Writer Deepti chauhan

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@ #, और रंग देखते हैं,तकदीरों का-- कर्म हो या इंसान-जिस समय में जन्म लेता है--कुंडली उसी समय अनुसार ही बनती है--ऊंची इमा...
27/09/2025

@ #, और रंग देखते हैं,तकदीरों का--
कर्म हो या इंसान-जिस समय में जन्म लेता है--
कुंडली उसी समय अनुसार ही बनती है--
ऊंची इमारतों में बसे शहरों से दूर,,
तंग हालातों पर झोपड़ियों में बसीं बस्तियां,,
बच्चे दीवाली की तैयारी करने लगे हैं,,
कबाड़ों के ढेरों से टूटे दियों के टुकड़े बीनकर,,
पानी में आटा घोलकर,,
बच्चे दियों के टुकड़े जोड़ने लगे हैं,,
ये मासूम दिवाली की तैयारी करने लगे हैं,,
ये मासूम दिवाली को पहचानते हैं,,
क्यों हर रोज अंधेरे के डसे हुए हैं,,
दीवाली की रौशनी में नहाते हैं--
(और देखते हैं रंग तकदीरों का--)
अंधी गरीबी की आंखों से तेल चुरा कर,,
बच्चे बिना तड़के की सब्जी खा रहे हैं,,
क्यों कि बच्चे दिवाली के स्वागत की तैयारी कर रहे हैं--
इमारतों का चकाचौंध पैसों से होता है--
चंद मिनटों में हो जाएगा ऊंचे घरानों के बच्चे इसी सोच में बैठे मोबाइल चला रहे हैं--
कूड़े की सडा़न से हर कोई मुंह ढक कर नहीं निकलता है जिस भोर में हमारे बच्चे सो रहे होते हैं,,
ये बच्चे उस बक्त तक उसी सड़ान से रोटी कमा लाते हैं--
सरकारें पब्लिक की माई बाप होती है उनके अधिकारों के साथ साथ उन्हें हर पर्वों पर समान रूप से इच्छा और सुविधा अनुसार त्योहारी तोहफे देने की पहल होनी चाहिए जैसे घर परिवार में माता पिता बच्चों के लिए कोई न कोई नई गिफ्ट अपनी सुविधा अनुसार देते हैं परिवर्तन में बच्चों की सोच इतनी आगे निकलती जा रही है कि पर्व क्या है मतलब ही भूलते जा रहे हैं सोचिए अगर अभी यह हाल है तो भविष्य कैसा होगा लेकिन हमें नये प्रयासों से अपनी संस्कृति और मानवता को लोटालना होगा क्योंकि आने बाले कल के यही बच्चे बडे़ होकर देश समाज घर के नये परवरिश दिगार होंगे तब-तक हमारी संस्कृति का नामो निशान ही मिट सकता है हमें समय रहते यह सब संभालना होगा कुछ नये प्रयासों से और इन तोहफों का अधिकार समान होना चाहिए जिससे हर दिल में खुशियां एक समान उगे और महकें, एसी सराहनीय नई पहलों से हर तरफ एकता और प्रेम का संदेश,स्नेह भरे तोहफों से पब्लिक में सरकारों के लिए निस्वार्थ एक नई पहल जरूर प्रेम और स्नेह रंग भर सकती है-
इलेक्शन टायम के तोहफे बेसक मेहगे हो सकते हैं लेकिन उन्हें हम निस्वार्थ नहीं कह सकते हैं फिर पक्ष विपक्ष पब्लिक की जुवां और उठती उंगलियां कभी नहीं रूक सकती है-- वोट खरीद जैसे इल्जाम जरूर लगेंगे चर्चा का विषय जरूर बनेंगे और हमेशा ऐसा ही होता भी है सरकारें चाहे किसी की भी रही हो जब पब्लिक के कार्य वर्षों तक संपूर्ण नहीं होते हैं और इलेक्शन टायम पर आकर किये जाते हैं यह भी तो निस्वार्थ नहीं कह सकते है,
काम बोलता है कुछ एसा करना चाहिए कि काम की जुवां बोले पब्लिक खामोश होकर आपकी पहल पर मुस्कराए--
आज बदलते परिवेश में सिर्फ पर्वों के नाम याद जरूर रह गये है,,
लेकिन पर्वों का मतलब मिलजुल कर एक दूसरे के साथ जो खुशी बांटते थे आज खत्म हो गई है,,
लेकिन कोई भी पर्व आने से पहले खर्चा वहीं होता है तैयारी भी वही होती है लेकिन पर्वों की खुशियां इंसानों से निकल कर सिर्फ सोशल मीडिया की मिट्टी में रील बनकर जरूर उगने लगी है फिर चाहे पर्व कोई भी हो, समय से लेकर हर चीज बदलती है फिर हमारी खुशियां क्यों नहीं बदल सकती है पर बदलाव वही अच्छा होता है जो बीते से आने बाला अच्छा हो बदलाव बहुत हो रहे हैं पर बहुत दर्द देय है अपने अपनों से दूर, समाज, समाज से दूर, बेस भूषा भाषा अपमान जनक सभ्यता असभ्यता मे, कहीं धर्मों की लड़ाई, कहीं दौलत और राजनीतिक की,घर बिखर गये, रिश्ते टूट गये हर रिश्ते पर आज कातिल का इल्जाम है, फिर चाहे, बाप बेटा पति पत्नी बहन भाई बेटी मां सांस बहू हो,हम हदों की दीवारें खसा कर इस तरह बाहर निकल गये कि मानुष से अमानुष के बदलाव हमारे अंदर--अमानुष, जब माता पिता के हम कत्ल चंद सिक्कों के लिए करने लगे फिर मानुष में मानुष जैसा क्या बचता है,आखिर समाज सिस्टम कानून और कलमकार कब तक देखते रहेंगे अपना ही तमाशा अपनों के द्वारा बनाया गया हमें बहुत मेहनत करनी होगी इन सब की वापसी के लिए,,
माना कि बहुत दूर जा चुका है कारवां,,
आवाज नहीं पहुंचेगी,,
पर इतनी भी दूर नहीं कि,,
कोशिश नहीं पहुंचेगी,,
बहुत पावर होती है सिस्टम,,
कलमकार और प्रेम में,,
चेहरे जब साफ हों तो,,
आईने कभी नहीं टूटेंगे,,
दौर पत्थरों का इस कदर चला,,
कि चेहरे संवरने के बाद,,
आईने ही टूटने लगे,,
बदलाव अगर है से बेहतर में होता है तो हमारे लिए अच्छा है लेकिन ये मशीनरी का बदलाव आदमी को-- कैसा बदलाव हुआ कि न हम न श्रद्धा न धर्म और इंसान सुरक्षित हैं एसे हालातों से आने बाले भविष्य की अच्छी कल्पना करना बड़ा मुश्किल है।
ये नये सिक्के बहुत पैने हैं,,
ये अपनों का कत्ल अपनों के हाथों से ही,,
पैनी नोक से करवा रहे हैं,,
हमें देर होने से पहले बहुत कुछ सोचना है जो हमारे हित मय हो।
लेखिका -पत्रकार-दीप्ति -चौहान।

