Dhamma is Rashtriya Dharma

Dhamma is Rashtriya Dharma Following to Indian constitution and respect to national simbal, flag, Dhamma chakkar etc.

10/07/2025

*आषाढ़ी पूर्णिमा*
(10 जुलाई 2025)
इस दिन वर्षा ऋतु शुरू हो जाती है।
इसी दिन तथागत गौतम बुद्ध ने ऋषिपत्तन के मृगदाय (सारनाथ) में पंचवर्गीय भिक्खुओ को प्रथम धम्मउपदेश दिया था।
इसे धम्म चक्क पवत्तन दिवस कहा जाता है।
कुछ लोग इसे गुरुपूर्णमा भी कहते हैं।
इस पूर्णिमा के साथ धम्म की अनेक घटनाएं जुड़ी हुई है।
जैसा मैने पढ़ा है व सुना है।
💐भगवान बुद्ध के पहले भी आषाढ़ी पूर्णिमा को कस्सक (किसान) एक उत्सव मनाते थे संभवतः यह किसानों का फसल बुबाई से पहले किया जाने वाला उत्सव रहा होगा।
मेरा परिवार नाथ संप्रदाय को मानता था और गोरखनाथ और उनके भक्त गोगावीर चौहान, भज्जू चमार, नृसिंह पांडे, रत्ना भंगी, लूना चमारी आदि की पूजा करता था। (लेकिन मै 14अक्तूबर 1994 को नागपुर में जाकर, बौद्ध धर्म की दीक्षा ले चुका हूं।)
हमारे पिताजी भी जब पानी बरस जाता था और जमीन नम हो जाती थी तब भोर में चुपके से हल लेकर जाते थे और थोडा़ सा खेत जोत आते थे इसे "हरैतो" कहते थे, उस दिन घर में पकवान भी बनते थे।
१. कपिल बस्तु में भी यह उत्सव धूमधाम से मनाया जाता था सब लोग नये परिधान पहन कर गाते बजाते और हल चलाते थे।
उत्सव के बाद पूर्णिमा की रात को माता महामाया और राजा सुद्धोधन शयनागार में सोये तथा माता महामाया ने स्वप्न देखा बोधिसत्व सुमेधु कह रहे हैं कि मैं पृथ्वी पर अंतिम जन्म लेना चाहता हूँ क्या आप मेरी माँ बनना स्वीकार करेंगी माता महामाया ने कहाँ हां सहर्ष स्वीकार है इसके बाद एक सफेद हाथी शयनकक्ष में प्रवेश करते हुए देखा और आंख खुल गई।
इस घटना को कहा जाता है कि सिद्धार्थ गौतम माता महामाया के गर्भ में आये।
२. दूसरी घटना इसी आषाढ़ी पूर्णिमा को सिद्धार्थ गौतम ने गृह त्याग कर प्रबृज्या ली घर से लोक कल्याण हेतु अभिनिष्क्रमण किया।
३. तीसरी घटना भी आषाढ़ी पूर्णिमा को ही घटित हुई है। सिद्धार्थ गौतम गृह त्याग कर आलार कालाम के आश्रम में जाते हैं और ध्यान साधना सीखते हैं सीखने के बाद कहते हैं इससे आगे सिखाइये, आलार कालाम कहते हैं मैं इतना ही जानता हूँ इसके आगे जब आप खोज लें तो हमें भी बताएं।
इसके बाद सिद्धार्थ गौतम रामपुत्त उद्दक के आश्रम में जाते हैं और उनसे ध्यान की आठ विधियाँ सीखते हैं, इसके आगे कुछ न बता पाने पर रामपुत्त उद्दक भी यही कहते हैं कि इसके आगे अगर आप कुछ खोज लें तो हमें भी बताएं।
उसके बाद सिद्धार्थ गौतम रामपुत्त उद्दक के आश्रम से चले जाते हैं उनके साथ पांच लोग (कौडिन्य, बाष्प, भद्दिय, अश्वजित और महानाम) भी तपस्या करते हैं लेकिन सिद्धार्थ गौतम द्वारा ग्वाल कन्या द्वारा दी गई खीर ग्रहण कर लेने के बाद उन्हें पांचो लोग छोड़ कर चले जाते हैं।
जब सिद्धार्थ गौतम को उरुवेला में पीपल के पेंड़ के नीचे बैसाख पूर्णिमा को सम्यक् संबोधि (बुद्धत्व) प्राप्त हो जाता है तब वह भगवान बुद्ध हो जाते हैं। तथा लोक कल्याण के हेतु धम्म देना चाहते हैं तब अपने दिब्य चित्त से आलार कालाम व रामपुत्त उद्दक को देखते हैं और पाते हैं कि उनका देहावसान हो चुका है।
तब वह उन पांच तपस्वियों का ध्यान करते हैं जो उन्हें छोड़ कर चले गए थे और उन्हें इसिपत्तन मृगदाव सारनाथ में पाते हैं।
४. ☸️ बुद्ध गया से पैदल चलकर सारनाथ आते हैं तथा उन पांच भिक्खुओं को इसी आषाढ़ी पूर्णिमा को पहला धम्म उपदेश देते हैं।
इसलिए इस दिन को धम्म चक्क पवत्तन दिवस भी कहा जाता है (धम्म के चक्के (पहिया) को आगे बढ़ाना, धम्म की स्थापना करना।
गुरु शिष्य की परंपरा कायम होती है इसलिए इसे गुरु पूर्णिमा भी कहा जाता है और भगवान को लोक गुरु।
चौथी घटना है इसी दिन से भिक्खु संघ का वर्षावास प्रारम्भ होता है और तीन माह विहारों में रह कर ध्यान साधना करते हैं आश्विन पूर्णिमा के बाद पवारणा शुरू होती है कार्तिक पूर्णिमा को पूर्ण रूप से वर्षावास समाप्त होता है।
इसलिए इस पूर्णिमा का बहुत बड़ा महत्व है । ऐसा कहा जाता है कि इन चार महीनों में सोलह उपोसथ की तिथियाँ होती है इनमें जो कामना करके उपासक उपोसथ विरत रखते हैं उन्हें बहुत लाभ होता है। अतः हम सबको वर्षा वास के सोलह उपोसथ अवश्य रखना है। आजकल कुछ मांगने खाने वाले लोग घर घर माताओं बहनों से यह कहते सुने जाते हैं कि 16 सोमवार, या शनिवार ब्रत रहना तुम्हारी मनोकामना पूरी होगी, यह परम्परा भी इसी दिन से धम्म से ली गई है।
