि हमें दर्द नहीं हुआ है,,
लोग हमारी आंखों में नमी तलाशते रहे,,
और हम पानी के आंचल से रो रो कर पौंछते रहे,,
यौवन की लास को कंधों पर लेकर,,
अकेले भार से कराहते रहे,,

फूल खिला भी न था कि बक्त का पत्थर आ गिरा,,
जरा सी मुस्कान की महंक में हम जीते रहे,,

जो होता है बो अच्छे के लिए होता है धन्यवाद ईश्वर का करें या इस दुनियां का कि पांव की जगह बीज पंखों का ले आई और ईश्वर का इस लिए कि हमें उसने हर हाल में जीने का हुनर दिया है बस पांव के सफर पर पीछे दुनियां थी, और पंखों की उड़ान में तीर और शिकारी आसमान पर स्त्री खुलकर जीने कब दी है इस समाज ने यह तो मां की कोख में भी खंजर से कत्ल होती रही है और पति परमेश्वर की रक्षा में भी जिंदा जलाया गया कहीं आरोप कहीं चीरहरण ताने-बाने की दुनियां में यह किस तरह जीती है यह कौन समझ सकता है,
दूल्हों की मंहगाई में ये जिंदा जल कर राख हुई,,
कितने परियों के पापा की ,पगड़ी भी नीलाम हुई,,
आज कामयाबी के शिखर पर भी जब स्त्री चुभ रही है तो हम कल्पना कर सकते कि स्त्री का जीवन कितना दुखद बना दिया गया है हर तरफ से जैसे कोहराम मचा हुआ है इसके खिलाफ जैसे अकेली स्त्री ने सारा माहोल बदल कर रख दिया हो और सबसे बुरा असर आज की सोच है हर व्यक्ति की जो समाज को समाज से बाहर ले गई वहां भी बलदेवी रही तो स्त्री ही वरना समाज की एकता होती तो आज स्त्री और प्रकृति की इतनी बड़ी दुर्दशा कभी नहीं होती आज समाज की आंखों तले स्त्री जिंदा जलाई जा रही चीरहरण हो रहे टुकड़े किडनैप हो रहे हैं यह सब अति का स्वार्थ और अज्ञानता कारण बन गई स्त्री की दुर्दशा का बेखौफ पुरूषार्थ की स्वतंत्रता का हल्ला आज खुद का विनाश ढूंढ कर लाया है चाहे पानी के द्वारा या स्त्री की बदलती सोच के द्वारा क्यों कि उसकी बो तानाशाही आज खत्म हो रही है जब स्त्री को दो बक्त की रोटियां एहसान की तरह नशीव होती थी इस गुरूर में स्त्री की अक्ल सिर्फ घोटुओं तक होती है और आज बो हम कदम चल रही है जो असहनीय हो रहा है स्वतंत्रता का मतलब सिर्फ पुरुष एक मतलब समझ रहा है जो आज चीख चीख कर सामने आ रहा है और कामयाब स्त्री को जिंदा मौत दे रहा है इसे खुद नहीं पता कि इसका कर्मा इसके विनाश का कारण बनने जा रहा है क्योंकि स्त्री से इस पुरूष की पहचान है स्त्री की नहीं यह भूल रहा है आज जब एक कामयाब स्त्री के साथ इतना गंदा व्बहार किया जाएगा तो क्या उसकी सोच में वही सादगी धेर्य शांति त्याग बना रहेगा उस के दर्द नहीं होता है या एहसास नहीं होता है कहीं देर न हो जाए सोचने और चिंतन मे।
लेखिका, पत्रकार, दीप्ति चौहान।

@ #,जिंदगी भर फूल बेचे--शूल तो होना था हमको--मंजिलों के मोड़ तोड़े--पत्थरों की नोक बीनी--इन मुलायम हाथ और--पांवों से चोट...
06/08/2025

@ #,जिंदगी भर फूल बेचे--
शूल तो होना था हमको--

मंजिलों के मोड़ तोड़े--
पत्थरों की नोक बीनी--

इन मुलायम हाथ और--
पांवों से चोटिल होना था हमको--

बेगुनाही जब विवादित हो रही है--
फिर अदालत में सफाई पेश--
क्यों होना था हमको--

चल दिले नादान यहां फिर--
जुर्म हंसने का करें--

जिंदगी भर फूल बेचे--
अब और धंधा क्या करें--

जिंदगी भर फूल बेचे--
शूल तो होना था हमको--
दीप्ति,

05/08/2025

@ #, क्यों बदले रूख सीधे साधे--
गंगा यमुना सरस्वती ने--
क्यों रौद्र रूप पहना है आज प्रकृति ने--
क्यों पर्वत का ताज खसा आ गिरा धरा के सीने पर--
क्यों आधी नींदों से उठ कर अंगड़ाई ली है दोनों ने--