@ #,बताओ अंतिम बार मौत किसकी हुई थी--जबसे दीवारें उगी है,,घर छोटे हो गये,,मोबाइल की दुनियां इतनी बड़ी है,,कि बच्चे अब आं...
24/09/2025

@ #,बताओ अंतिम बार मौत किसकी हुई थी--
जबसे दीवारें उगी है,,
घर छोटे हो गये,,
मोबाइल की दुनियां इतनी बड़ी है,,
कि बच्चे अब आंगन में नहीं खेलते,,
बचपन जाने कहां गुम गया,,
जबसे दीवारें उगी हैं,,
घर छोटे हो गये,,
आंचल में अब दूध नहीं बनता,,
क्या कमाल है दवाओं का,,
देखते देखते बच्चे बड़े हो गये,,
जबसे दीवारें उगी हैं,,
घर छोटे हो गये,,
मम्मी पापा का परिवार,,
दादा दादी अब पड़ोसी हो गये,,
मकानों में अब,,
दुआएं नहीं उगती है,,
ऊंची दीवारों में अब,,
बुजुर्गो के हाथ छोटे पड़ गये,,
जबसे दीवारें उगी हैं,,
घर छोटे हो गये,,
घर से निकल कर रौनकें,,
मोहल्ले तक जाते देखी थी,,
मोहल्ले से निकल कर,,
जाने कहां गुम गई,,
जबसे दीवारें उगी है,,
घर छोटे हो गये,,
खानदानी पड़ोसी,,
और पड़ोसी जाने कहां गुम हो गये,,
बंद दहलीजों पर ताले पड़े हैं,,
समाज जाने कहां गुम हो गये,,
जबसे दीवारें उगी हैं--
घर छोटे हो गये,,
जनाजे कब कहां किसके,,
उठ जाते हैं अब खबर नहीं लगती है,,
बड़े नजदीक के निधन का,,
निमंत्रण कार्ड आया है,,
कोई दे गया बच्चों को,,
पर कौन था बच्चे नहीं जानते हैं,,
बड़े बड़े घराने और शहर,,
देश कितने मुलायम हो गये,,
कि मोबाइल की,,
मुट्ठी में भर गये,,
जबसे दीवारें उगी हैं,,
घर छोटे हो गये,,
बच्चों की पहचान,,
अब पापा मम्मी तक रह गई,,
दादा दादी के निधन के बाद,,
वसीयतों का तबादला होना है,,
पर बच्चे बुजुर्गों का नाम नहीं जानते हैं,,
खाक छान डाली है अदालतों की,,
कुटुम्ब रजिस्टर नहीं मिलते हैं,,
क्यों कि अदालतें बुजुर्गों का नाम पूछतीं है,,
बच्चे नाम नहीं जानते हैं,,
अदालतें हैरान हैं आखिर,,
किसके नाम का रजिस्टर निकालें,,
भरी पड़ी हैं कुटुम्ब रजिस्टरों से,,
आखिर किसका रजिस्टर निकालें,,
(अदालतों को हार तक कर दिमाग ने सुझाया)
अदालतें अनुमानित पूछने लगी है बच्चों से,,
अच्छा बताओ घर में अंतिम मौत अभी किसकी हुई है,,
जबसे दीवारें उगी हैं,,
घर छोटे हो गये है,,
वाकई हम सब हाड़ मांस के बने इंसान कितने,,
मुलायम हो गये हैं कि मोबाइल की मुट्ठी में भर गये,,
घर,समाज, रिश्ते, मोबाइल और दौलत की मुट्ठी में भर गये,,
कभी चहल-पहल रहती थी,,
घर गली गलियारों तक,,
आज सब अपने आप में गुम गये,,
पुरानी कड़क हडि्डयों में बुजुर्ग मुलायम न हो सके,,
बो सन्नाटे,बेरूखी,वनवास,या कबाड़े का सामान हो गये,,
जबसे दीवारें उगी हैं,,
घर छोटे हो गये,,
सब अपने आप में अकेले हैं,,
ये फैसन अब आम हो गई,,
क्या तेरा क्या मेरा बदलते परिवेश में,,
सिर्फ आदमी के जिस्म में आदमी,,
बेआत्मा के रह गये,,
जबसे दीवारें उगी हैं,,
घर छोटे हो गये,,
हम सब माया के जाल में फंसे हैं,,
सब एक दूसरे के शिकार हो रहे,,
जिंदा आदमी भूलने का रोगी हो गया,,
मुर्दे क्या खाक स्मृतियों की,,
परवरिश करेंगे,,
सबकी गर्दनें सिक्कों के नीचे दबी है,,
बचा सको तो बचा लो,,
हम सब एक दूसरे के शिकार हैं,,
(भरोसे पलायन कर गए,,)
बचपन-बचपन को भूल गया जवानी जवानी को,,
भविष्य अंधेरा न ओढ़ ले,,
इन चिरागों को तूफानी हवाओं से बचा लो,,
(बहुत देर होने चली है,,,)
अमन और चैन कहीं दूर न निकल जाए,,
अच्छे नहीं लगते ये,,
रूखे रूखे से आदमी,,
चलो भीगते है फिर से,,
भावों के भाप की नमी में,,
चलो बैठेंगे पुराने दरख्तों के तले,,
पसीने की नमी ओढ़कर,,
देखेंगे दोपहरी के यौवन के तमाशे,,
धूल का आंचल पहन कर गरम,,
चिंगारियों की लहरियों बाली,,
ओढ़नी ओढ़ कर नाचती थी,,
घूम घूम कर कितने मासूम थे हम कहते थे,,
ये भूत है छेड़ना मत और खामोशियों में,,
दोपहरी के तमाशे देखते थे,,
(प्रकृति और हम,,)
(कितने करीब रहते थे)
धूप वदन नहीं जलाती थी,,
और पुराने दरख्तों के आंचल,,
मेहनत की नमी वदन से पौंछ कर,,
सीतल तन और मन कर देती थी,,
चलो उन्ही पुराने दरख्तों के आंचल तले,,
बैठेंगे सीतल छांव और दुआओं तले,,
जहां थकान के सिर पर,,
दुआओं के हाथ होते थे--
चलो तोड़ेंगे मिलकर रास्तों के मोड़,
जहां मंजिलें करीब से नजर आती थी,,
तोड़ेंगे दीवारें ये छोटे छोटे घरौंदे,,
अच्छे नहीं लगते,,
सूने आंगन में लोटेगा बचपन,,
नन्हे पांव की स्मृतियां बना कर,,
फर्ज में भूली थकी जवानी को दिखाएंगे,,
लौट चलो उन्ही गांव,शहर,,
और बस्तियों में,,
जहां दहलीजें बंद नहीं होती थी,,
पड़ोसी खानदानी से लगते थे,,
साम को मां रसोई में व्यस्त होती थी,,
और हम दादा दादी के किस्से सुनते थे,,
चलो फिर उन्हीं घरौंदों में,,
जहां सभी अपने और अमन चैन,,
साथ रहते थे,,
प्रकृति बेखौफ कहीं भी अंकुरित,,
होकर हंसती थी,,
परिंदें मुंडेर से उतर कर आंगन में,,
आकर बेखौफ दाना चुनने आते थे,,
पानी हदों में रहता था,,
किनारे नहीं तोड़ते थे,,
कच्चे घरौंदे वतन की मिट्टी में,,
हर मौसम से बे खबर महकते थे,,
तोड़ दो ये दरों दीवारें,,
ये छोटे खामोश घर,,
अच्छे नहीं लगते,,
लेखिका,पत्रकार,दीप्ति,चौहान।

