23/08/2025
पोस्ट पूरा पढ़े = बारिश का मौसम और बचपन की यादें
पहली फुहार पड़ते ही जैसे समय उल्टा चल पड़ता है—खिड़की के शीशे पर टप-टप गिरती बूंदें, मिट्टी की सौंधी खुशबू, और दिल में उभर आतीं वही पुरानी शरारतें। लगता है, अभी माँ आवाज़ देगी—“बारिश हो रही है, बाहर मत जाना”—और हम हँसते हुए बरामदे से फिसलकर आँगन में छलाँग लगा देंगे।
बरसात में हमारा बचपन किसी त्योहार से कम न था। छतरी घर पर रह जाती, कागज़ की नावें बनतीं, और हम उन्हें नालियों में बहते छोटे-छोटे दरियाओं में छोड़ देते। जिसकी नाव सबसे दूर जाती, वही दिन का बादशाह। पानी के गड्ढों में छप-छप दौड़ते, कपड़े भीग जाते, पर चेहरे पर ऐसी चमक होती जैसे बादल हमीं के लिए बरस रहे हों।
गाँव की गलियों में तब कीचड़ भी दोस्त था—पैर फिसलते, हम गिरते, हँसी के फव्वारे छूटते। खेतों के पास से आती मेंढ़कों की टर्र-टर्र और दूर कहीं से भैंसों की घंटियों की टन-टन, जैसे बारिश की अपनी धुन हो। टीन की छत पर बूंदों का थप-थप संगीत, और भीतर चूल्हे पर उबलती अदरक वाली चाय—कप से उठती भाप के साथ आँखों में सपनों की धुंध।
शाम होते ही दादी के पास गोल घेरा—वो कहानियाँ जिनमें बादल घोड़े बनकर दौड़ते थे, और इंद्रधनुष किसी जादुई पुल की तरह गाँव के दो किनारों को जोड़ता था। बाहर बिजली कड़की तो हम चौंकते, दादी मुस्कुराकर कहतीं—“डरो मत, बादल ताली बजा रहा है।” और सच में डर खत्म हो जाता, बस उत्सुकता रह जाती—अगली चमक कब आएगी?
बरसात का स्वाद भी अलग था—मक्का भुना, बेसन के पकोड़े, गरम-गरम खिचड़ी, और ऊपर से देसी घी की खुशबू। खिड़की के पास बैठकर थाली में गिरती हर बूंद को हम खेल समझते—कौन पहले खत्म करेगा, कौन ज्यादा चम्मच भाप पकड़ पाएगा। बिजली चली जाती तो दिया जलता, और कमरे की दीवारों पर नाचती लौ में हम अपनी हथेलियों से जानवरों की आकृतियाँ बनाते—एक छोटी-सी दुनिया, जो केवल हमारे लिए चमकती थी।
आज भी जब बादल घिरते हैं, मन अनायास उसी पटरी पर लौट जाता है—जहाँ बारिश सिर्फ मौसम नहीं, साथ का एहसास थी। जहाँ भीगना बीमारी नहीं, आज़ादी था। जहाँ हर बूंद में दोस्ती की आवाज़ थी—“चल, बाहर आ, आज फिर से नाव दौड़ाते हैं।”
शहर की खिड़कियाँ बंद रहें, छाते ऊपर हों—पर यादों की गलियों में अब भी कीचड़ वही हिस्सा मांगता है, कागज़ की नावें अब भी किनारे से “धक्का” पूछती हैं, और दिल हर बार कहता है—अगर बचपन का कोई मौसम था, तो वो बारिश ही थी। बूंदें आज भी नई हैं, पर सुकून पुराना—जैसे बादल हर साल उसी वादे के साथ लौटते हों: “आओ, फिर से भीगते हैं।” 🌧️✨