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02/09/2025

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08/08/2025
07/08/2025
*"तू कौन होता है मेरी बेटी को रोटी देने वाला?"*ये वाक्य जैसे ही मोहल्ले के बीचोबीच गूंजा, पूरा माहौल ठहर सा गया। दोपहर क...
02/07/2025

*"तू कौन होता है मेरी बेटी को रोटी देने वाला?"*

ये वाक्य जैसे ही मोहल्ले के बीचोबीच गूंजा, पूरा माहौल ठहर सा गया। दोपहर की तपती धूप में सन्नाटा पसर गया। भीड़ जमा हो गई। वहां एक आदमी खड़ा था— फटे कपड़े, धूप में जली हुई त्वचा, मगर आंखों में सच्चाई की चमक। उसकी हथेली में आधी सूखी रोटी थी, जो उसने एक सात-आठ साल की बच्ची को दी थी, जो उस वक्त भूख से बेहाल, कांप रही थी।

उस बच्ची को कुछ देर पहले सड़क किनारे पड़ा देखा था उसने—पैरों में चप्पल नहीं, होंठ सूखे और आंखें डरी हुई। भूख बोलती है, और उस वक्त वो बच्ची कुछ नहीं मांग रही थी—सिर्फ देख रही थी। उस आदमी ने बस जेब से वो आधी रोटी निकाली और उसके सामने रख दी, बिना कुछ बोले।

पर जिसे वो इंसानियत समझ रहा था, समाज ने उसे ‘गुनाह’ बना दिया।

भीड़ में से एक हट्टा-कट्टा आदमी गरजा, "जानता है, ये ठाकुर साहब की बेटी है? और तू कौन है? नीची जात का... रोटी देने चला है?" लड़की की मां दौड़ते हुए आई और उसे खींचकर अलग ले गई। उस आदमी को धक्का दिया गया। किसी ने थप्पड़ मारा, किसी ने थूका, किसी ने सिर्फ घूरा—लेकिन किसी ने यह नहीं पूछा कि बच्ची भूखी क्यों थी?

वो आदमी रामदीन था। कभी गांव के सरकारी स्कूल में शिक्षक था। पढ़ा-लिखा, शांत और बेहद खुद्दार। लेकिन कुछ साल पहले एक झूठे आरोप में उसे नौकरी से निकाल दिया गया था। कारण? उसकी जाति। फिर धीरे-धीरे उसे गांव की हर जगह से दूर किया गया—मंदिर, पंचायत, स्कूल... सब जगह से। वो अब गांव के बाहर एक टूटी-फूटी झोपड़ी में रहता था, बच्चों को मुफ़्त पढ़ाता और दिन में किसी के खेत में मजदूरी करता।

पर इंसानियत उसमें अब भी जिंदा थी। यही वजह थी कि उसने उस भूखी बच्ची की जात नहीं देखी, भूख देखी।

पंचायत बैठी। फैसला हुआ—रामदीन को गांव से निकाल दिया जाए। उसे "दूसरी बार माफ़ी नहीं दी जा सकती", क्योंकि उसने ‘मर्यादा’ तोड़ी है। लेकिन वो लड़की? उसकी आंखों में एक सवाल रह गया, जो उसने मां-बाप से पूछा भी: “अगर मैंने वो रोटी खा ली थी, तो क्या मैं भी अपवित्र हो गई हूं?”

समाज चुप रहा।

रामदीन ने गांव छोड़ा। वो अब रेलवे स्टेशन के पास एक टूटी सी छत के नीचे रहने लगा। वहीं बच्चों को पढ़ाता, कुछ बुज़ुर्गों को दवाइयाँ दिलवाता, और जो भी कुछ हाथ आता, उससे दूसरों की मदद करता। उसके लिए जाति कभी पहचान नहीं थी, सिर्फ इंसानियत ही धर्म थी।

वक्त बीता।

वो लड़की बड़ी हुई। शहर में पढ़ी, डॉक्टर बनी, और एक दिन एक NGO के प्रोजेक्ट से उसी गांव में लौटी। पर अब वो बदली हुई थी। मजबूत थी। सोच से आज़ाद थी। उसने गांव में मुफ्त स्वास्थ्य शिविर लगाया, स्कूल खोला और एक नाम दिया—"रामदीन पाठशाला"।

लोग चौंके। उसी नाम पर? वही जिसे उन्होंने अपमानित करके गांव से निकाल दिया था?

लड़की ने सिर्फ इतना कहा—"जिसने भूख में मुझे रोटी दी, उसने मुझे जीना सिखाया। अगर वो गुनाह था, तो मैं उस गुनाह को हर दिन दोहराना चाहती हूं।"

वो स्टेशन के पास गयी जहां रामदीन कभी रहता था। अब वहां एक छोटा पत्थर था, जिस पर सिर्फ यही लिखा था—"यहां एक आदमी रहता था, जिसने कभी जात नहीं देखी, सिर्फ इंसानियत जानी।"

*निष्कर्ष (Conclusion):*

भूख की कोई जात नहीं होती, और मदद का कोई धर्म नहीं होता।
पर समाज अब भी नाम पूछकर रोटी देता है, और हाथ पकड़कर पहचान छीन लेता है।
ये कहानी सिर्फ रामदीन की नहीं, हर उस इंसान की है जो बिना भेदभाव के जीता है, पर समाज उसे जीने नहीं देता।