@ #,ये चेहरों के शहर संवरने का सामान बेचते हैं--खुद का चेहरा छुपा कर--परिवर्तन तो प्रकृति का नियम है--फिर आदमी क्यों नही...
22/09/2025

@ #,ये चेहरों के शहर संवरने का सामान बेचते हैं--
खुद का चेहरा छुपा कर--
परिवर्तन तो प्रकृति का नियम है--
फिर आदमी क्यों नहीं--
पतझड़ जब आता है तो --
दरख्त भी नये वस्त्र बदलने के लिए--
कुछ समय के लिए निर्वस्त्र होते हैं--
पके हुए पत्ते झड़ने के बाद शाखाओं पर भी नये पत्ते आने में समय लगता है--
नंगी शाखाएं देखकर आसमां भी अपना नजर और नजरिया बदल लेता है--
चंद दिनों में प्रकृति हरी भरी चमकती हुई हर तरफ फलती फूलती दिखाई देती है--
फिर आदमी क्यों नहीं--

परिवर्तन के पर्व बता दे--
ये कैसा परिवर्तन पहना--

तन पर महंगे वस्त्र पहन कर,,
नजर नजरिया नंगा क्यों है--

परिवर्तन के पर्व बता दें--
ये कैसा परिवर्तन पहना--
काश बदलते हुए आदमी ने भी नया नजर और नजरिया पहन कर पुरुषार्थ पहना होता तो आज जननी निर्वस्त्र नहीं देखता क्यों यह नग्नता आदमी पसंद नहीं करता तो ये जो फेसन वदन खोलने की कभी नहीं आती लेकिन चेहरों में बोलती है रीयल्टी और पैसों में रील कितने चेहरों में रहता है आदमी आदमी को ही पता नहीं--
परिवर्तन पहन कर आसमां अपने कद को ऊंचा करता है क्योंकि जननी की आबरू पर वस्त्र बनकर झुक जाता है बदलने के नियम में प्रोग्रेस होनी चाहिए जरूरी था पर आदमी ने जिस्म से दिमाग बदल कर कमाऊ मशीन तो बना ली पर आदमी के जिस्म को चलाने बाला दिमाग बदल लिया और परिणाम आज सामने है--
कि जिस्म की भूंख आबरू खाने लगी--
पैसों की पूर्ति रिश्ते खाने लगी--
आज हर रिश्ता कातिल, सौदागर, धोखेबाज, और अपवित्र है, कोई बताएगा यहां कौन सा रिश्ता पवित्र और वफादार या फर्ज निभाने वाले बचे हैं--
माता पिता, पुत्रः पुत्री,सांस,बहू,भाई,भाई--
यहां सब बदल गये अपनी-अपनी जरूरतों के हिसाब से--
संसार के बाजार में सबसे ज्यादा चेहरों का रोजगार फल फूल रहा है इतनी अच्छी आर्ट पहनी है परिवर्तन ने कि ईश्वर को मात दे रहा पर एक हकीकत से अभी तक दूर है अभी तक बो जो करता है उसे कोई देख नहीं सकता है भूल कर कि उसे वहीं देख रहा है जिसे देखना चाहिए आदमी कितना भी पैसे बाला और ताकत वर क्यों न हो ईश्वर के भय में जीना जरूरी है दिखावे की दुनियां सिर्फ कुछ समय तक सीमित ही रह सकती जिस दिन कर्मा ने हिसाब लेना शुरू कर दिया न फिर सब धरा का धरा रह जाता है जाने कितने हस्र और हादसे इतिहास में सामिल है इतिहास अच्छों का ही नहीं बनता है बुरे का भी यादगार बन जाता है जब भी कोई बुराई होती है तब बो आदमी बेसक नहीं है दुनियां में पर बो मौत के बाद भी अपने कर्मा से पहचाना जाता है, सूरत और सीरत दोनों एक कभी नहीं हो सकती है और आदमी एक में ही--अगर वाकई देवियों की पूजा होती श्रद्धा मय तो गंगा यमुना सरस्वती नदियां पानी पानी होकर प्रकोप कभी नहीं पहनती और आदमी जीवन भर करता है पर बो संतुष्ट नहीं कर पाता है अपनी सोच फिर चाहे उसकी सोच में कुछ भी हो,पर प्रकृति पलक झपकते करके हाथ में तबाही थमा कर चली जाती है-
आज किधर से मानव समाज दिखाई दे रहा और कौन सी आंखें और सोच यह बताएंगी कि वाकई मानव समाज इसी को कहते हैं रिश्ते रिश्तों को खा रहे, आबरू को सुरक्षक का रहे, पवित्रता दुर्गंध बन गई, भाईचारे शक्ति के खंजर बन गये,
माता पिता स्वार्थ ने, बचा क्या है जो परिवर्तन ने पहना नहीं है घर,समाज, रिश्ते, पवित्रता, राजनीति, बेस भूषा, भाषा,धर्म, ज्ञान,ये सब भीड़ के हिस्से हैं फिर यदा-कदा में बसा सत्य दिखाई कैसे देगा-
जब शोर भीड़ में हो,,
खामोशी कौन सुनता है--
जैसे कि पत्थर में भगवान--
साक्षात कौन देखता है--
आदमी सोचता है कि हम जो कर रहे उसे कोई नहीं देखता और जानता है, अरे हम यही तो भूल रहे हैं कि वही देखता है आदमी तुझे जिसे देखना जरूरी होता है--
तेरा कर्मा खामोशियों में ही लिखा जाता है--
यही तो है ईश्वर की चाल और राजनीति--
कि आदमी बोलता है और ईश्वर खामोश रहता है--
क्यों वहीं तो हमारा कर्मा लिखा जाता है--
जहां हमें हमसे बड़ा ताकत वर और पैसे बाला हमें दूसरा दिखाई नहीं देता है--
मन अगर भटके तो श्मशान में--
घूम आया करो--
सुना है बो सबसे बड़ी अदालत है न गवाह की जरूरत न पैसों की आंखों में भरते ही इंसाफ मिल जाता है--
मन अगर भटके तो श्यमशान में--
घूम आया करो--
तेरी ऊंची इमारत एक झोपड़ी के पास पड़ी है--
भर सको तो सोच के हाथों में भर लाना--
न गाड़ी की जरूरत है न मजबूर कंधों कुलियों की--
मुट्ठी भर राख में पड़ी है सोच की मुट्ठी में भर लाना--
नहीं तो चंद दिनों में हवाएं फूंक में भर कर जाने कहां से कहां--
क्यों कि बो दो गज जमीन भी राख साफ होने तक की वसीयत है, फिर कोई और इमारत को वहीं मुक्त होना है--
ज्ञान आत्मा बांटती है जो कागज पर उतर कर डिग्रियों में सामिल होता है आदमी पढ़-लिख कर खुद को विद्वान ज्ञानी साधु संत कहलाता है--
आत्मा कोई किसी रंग का चोला नहीं पहनती हैं,,
खुदकी पहचान बताने के लिए--
बो जुवां से निकल कर जब बाहर आती है परिचय अनपढ़ भी पढ़ लेते हैं--
ये चेहरों के शहर संवरने का सामान बेचते हैं--
खुद का चेहरा छुपाकर--
कितने नादान है आईने को आदमी कहते हैं--
खुद का चेहरा छुपा कर--
लेखिका-पत्रकार-दीप्ति चौहान।

