23/07/2025
पृष्ट न.33 #बंदे #से #रब 23/07/2025
तथा साध-संगत की सेवा में लगाकर मालिक के लेखे लगाए और इसे सफल करे। परन्तु यह जीव खाने-पीने, विषय-विकारों, काम-धन्धों में लगा कर इसे बर्बाद कर रहा है। जिन हाथों को सतगुरु व साध संगत में पंखा-पानी आदि की सेवा करके पवित्र करना रथा, जिन हाथों से जीवों का भला करना था, उन्हीं हाथों को सैकड़ों-हजारों बेजुबान व मासूम जीवों का कत्ल करने तथा अनेक बुरे-बुरे कर्म करके अपवित्र कर रहा है। तन की 7 सच्ची सेवा के बारे में पंचम पातशाह श्री गुरू अर्जुन देव जी फरमाते हैं :-
पखा फेरी पाणी ढोवा हरि जन कै पीसणु पीसि कमावा ॥ नानक की प्रभ पासि बेनंती तेरे जन देखणु पावा ॥
(मः 5-749)
अर्थात्, हे प्रभु ! मेरी आपके पवित्र चरणों में यही प्रार्थना है कि मैं इन हाथों से सतगुरु के दर पर पंखा, पानी तथा आटा पीसने की सेवा करूं और इन आँखों से तेरे प्यारे भक्तों के दर्शन करूं।
पाणी पखा पीसु दास कै तब होहि निहालु ॥ राज मिलख सिकदारीआ अगनी महि जालु ।।
(मः 5-811)
अर्थात्, प्रभु के भक्तों के दर पर पानी, पंखा और आटा पीसने की सेवा कर के ही खुशी मिलती है। इसलिए राज्य, मालिक सरदारियां आदि दुनिया की सब इच्छाओं को अग्नि में डालकर अपने सतगुरु की सेवा करनी चाहिए।
जिन पांवों के द्वारा जीव ने मालिक रूप सतगुरु के दर पर चल कर उनके दर्शन करने थे और उनके दर पर जा कर अनेक प्रकार की सेवा करनी थी उन्हीं पांवों के साथ जीव बुरे कामों के लिए गलत जगह पर दौड़-दौड़ कर जाता है। जिन आँखों को मालिक रूप सतगुरु के दर्शन करके पवित्र करना था, उन्हीं आँखों को जीव दुनिया के रंग-तमाशों, कुदृश्यों (बुरे नजारों), पर-धन, पर नारी तथा पराए घर को देखकर अपवित्र कर रहा है। जिस कारण सीधा नकों में जाने का अधिकारी बनता है।
श्री गुरू अर्जुन देव जी फरमाते हैं :-
नैनहु संगि संतन की सेवा चरन झारी केसाइओ । आठ पहर दरसनु संतन का सुखु नानक इहु पाइओ॥
(मः 5-1217)
अर्थात्, अपनी आँखों की पलकों तथा केसों से सतगुरु के चरणों को झाडूं। हे मालिक | मुझे यह सुख बख्श कि मुझे आठों पहर सन्त-सतगुरु के दर्शन प्राप्त होते रहें
आगे फिर फरमाते हैं :-
केसा का करि बीजना संत चंउरु ढुलावउ ॥ सीसु निहारउ चरण तलि धूरि मुखि लावउ ॥ (मः 5-745) अर्थात्, हे मालिक ! मैं अपने केसों (बालों) का बीजना बना कर सन्तों के ऊपर चउर (चंवर) झुलाऊं और अपने शीश को उनके चरणों में रखकर उनकी चरण-धूलि अपने मुख पर लगाऊं
मेरे राम हरि जन कै हउ बलि जाई ॥ केसा का करि चवरु ढुलावा चरण धूड़ि मुखि लाई । (मः 5-749)
अर्थात्, हे मेरे प्रभु ! तेरे भक्तों पर मैं बार-बार बलिहार जाऊं। अपने केसों का बीजना बना कर उन पर चंवर झुलाऊं और उनकी चरण-धूलि अपने मुख से लगाऊं। चौथे पातशाह श्री गुरू राम दास जी भी इस बारे में फरमाते हैं :-
तनु मनु काटि काटि सभु अरपी विचि अगनी आपु जलाई ॥ पखा फेरी पाणी ढोवा जो देवहि सो खाई ॥ नानकु गरीबु ढहि पड़आ दुरै हरि मेलि लैहु वडिआई ॥
(मः 4-757)
