10/08/2024
1971 का इंक़लाब आया , चटगांव के क्वार्टर में दो दो चार चार बिहारी के क्वार्टर थे उनके दरवाज़े पर दस्तक दी कुण्डी खटकाई
असुन असुन एक टा काज आछे (आइये आइये एक ज़रूरी काम है )
की काज आछे ? (क्या काम है ?)
एक टा जरुरी परामर्श (एक ज़रूरी मशवरा )
कारखाने में काम करने वाले बिहारी हर क्वार्टर से निकाले लिए गए , अलग अलग रस्ते एक मुक़ाम पर लाये गए ,शुमार हुए तो अस्सी नौजवान बिहारी इंजीनियर थे , और एक एक बांस का सतून नसब करके अस्सी नौजवान को कस दिया गया , न मश्विरा न गुफ्तुगू , न जवाब न सवाल , न जुर्म न तहक़ीक़ात , न एलान न क़रार , अस्सी बंदूके खींच गई , वन टू थ्री — सर लुढ़क गए ख़ून की शाखे तेज़ी से फ़ैल कर गुल बोटें खिला गयी , अस्सी फुलझड़ियां एक साथ छूटी , माँ की उम्मीद , बीवी के अरमान , बच्चों की तमन्ना की चिंगारी बस एक बार उड़ कर हमेशा के लिए खाक हो गयी !
तेरी एक नज़र ने किया क़तल आम
किसी ने न देखा तमाशा किसी का
एक साल तक माँ और बीवी , पूरब से आने वाली राह को तकती थी , और पूरब से आने वाली हवाओं की तरफ यूँ कान लगाती थी कि उनकी ज़िंदगियाँ उन के जिस्मों से सिमट कर सिर्फ आँख और कान में आ गई थी जिनका रुख पूरब की तरफ था , दरवाज़ा खटका बीवी दौड़ी के सईद आएं हैं , क़दमों की चांप आये और माँ पुकारे सईद बाबू !
एक साल बाद बीवी को यक़ीन हो गया , सईद नहीं लौटेंगे , चूंडिया टूट गई कानों से बालियाँ उत्तर गई और ज़िंदगी भर सबर के मातम की चादर ओढ़ कर आपने बच्चियों को गोद में लेकर बूढी माँ बन गई !
लेकिन माँ को दुनिया की कोई ख़बर, कोई आवाज़ कोई तारीख़ी किताब , कोई इंक़लाब , वक़्त की कोई तब्दीली ,कोई हक़ीक़त और खवाबों का कोई अफसाना , मशरिक़ी पाकिस्तान का अंजाम और बंगलादेश के आगाज़ , तमाम मिल कर भी ये यक़ीन न दिला सकें की सईद अब नहीं रहा ! सईद सईद करते वहां पहुँच गयी जहाँ सईद था , हैं कैसा बे सिल्ला लड़का है , कहाँ रह गया था रे , ऐसा भी बे सिल्ला लड़का होवे है , हंस कर बेटे को गले लगा लय , मुनकिर नकीर हैरान के सवाल किस से करें इधर तो कोई देखता ही नहीं !
- कलीम आज़िज़
Lost Muslim Heritage Of Bihar
तस्वीर दिसंबर 1971 की है, बंदूक़ के साये में हथकड़ी से जकड़े उर्दू स्पीकिंग लोग।
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