@ #, हिंदी उत्सव को समर्पित चंद शब्द--दौलत मुझसे और में दौलत से खेलती हूं-- मगर में हंसती नहीं हूं-- अब आए दिन नजर लगती ...
14/09/2025

@ #, हिंदी उत्सव को समर्पित चंद शब्द--
दौलत मुझसे और में दौलत से खेलती हूं--
मगर में हंसती नहीं हूं--
अब आए दिन नजर लगती रहती है मुझे--
उतरती भी कैसे मेरे पास बो मां के जैसे सिक्के नहीं है अब में नजर में कैद हूं--
मगर में हंसती नहीं हूं--

सामने कोरा कागज पड़ा था जैसे बो मुझसे कुछ कहना चाह रहा है और में उससे,,
दोनों में मौन लहजे मौजूद थे पर बात दिल से निकल कर गले मे आ खड़ी हुई थी जैसे अंदर से कोई जोर से आवाज देकर बुला रहा हो लाड़ो--
मगर कोई दिखाई नहीं दे रहा था में आश्चर्य चकित इधर से-उधर देख रही थी और मेरे अंदर से कोई जोर से चीख पड़ा था--
(मां)
बस इतनी सी बात ने मेरे अंदर तहलका मचाया हुआ था और में अनपढ़ सी समझ ही नहीं पा रही थी क्योंकि बो पहली और नई जुवान का प्रीमियर था जो पहली बार हर शिशु के गले से निकलने के पहले होता है मुस्कराते हुए (मां) और मां ने ये आवाज सुनकर मुझे सीने से लगा कर अपना आंचल खोल दिया--
इससे ज्यादा बड़ी और कोई डिग्री नहीं थी नौ महीने का बो घर, और दुनियां में लाने का सौभाग्य,पहली भूंख और मुस्कान की आवाज जिसे सिर्फ मां सुनती है।
इसके कर्ज उतारने की कोई दौलत कहां बनी है मैं करती भी क्या मैने तेरा नाम लेने से पहले मुझे मेरी मां का बो चेहरा और बो आवाज सुनाई दी लाड़ो है--

माफ करना मेरे रब मुझे--
कि मैंने तुझे रब कहने से पहले मां कह दिया--
लेखिका पत्रकार दीप्ति चौहान।

@ #,बहुत चोट देते हैं ये पत्थरों के आंगन-- पापा की हथेली मां के होंठों की गरम भाप--रे मन तुम लेते आना-- बंद घर की दहलीज ...
12/09/2025

@ #,बहुत चोट देते हैं ये पत्थरों के आंगन--
पापा की हथेली मां के होंठों की गरम भाप--

रे मन तुम लेते आना--

बंद घर की दहलीज पर---
कुछ संदेश पड़े होंगे--

रेमन तुम लेते आना--

कितने मौसम गुजरे होंगे--
उस उदास बंद दहलीज से होकर--
कुछ संदेश तो पड़े होंगे--

रे मन तुम लेते आना--

कितने नादान थे हम--
बिछड़ते बक्त कोई बादा न लिया--
उस मासूमियत से मलाल तो पड़े होगे --

रे मन तुम लेते आना--

जाने क्यों बेचैन है रूह--
आज बिना बातों के बो बात--

रे मन तुम लेते आना--

न फिसलने का डर न चोट का--
बो आंगन और खिलौने--
कुछ तो होंगे अंग भंग--

रे मन तुम लेते आना--

बो गुदगुदी मिट्टी का आंगन--
नंगे पांव सहलाते थे--

रे मन तुम लेते आना--

बहुत चोट देते हैं ये पत्थरों के आंगन--
पापा की हथेली मां के होंठों की बो गरम भाप--

रे मन तुम लेते आना--
दीप्ति,

04/09/2025

@ #, ये कैसी पूजा है--
गणेश उत्सव के बाद गणेश मूर्तियों का विसर्जन होना हमारी संस्कृति में सामिल क्यों हुआ है हमें नहीं पता यहां सवाल भी और जबाव भी है पर हम उस बहस से हटकर हर बार लिखते हैं कि ये नहीं होना चाहिए इस प्रथा से हम पुन्य कम और पाप ज्यादा कमा लेते हैं सोचनीय विषय है कि विसर्जन किसका होता है जीवित या मृतक का हम सप्ताह दस दिन की पूजा के बाद गणेश जी की मूर्तियों का विसर्जन करते हैं बेरहमी तो वहां से ही दिखाई देने लगती है कि हम कहीं से भी उन्हें पानी में फैंक कर और चले आते हैं सोरी कहने में,,जैसे किसी का अंतिम संस्कार कर आए हो हमें सोचकर श्रद्धा को दिल में दर्द होता है और ऐसा करने बाले भक्त लौटते समय गा बजाकर घर खुशियों के साथ लौटते हैं उसके बाद उन मूर्तियों की जो दुर्दशा होती है उसका बखान करना मात्र तकलीफ देता है, हम हर साल इस दर्द को महसूस करते और लिखते भी हैं लेकिन असर कहीं भी नहीं है, कि जो मूर्तियां हम जिस मूर्तिकार से लेकर आते हैं उससे हम संसोधन के तौर पर कह कर शुरुआत तो करें कि पूजन के बाद हम इन मूर्तियों को वापस आपके पास सुरक्षित लेकर आएंगे इन्हें आप संभाल कर रखना जिससे आने बाले उत्सव से पहले इन्हीं मूर्तियों में रंग भर नया कर सकते हैं जिससे उस मूर्तिकार को फायदा भी होगा क्योंकि मूर्तियों को बनाने में हर साल जो पूरा खर्चा करना पड़ता है बो बचकर सिर्फ रंगों में करना पड़ेगा इस तरह से एक गरीब की मदद के साथ साथ हमारी पूजा भी सफल होगी हर साल खुश होकर उन्हें दोबारा लाने में जो शांति और सुकून मिलेगा जैसे कोई मेहमान एक साल बाद फिर से आया है सही मायनों में वही हमारी पूजा का मतलब होगा, दर्द होता है आज की इस ढोंगी प्रथा पर कि इंसान देवी देवताओं को अपने-अपने स्वार्थ के अनुसार जिन्दा भी कर लेता है और मारकर अंतिम संस्कार भी करके कह आता कि गणपति बप्पा अगली बरस
तुम फिर आना और हमें कुवेर बनाने का आशीर्वाद देना आकर जैसे इस वर्ष बनाया है, सच आज इंसान ने ईश्वर का और ईश्वर ने इंसान की जगह लेली है शायद उसी का परिणाम आज हर तरफ देखने को भी मिल रहा है कहने में दर्द भी हो रहा है लेकिन हकीकत को छुपाना भी तो गुनाह है कि इस बार गणेश की मूर्ति विसर्जन के लिए भक्तों को ज्यादा दूर नहीं जाना पड़ेगा क्योंकि पानी खुद चलकर गणेश जी को लेने आ गया है हमारे पास।
लेखिका,पत्रकार,दीप्ति चौहान।