घर बचाकर रखो इन्हे राज मिस्त्री नहीं--
एक स्त्री बनाती है--
मानव और रिश्तों को ईंट गारे से नहीं--
खुद के जिस्म की मिट्टी नोचकर खुद के लहू में मसल कर मानव मूर्ति--
एक स्त्री बनाती है--
मंदिरों में बैठें या मस्जिदों में समाज या कुर्सियों पर--
इन सभी मूर्तियों को कोई मूर्तिकार नहीं नौ महीने कोख में रखकर इन्हें--
एक स्त्री बनाती है--
जननी हो या जन्मभूमि घर और सीमाओं पर चार दीवारी पुत्रों की पहरेदारी--
एक स्त्री बनाती है--
क्यों पहना प्रकोप का पानी गंगा,यमुना,सरस्वती,ने किन प्रकोप के पांवों से फांदें है किनारे इन तीनों धाराओं ने--
रौद्र रूप तन पर क्यों पहना किन हालातों ने फांदे है आज किनारे--
क्यों बदले रूख सीधे साधे--
ये करूणा का पानी नहीं जो आन घुसा बस्तियों में--
शायद नींव घरों की प्यासी तड़पन पहुंची होगी कोई, कोई हिस्सा टूट घरों का पहुंचा होगा--
किन चोटों से टूट रहे हैं आज घरौंदे--
किन पीड़ाओं की आंखें बहकर पहुंची है--
क्यों जननी और जन्मभूमि का संगम घूम रहा है--
घर गलियारों में--
कभी बारिशें आकर गलियों में बहती थी-
कागज की कश्ती पर होते थे मासूम खिवइया-- दादी,नानी, मम्मी,देती थी प्यारे से पेहरा--
लकड़ी की कश्ती पर बैठा खौफजदा क्यों आज खिवइया--
रिश्तों की दीवारें टूटीं मरियादाऔं की दहलीजें-- चौपालों के भाईचारे सन्नाटों में आज सो रहीं मजहब की रौनकें बस्तियां--
आज मकानों की ये बस्तियां क्यों हैं पानी पानी--
किन चोटों से छलकी आंखें जननी जन्मभूमि की--
तन से चीर खिचे है जब-जब जननी जन्मभूमि के--
तब-तब प्रलय तबाही लेकर उतरी है दोनों में--

क्यों करूणा के पानी में विश बन कर तैरा है--
क्यों रौद्र रूप पहना है आज प्रकृति ने--

क्यों पर्वत का ताज खसा आ गिरा धरा के सीने पर--
क्यों आधी नींदों से उठ कर अंगड़ाई ली है दोनों ने--
लेखिका,पत्रकार,दीप्ति,चौहान।

@ #,मैं लड़की जाति--मकान बनाने बाले राज मिस्त्री चाचा ने बड़े सोच समझ कर मकान बनाया था,जिसमें उन्होंने तीन रूम और और एक ...
26/07/2025

