09/10/2025
सामाजिक परिवर्तन के कीमियागर
मान्यवर कांशीराम भारतीय लोकतंत्र के उन असाधारण जननायकों में से हैं जिन्होंने सत्ता को पहली बार सामाजिक प्रतिनिधित्व के रूप में देखा। उन्होंने लोकतंत्र को सिर्फ वोट देने की प्रक्रिया नहीं, बल्कि राजनीतिक शक्ति के न्यायपूर्ण पुनर्वितरण की व्यवस्था के रूप में परिभाषित किया।
उनका नारा, 'वोट हमारा, राज तुम्हारा नहीं चलेगा', केवल विरोध का स्वर नहीं है, बल्कि उस समाज के आत्म-सम्मान की पुकार थी जिसे सदियों से सत्ता से वंचित रखा गया। यह नारा उस दौर के बहुजन समाज में आत्मबोध, संगठन और राजनीतिक हिस्सेदारी की चेतना जगाने वाला बना। और आज भी खास है। यह उस प्रसिद्ध सूत्र से भी गहरा था जिसमें कहा गया, 'जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी'।
बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय जैसे नारे अब वैचारिक दिशा नहीं, बल्कि राजनीतिक ब्रांड बन चुके हैं। संगठनात्मक अनुशासन, वैचारिक प्रशिक्षण और सामाजिक गहराई की कमी ने आंदोलन की धार कमजोर कर दी है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस स्थिति के लिए खुद बहुजन समाज की कुछ प्रभावशाली जातियाँ ही जिम्मेदार हैं, वे जो अब नेतृत्व के केंद्र में हैं, जबकि कई समुदाय अब भी हाशिए पर हैं। वे आज भी नेतृत्व अपने से नीचे वालों को नही देना चाहते हैं बल्कि उन्हें जयकारा वर्ग में रखने के प्रबल हिमायती बने हुए हैं।
सत्ता में आने के बाद बहुजन राजनीति ने उसी सांस्कृतिक तंत्र का अनुसरण शुरू कर दिया, जिसके विरुद्ध वह खड़ी हुई थी। ब्राह्मणवादी प्रतीकों, भाषा और सांस्कृतिक प्रतीकों का पुनःप्रवेश इस राजनीति को वैचारिक रूप से भ्रमित कर रहा है। यह प्रवृत्ति कांशीराम की उस चेतना के विपरीत है जो आत्म-सम्मान और सांस्कृतिक स्वायत्तता पर आधारित थी।
आज बहुजन राजनीति के भीतर एक नया अभिजात वर्ग उभर आया है, जो संसाधनों, अवसरों और प्रतिनिधित्व पर नियंत्रण रखता है। यह नया बहुजन इलीट उस सामाजिक पुनर्वितरण की प्रक्रिया को भीतर से बाधित कर रहा है, जिसकी कल्पना कांशीराम ने की थी। उनके द्वारा प्रतिपादित सामूहिक सशक्तिकरण की अवधारणा अब चयनित प्रतिनिधित्व में सिमटकर रह गई है।
कांशीराम हमें यह चेतावनी देकर गए थे कि लोकतंत्र तभी तक जीवित रह सकता है जब उसकी शक्ति समाज के सबसे अंतिम व्यक्ति तक पहुँचे। आज बहुजन राजनीति को फिर से अपने मूल दर्शन, संगठन, वैचारिक अनुशासन और सामाजिक न्याय की ओर लौटने की आवश्यकता है।
हम कांशीराम को केवल स्मरण न करें, बल्कि उनके विचारों को वर्तमान राजनीतिक संदर्भ में व्यवहारिक रूप से पुनर्जीवितनकरें। तभी लोकतंत्र वास्तव में जन के लिए, जन से, और जन द्वारा संचालित हो सकेगा, जैसा उन्होंने सपना देखा था।
मान्यवर की स्मृतियों को नमन💐
साथ ही उन्हें जल्द से जल्द भारत रत्न से सम्मानित किया जाए। ✊