@ #, मासूम और तोतले लहजे,,ये दवाओं का असर था,,या गुनाहों का,,कि मासूम इतनी जल्दी,,बड़ी कैसे हो गई,,ये शब्दों के दांत यूं...
29/08/2025

@ #, मासूम और तोतले लहजे,,
ये दवाओं का असर था,,
या गुनाहों का,,
कि मासूम इतनी जल्दी,,
बड़ी कैसे हो गई,,
ये शब्दों के दांत यूं ही तो नहीं उगे होंगे,,
बेटियों ने कितने दर्द निचोड़ कर पिए होंगे,,
ये बेटियों के कंकाल और दांत,,
यूं ही तो नहीं उगे होंगे--
बेटियों ने कितने धेर्य पिए होंगे,,
मिट्टी का धेर्य यूं हीं तो नहीं फूटा होगा,,
तब जाकर उगे होंगे वीरांगनाओं के दांत,,
हया बेखौफ थी मर्दानगी की सुरक्षा में,,
ये पलकें यूं ही तो नहीं खुली होंगी,,
याद आये तो होंगे कंकालों को देखकर वहीं मुस्कराते होंठ दबी जुबानों के भीतर मासूम कांपते और तोतले लहजे जो होंठों के बिना खुले महका देते थे घर आंगन और खामोश खड़ी दीवारें बोलने लगती थी,,
कितना इंतजार करती थी मां कितनी बार उंगलियों से खोलकर देखती थी मासूम के होंठ कि कब निकलेंगे मेरी लाडो के दांत,,
और कब मेरे जैसे निवाले खाकर बड़ी होगी मेरी लाडो जो हंसेगी खिलखिला कर और उसके नन्हें नन्हें से चमकेंगे दांत,,
मां बेखौफ उंगलियां डालकर मुंह में चबाने को कहती थी फिर आहिस्ता-आहिस्ता से चूसती थी लाडो मां की उंगलियों को पर चोट नहीं लगने देती थी मां चोट का ड्रामा करती थी और लाडो सहम जाती थी मां सारे ड्रामे छोड़ कर लाडो को सीने से लगाकर कहती थी कि देखो मुझे दर्द नहीं होता है क्योंकि मां को दर्द तो होता था पर मासूम के भरोसे के लिए मां चोट भी पी जाती थी सोच कर कि उंगली मासूम के मुंह में हमने ही तो दी थी उसने पकड़ कर तो नहीं चबाई थी मासूम भी भरोसे पर ही मुस्कराता है जिसके आंचल में प्यार और दुलार और भरोसा होता है जहां चोट होती है वहां दर्द तो होता है,
काश ये एहसास खुदके दर्द से पहले कराहा होता,,
तो खुद की चोट से पहले पराई चोट का एहसास जरूर होता,,
तो शायद आज किसी की बेटी न बदचलन दिखती न उसके लहजों में उगते दांत,,
जाने कितने दांतों से नोचे होंगे बेटियों के जिस्म,,
ये आत्मा यूं ही तो बेटियों के जिस्म से रूखसत नहीं हुई होगी,,
ये ढेरों कंकालों में बेटियों के हंसते खेलते जिस्म यूं ही तो धरा के सीने पर कंकालों में नहीं पड़े होंगे,,
मिट्टी का धेर्य यूं ही तो नहीं फूटा होगा,,
तब जाकर उगे होंगे वीरांगनाओं के दांत,,
लेखिका,पत्रकार,दीप्ति,चौहान

@ #,देर से हुई वापसी का दर्द भी है,पर नहीं भी,,क्यों कि फर्ज भी निभाने थे,,स्त्री हूं स्त्री होने के,,कर्ज भी उतारने थे,...
25/08/2025

@ #,देर से हुई वापसी का दर्द भी है,
पर नहीं भी,,
क्यों कि फर्ज भी निभाने थे,,
स्त्री हूं स्त्री होने के,,
कर्ज भी उतारने थे,,
मुद्दतों का अंधकार जब हुआ प्रकाश मय,,
जल उठे बुझे चिराग दीप्ति के प्रवेश मय,,

जब खुद के अंदर देखा तो एसा लगा कि व्यर्थ का जीवन गंवा दिया व्यर्थ का सफर करके फिर सोचा कि जो भी होता है अच्छे के लिए ही होता है एसा नहीं था कि हम खामोश बैठे थे हां जीवन के सफर को पांव पांव जरूर चल रहे थे और बहुत दूर तक चले भी और कामयाब भी हुए, जख्मों पर खुदके चलकर एक बेहतरीन सफर भी तय किया है यह लोग क्या जाने जो चार दिन की संवेदनाओं का मेला फिर वही जख्म और दर्द के, ये दुनियां बो नहीं थी जिसमें कभी ग़म सांझा सांझा किये जाते थे आज खुद के जख्मों पर खुद आशुओं के मरहम होते हैं या तो आंखों से दर्द बहा दो या दुनियां को देखलो क्यों कि जीना तो हमें तब तक होगा जब तक कि सांसें हैं,
(आशुओं को आंचल जो मिल जाता,,
तो हम आंखों को समंदर बना लेते,,
दर्द को मरहम जो मिल जाता,,
तो हम जख्मों की बस्तियां बसा लेते,,)
इस दुनियां ने दिमागी प्रोग्रेस इतनी कर ली है कि दिल पलायन कर गया जख्म तो जख्म होते हैं एक से तन एक रंग लहू, पर ये हुए कैसे यह तो वही बता सकता है जिसके तन पर लगे हो जैसे आशुओं का रंग भी तो पानी जैसा होता है पर पहचान उसी को होती है जिसने प्यास में आंशू पिये हों जिसने आशुओं का नमक पिया हो दर्द की अदायगी वहीं चुका सकता है,
अब न दोस्त हैं कोई न रिश्तेदार जो पानी में से आंशू छानकर ले आए,
कौन कहता है कि हमें दर्द नहीं हुआ है,,
लोग हमारी आंखों में नमी तलाशते रहे,,
और हम पानी के आंचल से रो रो कर पौंछते रहे,,
यौवन की लास को कंधों पर लेकर,,
अकेले भार से कराहते रहे,,