उपोसथ कैसे रखें?
सुवह नित्य क्रिया से निपट कर स्नान कर पूजा वंदना करें। संभव हो तो घर के सभी सदस्य साथ साथ वंदना करें धम्म चर्चा करें। दोपहर तक भोजन ग्रहण कर लें संभव हो तो विहारों में भिक्खुओं को भी भोजन दान करें। फिर दूसरे दिन लगभग छ:बजे बाद भोजन लें।
यूँ तो सभी उपासक उपासिकायें प्रतिदिन पांच सीलों का पालन करते हैं, लेकिन उपोसथ (पूर्णिमा, आमावस्या और दोनों पाखों (पक्षों) की अष्टमी) वाले दिन आठ सीलों का पालन करना होता है।
1- पाणाति पाता वेरमणी सिक्खापदं समादियामि।
2- अदिन्नादाना वेरमणी सिक्खापदं समादियामि।
3- अब्रह्मचरिया वेरमणी सिक्खापदं समाधियामि।
4- मुसावादा वेरमणी सिक्खापदं समाधियामि।
5- सुरामेरयमज्ज पमादट्ठाना वेरमणी सिक्खापदं समाधियामि।
6- विकाल भोजना वेरमणी सिक्खापदं समाधियामि।
7- नच्च-गीत-वादित-विसूक-दस्सन माला गंध विलेपण धारण मण्डन विभूसनट्ठाना वेरमणी सिक्खापदं समाधियामि।
8- उच्चासयना महासयना वेरमणी सिक्खापदं समाधियामि।
अर्थ:--
1-प्राणियों की पात (हत्या) करने से विरत (त्याग दूर ,अलग,) रहने की शिक्षा धारण करता हूँ/करती हूँ।
2- बिना दिए हुए किसी की कोई वस्तु लेने से विरत रहने की शिक्षा धारण करता हूं/करती हूँ।
3- अ-ब्रह्मचर्य से विरत रहने की शिक्षा धारण करता हूँ/करती हूँ।
4- मुसावादा (झूंठ, कटु, चुगली, ब्यर्थ की बकवास) से विरत रहने की शिक्षा धारण करता हूँ/करती हूँ।
5- कच्ची, पक्की सुरा मादक पदार्थ और प्रमाद के स्थान जुंआं आदि से विरत रहने की शिक्षा धारण करता हूँ/करती हूँ।
6- विकाल भोजन (दोपहर से अगले दिन सुवह तक) से विरत रहने की शिक्षा धारण करता हूँ/करती हूँ।
7- नाचना, गाना, बजाना, मेला तमाशा देखना, माला पहनना इत्र (खुशबू) लगाना उबटन लगाना श्रंगार के हेतु आभूषण पहनना से विरत रहने की शिक्षा धारण करता हूँ/करती हूँ।
8- ऊंचे और विलासिता पूर्ण आसन पर सोने से विरत रहने की शिक्षा धारण करता हूँ/करती हूँ।
इन सीलों का पालन करते हुए उपोसथ विरत पूर्ण करें और बहुत अच्छा होगा कि सभी महीनों में उपरोक्त तिथियों को उपोसथ रखें, क्योंकि उपोसथ रखने वाले को ही उपासक/उपासिका कहा जाना सम्यक् है।
क्योंकि भगवान के धम्म में सभी पूर्णिमाओं का विशेष महत्व है सभी पूर्णिमाओं के साथ भगवान और धम्म से घटनाएं जुडी़ हैं।
जैसे- 1-बुद्ध पूर्णिमा (बेसाक) सिद्धार्थ का जन्म, व संबोधि प्राप्त करना तथा भगवान का महापरिनिर्वाण।
2- जेठ पूर्णिमा- तपस्सु व भल्लिक की दीक्षा संघमित्रा द्वारा सिरीलंका के अनुराधपुर में बोधि बृक्ष की स्थापना।
3- आषाढ़ी पूर्णिमा, -- भगवान् का माता के गर्भ में आना, प्रबृज्या, धम्म चक्क पवत्तन, वर्षावास प्रारम्भ। प्रथम संगीति राजग्रह की सप्तपर्णी गुफा मे शुरू।
4-स्रावण पूर्णिमा:-- अंगुलिमाल की प्रबृज्या।
5- पोट्ठपादो (भादों) पूर्णिमा:- परिलेयक वन में हाथी- बंदरों द्वारा भगवान की कुटी में मधु एवं केलों का दान।
6- अस्सयुजो (आश्विन) पूर्णिमा:-- माता महामाया को सधम्म देकर तीन माह बाद संकिशा में आना, प्रथम संगीति व वर्षावास का समापन पवारणा शुरू।
7- कात्तिक पूर्णिमा;-- पवारणा समाप्त,, कास्यप बंधुओं की प्रबृज्या, मुचलिंद नागराज को देशना। बमणों के द्वारा महा मोग्गल्यायन की निर्मम हत्या। 60 अर्हन्तो को भगवान् द्वारा चारो दिशाओं में धम्म देशना का आदेश
8- मार्गशीर्ष (अगहन) पूर्णिमा:-- देवदत्त द्वारा भेजे नालांगिर हाथी पर विजय, संघ मित्रा की प्रबृज्या।
9- फुस्सो (पूष) पूर्णिमा:-- महाराजा बिम्बिसार की दीक्षा, राजा द्वारा बेणुवन का भगवान् को दान। भगवान् का बोधि प्राप्त के बाद नवें वर्ष में सिरीलंका गमन।
10- माघी पूर्णिमा:-- चापाल चैत्य की भगवान् द्वारा घोषणा तीन माह बाद महापरिनिर्वाण होना, सारिपुत्र और महा मोग्गल्यायन को धम्म सेनापति बनाना, सावत्थी में भगवान् द्वारा चमत्कार प्रदर्शन।
11- फाल्गुन पूर्णिमा:-- भगवान् का सात वर्ष बाद कपिल बस्तु पधारना,पुत्र राहुल और भाई नन्द की प्रबृज्या।
12- चैत्र पूर्णिमा:-- कलामों को भगवान् द्वारा कलाम सुत्त का उपदेश,, सुजाता के हाथों खीर ग्रहण, नागराजा महोधर और नागराजा पुत्रोधर को करुणा मैत्री की देशना।

