05/10/2025
गोवर्धन का नाम सुनते ही गाँव-शहर में कुछ लोगों की आँखों में डर की हल्की सी चमक आ जाती थी। “गोवर्धन डाकू”—यह नाम किसी खतरनाक, निडर और चालाक आदमी की तस्वीर खींच देता। कहते थे उसने राजा का खजाना लूटा, व्यापारियों को घेरा, सिपाहियों को छकाया। लेकिन असलियत उतनी सरल नहीं थी। गोवर्धन ऐसा नहीं था कि जन्म से बुरा हो—परिस्थितियों ने उसे कठोर बना दिया था। भीतर कहीं एक खालीपन था जो कभी-कभी उसके मन में हूक उठाता।
एक दिन राजकर्मियों के पीछा करते-करते वह थक चुका था। घोड़ा छोड़, पैदल भागते हुए वह एक खुले मैदान में पहुँचा, जहाँ लोगों की भीड़ थी। सत्संग चल रहा था। पंडित परशुराम महाराज कथा सुना रहे थे—“वृन्दावन में आज यशोदा मैया ने अपने नन्हें कान्हा को सजाया—सोने की करधनी, लकुटी, और रूप ऐसा कि देवता भी निहारते रह जाएँ।” गोवर्धन थका था, पर रुका। उसे लगा, इतने लोगों के बीच छिपना सबसे सुरक्षित होगा।
पंडित की आवाज़ में कुछ था—ममता, सरलता और शांति। गोवर्धन सुनता गया। कथा में जब कन्हैया की माखन-लीला और नटखटपन का ज़िक्र हुआ, तो उसके भीतर कुछ हिल गया। वह सोचने लगा, “क्या सचमुच कोई इतना प्यारा हो सकता है कि चोर भी उसे देखकर बदल जाए?” तभी उसके भीतर से शब्द निकले—“जब तक मैं उस बालक को लूटकर नहीं लाऊँगा, पानी नहीं पियूँगा!”
सभा में सन्नाटा छा गया। पंडित ने मुस्कुराकर कहा, “ठीक है, जब बल न चले, तब यह माखन-मिश्री खा लेना।” गोवर्धन ने वह माखन-मिश्री बांध ली। शायद यह किसी और यात्रा की शुरुआत थी—एक ऐसी यात्रा जिसकी उसे खुद खबर नहीं थी।
अगले कई दिन गोवर्धन ब्रज की गलियों में भटकता रहा। हर किसी से पूछता—“श्याम सुंदर कहाँ है?” लोग हँसते—“गाय चराता है, माखन चुराता है, वही तो!” पर किसी ने ठिकाना नहीं बताया। धीरे-धीरे उसकी पुरानी कठोरता में दरार पड़ने लगी। वह रातें जंगल में बिताता, दिन में बच्चों को खेलते देखता। हर बार “श्याम सुंदर” नाम उसके भीतर कुछ नया जगा देता।
एक सुबह उसने देखा—एक बालक, पीतांबर पहने, कमर में लकुटी, चेहरे पर शरारती मुस्कान। वही तो था! गोवर्धन के कदम अपने आप बढ़ गए। बालक की आँखों में ऐसी चमक थी कि गोवर्धन की बंदूक तक शर्माने लगी। वह बस खड़ा रह गया।
“कौन हो तुम?” बालक ने पूछा।
“गोवर्धन,” उसने धीरे कहा।
बालक हँस पड़ा, “अच्छा नाम है! गाय चराने आए हो क्या?”
गोवर्धन के होंठ काँप गए। उसने पंडित की दी हुई माखन-मिश्री निकाली और कहा, “ये लो, तुम्हारे लिए।”
बालक ने मुस्कुराकर वह ली। उसी पल गोवर्धन की आँखों से आँसू झर पड़े। वह समझ नहीं पाया कि यह कमजोरी है या मुक्ति। उस दिन उसके भीतर कुछ टूट गया—और कुछ नया जन्म लेने लगा।
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दिन बीतते गए। गोवर्धन फिर-फिर उस बालक को देखने आता। बालक की हँसी, उसकी सरल बातें—सब कुछ गोवर्धन को भीतर तक बदल रहे थे। पर बाहर की दुनिया वैसी ही थी। पुराने साथी सोचने लगे, “गोवर्धन पागल हो गया है!”
एक रात वे उसके पास आए। “क्या अब तू दूध-दही में डूबा रहेगा? चल, आज राजा के बंगले पर धावा बोलते हैं!”
गोवर्धन चुप रहा। बोला, “अब नहीं।”
वे हँसे, “डाकू का दिल भर गया?”
गोवर्धन ने सिर झुका लिया—“शायद।”
उसी रात खबर आई कि राजकर्मी इलाके में लौट आए हैं। साथी बोले, “आज नहीं गए तो पकड़े जाएँगे!” पर गोवर्धन अब लड़ना नहीं चाहता था। उसने महसूस किया कि अब उसके भीतर हथियार उठाने की हिम्मत नहीं बची—बल्कि अब वह सिर्फ़ शांति चाहता था।
अगली सुबह जब वह श्याम सुंदर को देखने गया, तभी सिपाही आ पहुँचे। जंगल में मुठभेड़ हुई। गोवर्धन ने सैनिकों से लड़ने के बजाय गाँववालों को बचाने की कोशिश की। लेकिन उसके पुराने साथी समझे—वह धोखा दे रहा है। उन्होंने पीछे से वार किया। गोवर्धन ज़मीन पर गिर पड़ा, खून बहने लगा।
बेहोशी में उसने श्याम सुंदर का चेहरा देखा—वही मुस्कान, वही आँखें। जैसे वह कह रहा हो—“मत डर, सब ठीक होगा।” तभी पंडित परशुराम और कुछ गाँववाले पहुँचे। उन्होंने गोवर्धन को संभाला। पंडित ने कहा, “बेटा, भगवान का नाम जप। जो गिरा है, वही उठ सकता है।”
घायल गोवर्धन ने धीमे स्वर में कहा, “मैं बदलना चाहता हूँ। क्या मेरा अतीत मुझे माफ करेगा?”