@ #,मैं लड़की जाति--
मकान बनाने बाले राज मिस्त्री चाचा ने बड़े सोच समझ कर मकान बनाया था,जिसमें उन्होंने तीन रूम और और एक बाहर छोटा-सा गार्डन रखा था पेड़ पौधे या अन्य कार्यों के लिए पहला रूम दादा, दादी का, दूसरा मां और पापा का, तीसरा मेहमानों का,इस मकान का सफर एक आम परिवार से शुरू होता है, और कहां तक सफर करता है---
मकान का अंतिम कार्य और राज मिस्त्री चाचा के विदाई का दिन जिसमें उन्होंने कहा अगर इसी दिन घर प्रवेश कर लो आप लोग तो मुझे अच्छा लगेगा सभी ने हंसते हुए चाचा का समर्थन किया और एक छोटा सा प्रोग्राम का आयोजन कर घर में प्रवेश करा दिया राज मिस्त्री चाचा का दादा दादी के पास आना जाना एक राज मिस्त्री की हैसियत से नहीं था परिवार के मेम्बर की तरह रहा था सो उनकी अच्छी राय का सब दिल से समर्थन करते थे पूजा कार्य के सम्पन्न होने के बाद उन्होंने घर की बड़ी बहू से कहा कि बेटा हमने तो सिर्फ एक मकान बनाया है तुम इसे घर बनाकर हमारी इस कला का सम्मान रखना क्योंकि मै इस घर का पुराना नमक खाता आ राहा हूं इस लिए राज मिस्त्री की हैसियत से नहीं तुम्हारे पति के चाचा की हैसियत समझ कर दिल की बात कर रहा हूं मां ने मुस्कुराते हुए माथे तक आंचल रखकर उनके पांव छूए तो उन्होंने मां के सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद दिया और कहा बेटा अब मैं चलता हूं समय मिलने पर अवश्य आऊंगा उनकी विदाई के बाद मां ने अपना ग्रह कार्य संभालना शुरू कर दिया पहले दादा दादी का रूम संभाला फिर खुद और पापा का दादा सरकारी जोब से रिटायर हो चुके थे और पापा का नया जोब शुरू हुआ था मां सुबह जल्दी उठती थी भोर पूरी तरह से साफ नहीं होती थी पापा और मेरा स्कूल लंच बॉक्स खाना तैयार करती थी दादा दादी के के लिए चाय पानी से लेकर दोपहर लंच तक की तैयारी से लेकर घर की साफ-सफाई तक मां सारा दिन घर के कार्यों में लगी रहती थी पापा का देर साम तक घर आना होता था तब तक मां के साम की खाने की तैयारी पुनः फिर शुरू हो जाती थी मां पापा बस मुस्करा कर थोड़ी देर चाय और हल्का फुल्का साथ में नाश्ता लेकर दादा दादी के रूम में चले जाते मां किचन और घर के अन्य कार्यों में व्यस्त रहती थी सुबह से साम तक की थकान को मां मुस्कान में छुपा लेती थी किसी को कुछ भी महसूस नहीं होने देती थी कि उसको सुबह से शाम तक क्या फील होता है श्रावण मास की तीजें आने बाली थी और मां ने अपने हाथों में न मेहंदी लगाने का समय निकाल पा रही थी न खुद के संवरने का दादा दादी और पापा को खाना खिला रही थी तभी दादी ने कहा बहू कल तीजों का त्योहार है फलां फलां तैयारी के साथ तुम अपने भी जरूरत का सामान मंगवा लेना कर लेना क्योंकि तीजों का त्योहार बहू बेटियों का होता है सो अच्छी तरह से तैयार हो जाना--
जो तुम्हें जरूरत हो बो बेटा को बोल देना साम को लौटते बक्त लेता आएगा मां ने हल्के से सिर हिला कर हां कह दिया दूसरे दिन तीजें मां ने बड़े अच्छे से सारी तैयारी की पूजा से लेकर खाने तक की सभी बहुत खुश थे- पर मां को खुद के लिए समय नहीं मिला जो तैयार होती फिर भी उसने मुस्कुराते हुए तीजों का त्योहार मनाया किसी को भी यह महसूस ही नहीं होने दिया कि बीते त्योहार की भोर इतनी सादगी से आ जाएगी जैसे कि मां के बिना मेहंदी बाले हाथ और सूने महावर बिना पांव उससे कुछ पूछे जा रहे हैं और बो मुस्कुरा कर टालती जा रही थी किसी को कुछ बोले हुए थोड़ा सा समय का साथ मिला मां दर्पन पर बैठकर बड़े खामोशी से खुश होकर खुद को देखें जा रही थी बड़े धीमे-धीमे से होंठों के भीतर कुछ कहती जा रही थी कहते हैं बेटी मां की एक सहेली की तरह होती है बो उसकी हर गतिविधियों को उसके साथ छाया बनकर साथ रहकर पता करती रहती है उस दिन भी वही हुआ था कि मां की बात होंठों के अंदर हलचल मचा रही थी पर कांपते होठों से बाहर नहीं आ रहीं थीं--
एक बेटी का अंतर मन उसे मन ही मन केच कर रहा था-
(मां कह रही थी)
कि मैं लड़की जाति कभी-कभी खुद में उस लकड़ी का रूप क्यों देखती हूं जिसमें दीमक के दो कीटाणु प्रवेश करते हैं और पूरी बस्तियां बसा लेते हैं और लड़की धीरे धीरे बिल्कुल खोखली हो जाती है उसके अंदर देखते-देखते जीवन एक श्मशान की तरह बन जाता है जैसे बिना फीलिंग के जिंदा बोलती लास उजड़ा यौवन जिस पर न कोई बहार न कोई खुशी खुद के अंदर सिर्फ एक हंसता हुआ घर दिखाई देता है हर चेहरे पर एक मुस्कान लिए, जिसमें उसने खुद को खर्च कर थोप दिया और खुद अंदर से खोखली-- एक खाली खंडहर की तरह जिसमें लड़की नहीं बो खाली खोखली लकड़ी जो घर को घर बनाने में खर्च कर देती है और किसी को पता भी नहीं चलता है शिवाय उस हंसते हुए घर के क्योंकि उसके जीवन को फर्जों ने एक दीमक की तरह धीरे धीरे खाकर खोखला जो कर दिया होता है और उस हंसते हुए घर को पता भी नहीं चलता खैर--
