06/07/2025
इंस्टीट्यूट ऑफ पॉपुलेशन साइंसेज के एक रिसर्च में बिहार के 36 गांवों में 2,270 परिवारों का सर्वे किया गया, और सामने आया कि करीब 50% घर ऐसे हैं जहां का कोई न कोई सदस्य काम के लिए गांव छोड़ चुका है।
ये पलायन ज़्यादातर अकेले पुरुष करते हैं।
पूरा परिवार साथ नहीं जाता, और जिन लोगों ने घर छोड़ा, उनमें 80% से ज़्यादा या तो भूमिहीन हैं या उनके पास एक एकड़ से भी कम ज़मीन है।
यानी रोज़गार की तलाश सिर्फ ज़रूरत नहीं, मजबूरी बन चुकी है।
इन प्रवासियों की औसत उम्र सिर्फ 32 साल है — यानी बिहार का सबसे ऊर्जावान हिस्सा अपने ही गांव, अपने ही राज्य में काम नहीं ढूंढ पा रहा है।
ज़्यादातर लोग प्राइवेट फैक्ट्रियों या असंगठित क्षेत्रों में काम करते हैं, जहां न तो सुरक्षा होती है, न stability।
पैसों की बात करें तो ज्यादातर लोग 10 से 20 हजार के मासिक आय पर काम करते हैं और मुश्किल से 8 से 15 हजार तक प्रति माह अपने घर भेज पाते हैं।
महिलाओं की बात करें तो पलायन का पूरा बोझ उनके कंधों पर हीं है, खेत, घर, बच्चे — सब कुछ उन्हें अकेले संभालना पड़ता है - और हालात ये है कि आज भी गांव की लगभग आधी महिलाएं सिर्फ साक्षर हैं, और बहुत कम महिलाओं को काम करने के मौके मिलते हैं।
सबसे बड़ी चिंता की बात ये है कि प्रवासी भाई दोबारा बाहर जाने के लिए मजबूर हैं, और 2/3 परिवारों के बच्चे भी शायद यही रास्ता अपनाने के लिए बाध्य हैं। ये आंकड़े एक संकेत हैं — कि हमें जल्द से जल्द बिहार में ही रोज़गार, शिक्षा और सम्मान के अवसर बनाने होंगे।
क्योंकि अगर बिहार का युवा बाहर जाएगा, तो गांव कौन संभालेगा? ज़मीन कौन जोतेगा? समाज कौन जोड़ेगा?
पलायन सिर्फ एक आर्थिक विषय नहीं है, ये सामाजिक संतुलन का भी सवाल है।
इसी Distress Migration बात प्रशांत किशोर कर रहे हैं