भवतु सब्ब मंगलं।
सबका मंगल हो 🙏

*जागो ...भारत के बहुजन मूलनिवासी,  जागो*......👉👉👉  असली इतिहास को जानो ..☸️फाल्गुन पूर्णिमा... भारतीय एवं समन संस्कृति क...
12/03/2025

*जागो ...भारत के बहुजन मूलनिवासी, जागो*......
👉👉👉 असली इतिहास को जानो ..

☸️फाल्गुन पूर्णिमा... भारतीय एवं समन संस्कृति का साल के अन्तिम माह का अंतिम दिन है।
चैत्र पड़वा... भारतीय एवं समन संस्कृति का साल के पहले माह का पहला दिन है।

👉होली जलाओ.... जातिवाद, मनुवाद, ब्राह्मणवाद, पाखण्डवाद, की l
उत्सव मनाओ... नववर्ष, धम्मलेडी (कनिष्क द्वारा स्थापित धम्मपर्व)
क्योंकि... इसी दिन
👉 7 8 ईस्वी में "सम्राट कनिष्क" ने बौद्ध भिक्षु भंते "अश्वघोष" से दीक्षित होकर, फाल्गुन पूर्णिमा को वैदिक,ब्रहाम्मन धर्म ग्रंथों (हिंदू धर्म ग्रंथों) और रूढ़िवादी वर्ण वादी व्यवस्था की होली जलाई थी I
👉सम्राट कनिषक ने चैत पड़वा (होली के अगले दिन) बुद्ध धम्म को सामूहिक रूप से स्वीकार किया और रंग, गुलाल के साथ, एक दूसरे के गले मिल कर खुशियां ( धम्मलेडी ) मनाई थी l
👉सम्राट कनिष्क ने इसी दिन बुद्ध धम्म को अपने राज्य का "राजधर्म" घोषित किया और एक नए संवत् " शक संवत " की शुरुआत की थी l
👉बाबा साहेब डॉ अंबेडकर जी ने संविधान में सम्राट कनिषक द्वारा स्थापित "शक संवत" को राष्ट्रीय संवत के रूप में रखा है l
👉बौद्ध सम्राट कनिष्क ने बुद्ध धम्म को स्थापित और प्रसारित करने के लिए मथुरा एवं कंधार (अफगानिस्तान में) में बौद्ध शिल्पकला, बुद्ध मूर्ति के केन्द्र बनाए थे।
👉सम्राट कनिष्क ने कश्मीर के कुंडलवन में एक बौद्ध संगीति का आयोजन किया था जिसका नेतृत्व बौद्ध भिक्षु भंते अश्वघोष ने किया था।
👉 यह एक एतिहासिक व सच्ची घटना है, लेकिन मनुवादियों ने अनेक झूठे ग्रंथ लिख कर भारत के मूल व असली इतिहास को मिटाकर, मूलनिवासियों को चौथे वर्ण शूद्र व जातियों में बांटकर गुलाम बना लिया है l
👉मनुवाद, जातिवाद, पाखंडवाद की होली जलाओ और शुभ होली मनाओ l
👉❄️🇮🇳जातिवादी धर्म को छोड़कर, राष्ट्रीय धर्म, (बुद्ध धम्म) का पालन करो I
🙏मा. सोमवीर सिंह बौद्ध (एम. ए. इतिहास )🙏
9716119017

☸️🧘बोधिसत्व (संतशिरोमणि गुरु) रैदास ☸️(माघ पूर्णिमा के दिन भगवान ने अनत्त सञ्ञ सुत्त का संगायन किया था और इसी पूर्णिमा क...
12/02/2025

☸️🧘बोधिसत्व (संतशिरोमणि गुरु) रैदास ☸️

(माघ पूर्णिमा के दिन भगवान ने अनत्त सञ्ञ सुत्त का संगायन किया था और इसी पूर्णिमा के दिन वैशाली के चापाल चैत्य में भगवान ने सकल जगत को स्तब्ध कर देने वाली घोषणा की थी- तीन माह बाद तथागत महापरिनिर्वाण को उपलब्ध होंगे। और माघ पूर्णिमा के दिन दिन ही संत रैदास का जन्म हुआ है। जन्म भी वहाँ हुआ जहाँ तथागत ने प्रथम धम्मोपदेश किया, वाराणसी में। संत रैदास बुद्ध धम्म की एक धारा हैं।
संत रैदास जयंती के अवसर पर दिया गया एक व्याख्यान पुनः उद्धृत कर रहा हूँ।)

🧘 संतशिरोमणि गुरु रैदास बुद्ध धम्म की एक धारा हैं। प्रत्यक्ष रूप से वह बौद्ध नहीं दिखते हैं लेकिन गहन विवेचना उनको सीधे *बुद्ध धम्म* से जोड़ती है।
उनका जन्म उस समय हुआ, 15वीं शताब्दी में, जब बुद्ध का धम्म भारत से क्रमिक रूप से लुप्त हो हुआ दिखाई दे रहा था, लेकिन वास्तव में उससे नये सम्प्रदायों का जन्म हो रहा था , जो प्रत्यक्ष रूप से नये सम्प्रदाय दिख रहे थे लेकिन उनकी मौलिक जड़ें बुद्ध धम्म में थीं। जिस समय बौद्ध धर्म का एक सम्प्रदाय सहजयान बन चुका था। इसी सहजयान से भक्ति सम्प्रदाय का जन्म हुआ जिसके उल्लेखनीय प्रकट व्यक्तित्व मध्यकाल के संत हैं- संत रैदास, संत कबीर उनमें सर्वाधिक विख्यात हैं।
👉संत रैदास के पदों और दोहों का गहन अध्ययन किया जाए तो वे बुद्ध के वचनों के सिवा कुछ नहीं हैं।
चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु एवं अन्य कुछ लेखकों व शोधार्थियों ने संत रैदास पर लिखित अपनी पुस्तकों में उल्लेख किया है कि:

संत रैदास के पिता का नाम रघु अथवा रघ्घु था और मां का नाम घुरबिनिया अथवा करमा देवी था। इस दम्पति की सारनाथ में प्रवास कर रहे एक बौद्ध भिक्षु भंते रेवत पर बड़ी श्रद्धा थी। वह उनके दर्शन के लिए और उनसे उपदेश सुनने के लिए काशी से सारनाथ प्रायः जाया करते थे। वह निःसंतान दम्पति थे। एक दिन भंते जी ने दान और संतान का माहात्म्य बताया। दान कथा से प्रभावित होकर इस दम्पति ने एक दिन बड़ी श्रद्धापूर्वक अपने गुरु भंते रेवत को भोजनदान दिया और मिष्ठान्न के रूप में खीर खिलाई।

इस भोजनदान के उपरांत यथासमय माता करमा देवी ने एक संतान को जन्म दिया। दम्पति ने अपने गुरु भंते रेवत पर श्रद्धा के कारण बच्चे का नाम रेवतदास रखा जो कि कालान्तर में अपभ्रंशित हो कर रैदास हो गया। इस प्रकार संत रैदास का आध्यात्मिक सम्बन्ध सीधे बुद्ध धम्म से है क्योंकि उनके माता-पिता एक बौद्ध भिक्षु के प्रत्यक्ष शिष्य थे। यद्यपि कि जब तक रैदास युवा हुए तब तक भंते रेवत शांत हो चुके थे तथापि रैदास के पदों और दोहों में जो शिक्षाएं व्यक्त हुई हैं वह बुद्ध के वचनों के सिवा कुछ भी नहीं हैं:

☸️🧘 ...
• रैदास बाम्हन मति पूजिए, जो होवै गुनहीन।
पूजिहि चरन चण्डाल के, जऊ होवै गुन परवीन।।

• रैदास उपजई सब एक बूँद ते, का बाम्हन का सूद।
मूरिखजन न जानहिं, सभ मह राम मजूद।।

• रैदास इक ही नूर तो, जिमि उपज्यो संसार।
ऊँच-नीच किहि बिधि भये, बाम्हन अरु चमार।।

• रैदास जनम के कारने, होत न कोऊ नीच।
नर को नीच कर डारि है, ओछे करम की कीच।।

रैदास के ये वचन ठीक वही हैं जो सदियों पहले बुद्ध ने कहा है :