एक दिन राजमिस्त्री चाचा का अचानक आना हुआ और उनकी नजर ने चारों तरफ देखना शुरू किया जिधर नजर जाती थी उनकी खुशी का ठिकाना न रहा तभी मां उनके लिए हाथ में चाय लेकर आती है और रखकर मुस्कराती हुई सिर झुकाकर उन्हें नमस्कार करती उनके पांव छूती और उनकी खैर खबर पूछने लगती है, चाचा कुछ सुस्त नजर आ रहे थे मां को देखते हुए बोले बेटा तुम बताओ कैसी हो तबियत तो ठीक है मां, हां चाचा ठीक है,पर चाचा बेटा आपको देखने में तो बिल्कुल नहीं लगता है कि तुम ठीक हो जब हम छोड़कर गये थे उस दिन का चेहरा आज का मुझे बिल्कुल नहीं लग रहा है कि तुम वही हो हां ये मकान जरूर आज हंसता मुस्कुराता घर दिखाई दे रहा है, मां आंखों में नमी होंठों पर हल्की मुस्कान लेकर वापस चली जाती है--
और दादा दादी और चाचा बैठे बात करते रहते हैं चाचा मां को लेकर काफी दुखी दिख रहे थे पर बोलने में इजी महसूस नहीं कर पा रहे थे--
मां को उस दिन चाचा में खुदके पापा का स्नेह साफ नजर आ रहा था जिसने उनको लेकर मां में बदलाव और खालीपन को महसूस किया था--
घर,समाज, और हमारा कल्चर, आखिर इतना निष्ठुर क्यों बना दिया गया है कि स्त्री अंदर ही अंदर खोखली होती रहती है तब इसको दिखाई नहीं देता है और इसकी हल्की खुशी पर अपार भीड़ उमड़ पड़ती है, पर घर समाज और कल्चर का फर्ज कितना और किस पर टिका है इस का मतलब क्या है आज तक समझ से परे क्यों है, पूर्व से लेकर आज तक इसकी दुर्दशा पर इतनी खामोशी और जरा सी खुशी पर इतना हंगामा क्यों है--
पर इस घर समाज कल्चर रिश्तों से एक स्त्री की सुरक्षा और परवरिश क्यों नहीं हुई इसने तो संसार का निर्माण और परवरिश करके आपको दे दिया--
समाज में इसकी दुर्दशा पर क्या सुझाएं कि ये देखकर अंधा, बहरा, और गूंगा, हो जाता है--
और जरा सी खुशी पर उसी आग की तरह गीली लकड़ी बन कर टूट पड़ता है जो पूरे जीवन पर धीरे-धीरे सुलग सुलग कर इतना गहरा धुआं बनकर इसके रातों ओढ़ लेता है कि शिवाय इसके अंदर बड़े श्यमशान की बस्तियां तो नजर आती है पर मंजिलें नहीं नजर आती है--
स्त्री एक कफन की खातिर न जाने कितने कफन ओढ़ जाती है किसी को पता ही नहीं चलता मगर पथ्तर में कोई जिद्दी फूल खिला है चलो इसे प्यास में तेजाब पिलाते हैं की परम्परा-- समय चीख चीख कर खामोश हो गया, पर इस घर, समाज,और कल्चर, की भूमिका क्या है अभी तक समझ में नहीं आया कि इसने खुदके हकराने किस आधार पर कायम किए हैं बिना फर्ज निभाए सवाल स्त्री के जबाब इसके अब तो जरूरी हैं, जब मां,बाप,कबाड़े की तरह आज इसकी आंखों, और परवरिश, जिम्मेदारी, रात के अंधेरे में फैंक दिये जाते हैं और मां बेटा के हाथों से लात घूसों चप्पलों हाथों, मर्द की ताकत मर्द जैसे भी स्तेमाल कर सकता है जब मां, यानी जननी पर खुले समाज और घरों में होने लगी है फिर इसका स्त्री पर खोखले हकराने की भूमिका का मतलब क्या है इतना दबंग औरत अत्याचारी निष्ठुर क्यों होता जा रहा है जब कि आज की सम्पन्न स्त्री अपने स्वर्ण पांव ही नहीं पंखों का भी निर्माण कर चुकी हैं जैसे इसने पीछे रह कर आपके आगे जाने में खुद को खर्च दिया ये सब मिल जुल कर क्यों नहीं- (तहजीबें क्यों नहीं बोई जाती हैं)
(तहजीबों की फसल उगने के लिए) क्यों एक दूसरे के पूरक और सहयोग नहीं बनते हैं हम क्यों इसी में पैदा इसी को खाए जा रहे हैं हम) अब ये भविष्य में जाने लगी है--
एसी मानव फसल से अच्छा--
कोखे बंजर हो जाएं--
जिस आंचल का दूध पिएं ये--
उसी को नोच नोच कर खाएं--
कराहने लगी है अब प्रसव पीड़ा में कभी दर्द पीकर हंसती थी--
देखने लगी है खुद की मौत में उस बांझ और अपशगुनी अपमान की चीखों में जब रोती थी--
कुछ हादसे भूलने और माफी के योग्य नहीं होते हैं घर, समाज, कल्चर, रिश्ते, फिर जो भी हो हम अपनी अपनी भूमिका फर्जों में निभाकर हकराने का-- मुफ्त में किसी की तकदीर को बेरंग कमजोर और असहाय न बनाए क्यों कि बक्त भी एक कर्वट में ही नहीं रहता है और स्त्री और ईश्वर जननी और जन्मभूमि ये एक दूसरे से पूरक होते हैं तकदीरों पर बांध कोई तब-तक लगा सकता है जबतक इंसान के हाथों की बात रहे जब ईश्वर के हाथों में जाता है तो सारी हदें खुद ब खुद टूटने लगतीं है--
प्रेम ईश्वर है ये हर जगह नहीं उगता है और जब उगता है तो कोई रोक नहीं सकता है, घर,समाज, रिश्ते, कल्चर, जाति धर्म सब उग सकते हैं लेकिन जमीन मजहब की हो बीज तहजीबों का- इस समाज ने कौन सी स्त्री को सम्मान का खिताब पहनाया है राम की सीता से लेकर एतिहासिक वीरांगनाओं के त्याग या समाज के बोझ से पिसती स्त्री हो हम अपनी अपनी भूमिका निर्धारित करें अमन खुद ब खुद खिलने लगेगा- इस समाज को आज तक किसी भी स्त्री ने खुश नहीं कर पाया है बो सब-कुछ गंवाकर हार चुकी है तब उसने अपने अंदर की उर्जा और शक्ति को आज पहचाना है क्यो इसके आगे दीवारें लगाए जा रहे हैं क्यों एक दूसरे के सहयोग से घर परिवार और समाज देश का मिलकर पदभार संभालने का कार्य नहीं करते हैं हम-
( उंगलियों से तकदीरें नहीं खसती है--)
(बस बक्त की रजा का इंतजार होता है--)
लेखिका,पत्रकार,दीप्ति,चौहान।