फूल खिला भी न था कि बक्त का पत्थर आ गिरा,,
जरा सी मुस्कान की महंक में हम जीते रहे,,

जो होता है बो अच्छे के लिए होता है धन्यवाद ईश्वर का करें या इस दुनियां का कि पांव की जगह बीज पंखों का ले आई और ईश्वर का इस लिए कि हमें उसने हर हाल में जीने का हुनर दिया है बस पांव के सफर पर पीछे दुनियां थी, और पंखों की उड़ान में तीर और शिकारी आसमान पर स्त्री खुलकर जीने कब दी है इस समाज ने यह तो मां की कोख में भी खंजर से कत्ल होती रही है और पति परमेश्वर की रक्षा में भी जिंदा जलाया गया कहीं आरोप कहीं चीरहरण ताने-बाने की दुनियां में यह किस तरह जीती है यह कौन समझ सकता है,
दूल्हों की मंहगाई में ये जिंदा जल कर राख हुई,,
कितने परियों के पापा की ,पगड़ी भी नीलाम हुई,,
आज कामयाबी के शिखर पर भी जब स्त्री चुभ रही है तो हम कल्पना कर सकते कि स्त्री का जीवन कितना दुखद बना दिया गया है हर तरफ से जैसे कोहराम मचा हुआ है इसके खिलाफ जैसे अकेली स्त्री ने सारा माहोल बदल कर रख दिया हो और सबसे बुरा असर आज की सोच है हर व्यक्ति की जो समाज को समाज से बाहर ले गई वहां भी बलदेवी रही तो स्त्री ही वरना समाज की एकता होती तो आज स्त्री और प्रकृति की इतनी बड़ी दुर्दशा कभी नहीं होती आज समाज की आंखों तले स्त्री जिंदा जलाई जा रही चीरहरण हो रहे टुकड़े किडनैप हो रहे हैं यह सब अति का स्वार्थ और अज्ञानता कारण बन गई स्त्री की दुर्दशा का बेखौफ पुरूषार्थ की स्वतंत्रता का हल्ला आज खुद का विनाश ढूंढ कर लाया है चाहे पानी के द्वारा या स्त्री की बदलती सोच के द्वारा क्यों कि उसकी बो तानाशाही आज खत्म हो रही है जब स्त्री को दो बक्त की रोटियां एहसान की तरह नशीव होती थी इस गुरूर में स्त्री की अक्ल सिर्फ घोटुओं तक होती है और आज बो हम कदम चल रही है जो असहनीय हो रहा है स्वतंत्रता का मतलब सिर्फ पुरुष एक मतलब समझ रहा है जो आज चीख चीख कर सामने आ रहा है और कामयाब स्त्री को जिंदा मौत दे रहा है इसे खुद नहीं पता कि इसका कर्मा इसके विनाश का कारण बनने जा रहा है क्योंकि स्त्री से इस पुरूष की पहचान है स्त्री की नहीं यह भूल रहा है आज जब एक कामयाब स्त्री के साथ इतना गंदा व्बहार किया जाएगा तो क्या उसकी सोच में वही सादगी धेर्य शांति त्याग बना रहेगा उस के दर्द नहीं होता है या एहसास नहीं होता है कहीं देर न हो जाए सोचने और चिंतन मे।
लेखिका, पत्रकार, दीप्ति चौहान।

@ #,जिंदगी भर फूल बेचे--शूल तो होना था हमको--मंजिलों के मोड़ तोड़े--पत्थरों की नोक बीनी--इन मुलायम हाथ और--पांवों से चोट...
06/08/2025

@ #,जिंदगी भर फूल बेचे--
शूल तो होना था हमको--

मंजिलों के मोड़ तोड़े--
पत्थरों की नोक बीनी--

इन मुलायम हाथ और--
पांवों से चोटिल होना था हमको--

बेगुनाही जब विवादित हो रही है--
फिर अदालत में सफाई पेश--
क्यों होना था हमको--

चल दिले नादान यहां फिर--
जुर्म हंसने का करें--

जिंदगी भर फूल बेचे--
अब और धंधा क्या करें--

जिंदगी भर फूल बेचे--
शूल तो होना था हमको--
दीप्ति,

05/08/2025

@ #, क्यों बदले रूख सीधे साधे--
गंगा यमुना सरस्वती ने--
क्यों रौद्र रूप पहना है आज प्रकृति ने--
क्यों पर्वत का ताज खसा आ गिरा धरा के सीने पर--
क्यों आधी नींदों से उठ कर अंगड़ाई ली है दोनों ने--

घर बचाकर रखो इन्हे राज मिस्त्री नहीं--
एक स्त्री बनाती है--
मानव और रिश्तों को ईंट गारे से नहीं--
खुद के जिस्म की मिट्टी नोचकर खुद के लहू में मसल कर मानव मूर्ति--
एक स्त्री बनाती है--
मंदिरों में बैठें या मस्जिदों में समाज या कुर्सियों पर--
इन सभी मूर्तियों को कोई मूर्तिकार नहीं नौ महीने कोख में रखकर इन्हें--
एक स्त्री बनाती है--
जननी हो या जन्मभूमि घर और सीमाओं पर चार दीवारी पुत्रों की पहरेदारी--
एक स्त्री बनाती है--
क्यों पहना प्रकोप का पानी गंगा,यमुना,सरस्वती,ने किन प्रकोप के पांवों से फांदें है किनारे इन तीनों धाराओं ने--
रौद्र रूप तन पर क्यों पहना किन हालातों ने फांदे है आज किनारे--
क्यों बदले रूख सीधे साधे--
ये करूणा का पानी नहीं जो आन घुसा बस्तियों में--
शायद नींव घरों की प्यासी तड़पन पहुंची होगी कोई, कोई हिस्सा टूट घरों का पहुंचा होगा--
किन चोटों से टूट रहे हैं आज घरौंदे--
किन पीड़ाओं की आंखें बहकर पहुंची है--
क्यों जननी और जन्मभूमि का संगम घूम रहा है--
घर गलियारों में--
कभी बारिशें आकर गलियों में बहती थी-
कागज की कश्ती पर होते थे मासूम खिवइया-- दादी,नानी, मम्मी,देती थी प्यारे से पेहरा--
लकड़ी की कश्ती पर बैठा खौफजदा क्यों आज खिवइया--
रिश्तों की दीवारें टूटीं मरियादाऔं की दहलीजें-- चौपालों के भाईचारे सन्नाटों में आज सो रहीं मजहब की रौनकें बस्तियां--
आज मकानों की ये बस्तियां क्यों हैं पानी पानी--
किन चोटों से छलकी आंखें जननी जन्मभूमि की--
तन से चीर खिचे है जब-जब जननी जन्मभूमि के--
तब-तब प्रलय तबाही लेकर उतरी है दोनों में--