अर्थात्, हे सतगुरु ! मैं अपने तन-मन के टुकड़े-टुकड़े करके आपके चरणों में अर्पण कर दूं। मैं तुम्हारे द्वार (दर) पर पंखा करने तथा पानी ढोने की सेवा करूं और जो कुछ भी आप मुझे खाने के लिए दें, उसे अमृत मान कर खाऊं। हे प्रभु! मैं तुम्हारे द्वार पर पड़ा हुआ हूं, मुझे अपने साथ ही मिला लो। यह आप की ही उपमा (बड़ाई) है।
पाणी ढो के पक्खे दी झल्ल मारां, दाता जी तेरीआं संगतां नूं। तन की सेवा के बारे में पंचम पातशाह श्री गुरू अर्जुन देव जी फरमाते हैं :-
चरण पखारि करउ गुर सेवा बारि जाउ लख बरीआ ॥ जिह प्रसादि इहु भउजलु तरिआ जन नानक प्रिअ संगि मिरीआ ॥
(मः 5-207)
अर्थात्, मैं अपने सतगुरु जी के चरणों की सेवा करूं और उन पर लाख-लाख बार से बलिहार जाऊं। सतगुरु की कृपा से ही जीव संसार सागर से पार उतर सकता है और अपने प्रीतम से मिल सकता है। सतगुरु के दरबार की सेवा करने से दुनियावी विषय-विकारों की जहर खत्म हो जाती है और आत्मा शुद्ध तथा निर्मल हो जाती है। जो जीव मालिक के प्यारे भक्तों दासों का बन जाता है, वही मालिक के दर पर शोभा पाता है। श्री गुरू अर्जुन देव जी फरमाते हैं :-
चरन पखारि करउ गुर सेवा मनहि चरावउ भोग ॥ छोडि आपतु बादु अंहकारा मानु सोई जो होगु ॥
(मः 5-713)
अर्थात्, गुरू के चरणों की सेवा करो और अपने मन को भेंट के रूप में उनके चरर्णा में अर्पण कर दो। अहं-भाव, वाद-विवाद, मान-अहंकार आदि छोड़कर प्रभु के भाणे को ही मानो क्योंकि सब कुछ उसके हुक्म के अन्दर ही हो रहा है। तीसरे पातशाह श्री गुरू अमरदास जी भी यही फरमाते हैं :-
हसती सिरि जिउ अंकसु है अहरणि जिउ सिरु देइ ॥ मनु तनु आगै राखि कै ऊभी सेव करेड़ ॥
(मः 3-647)
अर्थात्, जीव को चाहिए कि वह हाथी की तरह अपने गुरू के हुक्म का अंकुश अपने सिर पर धारण करे अर्थात् अपने गुरू के हुक्म के अन्दर ही सब कार्य-व्यवहार करे। अहरण की तरह अपना शीश गुरू के आगे रख कर हर मुसीबत या दुःख-सुख को हंसते-हंसते सहन करे और उफ् तक भी न करे। इस प्रकार जीव को तन-मन से अपने गुरू की सेवा करनी चाहिए। सतगुरु की सेवा करने वाले जीव को मालिक खुद हाथ देकर रखता में है। सतगुरु के दरबार में सेवा करने से मालिक की दया से सब वैरी भी मित्र बन जाते हैं। पंचम पातशाह श्री गुरू अर्जुन देव जी गुरुवाणी के अन्दर फरमाते हैं :-
तिसु गुर कउ झूलावउ पाखा ॥ महा अगनि ते हाथु दे राखा ॥ तिसु गुर कै ग्रिहि ढोवउ पाणी ॥ जिसु गुर ते अकल गति जाणी ॥ तिसु गुर कै ग्रिहि पीसउ नीत ।। जिसु परसादि वैरी सभ मीत ॥
(मः 5-239)
अर्थात्, गुरू को पंखा करने से वे जीव को महा भयानक अग्नि से अपनी दया का हाथ देकर (अपनी सहायता से) बचा लेते हैं। गुरू के दर पर पानी की सेवा करने से अक्ल की गति की जानकारी प्राप्त होती है। गुरू के दर पर आटा पीसने की सेवा करने से उनकी कृपा के द्वारा सब बैरी मित्र बन जाते हैं। आप आगे फिर फरमाते हैं :-
कमावा तिन की कार सरीरु पवितु होइ ॥ पखा पाणी पीसि बिगसा पैर धोइ ॥ आपहु कछू न होइ प्रभ नदरि निहालीऐ ॥ मोहि निरगुण दिचै थाउ संत धरम सालीऐ ॥
(मः 5-518)
Faith versus Verdict
Dera Sacha Sauda - Ideology
Dera Sacha Sauda
Veerpal Kaur Insan
Mohit Gupta Insan
Manoj Patlan Insan
Vijay Insan
Sanjiv Jha Insa