@ #,चलो गांव की ओर नंगे मन पर थोड़ी तहजीबें पहन आएं-- ये नंगे जिस्म अच्छे नहीं लगते-- विकास के बाजार मे चकाचौंध जिंदगी--...
24/07/2025

@ #,चलो गांव की ओर नंगे मन पर थोड़ी तहजीबें पहन आएं--
ये नंगे जिस्म अच्छे नहीं लगते--
विकास के बाजार मे चकाचौंध जिंदगी--
और असुविधाओं का धुआं इंसान को लक्ष्य हीन बनाएं जा रहा है--
गांव शहर की तरफ आ रहे हैं--
और शहर गांव की तरफ--
राजनीति तो जनता की माई बाप होती है बच्चे भूंख से इतना तड़प जाते हैं कि रोटी की जगह बोटी खाने लगते हैं--
और मजबूरियां पूर्वजों के दिये हुए आशियाने और जन्मभूमि असुविधाओं के चलते भविष्य को लाइक बनाने के लिए परदेश के लिए पलायन कर चले जाते हैं और बुजुर्ग चौकीदारों की तरह या तो अकेले रह जाते हैं या फिर बच्चे बेचकर कहीं बड़े शहरों में एसी जगह डाल देते हैं जाकर जहां उनका समय उन्हें खाने को दौड़ रहा हो और बे मानी उम्र बढ़ती जाती हो--
बच्चे बड़े होकर इधर-उधर रोजी-रोटी कमाने चले जाते हैं--
बुढ़ापे को तिल तिल उम्र डसती रहती है--
पलायन बहुत दर्द देता है--
ये सरकारें नहीं जानती हैं--
असुविधाओं की मार आदमी को--
बंजारा बना रही है--
ये सरकारें नहीं जानती हैं--
जमीन देश की हो या जन्म भूमि की--
मजबूरियां तराजू पर रखवा रही है--
ये सरकारें नहीं जानती हैं--
अभावों ने आदमी के हाथ ढीले कर दिए--
अपनों के हाथ से हाथ छूट रहे हैं--
ये सरकारें नहीं जानती हैं--
गांव परदेशी हो गये बस्तियां बीरान--
परिंदे शाकों से उड़ गए--
ये सरकारें नहीं जानती हैं--
नीम कट गये चौपारे झुलसने लगीं--
भाई चारा तितर-बितर हो गया--
ये सरकारें नहीं जानती हैं--
तखत और चारपाइयों के टुकड़े टूट कर--
मिट्टी ओढ़ने लगे हैं--
ये सरकारें नहीं जानती हैं--
स्मृतियों ने आवाज दी और हम रूक न सके--
खुश्क मिट्टी को आंखों की नमी देकर--
उंगलियों ने कुरेदा अस्थियों में लिपटे हुए स्मृतियों के खजाने से अनमोल बचपन निकला--
ये सरकारें नहीं जानती हैं--
जीवन आदमी के जिस्म में जीता रहता है--
मन परिंदा सुबह से शाम तक--
भूंख को बहलाता रहता है--
ये सरकारें नहीं जानती हैं--
इतना धन न कमा पाया उम्र भर आदमी--
कि जवानी की माया से बचपन को बचाए रखता--
फर्ज जब कंधों पर बोझ लगे तब याद आया बचपन--
ये सरकारें नहीं जानती हैं--
बड़े अनमोल है गांव और जन्मभूमि कि उम्र भर की कमाई से खरीदे न गये मासूमियत ठहरी है वहीं जो परदेश नहीं आई--
शहरों में तन के वस्त्र बहुत मिले पर दादा दादी के बो कर्मठ रिश्ते और संस्कार नहीं--
चलो गांव की ओर नंगे मन पर थोड़ी तहजीबें ओढ़ आए--
असुविधाओं का मारा आदमी इधर उधर भाग रहा है--
ये सरकारें नहीं जानती हैं--
देर से निकले अंधेर के अंधेरे में--
अधिकारों का बंटवारा इधर से उधर हो रहा है मजबूरियां पलायन कर रही है--
ये सरकारें नहीं जानती हैं--
कौन समझा है कुर्सी की तड़प को--
वेषभूषा,भाषा,खुद्दारी, प्रतिष्ठा,की गरिमा,की इस कदर खींचातानी मची है जैसे द्रोपदी का चीर--
ये सरकारें नहीं जानती हैं--
कराहने लगी है संतानें अधिकारों की लूट और मनमानी से--
ये सरकारें नहीं जानती हैं--
प्रकृति का कहर पानी पानी मय है--
नदियां क्रोध के उफान लेकर बस्तियों में घुसने लगी है--
पानी में खेलती खेलती मासूम मछलियां--
गलियों तक पहुंच गई है भूखे शिकारियों ने दहलीजों पर जाल बिछा दिये--
वापसी कैसे होगी पानी आदमी का उतर गया है--
ये सरकारें नहीं जानती हैं--
लेखिका,पत्रकार,दीप्ति,चौहान।

@ #,फिर पुराना डाकिया  बो याद आया--खैर खबर परदेश से अपनों की लाता था--खांस कर कितने अदव से डाकिया-- दहलीज पर आवाज देता थ...
23/07/2025