*एक लाइक जरुर दें और शेयर भी करें।*

01/07/2025

ठंडी सर्दियों की सुबह थी। धुंध से पूरा गांव ढका हुआ था। लोग अलाव जलाकर खुद को गर्म करने की कोशिश कर रहे थे। गांव के एक छोटे से मकान के आंगन में एक बूढ़ी औरत बैठी थी, जिसका नाम था *शारदा*। उसके हाथ कांपते थे, लेकिन फिर भी वो रोटियां सेंक रही थी — दो रोटियां, थोड़ी सी दाल, और एक छोटी सी कटोरी में गुड़।

हर दिन की तरह वो वही थाली लेकर गांव की पगडंडी पर चल पड़ती थी। हर किसी को लगता था कि शायद वो किसी को खाना देने जा रही है, पर *जिसे वो खाना देती थी, वो तो सालों से दूर शहर में रहता था — उसका बेटा, विशाल।*

विशाल बचपन से ही तेज था, पढ़ाई में होशियार। मां ने पेट काट-काटकर पढ़ाया, खेत गिरवी रख दिए, शादी के गहने तक बेच दिए, लेकिन एक बार भी शिकायत नहीं की। विशाल पढ़-लिखकर शहर गया, और फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा।

पहले-पहले फोन आता था — "मां, बहुत काम है, बाद में बात करूंगा।"
फिर धीरे-धीरे वो फोन भी बंद हो गए।

शारदा हर दिन अपने बेटे के नाम की दो रोटियां बनाती, एक पेड़ के नीचे रख देती — और कहती, *"कभी तो आएगा मेरा बेटा... कभी तो भूख लगेगी उसे मां की रोटी की।"*

गांव वाले मजाक उड़ाते — "तुम्हारा बेटा तो बड़ा अफसर बन गया है, अब उसे गांव की गंध कहां पसंद आएगी?"
पर शारदा मुस्कराकर कहती, *"जिसने मेरी कोख से जन्म लिया है, वो मेरी रोटी की खुशबू को कभी नहीं भूल सकता है।"*

एक दिन, गांव में एक बड़ी गाड़ी आकर रुकी। सूट-बूट में एक आदमी उतरा, आंखों पर काले चश्मे। किसी ने पहचाना नहीं — लेकिन शारदा के दिल ने पहचान लिया।
वो दौड़कर आई, पर रुक गई।
*उसने देखा — वही चेहरा, पर आंखें झुकी हुईं थीं।*

विशाल ने धीरे से कहा, *"मां, मुझे माफ कर दो... मैंने बहुत कुछ पाया, पर आपको खो दिया।"*
शारदा कुछ नहीं बोली। बस अंदर गई, वही रोटियों की थाली लाई, और कहा —
*"खा ले बेटा, आज ही नहीं... ये रोटियां तो बरसों से तेरा इंतजार कर रही हैं।"*

विशाल फूट-फूटकर रो पड़ा।
उस दिन उसने जाना —
*"बड़ी से बड़ी थाली में परोसा खाना भी उस रोटी की बराबरी नहीं कर सकता, जिसमें मां की उंगलियों का स्पर्श और उसके प्यार की गर्माहट हो।"*

अगर ये कहानी पसंद आई हो, तो दिल से दुआ दीजिए उन सब माओं को — *जो बस अपने बच्चों के लौट आने का इंतजार कर रही हैं। और हो सके तो 1 ♥️ लाइक हमारी पर भी कर दो।*

*पर्सनैलिटी कपड़ों की नहीं**विचारों की होनी चाहिए..**फिर दुनिया तुम्हें सिर्फ**Like ही नहीं**Follow भी करेगी.....*
23/06/2025

*पर्सनैलिटी कपड़ों की नहीं*
*विचारों की होनी चाहिए..*
*फिर दुनिया तुम्हें सिर्फ*
*Like ही नहीं*
*Follow भी करेगी.....*

लोगों की इच्छाएं भी अजीब होती हैं,पढ़ना प्राइवेट स्कूल में चाहते हैं।पर पढ़ाना सरकारी स्कूल में चाहते हैं...
23/06/2025

लोगों की इच्छाएं भी अजीब होती हैं,
पढ़ना प्राइवेट स्कूल में चाहते हैं।
पर पढ़ाना सरकारी स्कूल में चाहते हैं...

*वक़्त ऐसा चल रहा है*  *जहां तमाम अच्छी बातें,*  *हमदर्दियां, सच्ची मुहब्बतें और*  *इंसानियत सोशल मीडिया पर*  *मौजूद हैं...
23/06/2025

*वक़्त ऐसा चल रहा है*
*जहां तमाम अच्छी बातें,*
*हमदर्दियां, सच्ची मुहब्बतें और*
*इंसानियत सोशल मीडिया पर*
*मौजूद हैं लेकिन इंसान के*
*किरदार में नहीं।*

*"छोड़ दो क़िस्मत की लकीरों पर यकीन करना**जब जान से प्यारे लोग बदल सकते हैं**तो क़िस्मत क्या चीज़ है..."*
23/06/2025

*"छोड़ दो क़िस्मत की लकीरों पर यकीन करना*
*जब जान से प्यारे लोग बदल सकते हैं*
*तो क़िस्मत क्या चीज़ है..."*

*चुगली की धार इतनी तेज होती है**जो खून के रिश्तों को भी काटकर रख देती है।*
23/06/2025

*चुगली की धार इतनी तेज होती है*
*जो खून के रिश्तों को भी काटकर रख देती है।*

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