• न जच्चा होति वसलो, न जच्चा होति ब्राह्मणो।
कम्मा होति वसलो, कम्मा होति ब्राह्मणो ।।

- जन्म से कोई अछूत नहीं होता, न जन्म से कोई ब्राह्मण होता है। कर्म से कोई ब्राह्मण होता है , कर्म से कोई अछूत होता है।

• दया भाव हिरदै नहीं, भखहिं पराया मास।
ते नर नरक महं जाइहिं, सत भाषै रैदास। ।

यह भगवान बुद्ध के शिक्षा पद को संत रैदास ने अपने शब्दों में कहा है - पाणातिपाता वेरमणि सिक्खापदं समादयामि- मैं प्राणिमात्र की हिंसा से विरत रहने की शिक्षा गृहण करता हूँ।

भगवान बुद्ध का शिक्षा पद है- सुरामेरय मज्ज पमादट्ठाना वेरमणि सिक्खापदं समादयामि - मैं समस्त मादक पदार्थों से विरत रहने की शिक्षा गृहण करता हूँ।

भगवान बुद्ध के इन्हीं शिक्षा पदों को संत रैदास ने अपने युग में अपनी तरह से कहा है :

• रैदास मदुरा का पीजिये, जो चढ़े उतराए।
नांव महारस पीजिये, जो चढ़े नहिं उतराए। ।

संत रैदास, संत कबीर एवं मध्यकाल के अनेक संतों के पदों में इष्ट के रूप में, आराध्य के रूप में राम , श्याम, गोविन्द, गिरधर इत्यादि शब्दों का उल्लेख है जिसे पढ़कर बुद्धिवादी लोग रैदास को बौद्ध परम्परा की एक धारा मानने में थोड़ा झिझकते हैं। लेकिन इस झिझक को रैदास के समकालीन उनके धर्मबन्धु संत कबीर ने बड़ी निर्भीकता से तोड़ा है:

राम नाम सब कोई जपे, ठग ठाकुर अरु चोर।
जो नाम साधु जपे सोई नाम कुछ और ।।

इन संतों के इष्ट राम वह राम नहीं हैं जिस राम के नाम पर आज हाहाकार हो रहा है, दंगा-फसाद हो रहा है। इन संतों के राम उनका अंतर का बुद्धत्व है, निर्वाण है:

संत रैदास ने कहा भी है :

कहि रैदास समुझि रे संतों, इह पद है निरवान।
इहु रहस कोई खोजै बूझै, सोइ है संत सुजान। ।

संत रैदास के पदों और भजनों में बड़ी गहन बौद्ध शब्दावलियों का, टर्मिनोलाजी का, प्रयोग हुआ है :

कहि रैदास तजि सभ त्रस्ना...

संत रैदास समस्त तृष्णा को तज देने की बात कर रहे हैं।

भगवान बुद्ध के सम्बोधि के ठीक बाद प्रथम वचन हैं- तन्हानं खय मज्झगा- तृष्णा का क्षय हो गया है...

यह तृष्णा शब्द बौद्ध शब्दावली है। धम्मपद में पूरा एक अध्याय तृष्णा पर है - तन्हा वग्गो अर्थात तृष्णा वर्ग। वही संत रैदास कह रहे हैं- कहि रैदास तजि सभ त्रस्ना...

संत रैदास का साधना मार्ग विपस्सना है। विपस्सना का सहज सा अर्थ है समता में रहना- न सुखद वेदनाओं से राग, न दुःखद वेदनाओं से द्वेष, बल्कि समता में स्थित रहना।

संत रैदास वही अनुभूति अपने शब्दों में कहते हैं:

राग द्वेष कूं छाड़ि कर, निह करम करहु रे मीत।
सुख दुःख सभ महि थिर रहिं, रैदास सदा मनप्रीत।।

वे विपस्सना की एक बड़ी गहन अनुभूति को बड़े प्रेमल शब्दों में व्यक्त करते हैं:

गगन मण्डल पिय रूप सों , कोट भान उजियार।
रैदास मगन मनुआ भया, पिया निहार निहार ।।

भगवान बुद्ध ने सुख, दुःख, लाभ, हानि इत्यादि को लोक धर्म कहा है। जो इन लोक धर्मों से अविचल रहता है, उसका मंगल होता है:

फुट्टस्स लोक धम्मेहि चित्तं यस्स न कम्पति।
असोकं विरजं खेमं, एतं मंगलमुत्तमं। ।

- जिसका चित्त लोक धर्मों से विचलित नहीं होता, वह शोकरहित, निर्मल होता है, यह उत्तम मंगल है।

इसी को संत रैदास ने अपने शब्दों में कहा है:

सुख दुःख हानि लाभ कौ, जऊ समझहि इक समान।
रैदास तिनहि जानिए, जोगी संत सुजान। ।

भगवान बुद्ध का शब्द ' सति ' अथवा स्मृति ही मध्यकाल के संतों की भाषा में सुरति बन गया है। जिसे भगवान बुद्ध ने सम्यक् स्मृति कहा है उसे ही संत रैदास ने सुरति अथवा सुरत कहा है :

सुरत शब्द जऊ एक हो, तऊ पाइहिं परम अनन्द ।
रैदास अंतर दीपक जरई, घर उपजई ब्रम्ह अनन्द ।।

यह ब्रम्ह अनन्द क्या है? ब्रम्ह विहार ही ब्रम्ह आनन्द है । ब्रम्ह विहार अर्थात मैत्री, करुणा, मुदिता, उपेक्खा।

भगवान बुद्ध सम्यक् समाधि को आर्य अष्टांग मार्ग के आठ अंगों में एक अंग बताते हैं। उसी समाधि को संत रैदास अपने शब्दों में व्यक्त करते हैं:

समाधि थिति संत जन, अपनहु अप्प मिटांहि।
जिमी गंगा समुद मिलि, रैदास समुदहि विलांहि ।।

भगवान बुद्ध धर्म के नाम पर चल रहे अंधविश्वासों के विध्वंसक हैं और संत रैदास उसे पुष्ट करते हैं:

जहं अंध विस्वास है, सत्त परख तहं नांहि ।
रैदास संत सोई जानिहै, जौ अनुभव होहि मन माहि।

भगवान बुद्ध के वचन हैं:

मनो पुब्बंगमा धम्मा मनो सेट्ठा मनोमया...
- मन समस्त धर्मों का पूर्व नायक है, मन श्रेष्ठ है ...

संत रैदास ने इसी बात को अपने समय की भाषा में कहा:

मन ही पूजा मन ही धूप,
मन ही सेऊ सहज सरूप।

और

मन चंगा तो कठौती में गंगा ...

