
07/01/2025
ठंडी के वो सुनहरे दिन, जब सूरज की किरणें घास पर गिरी ओस की बूंदों को चमकाती थीं। बगल के बाग की झाड़ियों में बकरियाँ मस्त होकर चर रही होतीं, और हम बच्चे अपने खलिहान या बाग को खेल का मैदान बना लेते। क्रिकेट का जुनून ऐसा था कि बॉल कोई और लेकर आता, बैट किसी और के पास होता, और कभी-कभी तो चंदा करके बॉल और बैट खरीदा जाता।
विकेट? वो तो कभी था ही नहीं। किसी टूटे डंडे या ईंट के टुकड़ों से "जुगाड़" विकेट बनाया जाता। मैच शुरू होते ही ठंडी हवा के बावजूद गर्मजोशी का माहौल बन जाता। लेकिन ठंडी में विकेटकीपिंग करना? यह काम हर कोई टालने की कोशिश करता, क्योंकि गीली गेंद की चोट हाथों पर सीधे दिल पर लगती थी।
मैच के दौरान ही बगल के आम के पेड़ से लकड़ियाँ तोड़ी जातीं। वो लकड़ियाँ जलाकर आग बनाई जाती, और वहीं बैठकर ठंडी से राहत लेते हुए हम खेल का आनंद लेते। मैच की प्राइज मनी? बस 11 या 22 रुपये होती, और कभी-कभी बड़ी रकम यानी पूरे 111 रुपये तक पहुंच जाती। जीती हुई रकम का सबसे बड़ा इस्तेमाल बिस्कुट लाकर पूरी टीम के साथ बांटने में होता, या फिर एक नई बॉल या बैट खरीदने में।
सिर्फ पैसे ही नहीं, वो बचपन का क्रिकेट हमारे दिलों को जोड़ता था। जीत की खुशी और हार की खीझ, दोनों को हम मिलकर जीते थे। पूरे-पूरे दिन सिर्फ खेल में ही गुजर जाते थे। लेकिन अब? वो साथी, वो मैदान, वो दिन... सब शहर की दौड़-भाग में कहीं खो गए हैं।
शहरों में बसने वाले हम बच्चे अब कभी-कभी गली में चलते हुए बैट या बॉल को हाथ में लेकर फेंकने की कोशिश करते हैं, मानो पुरानी यादें पकड़ने की कोशिश हो। काश, कोई लौटा सके वो दिन। वो मस्ती, वो ठंडी में जलती आग की गर्माहट, और सबसे बढ़कर वो दोस्ती।
"वो बचपन का क्रिकेट... अब बस यादों की पिच पर खेला जाता है।"