@ #,
फिर पुराना डाकिया बो याद आया--
खैर खबर परदेश से अपनों की लाता था--
खांस कर कितने अदव से डाकिया--
दहलीज पर आवाज देता था--
फिर पुराना डाकिया बो याद आया--
कहने को आज हमने इतनी प्रोग्रेस कर ली है कि आसमां छू लिया लेकिन अपनों का अपनों तक का सफर जो बहुत दूर रह कर भी पास था-बो बहुत दूर कर दिया हम आसमां पर चंद मिनटों और घंटों में सफर कर लौट आते हैं और पास बैठे अपनों तक एक जीवन खत्म कर जाते हैं पर पहुंच नहीं पाते हैं आज मोबाइल एक एसी सुविधा प्राप्त है हम इंसानों के बीच में है कि पलक झपकते संसार घूम आते हैं जो हम पूर्व में महीनों पंद्रह दिनों में पत्र चिट्ठियों द्वारा अपने परदेश में रहतो की खैर खबर तक पहुंच पाते थे, पर पहले भय नहीं हुआ करता था कि कोई अपना परदेश में तन्हा होगा घर, समाज, परदेश, सब अपने से थे पराए नहीं लगते थे चैन और अमन दोनों हर जगह साथ रहते थे अदव और पराई भूंख प्यास दुख दर्द सब हमारे थे में के नहीं तराजू कब न थी पहले सुख दुख तुलते थे आज इंसान कितना महंगा था इंसान कि पैसा सस्ता लगता था--
आज महंगा है पैसा इंसान सस्ता लगता है--
पैनी नोक के सिक्कों ने घर,रिश्ते, समाज,देश, सबकी गर्दन धड़ से अलग कर दी--
आज इसने नये आदमी का आविष्कार किया है, बिना नाक,कान, आंखों, मुंह,बाला नये आदमी का यह कैसा समाज तैयार किया है न दर्द की चीखें सुनाई देती है इसे न इंसान की हकीकत न बात रखने की जगह न एहसास, बिना दिल की भीड़ का आविष्कार किया है यदा-कदा को छोड़कर हर तरफ इसने-
क्यों कि हमने फोन से दुनियां मुट्ठी में भर रखी है किसी की भी खैर खबर या दिल की तिजोरी में दाखिल होकर पलक झपकते ही खैर खबर ले आते हैं--
कभी हमने मोबाइल की खुशी इस कदर मनाई थीं कि दुनियां मुट्ठी में वाकई भर ली थी क्या पता था कि यह हमसे हमें ही चुरा ले जाएगा--
आज हमारी दिमागी प्रोग्रेस ने हमें कहीं भी सुरक्षित नहीं छोड़ा है हर व्यक्ति के जीवन में बहुत से राज एसे भी होते हैं जिन्हें हम सिर्फ अपनों में ही शेयर कर सकते हैं लेकिन आज मोबाइल ने एसी कोई जगह सुरक्षित नहीं छोड़ी है जहां अपनी बात छुपाकर इंसान रख सकें- हमारा मतलब यह बिल्कुल नहीं हैं कि मोबाइल खराब चीज है वाकई बहुत अच्छी चीज है जो दिनों बर्सों सालों महीनों में हम हासिल कर पाते थे आज बो मिनट सेकेंडों में कर लेते हैं लेकिन इसका इतना गलत उपयोग होगा इसका कतई अंदाजा नहीं था आज हम इसकी वजह से कहीं भी सुरक्षित नहीं है हमारे हर सीक्रेट घर से बाहर जा रहे हमारी प्राइवेसी पूरी तरह से किडनेप हो चुकी है आज एसे बहुत कम लोग हैं जो मोबाइल का सही उपयोग कर रहे हैं इसकी सफलता का उपयोग हम ठीक से नहीं कर पाए हैं जितने हम नुकसान उठाते जा रहे बच्चों का बचपन छीन लिया इसने समय से पहले बच्चे बड़े हो गए मेहनत से दूर होती युवा पीढ़ी रील का उपयोग और मनोरंजन भोग तक रह गया रिश्तों की धज्जियां उड़ा रखीं हैं इस मोबाइल ने बुद्धि का सदुपयोग होना चाहिए था पर साथ साथ इसका दुर्पयोग ज्यादा हो गया जो हमें हमसे दूर ले जा रहा है उस दुनियां में जहां न मर्यादा, संस्कार, तहजीब,न समाज, और देश, सुरक्षित है सच कहा जाए तो इसका उपयोग से ज्यादा आज दुर्पयोग हो रहा है तब हमें इतनी प्रोग्रेस और विकास में कहीं न कहीं पूर्व जरूर याद आता है जो बेसक आज के संसाधनों से दूर द खत हमें खोले बिना बो @ #,हमारा खत हमें खोले बिना बो खांस कर--
दहलीज पर दे जाता था--
फिर पुराना डाकिया बो याद आया--
खैर खबर परदेश से अपनों की लाता था--
खांस कर कितने अदव से डाकिया--
दहलीज पर आवाज देता था--
फिर पुराना डाकिया बो याद आया--
कहने को आज हमने इतनी प्रोग्रेस कर ली है कि आसमां छू लिया लेकिन अपनों का अपनों तक का सफर जो बहुत दूर रह कर भी पास था-बो बहुत दूर कर दिया हम आसमां पर चंद मिनटों और घंटों में सफर कर लौट आते हैं और पास बैठे अपनों तक एक जीवन खत्म कर जाते हैं पर पहुंच नहीं पाते हैं आज मोबाइल एक एसी सुविधा प्राप्त है हम इंसानों के बीच में है कि पलक झपकते संसार घूम आते हैं जो हम पूर्व में महीनों पंद्रह दिनों में पत्र चिट्ठियों द्वारा अपने परदेश में रहतो की खैर खबर तक पहुंच पाते थे, पर पहले भय नहीं हुआ करता था कि कोई अपना परदेश में तन्हा होगा घर, समाज, परदेश, सब अपने से थे पराए नहीं लगते थे चैन और अमन दोनों हर जगह साथ रहते थे अदव और पराई भूंख प्यास दुख दर्द सब हमारे थे में के नहीं तराजू कब न थी पहले सुख दुख तुलते थे आज इंसान कितना महंगा था इंसान कि पैसा सस्ता लगता था--
आज महंगा है पैसा इंसान सस्ता लगता है--
पैनी नोक के सिक्कों ने घर,रिश्ते, समाज,देश, सबकी गर्दन धड़ से अलग कर दी--
आज इसने नये आदमी का आविष्कार किया है, बिना नाक,कान, आंखों, मुंह,बाला नये आदमी का यह कैसा समाज तैयार किया है न दर्द की चीखें सुनाई देती है इसे न इंसान की हकीकत न बात रखने की जगह न एहसास, बिना दिल की भीड़ का आविष्कार किया है यदा-कदा को छोड़कर हर तरफ इसने-
क्यों कि हमने फोन से दुनियां मुट्ठी में भर रखी है किसी की भी खैर खबर या दिल की तिजोरी में दाखिल होकर पलक झपकते ही खैर खबर ले आते हैं--
कभी हमने मोबाइल की खुशी इस कदर मनाई थीं कि दुनियां मुट्ठी में वाकई भर ली थी क्या पता था कि यह हमसे हमें ही चुरा ले जाएगा--
आज हमारी दिमागी प्रोग्रेस ने हमें कहीं भी सुरक्षित नहीं छोड़ा है हर व्यक्ति के जीवन में बहुत से राज एसे भी होते हैं जिन्हें हम सिर्फ अपनों में ही शेयर कर सकते हैं लेकिन आज मोबाइल ने एसी कोई जगह सुरक्षित नहीं छोड़ी है जहां अपनी बात छुपाकर इंसान रख सकें- हमारा मतलब यह बिल्कुल नहीं हैं कि मोबाइल खराब चीज है वाकई बहुत अच्छी चीज है जो दिनों बर्सों सालों महीनों में हम हासिल कर पाते थे आज बो मिनट सेकेंडों में कर लेते हैं लेकिन इसका इतना गलत उपयोग होगा इसका कतई अंदाजा नहीं था आज हम इसकी वजह से कहीं भी सुरक्षित नहीं है हमारे हर सीक्रेट घर से बाहर जा रहे हमारी प्राइवेसी पूरी तरह से किडनेप हो चुकी है आज एसे बहुत कम लोग हैं जो मोबाइल का सही उपयोग कर रहे हैं इसकी सफलता का उपयोग हम ठीक से नहीं कर पाए हैं जितने हम नुकसान उठाते जा रहे बच्चों का बचपन छीन लिया इसने समय से पहले बच्चे बड़े हो गए मेहनत से दूर होती युवा पीढ़ी रील का उपयोग और मनोरंजन भोग तक रह गया रिश्तों की धज्जियां उड़ा रखीं हैं इस मोबाइल ने बुद्धि का सदुपयोग होना चाहिए था पर साथ साथ इसका दुर्पयोग ज्यादा हो गया जो हमें हमसे दूर ले जा रहा है उस दुनियां में जहां न मर्यादा, संस्कार, तहजीब,न समाज, और देश, सुरक्षित है सच कहा जाए तो इसका उपयोग से ज्यादा आज दुर्पयोग हो रहा है तब हमें इतनी प्रोग्रेस और विकास में कहीं न कहीं पूर्व जरूर याद आता है जो बेसक आज के संसाधनों से दूर था पर चैन और सुकून दोनों हमारे साथ रहते थे--
फिर क्यों न याद आए हमें बो डाकिया--
जो खैर खबर और साथ में--
तहजीबें लाता था--
हमारा खत हमें खोले बिना बो खांस कर--
दहलीज पर दे जाता था--
लेखिका,पत्रकार, दीप्ति,चौहान।