क्यों करूणा के पानी में विश बन कर तैरा है--
क्यों रौद्र रूप पहना है आज प्रकृति ने--

क्यों पर्वत का ताज खसा आ गिरा धरा के सीने पर--
क्यों आधी नींदों से उठ कर अंगड़ाई ली है दोनों ने--
लेखिका,पत्रकार,दीप्ति,चौहान।

@ #,मैं लड़की जाति--मकान बनाने बाले राज मिस्त्री चाचा ने बड़े सोच समझ कर मकान बनाया था,जिसमें उन्होंने तीन रूम और और एक ...
26/07/2025

@ #,मैं लड़की जाति--
मकान बनाने बाले राज मिस्त्री चाचा ने बड़े सोच समझ कर मकान बनाया था,जिसमें उन्होंने तीन रूम और और एक बाहर छोटा-सा गार्डन रखा था पेड़ पौधे या अन्य कार्यों के लिए पहला रूम दादा, दादी का, दूसरा मां और पापा का, तीसरा मेहमानों का,इस मकान का सफर एक आम परिवार से शुरू होता है, और कहां तक सफर करता है---
मकान का अंतिम कार्य और राज मिस्त्री चाचा के विदाई का दिन जिसमें उन्होंने कहा अगर इसी दिन घर प्रवेश कर लो आप लोग तो मुझे अच्छा लगेगा सभी ने हंसते हुए चाचा का समर्थन किया और एक छोटा सा प्रोग्राम का आयोजन कर घर में प्रवेश करा दिया राज मिस्त्री चाचा का दादा दादी के पास आना जाना एक राज मिस्त्री की हैसियत से नहीं था परिवार के मेम्बर की तरह रहा था सो उनकी अच्छी राय का सब दिल से समर्थन करते थे पूजा कार्य के सम्पन्न होने के बाद उन्होंने घर की बड़ी बहू से कहा कि बेटा हमने तो सिर्फ एक मकान बनाया है तुम इसे घर बनाकर हमारी इस कला का सम्मान रखना क्योंकि मै इस घर का पुराना नमक खाता आ राहा हूं इस लिए राज मिस्त्री की हैसियत से नहीं तुम्हारे पति के चाचा की हैसियत समझ कर दिल की बात कर रहा हूं मां ने मुस्कुराते हुए माथे तक आंचल रखकर उनके पांव छूए तो उन्होंने मां के सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद दिया और कहा बेटा अब मैं चलता हूं समय मिलने पर अवश्य आऊंगा उनकी विदाई के बाद मां ने अपना ग्रह कार्य संभालना शुरू कर दिया पहले दादा दादी का रूम संभाला फिर खुद और पापा का दादा सरकारी जोब से रिटायर हो चुके थे और पापा का नया जोब शुरू हुआ था मां सुबह जल्दी उठती थी भोर पूरी तरह से साफ नहीं होती थी पापा और मेरा स्कूल लंच बॉक्स खाना तैयार करती थी दादा दादी के के लिए चाय पानी से लेकर दोपहर लंच तक की तैयारी से लेकर घर की साफ-सफाई तक मां सारा दिन घर के कार्यों में लगी रहती थी पापा का देर साम तक घर आना होता था तब तक मां के साम की खाने की तैयारी पुनः फिर शुरू हो जाती थी मां पापा बस मुस्करा कर थोड़ी देर चाय और हल्का फुल्का साथ में नाश्ता लेकर दादा दादी के रूम में चले जाते मां किचन और घर के अन्य कार्यों में व्यस्त रहती थी सुबह से साम तक की थकान को मां मुस्कान में छुपा लेती थी किसी को कुछ भी महसूस नहीं होने देती थी कि उसको सुबह से शाम तक क्या फील होता है श्रावण मास की तीजें आने बाली थी और मां ने अपने हाथों में न मेहंदी लगाने का समय निकाल पा रही थी न खुद के संवरने का दादा दादी और पापा को खाना खिला रही थी तभी दादी ने कहा बहू कल तीजों का त्योहार है फलां फलां तैयारी के साथ तुम अपने भी जरूरत का सामान मंगवा लेना कर लेना क्योंकि तीजों का त्योहार बहू बेटियों का होता है सो अच्छी तरह से तैयार हो जाना--
जो तुम्हें जरूरत हो बो बेटा को बोल देना साम को लौटते बक्त लेता आएगा मां ने हल्के से सिर हिला कर हां कह दिया दूसरे दिन तीजें मां ने बड़े अच्छे से सारी तैयारी की पूजा से लेकर खाने तक की सभी बहुत खुश थे- पर मां को खुद के लिए समय नहीं मिला जो तैयार होती फिर भी उसने मुस्कुराते हुए तीजों का त्योहार मनाया किसी को भी यह महसूस ही नहीं होने दिया कि बीते त्योहार की भोर इतनी सादगी से आ जाएगी जैसे कि मां के बिना मेहंदी बाले हाथ और सूने महावर बिना पांव उससे कुछ पूछे जा रहे हैं और बो मुस्कुरा कर टालती जा रही थी किसी को कुछ बोले हुए थोड़ा सा समय का साथ मिला मां दर्पन पर बैठकर बड़े खामोशी से खुश होकर खुद को देखें जा रही थी बड़े धीमे-धीमे से होंठों के भीतर कुछ कहती जा रही थी कहते हैं बेटी मां की एक सहेली की तरह होती है बो उसकी हर गतिविधियों को उसके साथ छाया बनकर साथ रहकर पता करती रहती है उस दिन भी वही हुआ था कि मां की बात होंठों के अंदर हलचल मचा रही थी पर कांपते होठों से बाहर नहीं आ रहीं थीं--
एक बेटी का अंतर मन उसे मन ही मन केच कर रहा था-
(मां कह रही थी)
कि मैं लड़की जाति कभी-कभी खुद में उस लकड़ी का रूप क्यों देखती हूं जिसमें दीमक के दो कीटाणु प्रवेश करते हैं और पूरी बस्तियां बसा लेते हैं और लड़की धीरे धीरे बिल्कुल खोखली हो जाती है उसके अंदर देखते-देखते जीवन एक श्मशान की तरह बन जाता है जैसे बिना फीलिंग के जिंदा बोलती लास उजड़ा यौवन जिस पर न कोई बहार न कोई खुशी खुद के अंदर सिर्फ एक हंसता हुआ घर दिखाई देता है हर चेहरे पर एक मुस्कान लिए, जिसमें उसने खुद को खर्च कर थोप दिया और खुद अंदर से खोखली-- एक खाली खंडहर की तरह जिसमें लड़की नहीं बो खाली खोखली लकड़ी जो घर को घर बनाने में खर्च कर देती है और किसी को पता भी नहीं चलता है शिवाय उस हंसते हुए घर के क्योंकि उसके जीवन को फर्जों ने एक दीमक की तरह धीरे धीरे खाकर खोखला जो कर दिया होता है और उस हंसते हुए घर को पता भी नहीं चलता खैर--