मन चंगा है तो कठौती में गंगा है । संत रैदास बुद्ध के प्रतिनिधि हैं।

संत रैदास का विस्तार सम्पूर्ण भारत है- उनके पद मराठी में अभंगों के रूप में मिलते हैं, राजस्थानी में मिलते हैं, पंजाब में गुरुग्रन्थ साहेब में गुरुमुखी में मिलते हैं। आपको जानकर हैरानी होगी कि संत रैदास का विस्तार तिब्बत तक है। बुद्ध धम्म में चौरासी सिद्धों का उल्लेख है। चौरासी सिद्धों का क्रमवार विवरण तिब्बती परम्परा ने संरक्षित किया हुआ है। चौरासी सिद्धों के विवरण में संत रैदास क्रम संख्या चौदह पर हैं। वह विवरण एक और मिथक तोड़ता है कि संत रैदास के गुरु रामानन्द थे। तिब्बती परम्परा उल्लेख करती है कि संत कबीर और संत रैदास के गुरु एक बौद्ध भिक्षु थे जिनका नाम जालंधर नाथ था।

संत रैदास को बोधिसत्व रैदास के रूप में स्थापित करने का समय आ गया है।
छोड़ो जातिधर्म को, चलो बहुजन के साथ।
पालन कर लो *धम्म* का, हो मंगल प्रभात।।

नमो बुद्धाय, नमो रविदास, जय भीम
🙏बुद्धांग नमामि, धम्मं नमामि, संघं नमामि 🙏

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☸️🧘स्वामी विवेकानंद वेदांती हिंदू या बुद्धिस्ट?👉स्वामी विवेकानन्द शिकागो में जब विश्व धर्म सम्मेलन का आयोजन 1893 में हो ...
12/01/2025

☸️🧘स्वामी विवेकानंद वेदांती हिंदू या बुद्धिस्ट?

👉स्वामी विवेकानन्द शिकागो में जब विश्व धर्म सम्मेलन का आयोजन 1893 में हो रहा था तब स्वामी विवेकानन्द धर्म सम्मेलन मे बोलने हेतु पहुंचे थे। उन्होने आयोजकों से विश्व धर्म सम्मेलन में भाषण देने की इजाजत मांगी तो आयोजकों ने उनसे हिन्दू धर्म के प्रवक्ता होने का प्रमाण पत्र मांगा।
स्वामी विवेकानन्द ने उसी समय शिकागो से भारत के शंकराचार्य को तार भेजा और कहा की मुझे हिन्दू धर्म का प्रवक्ता होने का प्रमाण पत्र भिजवाने का कष्ट करें। इस पर शंकराचार्य (जो की ब्राम्हण जाति की आरक्षित उपाधि है) ने स्वामी विवेकानन्द को कहा की तुम ब्राम्हण जाति के नहीं हो बल्कि शूद्र जाति के हो। अत: तुम्हें हिन्दूओ का प्रवक्ता नहीं बनाया जा सकता है।
शंकराचार्य के जातिवाद और भेदभाव से स्वामीजी का मन उदास हो गया। वे ब्राम्हणों के इस व्यवहार से काफी दुखी हुए।
स्वामी विवेकानंद जी की पीड़ा देख कर वहां शिकागो में मौजूद श्रीलंका से आए "बौद्ध धर्म के प्रवक्ता अनागरिक धम्मपाल बौद्ध जी" ने स्वामीजी को अपनी ओर से एक सहमति पत्र दिया कि स्वामी विवेकानन्द विद्वान है एवं ओजस्वी वक्ता है इन्हें धर्म ससंद मॆं शूद्र वर्ण का होने के कारण अपनी बातें कहने का मौका दिया जाय। इस तरह स्वामी जी को हिन्दू धर्म पर बोलने का मौका दिया।
हिंदू शास्त्रों ( मनुस्मृति आदि ) में जाति वर्ण के अनुसार शूद्रों के धार्मिक कार्यों एवं अधिकारों के उल्लेख होने के कारण स्वामीजी को शिकागो की धर्म ससंद मॆं बोलने के लिये ब्राह्मणों ने अधिकृत नहीं किया।
विवेकानंद को बोलने के लिए धम्मपाल के भाषण के समय में से सिर्फ पांच मिनट दिये गये उस पाच मिनट में स्वामी जी ने अपनी बात रखी और इन्ही पांच मिनट की वजह से उनको सर्वोत्तम वक्ता का इनाम मिला।
👉 ब्राह्मणों के दुर्व्यवहार के कारण ही स्वामी जी ने अपनी पुस्तक #भारत का भविष्य" में कहा है कि, यदि भारत का भविष्य निर्माण करना हो तो ब्राम्हणों को पैरों तले कुचल डालो।
कहा जाता है कि और बौद्ध धर्म के उनपर हुए उपकार के कारण वे बाद में जिंदगी भर बौद्ध धर्म का प्रचार भी करते रहे।
इस भाषण की बुक आप रामकिशन मिशन के किसी भी केंद्र या सर्वोदय साहित्य के बुक स्टाल जो हर बड़े शहर के स्टेशन से प्राप्त कर सकते है।
पुस्तक का नाम है भगवान बुध्द और उनके सन्देश लेखक स्वामी विवेकानंद।✍
नमो बुद्धाय
आपका मंगल हो।

12/01/2025
🧘  भदंत आनन्द कौसल्यायन  :- जन्म 5 जनवरी 1905 को पंजाब प्रांत के मोहाली के निकट सोहना नामक गाँव में एक खत्री परिवार में ...
05/01/2025

🧘 भदंत आनन्द कौसल्यायन :-
जन्म 5 जनवरी 1905 को पंजाब प्रांत के मोहाली के निकट सोहना नामक गाँव में एक खत्री परिवार में हुआ था। उनके पिता लाला रामशरण दास अंबाला में अध्यापक थे। उनके बचपन का नाम हरिनाम था।
1920 में आनंद ने 10 कक्षा परीक्षा पास की, 1924 में 19 साल की आयु में आनंद ने स्नातक की परीक्षा पास की। जब वे लाहौर में थे तब वे उर्दू में भी लिखते थे। वह एक महान विचारक और पालि भाषा के जानकर भी थे।
भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में भी आनंद ने सक्रिय रूप से भाग लिया। वे भीमराव आंबेडकर और महापंडित राहुल सांकृत्यायन से काफी प्रभावित थे। उन्होंने भिक्षु जगदीश कश्यप, भिक्षु धर्मरक्षित आदि लोगो के साथ मिलकर पाली त्रिपिटक का अनुवाद हिंदी में किया।
☸️ वे श्रीलंका में जाकर बौद्ध भिक्षु हुए। वे श्रीलंका की विद्यालंकर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में अध्यक्ष भी रहे।
भदंत आनंद ने जातक की अत्थाकथाओ का 6 खंडो में पालि भाषा से हिंदी में अनुवाद किया। "धम्मपद" का हिंदी अनुवाद के आलावा अनेक पालि भाषा की किताबों का हिंदी भाषा में अनुवाद किया। साथ ही अनेक मौलिक ग्रंथ भी रचे जैसे -
1- "अगर बाबा न होते" (सबसे लोकप्रिय पुस्तक है) ,
2- जातक कहानियाँ,
3- भिक्षु के पत्र,
4- दर्शन
5- वेद से मार्क्स तक,
6-"राम की कहानी, राम की जुबानी',
7- "मनुस्मृति क्यों जलाई",
8- "बौद्ध धर्म एक बुद्धिवादी अध्ययन,
9- "बौद्ध जीवन पद्धति,
10- "जो भुला न सका,
11- रेल के टिकट,
12- कहाँ क्या देखा,
13- 31दिन में पालि,
14- पालि शब्दकोश,
15- सारिपुत्र मौद्गाल्ययान की साँची,
16- अनागरिक भंते धरमपाल आदि।
आंबेडकर के 'दि बुद्धा एण्ड हिज् धम्मा' ग्रंथ का हिंदी एवं पंजाबी में अनुवाद किया था।
22 जून 1988 को भदंत आनंद का नागपुर में परिनिर्वाण हो गया।
समस्त बौद्ध जगत एवं भारत हमेशा ऋणी रहेगा।
भदंत आनंद की अन्तिम इच्छा..
बौद्ध धर्म की ले लो दीक्षा।

