02/08/2025
"रह गयीं ज़िम्मेदारियों में दबकर जो अधूरी कहीं
उन मुलाक़ातों को ख़ुद से कराना है अब ज़रूरी बहुत
तलाश किया है जो निगाहों और बातों में ज़माने की
वो हर ख़ूबी अपनी, ख़ुद को बताना है अब ज़रूरी बहुत
क्या भरोसा ज़िन्दगी का, बाक़ी हैं न जाने साँसे कितनी
मुस्कुरा, खिलखिला, ख़ुलकर बिताना है अब ज़रूरी बहुत"
© तूलिका श्रीवास्तव "मनु"