@ #, मुट्ठी भर मिट्टी में उगा तो लीं है बेटियां--मगर खिलने नहीं दीं--कभी कोख से नोची कभी शाख से तोड़ी गईं--मगर महकने नही...
21/07/2025

@ #, मुट्ठी भर मिट्टी में उगा तो लीं है बेटियां--
मगर खिलने नहीं दीं--
कभी कोख से नोची कभी शाख से तोड़ी गईं--
मगर महकने नहीं दीं--
लोग कहते हैं कि जिस घर में बेटी पैदा नहीं होती है बो घर पवित्र और खुशहाल नहीं होता है क्योंकि घर के आंगन में एक कन्या का दान करना शुभ होना माना जाता है--
कहीं दान के लिए कहीं शुभ फल के लिए--
कहीं भोग के लिए तो कहीं खुद के लिए खुद के जीवन से दूर गैरों के लिए उगाईं गई है बेटियां मगर खिलने नहीं दीं--
कितना अजीब है ये जमाना घर में भी मर्द जमाने में भी मर्द सुरक्षा में भी मर्द फिर किससे छुपाईं जा रहीं हैं जब घर और आंगन में हीं खाईं और उघारी जा रही हैं बेटियां मगर खिलने नहीं दीं--
नजर और नजरिया हया पर ओढ़नी बन जाता तो आग में तपा कर नहीं निखारी जातीं बेटियां,निहार लेता गर मर्द खुद को तो, तोड़ पीस कर छानी नहीं जाती बेटियां प्रकृति खुले आवोहवा में खिलती है आधी अधूरी सांसों से उगा तो लीं है बेटियां मगर खिलने नहीं दीं--
कितना नादान है तकदीर लिखने चला है खुद की पहचान से दूर जननी को जानने चला है आदमी, कौन समझाए इसे आग पानी हवा धूप को कौन रोक सकता है प्रकृति पर लांछन भला कौन उगा सकता है मत करो करवटें बदलने को मजबूर इसकी हल्की सी अंगड़ाई में तूफान मचल सकता है सोक बदलने होंगे जमाने को कि आग और नारी खिलौना नहीं मसल ली कोख गर इसने खुदाई ठहर जाएगी,बेटियां वस्तु नहीं जो ताकतों से व्याही और गिराई जाएंगी, संसार का सृजन करने बालीं मुट्ठी भर मिट्टी में उगाई जाएंगी बहुत रोई और चीखी हैं अंधे बहरे जमाने में दूर तक चल कर बिछड़ी है करीब मंजिलों के बेटियां उगा तो लीं है मगर खिलने नहीं दीं--
लोग पहाड़ों की ऊंचाई देखते हैं हमने उसके सीने पर जिद्दी प्रकृति को खुद्दारी से उगते देखा है प्रकृति हूं प्रकृति से सीखती हैं--
सबक यूं-ही तो नहीं उगे होंगे--
मिट्टी छोड़ कर पत्थरों मे--
बहुत रौंदा होगा वजूद प्रकृति का--
कितनी पीड़ाओं से खामोश होकर गुजरीं होगी बेटियां--
उगा तो लीं है मगर खिलने नहीं दीं--
तजुर्बे उम्र से बड़े पड़े हैं सामने--
जैसे अमीर घरानों में बचपन के--
सामने महंगे बेशुमार खिलौने--
कभी खुद से खेली कमी जमाने ने--
जिंदगी खुद की कहां जी पाईं है बेटियां--
उगा तो लीं है मुट्ठी भर मिट्टी में बेटियां--
मगर खिलने नहीं दीं--
जिन उंगलियों से मंजिलें दिखाई गईं--
उन्हीं उंगलियों से छीनी गईं--
त्याग,धेर्य,और सब्र, पर जब खसने लगीं है हदें--
तो हुनर पर उड़ने लगीं है बेटियां--
एक कफन की खातिर न जाने कितने कफन ओढ़ती है आजाद भारत में आज भी कैद में रहती हैं बेटियां--
मुट्ठी भर मिट्टी में उगा तो लीं है बेटियां--
मगर खिलने नहीं दीं--
धरा के सीने पर चौड़ी दरारों में शांति सफर करतीं थीं जो नदियां क्रोध के उफान मे किनारे खसाकर बस्तियों में घुसने लगी है नदियां मत लगाओ बांध प्रकृति की मंजिलों पर बहुत खेला है इसके सब्र से उम्र भर ये जो खेली तो पल छिन में तबाह कर देगी
मोम दिल होती है गरिमा में सिमटा रहने दो--
जरा सी तपन मे
पिघल जाती है बेटियां--
मुट्ठी भर मिट्टी में उगा तो लीं है बेटियां--
मगर खिलने नहीं दीं--
लेखिका,पत्रकार, दीप्ति,चौहान।