एक दिन राजमिस्त्री चाचा का अचानक आना हुआ और उनकी नजर ने चारों तरफ देखना शुरू किया जिधर नजर जाती थी उनकी खुशी का ठिकाना न रहा तभी मां उनके लिए हाथ में चाय लेकर आती है और रखकर मुस्कराती हुई सिर झुकाकर उन्हें नमस्कार करती उनके पांव छूती और उनकी खैर खबर पूछने लगती है, चाचा कुछ सुस्त नजर आ रहे थे मां को देखते हुए बोले बेटा तुम बताओ कैसी हो तबियत तो ठीक है मां, हां चाचा ठीक है,पर चाचा बेटा आपको देखने में तो बिल्कुल नहीं लगता है कि तुम ठीक हो जब हम छोड़कर गये थे उस दिन का चेहरा आज का मुझे बिल्कुल नहीं लग रहा है कि तुम वही हो हां ये मकान जरूर आज हंसता मुस्कुराता घर दिखाई दे रहा है, मां आंखों में नमी होंठों पर हल्की मुस्कान लेकर वापस चली जाती है--
और दादा दादी और चाचा बैठे बात करते रहते हैं चाचा मां को लेकर काफी दुखी दिख रहे थे पर बोलने में इजी महसूस नहीं कर पा रहे थे--
मां को उस दिन चाचा में खुदके पापा का स्नेह साफ नजर आ रहा था जिसने उनको लेकर मां में बदलाव और खालीपन को महसूस किया था--
घर,समाज, और हमारा कल्चर, आखिर इतना निष्ठुर क्यों बना दिया गया है कि स्त्री अंदर ही अंदर खोखली होती रहती है तब इसको दिखाई नहीं देता है और इसकी हल्की खुशी पर अपार भीड़ उमड़ पड़ती है, पर घर समाज और कल्चर का फर्ज कितना और किस पर टिका है इस का मतलब क्या है आज तक समझ से परे क्यों है, पूर्व से लेकर आज तक इसकी दुर्दशा पर इतनी खामोशी और जरा सी खुशी पर इतना हंगामा क्यों है--
पर इस घर समाज कल्चर रिश्तों से एक स्त्री की सुरक्षा और परवरिश क्यों नहीं हुई इसने तो संसार का निर्माण और परवरिश करके आपको दे दिया--
समाज में इसकी दुर्दशा पर क्या सुझाएं कि ये देखकर अंधा, बहरा, और गूंगा, हो जाता है--
और जरा सी खुशी पर उसी आग की तरह गीली लकड़ी बन कर टूट पड़ता है जो पूरे जीवन पर धीरे-धीरे सुलग सुलग कर इतना गहरा धुआं बनकर इसके रातों ओढ़ लेता है कि शिवाय इसके अंदर बड़े श्यमशान की बस्तियां तो नजर आती है पर मंजिलें नहीं नजर आती है--
स्त्री एक कफन की खातिर न जाने कितने कफन ओढ़ जाती है किसी को पता ही नहीं चलता मगर पथ्तर में कोई जिद्दी फूल खिला है चलो इसे प्यास में तेजाब पिलाते हैं की परम्परा-- समय चीख चीख कर खामोश हो गया, पर इस घर, समाज,और कल्चर, की भूमिका क्या है अभी तक समझ में नहीं आया कि इसने खुदके हकराने किस आधार पर कायम किए हैं बिना फर्ज निभाए सवाल स्त्री के जबाब इसके अब तो जरूरी हैं, जब मां,बाप,कबाड़े की तरह आज इसकी आंखों, और परवरिश, जिम्मेदारी, रात के अंधेरे में फैंक दिये जाते हैं और मां बेटा के हाथों से लात घूसों चप्पलों हाथों, मर्द की ताकत मर्द जैसे भी स्तेमाल कर सकता है जब मां, यानी जननी पर खुले समाज और घरों में होने लगी है फिर इसका स्त्री पर खोखले हकराने की भूमिका का मतलब क्या है इतना दबंग औरत अत्याचारी निष्ठुर क्यों होता जा रहा है जब कि आज की सम्पन्न स्त्री अपने स्वर्ण पांव ही नहीं पंखों का भी निर्माण कर चुकी हैं जैसे इसने पीछे रह कर आपके आगे जाने में खुद को खर्च दिया ये सब मिल जुल कर क्यों नहीं- (तहजीबें क्यों नहीं बोई जाती हैं)
(तहजीबों की फसल उगने के लिए) क्यों एक दूसरे के पूरक और सहयोग नहीं बनते हैं हम क्यों इसी में पैदा इसी को खाए जा रहे हैं हम) अब ये भविष्य में जाने लगी है--
एसी मानव फसल से अच्छा--
कोखे बंजर हो जाएं--
जिस आंचल का दूध पिएं ये--
उसी को नोच नोच कर खाएं--
कराहने लगी है अब प्रसव पीड़ा में कभी दर्द पीकर हंसती थी--
देखने लगी है खुद की मौत में उस बांझ और अपशगुनी अपमान की चीखों में जब रोती थी--
कुछ हादसे भूलने और माफी के योग्य नहीं होते हैं घर, समाज, कल्चर, रिश्ते, फिर जो भी हो हम अपनी अपनी भूमिका फर्जों में निभाकर हकराने का-- मुफ्त में किसी की तकदीर को बेरंग कमजोर और असहाय न बनाए क्यों कि बक्त भी एक कर्वट में ही नहीं रहता है और स्त्री और ईश्वर जननी और जन्मभूमि ये एक दूसरे से पूरक होते हैं तकदीरों पर बांध कोई तब-तक लगा सकता है जबतक इंसान के हाथों की बात रहे जब ईश्वर के हाथों में जाता है तो सारी हदें खुद ब खुद टूटने लगतीं है--
प्रेम ईश्वर है ये हर जगह नहीं उगता है और जब उगता है तो कोई रोक नहीं सकता है, घर,समाज, रिश्ते, कल्चर, जाति धर्म सब उग सकते हैं लेकिन जमीन मजहब की हो बीज तहजीबों का- इस समाज ने कौन सी स्त्री को सम्मान का खिताब पहनाया है राम की सीता से लेकर एतिहासिक वीरांगनाओं के त्याग या समाज के बोझ से पिसती स्त्री हो हम अपनी अपनी भूमिका निर्धारित करें अमन खुद ब खुद खिलने लगेगा- इस समाज को आज तक किसी भी स्त्री ने खुश नहीं कर पाया है बो सब-कुछ गंवाकर हार चुकी है तब उसने अपने अंदर की उर्जा और शक्ति को आज पहचाना है क्यो इसके आगे दीवारें लगाए जा रहे हैं क्यों एक दूसरे के सहयोग से घर परिवार और समाज देश का मिलकर पदभार संभालने का कार्य नहीं करते हैं हम-
( उंगलियों से तकदीरें नहीं खसती है--)
(बस बक्त की रजा का इंतजार होता है--)
लेखिका,पत्रकार,दीप्ति,चौहान।

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