04/01/2025

☸️☸️☸️ समाधि कथा ☸️☸️☸️

मन किसी भी आलंबन पर टिक जायेगा तो ध्यानस्थ हो ही जायेगा, एकाग्र हो ही जायेगा, अचंचल हो ही जायेगा परंतु चित्त की एकाग्रता मात्र ही सम्यक समाधि नहीं है, उत्तम समाधि नहीं है। सम्यक समाधि के लिए चित्त का कुशल होना आवश्यक है, निष्पाप होना आवश्यक है। कुशल चित्त की एकाग्रता का नाम ही समाधि है - ‘कुसलचित्तेकग्गता समाधि ।

चित्त का समाधान ही तो समाधि है। समाधान माने समता में आधान, समता में स्थापित। विषय-आलंबन चित्त को समता में स्थापित नहीं कर सकता ।वह तो चित्त के संतुलन को बिगाड़ेगा ही। इसलिए कुशल चित्त की एकाग्रता को ही समाधान मानना चाहिए, सही समाधि मानना चाहिए।

रागमय चित्त कुशल नहीं है, द्वेषमय चित्त कुशल नहीं है, मोहमय चित्त कुशल नहीं है। जहां राग, द्वेष अथवा मोह का आलंबन लेकर चित्त को एकाग्र किया जायेगा, वहां एकाग्रता तो आ जायेगी, परंतु समाधि नहीं आयेगी, समाधान नहीं आयेगा। ऐसी एकाग्रता सम्यक नहीं है, शुद्ध नहीं है। उस एकाग्रता में हमारा कल्याण निहित नहीं है। राग, द्वेष और मोह पर आलंबित एकाग्रता अकुशल चित्त की तल्लीनता है, वह कल्याणकारी कैसे हो सकती है?

चूहे की बिल पर अपना सारा ध्यान लगाए हुए बिल्ली पूर्णतया एक-चित्त हो जाती है, अपने आलंबन पर ध्यानस्थ हो जाती है। मछली की खोज में तालाब के किनारे एक टांग पर खड़ा हुआ बगुला पानी की ओर ध्यान लगाए पूर्णतया एक-चित्त हो जाता है। उसे और किसी बात की सुध-बुध नहीं रहती। यह चूहे और मछली के प्रति राग से लिप्त हुए मन का एकाग्र होना है, जो कि सम्यक समाधि नहीं ही है। ऐसी कोई भी समाधि सम्यक नहीं, शुद्ध नहीं।

इसी प्रकार अपने दुश्मन की ताक में छिपकर बैठा हुआ सैनिक दुश्मन की खाई पर ध्यान लगाए हुए पूर्णतया एक चित्त है। जैसे ही दुश्मन का सिर खाई से ऊपर उठे, वह उसे गोली मार दे । इसी प्रकार किसी हिंसक पशु की ताक में पूरा ध्यान लगाए हुए एक शिकारी अपनी दूनाली बंदूक सँभाले बैठा है। उसका चित्त पूर्णतया एकाग्र है। जैसे ही शिकार दिखा, कि गोली दागी । इस प्रकार द्वेषमयी हिंसा से दूषित चित्त एकाग्र तो है, परंतु वह कुशल चित्त नहीं है। अतः ऐसे चित्त की एकाग्रता सम्यक समाधि नहीं, शुद्ध समाधि नहीं।

किसी मादक पदार्थ का सेवन कर गहरे नशे में डूबा हुआ व्यक्ति उस नशे में ही तल्लीन हो गया है, चित्त की एकाग्रता प्राप्त कर ली है। वह प्रगाढ़ निद्रा में सोए हुए के समान प्रसुप्त है। उसे बाहर-भीतर का कोई होश नहीं। इसी प्रकार वह व्यक्ति एल एस डी जैसे रसायन का प्रयोग करके किसी मरीचिका या विपल्लस के दर्शन करता है और उसमें पूर्णतया तल्लीन हो जाता है। इन दोनों ही अवस्थाओं में वह चित्त की समता खोता है, संतुलन नष्ट करता है। चित्त की विषमता पर आधारित मोह-विमूढत एकाग्रता चित्त का समाधान नहीं है, सम्यक समाधि नहीं है, शुद्ध समाधि नहीं है।

शुद्ध समाधि के लिए किसी प्रकार का भावावेशमय आलंबन भी उपयुक्त नहीं । इससे चित्त की शुद्ध समता नष्ट होगी, उसका संतुलन बिगड़ेगा, चित्त रोगजन्य आसक्तियों में डूबेगा, भावुकता में तल्लीन होगा। एकाग्रता तो आयेगी, पर शुद्धता दूर रहेगी।

चित्त की एकाग्रता के लिए आलंबन ऐसा होना चाहिए जो हमें न प्रिय लगने वाला हो, न अप्रिय । जिसके प्रति हमारे मन में न राग जागे और न द्वेष तथा साथ ही ऐसा भी हो जो हमें किसी प्रकार की मोह-निद्रा में डुबाने से बचाए, आत्म-सम्मोहन और पर द्वारा सम्मोहन किए जाने से बचाए, प्रसुप्ति-कारक ध्यानों से बचाए, चित्त को सतत जागरूक रख सकने में सहायक हो।
बाह्य जगत के स्थूल इंद्रिय सुख तो हमें खूब तल्लीनता दिलाते ही हैं। परंतु आध्यात्म के नाम पर चलने वाले सूक्ष्म इंद्रिय सुख भी तल्लीनता दिलाते है। परंतु यह तल्लीनता बांधने वाली ही होती है, मुक्त करने वाली नहीं । अतीन्द्रिय सुख के नाम पर प्राप्त हुई सभी ध्यान-समाधियां बांधने वाली ही होती हैं। आंख बंद रखने पर भी किसी प्रिय मनोरम रूप, रंग, आकार, प्रकाश आदि का दीखना और इसमें चित्त का एकाग्र होना, किसी श्रुति-मधुर शब्द, नाद आदि में चित्त का एकाग्र होना, किसी घ्राण-मधुर गंध, सौरभ के रसास्वादन में चित्त का एकाग्र होना, किसी काया-स्पर्शजन्य सुखद-पुलक-सिहरन में चित्त का एकाग्र होना - दिव्य अनुभूतियों के नाम पर सूक्ष्म स्तर का राग-रंजन ही है, मोह-बंधन ही है। मुक्ति की ओर ले जाने वाली सम्यक समाधि नहीं। सम्यक समाधि के लिए शुद्ध आलंबन के आधार पर चित्त-एकाग्रता का अभ्यास करने वाले किसी साधक को भी इस प्रकार की अतींद्रिय अनुभूतियां हो जानी स्वाभाविक ही है। परंतु इन्हें पथ पर आने वाले मील के पत्थरों की तरह त्याग कर आगे बढ़ना होगा। कहीं इन्हीं को आलंबन मानकर रुक गए तो फिर राग-रंजन में उलझ जायेंगे । चित्त-विमुक्ति की अंतिम स्थिति तक पहुँच नहीं पायेंगे। अतः सतर्क रहना होगा कि किसी भी स्तर पर कोई भी ऐसा आलंबन न पकड़ बैठे जो कि हमारे पैरों की बेड़ी बन जाय, राह-रोधक दीवार बन जाय ।