15/07/2025

कृपया हम अपने शुभचिंतकों से अनुरोध करते हैं हमें समझाना है तो खुलकर सामने आइएगा अन्दर मैसिंगर में बिल्कुल नहीं ओपन नाम लेकर वरना मैं ओपन करूंगी

@ #,पुरषों में फैलता सक का रोक--महिला पीढ़ी के लिए बढ़ता सक महिला की जिंदगी खाएं जा रहा है फिर चाहे महिला बेगुनाह क्यों ...
11/07/2025

@ #,पुरषों में फैलता सक का रोक--
महिला पीढ़ी के लिए बढ़ता सक महिला की जिंदगी खाएं जा रहा है फिर चाहे महिला बेगुनाह क्यों न हो और पुरुष दस जगह मुंह मार कर--इस पर तुरंत रोक और कानून बनना चाहिए आज पिता, प्रेमी,समाज,सब दिन प्रतिदिन महिला के दुश्मन बनते और बढ़ते जा रहे है सिर्फ एक सक के आधार पर बेटियां न कोख में सुरक्षित है न पिता और समाज की सुरक्षा में एसे पुरूषों से न कि महिला की जान जाती है उसको उसके परिवार से भी दूर कर दिया जाता है एसे समाज को रोकना बहुत जरूरी है वरना बेटियों को तरस जाएगा समाज और आंगन समय पर इस अंधेर को रोकना जनहित के लिए अच्छा होगा वरना पुरूषार्थ सुनहरा भविष्य कभी नहीं लिख सकता है महिला की कोख से जन्मे पुरूषार्थ से सुनहरा जरूर होता है बक्त चीखने लगा है हमें बहरा नहीं कान खोलकर सुनने की आवश्यकता है इंटरनेट पर इतना दल-दल भरा हुआ है कि आंखें शर्मा जाती है इसमें सिर्फ सभ्यता सन रही है मुट्ठी भर बची है सिस्टम को समय रहते आंखें खोलने की जरूरत है आंखें- मतलब इंटरनेट पर सभी मौजूद हैं देख रहे हैं सुन रहे फिर भी दल-दल बढ़ता ही क्यों जा रहा है महिला घर समाज और रिश्तों में कहां सुरक्षित है आखिर जाए तो जाए कहां यह समाज के ठेकेदारों के लिए हमारा सवाल जरूर होगा कि कहां गया बो पुरूषार्थ जो बेटियां बचाने के लिए पगड़ी और जान पर खेल जाता था आज बेटियां दांव पर लगाता जा रहा कहां और क्यों किस काम और मतलब का है ये शक्ति हीन समाज जो स्वार्थ के लिए बिकता जा रहा है।
लेखिका-पत्रकार-दीप्ति-चौहान।

@ #,तुम परिचय से धूल हटा लो--हम भूल हटा लेंगे--दर्पन के चेहरों पर--ये धूल नहीं अच्छी लगती--दीप्ति,
11/07/2025

@ #,तुम परिचय से धूल हटा लो--
हम भूल हटा लेंगे--
दर्पन के चेहरों पर--
ये धूल नहीं अच्छी लगती--
दीप्ति,

@ #,अगर लगाना ही चाहतें हो तो--मां के नाम का पेड़ बस-- नीम ही लगाना--इसके घने आंचल की छांव में--तन-मन स्वस्थ रहते हैं--म...
09/07/2025

@ #,अगर लगाना ही चाहतें हो तो--
मां के नाम का पेड़ बस--
नीम ही लगाना--

इसके घने आंचल की छांव में--
तन-मन स्वस्थ रहते हैं--

मां के नाम का पेड़ बस--
नीम ही लगाना--

मां कड़वी होकर भी--
रोग,नजर भास्कर--
की तेज तपन पी जाती है--

मां के नाम का पेड़ बस--
नीम ही लगाना--

मां कितनी कड़वाहट पीकर--
खुद की घनी छांव तले--
मीठी निमौडी़ बन कर टपकती है--

मां के नाम का पेड़ बस--
नीम ही लगाना-

वदन की तपन सोखकर कर--
पता नहीं कब हाथ फेरकर--
सर पर सीतल तन-मन कर देती है--

मां के नाम का पेड़ बस--
नीम ही लगाना--

इसके मासूम अंकुर को--
सिर्फ दो हाथों से उठाकर--
पवित्र मिट्टी में सजा देना--

मां के नाम का पेड़ बस--
नीम ही लगाना--

हजारों हाथों से उठाकर इसे--
भारी भार मत समझ लेना--
शर्मा जाएंगी--

मां के नाम का पेड़ बस--
नीम ही लगाना--

बहुत हल्की हो गई है ये--
खुदको हम पर खर्च करते-करते--
दो हाथों से उठा लो ये फूल जैसी है--

मां के नाम का पेड़ बस--
नीम ही लगाना--

सारे तीरथ समेटे घर में बैठी है--
जिंदा मां घरौंदों मे--
ये पत्थरों में नहीं है--

मां के नाम का पेड़ बस--
नीम ही लगाना--

नफरतों की आहूतियां देकर--
घरौंदों की सुंगध बन जाती है ये--

मां के नाम का पेड़ बस--
नीम ही लगाना--
दीप्ति,

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Etah
207001

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