पंडित ने उत्तर दिया, “ईश्वर माफ़ करने के लिए ही हैं। पर पहले खुद को माफ़ करना सीखो।”
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धीरे-धीरे गोवर्धन ने नया जीवन शुरू किया। उसने चोरी छोड़ दी। गाँव में गायों की रखवाली करता, बच्चों को कहानियाँ सुनाता। गाँववाले पहले शक करते, पर समय के साथ विश्वास लौट आया। उसने खुद से कहा, “अब किसी को डर नहीं दूँगा, बस भलाई करूँगा।”
एक दिन वह फिर श्याम सुंदर के पास पहुँचा। बालक ने मुस्कुराते हुए कहा, “तुम फिर आए?”
गोवर्धन बोला, “इस बार देने नहीं, सीखने आया हूँ।”
श्याम सुंदर ने कहा, “फिर चलो, किसी की मदद करते हैं।”
वे दोनों एक बूढ़े किसान के खेत पहुँचे और उसकी गायें चराने में मदद की। गोवर्धन ने जब बूढ़े की आँखों में राहत देखी, तो उसे लगा कि यही असली सुख है—ना सोने में, ना लूट में, बस किसी के चेहरे पर सुकून लाने में।
समय बीतता गया। गोवर्धन का नाम अब डर से नहीं, सम्मान से लिया जाने लगा। पंडित परशुराम उसकी सराहना करते—“देखो, जब मन सच्चा हो तो डाकू भी भक्त बन सकता है।”
राजकर्मी भी लौटे, पर अब उन्हें गोवर्धन में कोई खतरा नहीं दिखा। उन्होंने उसकी सेवा देखकर कहा, “राजा को बताना पड़ेगा—यह आदमी अब अलग है।”
गोवर्धन ने कोई पुरस्कार नहीं माँगा। बोला, “बस इतना चाहूँगा कि लोग मुझे विश्वास से देखें, डर से नहीं।”
कई साल गुजर गए। गोवर्धन अब गाँव के बच्चों का प्रिय बन गया था। हर कथा में वह आगे बैठता, पंडित के शब्दों में खो जाता। कभी-कभी खुद भी कहानी सुनाता—“एक बार एक डाकू था जो भगवान को लूटने चला, पर भगवान ने उसका दिल लूट लिया।”
लोग हँसते, पर उनकी आँखों में आदर झलकता। गोवर्धन अब शांत था—उसका चेहरा कोमल, उसकी नज़र दयालु। माखन-मिश्री का स्वाद अब भी उसके भीतर जीवित था—पर अब वह किसी बालक की कसम नहीं, उसके जीवन का सार था।
श्याम सुंदर अब बड़ा हो गया था, पर उसकी मुस्कान वही थी। एक दिन उसने कहा, “गोवर्धन काका, अब तो आप कथा सुनाते हैं, डराते नहीं।”
गोवर्धन ने हँसकर कहा, “क्योंकि मैंने सीखा है कि डर से नहीं, प्रेम से दुनिया बदलती है।”
श्याम सुंदर ने जवाब दिया, “और कभी-कभी बस एक माखन-मिश्री से भी।”
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अब गाँव में जब बच्चे किसी से डरते, तो बड़ों का जवाब होता, “डर मत, गोवर्धन की तरह बदल जा।” उसका नाम उदाहरण बन गया। कोई गरीब मदद माँगे, तो गोवर्धन पहले पहुँचता। किसी को रास्ता भटके, तो वह समझाता, “हर कोई दूसरा मौका पा सकता है।”
एक दिन पंडित ने सभा में कहा, “जो ईश्वर को सच्चे दिल से पुकारे, उसे मोक्ष दूर नहीं रहता। गोवर्धन इसका प्रमाण है।”
गोवर्धन मुस्कुराया—“नहीं महाराज, मैंने ईश्वर को नहीं पाया। ईश्वर ने मुझे पा लिया था… उस दिन, जब उन्होंने माखन-मिश्री दी थी।”
सभा में सन्नाटा छा गया। किसी ने धीमे से कहा, “जय श्याम सुंदर!” और बच्चों ने दोहराया। उस दिन गोवर्धन की आँखों में आँसू थे—पर अब वे आँसू दुख के नहीं, कृतज्ञता के थे।
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वर्षों बाद जब गोवर्धन नहीं रहा, गाँव ने उसकी याद में एक छोटा-सा स्थल बनाया। वहाँ एक मिट्टी की मूर्ति थी—हाथ में माखन-मिश्री की डली और चेहरे पर संतोष की मुस्कान। लोग वहाँ दीप जलाने आते, बच्चे वहाँ खेलते और बुज़ुर्ग कहते, “यह वही है जिसने हमें सिखाया—भजन और भलाई से डाकू भी देव बन सकता है।”
श्याम सुंदर अब युवावस्था में प्रवेश कर चुका था, पर जब भी वह उस स्थान से गुजरता, रुक जाता। धीमे स्वर में कहता, “धन्य है वह माखन-मिश्री, जिसने एक जीवन बदल दिया।”