शुद्ध समाधि के लिए उपयुक्त आलंबन खोजते हुए हमें यह बात भी ध्यान में रखनी होगी कि कही वह आलंबन साधक को किसी संप्रदाय-विशेष के दायरे में बंदी तो नहीं बनाने लगा, कहीं वह आलंबन किसी संप्रदाय-विशेष का कोई रूपमय, रंगमय, शब्दमय प्रतीक-विशेष तो नहीं है, जिसे कि ग्रहण करने में अन्य लोगों को कठिनाई हो, हिचक हो। यह जो शील, समाधि, प्रज्ञा और विमुक्ति का मार्ग है, यह तो सर्वथा सार्वजनीन है, सार्वकालिक है, सार्वदेशिक है। अतः इस मार्ग पर चलते हुए चित्त की एकाग्रता के लिए जो भी आलंबन चुना गया, वह भी सार्वजनीन ही हो, सार्वकालिक ही हो सार्वदेशिक ही हो, सर्वजन सुलभ हो, सर्वजन ग्रहणीय हो।

उपरोक्त अनिवार्यताओं की पूर्ति करने वाले अनेक आलंबन लिए जा सकते हैं। हमने अपने ही आश्वास-प्रश्वास को आलंबन के रूप में चुना है। आश्वास-प्रश्वास भी बिल्कुल शुद्ध । शुद्ध इस माने में कि इसके साथ कोई शब्द नहीं जुड़े, कोई नाम नहीं जुड़े, कोई जाप नहीं जुड़े, कोई रूप, कोई आकार नहीं जुड़े। केवल मात्र श्वास के आगमन-निगमन पर सतत जागरूकता का अभ्यास । और श्वास भी नैसर्गिक श्वास, स्वाभाविक श्वास । लंबा है तो लंबा, छोटा है तो छोटा, गहरा है तो गहरा, उथला है तो उथला, स्थूल है तो स्थूल, सूक्ष्म है तो सूक्ष्म । नैसर्गिक श्वास को आलंबन बनाते हुए यह बात समझ लेनी होगी कि हम श्वास की कसरत नहीं कर रहे हैं। अगर कोई कसरत है भी तो वह मन की ही है। श्वास तो केवल मात्र आलंबन है। अत: आलंबन जितना स्वाभाविक होगा, उतना ही अच्छा । उसमें की गई छेड़-छाड़ कृत्रिमता पैदा करेगी जो कि नैसर्गिक सत्य दर्शन में बाधा पैदा करेगी । हम निसर्ग से अभिमुख न हो कर पराङ्मुख हो जायेंगे, विमुख हो जायेंगे।

आखिर इस चित्त की एकाग्रता का अभ्यास किसलिए कर रहे हैं? सहज इसलिए कि एकाग्र हुआ चित्त इतना सूक्ष्म और तीक्ष्ण हो। जाय कि अंतिम परमार्थ सत्य को जिन आवरणों ने ढक रखा है, उनको बिंध सके, चीर सके और आध्यात्म को निरावरण करके प्रज्ञाचक्षु द्वारा आत्म-साक्षात्कार कर सकने में, सत्य का साक्षात्कार कर सकने में सहायक सिद्ध हो सके ।ऐसी अवस्था में आलंबन को जितना कम कृत्रिम बनायेंगे और उसे जितना अधिक नैसर्गिक बने रहने देंगे, उतना ही अंधी गलियों में भटकने से बचेंगे, ऋजु राजपथ पर आरूढ़ रहेंगे।

नैसर्गिक आश्वास-प्रश्वास का आलंबन हमने इसलिए भी अपनाया कि हमारी श्वास की गति का मन के विकारों से गहरा नैसर्गिक संबंध है। हम देखते हैं कि जब हमारा मन किन्ही दूषित विकारों से विकृत हो उठता है, क्रोध से, भय से, वासना से, ईष्र्या से, अथवा अन्य किसी भी दूषित विकार से यह आक्रांत हो उठता है। तो उस समय हमारे श्वास की गति स्वभावतः तीव्र और स्थूल हो जाती है। जैसे जैसे मन पर से ये विकार दूर होते जाते है, वैसे वैसे श्वास की गति मंथर और सूक्ष्म होने लगती है। समाधि के पश्चात हमें प्रज्ञा के क्षेत्र में उतरते हुए अपने ही मनोविकारों बंधनों से मुक्त होना होगा। ऐसी अवस्था में नैसर्गिक श्वास के इस यथाभूत आवागमन क आलंबन अत्यंत उपादेय है। साधना के अगले चरण में यह हमारा सहायक ही होगा।

स्थूल श्वास का निरीक्षण करते-करते हम देखेंगे कि जैसे-जैसे चित्त एकाग्र हुआ, वैसे वैसे उसकी नैसर्गिक सूक्ष्मता में भी अभिवृद्धि होने लगी। कभी-कभी तो श्वास सूक्ष्म बाल की तरह क्षीणकाय हो जायेगा और जैसे बाहर निकलेगा वैसे ही भीतर की ओर मुड़ जायेगा। कभी-कभी स्वतः कुंभक की स्थिति तक पहुँच जायेगा। अतः स्पष्ट है कि हमारा यह आलंबन स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर ले जाने वाला है। आगे का जो अज्ञात, अनदेखा क्षेत्र में देखना है, वह इस स्थिति से भी अधिक सूक्ष्म है, इस कारण से भी श्वासो-श्वास का आलंबन सही आलंबन है, सार्थक आलंबन है। भीतर ही भीतर जो अनंत उर्मियों का सागर लहरा रहा है, भीतर ही भीतर जो आंतरिक संवेदनाओं की सरिता प्रवाहित हो रही है, भीतर ही भीतर शरीर के अणु-अणु में जो असंख्य स्पंदनों का निरंतर नर्तन हो रहा है, हमें उसका दर्शन करना है। अपने सतत प्रवाहमान स्वरूप का दर्शन करना है। परंतु यह सब कुछ तो अत्यंत सूक्ष्म अवस्था में चल रहा है। यहां तक पहुँचने के लिए पहले अपने गतिमान श्वास के इस स्थूल परंतु अविराम प्रवाह का निरीक्षण आरंभ करना होगा।

