02/07/2025
*"तू कौन होता है मेरी बेटी को रोटी देने वाला?"*
ये वाक्य जैसे ही मोहल्ले के बीचोबीच गूंजा, पूरा माहौल ठहर सा गया। दोपहर की तपती धूप में सन्नाटा पसर गया। भीड़ जमा हो गई। वहां एक आदमी खड़ा था— फटे कपड़े, धूप में जली हुई त्वचा, मगर आंखों में सच्चाई की चमक। उसकी हथेली में आधी सूखी रोटी थी, जो उसने एक सात-आठ साल की बच्ची को दी थी, जो उस वक्त भूख से बेहाल, कांप रही थी।
उस बच्ची को कुछ देर पहले सड़क किनारे पड़ा देखा था उसने—पैरों में चप्पल नहीं, होंठ सूखे और आंखें डरी हुई। भूख बोलती है, और उस वक्त वो बच्ची कुछ नहीं मांग रही थी—सिर्फ देख रही थी। उस आदमी ने बस जेब से वो आधी रोटी निकाली और उसके सामने रख दी, बिना कुछ बोले।
पर जिसे वो इंसानियत समझ रहा था, समाज ने उसे ‘गुनाह’ बना दिया।
भीड़ में से एक हट्टा-कट्टा आदमी गरजा, "जानता है, ये ठाकुर साहब की बेटी है? और तू कौन है? नीची जात का... रोटी देने चला है?" लड़की की मां दौड़ते हुए आई और उसे खींचकर अलग ले गई। उस आदमी को धक्का दिया गया। किसी ने थप्पड़ मारा, किसी ने थूका, किसी ने सिर्फ घूरा—लेकिन किसी ने यह नहीं पूछा कि बच्ची भूखी क्यों थी?
वो आदमी रामदीन था। कभी गांव के सरकारी स्कूल में शिक्षक था। पढ़ा-लिखा, शांत और बेहद खुद्दार। लेकिन कुछ साल पहले एक झूठे आरोप में उसे नौकरी से निकाल दिया गया था। कारण? उसकी जाति। फिर धीरे-धीरे उसे गांव की हर जगह से दूर किया गया—मंदिर, पंचायत, स्कूल... सब जगह से। वो अब गांव के बाहर एक टूटी-फूटी झोपड़ी में रहता था, बच्चों को मुफ़्त पढ़ाता और दिन में किसी के खेत में मजदूरी करता।
पर इंसानियत उसमें अब भी जिंदा थी। यही वजह थी कि उसने उस भूखी बच्ची की जात नहीं देखी, भूख देखी।
पंचायत बैठी। फैसला हुआ—रामदीन को गांव से निकाल दिया जाए। उसे "दूसरी बार माफ़ी नहीं दी जा सकती", क्योंकि उसने ‘मर्यादा’ तोड़ी है। लेकिन वो लड़की? उसकी आंखों में एक सवाल रह गया, जो उसने मां-बाप से पूछा भी: “अगर मैंने वो रोटी खा ली थी, तो क्या मैं भी अपवित्र हो गई हूं?”
समाज चुप रहा।
रामदीन ने गांव छोड़ा। वो अब रेलवे स्टेशन के पास एक टूटी सी छत के नीचे रहने लगा। वहीं बच्चों को पढ़ाता, कुछ बुज़ुर्गों को दवाइयाँ दिलवाता, और जो भी कुछ हाथ आता, उससे दूसरों की मदद करता। उसके लिए जाति कभी पहचान नहीं थी, सिर्फ इंसानियत ही धर्म थी।
वक्त बीता।
वो लड़की बड़ी हुई। शहर में पढ़ी, डॉक्टर बनी, और एक दिन एक NGO के प्रोजेक्ट से उसी गांव में लौटी। पर अब वो बदली हुई थी। मजबूत थी। सोच से आज़ाद थी। उसने गांव में मुफ्त स्वास्थ्य शिविर लगाया, स्कूल खोला और एक नाम दिया—"रामदीन पाठशाला"।
लोग चौंके। उसी नाम पर? वही जिसे उन्होंने अपमानित करके गांव से निकाल दिया था?
लड़की ने सिर्फ इतना कहा—"जिसने भूख में मुझे रोटी दी, उसने मुझे जीना सिखाया। अगर वो गुनाह था, तो मैं उस गुनाह को हर दिन दोहराना चाहती हूं।"
वो स्टेशन के पास गयी जहां रामदीन कभी रहता था। अब वहां एक छोटा पत्थर था, जिस पर सिर्फ यही लिखा था—"यहां एक आदमी रहता था, जिसने कभी जात नहीं देखी, सिर्फ इंसानियत जानी।"
*निष्कर्ष (Conclusion):*
भूख की कोई जात नहीं होती, और मदद का कोई धर्म नहीं होता।
पर समाज अब भी नाम पूछकर रोटी देता है, और हाथ पकड़कर पहचान छीन लेता है।
ये कहानी सिर्फ रामदीन की नहीं, हर उस इंसान की है जो बिना भेदभाव के जीता है, पर समाज उसे जीने नहीं देता।
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