जो कुछ भीतर हो रहा है, वह अनायास हो रहा है। शरीर और मन का यह स्वत: संचालित अविरल प्रवाह है। अंतर्जगत की सृष्टि-प्रलय वाली इस अनायास गतिमान स्थिति का निरीक्षण कर सकने के लिए एक ऐसा आलंबन चाहिए जो कि सायास और अनायास दोनों प्रकार से गतिमान होता हो ताकि उसकी सायास गति को देख समझ कर तुरंत उसकी अनायास गति के निरीक्षण का अभ्यास आरंभ कर दे। और यही सांस ही शरीर की एक ऐसी गति है, जिसका संचालन तीव्र या मंद, सायास सप्रायास भी किया जा सकता है और जो कि अनायास अप्रयत्न भी गतिमान है ही। सायास से अनायास तक पहुँचने के लिए, ज्ञात से अज्ञात तक पहुँचने के लिए, नदी के जाने-पहचाने इस पार से , अनजाने-अनदेखे उस पार तक पहुँचने के लिए हमारा श्वास ही एक पुल का काम कर सकता है। इसलिए भी इसका आलंबन उपादेय है।

शील, समाधि, प्रज्ञा और विमुक्ति का यह मार्ग जिसका कि हमने अभ्यास आरंभ किया है, हमें साधना-क्षेत्र की उन गहराइयों तक पहुँचाता है, जहां कि हम सहजभाव से परमार्थ सत्य का साक्षात्कार कर सकेंगे। इसके लिए हमें इस क्षण के यथाभूत सांदृष्टिक सत्य के निरीक्षण से अभ्यास आरंभ करना होगा क्योंकि अंतिम परमार्थ सत्य इस क्षण का सत्य है, बीते हुए क्षणों का नहीं, आने वाले क्षणों का नहीं। बीते हुए क्षणों की तो केवल याद मात्र हो सकती है, आने वाले क्षणों की केवल कामना, कल्पना मात्र हो सकती है। साक्षात्कार तो वर्तमान क्षण का ही हो सकता है, अतीत के क्षणों का नहीं, अनागत के क्षणों का नहीं। अतः परम सत्य के साक्षात्कार के लिए वर्तमान क्षण का जो स्थूल सांदृष्टिक सत्य है, उसी का सावधानीपूर्वक निरीक्षण करते-करते सूक्ष्म सत्यों का अनावरण होगा और सूक्ष्मतम स्थिति के भी परे इस क्षण के परम सत्य का साक्षात्कार हो सकेगा। इसके लिए नन्हे से नन्हें आगत क्षण में जी सकने का अभ्यास ही हमारी सारी साधना का ऋजु-राजपथ है। इस क्षण में जीने का अभ्यास करने के लिए इस क्षण होने वाली शरीर की इस स्थूल घटना के प्रति याने आने वाली सांस की अथवा जाने वाली सांस की जानकारी के प्रति जागरूकता बनाए रखना सीखें। ऐसा अभ्यास करते हुए मन पर अतीत की कोई कटु-मधुर यादें बादलों की तरह छाने न पाएं। इसी प्रकार अनागत की कोई कटु-मधुर आशंका या कामना छाने न पाए। शुद्ध सांस की जानकारी, यथाभूत सांस के आवागमन की ही जानकारी मात्र बनी रहे। अतीत या अनागत की कटु-मधुर यादें आशंकाएं, कामनाएं, राग पैदा करती हैं, द्वेष पैदा करती हैं, क्योंकि वे प्रिय होती हैं। अथवा अप्रिय होती हैं। जैसे-जैसे भूत-भविष्य से संबंधित इन राग-द्वेषमयी यादों और कल्पनाओ से मुक्त होकर चित्त वर्तमान की इस सांस लेने या छोड़ने वाली घटना पर स्थित होता है, वैसे-वैसे राग-द्वेष से छुटकारा पाता है। और जागरूक है इसलिए मोह से छुटकारा पाता है। सांस की गति का निरीक्षण करने में हमारे मन में उसके प्रति न कोई प्रिय भाव जागता है, न अप्रिय । न उसके प्रति आकर्षण होता है, न विकर्षण। न राग होता है, न द्वेष ।

शरीर की इस नैसर्गिक घटना को महज एक तमाशबीन की तरह देखना सीखते हैं। भूत और भविष्य के बंधनों से मुक्त होकर, राग और द्वेष की जकड़न से बाहर निकल कर, इस क्षण में जीने का प्रथम प्रयास आरंभ करते हैं। डगमग कदमों पर चलना सीखने वाले शिशु का सा यह प्रयास और इस दिशा में किया गया निरंतर अभ्यास हमें एक दिन सुदृढ़, सबल और अडिग कदमों से अपनी यात्रा पूरी कर सक ने योग्य बनाता है।

बिना सम्यक समाधि पुष्ट हुए हम इस क्षण की गहराइयों में उतर नहीं सकते । हम प्रज्ञा के क्षेत्र में पदार्पण कर नहीं सकते। समाधि को सम्यक तया पुष्ट करने के लिए ही चित्त को इस क्षण का प्रत्यक्ष, यथार्थ, सांदृष्टिक , कल्पना-विहीन, निर्दोष आलंबन दें, जो कि इस सांस के आवागमन की जानकारी का आलंबन है। इसी के सहारे इस क्षण में जीना सीखते हुए राग-विहीन, द्वेष-विहीन, मोह-विहीन कुशल चित्त की एकाग्रता को पुष्ट करें । काया और वाणी के दुष्चरितों से बच सकने की क्षमता पुष्ट करें ।प्रज्ञा में पुष्ट होकर दूषित चित्त-विकारों का उन्मूलन करते हुए मानिसक दुष्कर्मों से विरत रह सकने की क्षमता को पुष्ट करे।

इस प्रकार उपलब्ध हुई शुद्ध समाधि मंगल-प्रदायिनी है। आओ, श्वास के आवागमन के प्रति सजगता का अभ्यास करते हुए समाधि को पुष्ट करें! समाधि के पुष्ट होने से शील भी पुष्ट होगा तथा शील और समाधि के पुष्ट हो जाने से प्रज्ञा भी पुष्ट हो सकेगी। शील, समाधि, प्रज्ञा की पुष्टि में ही तो विमुक्ति है। विकारों से विमुक्ति । दुखों से विमुक्ति । अविद्या-अज्ञान से विमुक्ति ।
सचमुच समाधि का पथ मंगल का पथ है। कल्याण का पथ है। शांति-सुख का पथ है। विमुक्ति का पथ है।

कल्याणमित्र,
सत्यनारायण गोयन्का

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+919716119017

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