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कांवड़ या हुड़दंग? आस्था की राह में अनुशासन की दरकार।कांवड़ यात्रा का स्वरूप अब आस्था से हटकर प्रदर्शन और उन्माद की ओर ब...
14/07/2025

कांवड़ या हुड़दंग? आस्था की राह में अनुशासन की दरकार।

कांवड़ यात्रा का स्वरूप अब आस्था से हटकर प्रदर्शन और उन्माद की ओर बढ़ गया है। तेज़ डीजे, बाइक स्टंट, ट्रैफिक जाम और हिंसा ने इसे बदनाम कर दिया है। इसके विपरीत रामदेवरा जैसी यात्राएं आज भी शांत, अनुशासित और समर्पित होती हैं। इसका कारण है भक्ति में विनम्रता, प्रशासनिक अनुशासन और राजनीतिक हस्तक्षेप की कमी। अब ज़रूरत है कि भक्ति को भक्ति ही रहने दिया जाए — अनुशासन के साथ, समर्पण के साथ, और समाज के प्रति ज़िम्मेदारी के साध।

भारत जैसे धर्मप्रधान देश में तीर्थयात्राओं और धार्मिक यात्राओं का एक गहरा सामाजिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्व रहा है। इन यात्राओं का उद्देश्य आत्मशुद्धि, समर्पण और शांति की प्राप्ति होता है। परंतु हाल के वर्षों में कुछ तीर्थ यात्राएँ, विशेषकर कांवड़ यात्रा, अपने मूल स्वरूप से भटक कर हंगामा, शोर-शराबा और अनुशासनहीनता का पर्याय बनती जा रही हैं।

जहाँ एक ओर लाखों श्रद्धालु राजस्थान के रामदेवरा जैसे स्थानों पर सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा कर शांति और श्रद्धा से पूजा-अर्चना करते हैं, वहीं दूसरी ओर कांवड़ यात्रा के दौरान अक्सर सड़कों पर कब्ज़ा, डीजे की धुनों पर नाचना, ट्रैफिक जाम, तोड़फोड़ और मारपीट की खबरें आती रहती हैं। सवाल उठता है — क्या आस्था का मतलब अराजकता है? कांवड़िये ही हुड़दंग क्यों करते हैं, जबकि अन्य तीर्थयात्राएँ शांति से होती हैं?

श्रद्धा का स्वरूप: विनम्रता या प्रदर्शन?

भारत में धार्मिक यात्राओं का इतिहास पुराना है — पदयात्रा, व्रत, नियम और तपस्या इनका मूल हिस्सा रहे हैं। लेकिन कांवड़ यात्रा, खासकर उत्तर भारत के कुछ इलाकों में, अब एक शक्ति प्रदर्शन में बदलती जा रही है।

श्रद्धालु अब भक्त कम, और "रौबदार शिवभक्त" ज़्यादा नज़र आते हैं। बाइक पर 10-15 लोग, डीजे बजाते ट्रक, और शोर-शराबे में हर-हर महादेव का नारा — यह सब आस्था से अधिक दिखावे और गुटबाज़ी का प्रतीक लगता है।

इसके विपरीत रामदेवरा की यात्रा में न कोई सुरक्षा खतरा, न सरकारी तामझाम, फिर भी वहां अनुशासन और सेवा का वातावरण होता है। ऐसा क्यों?

मर्दानगी और "हर-हर महादेव" का नया संस्करण

कांवड़ यात्रा में आज जो हुड़दंग दिखाई देता है, वह भक्ति का नहीं, मर्दानगी का अवतार है। "हर-हर महादेव" जैसे पवित्र नारे को कई बार उग्रता और हिंसा के साथ जोड़ दिया गया है।

यह माचो मर्दानगी का ऐसा संस्करण है जिसमें भक्त बाइक पर स्टंट करता है, तेज़ म्यूज़िक पर झूमता है और किसी ने कुछ कहा तो झगड़े पर उतर आता है।

रामदेवरा में लोग अपने परिवार के साथ, बड़ों के आशीर्वाद के साथ जाते हैं। वहाँ शांति, सेवा और दर्शन ही उद्देश्य होता है, न कि सोशल मीडिया रील्स और तड़क-भड़क।

प्रशासनिक ढिलाई और राजनीतिक मजबूरी

प्रशासन के लिए कांवड़ यात्रा अब आस्था का नहीं, सिरदर्द का विषय बन गई है। रास्तों को बंद करना पड़ता है, ज़बरदस्ती स्कूल-कॉलेज की छुट्टियाँ करनी पड़ती हैं और पुलिस को कांवड़ियों को "मना करने" की हिम्मत नहीं होती।

इसके पीछे एक बड़ा कारण है — राजनीतिक संरक्षण। कोई भी सरकार कांवड़ियों को नाराज़ नहीं करना चाहती, विशेषकर जब धार्मिक भावनाएं उबाल पर हों। नतीजा यह होता है कि कुछ असामाजिक तत्व इस ढील का फायदा उठाकर पूरे आयोजन को बदनाम कर देते हैं।

सोशल मीडिया: भक्ति या ब्रांडिंग?

आजकल कांवड़ यात्रा का एक और बड़ा आयाम है — सोशल मीडिया प्रमोशन। भक्त कम, "इन्फ्लुएंसर" ज़्यादा हैं। कोई रील बना रहा है, कोई फेसबुक लाइव कर रहा है, कोई अपने ट्रक की सजावट दिखा रहा है।

भक्ति अब कैमरे के सामने "पोज़" करने की प्रक्रिया बन गई है। रामदेवरा जैसे स्थलों पर ऐसी कोई प्रवृत्ति नहीं दिखती। वहाँ लोग अपने मन और आत्मा से जुड़ते हैं, न कि अपने इंस्टाग्राम अकाउंट से।

समूह की ताकत और मनोवैज्ञानिक भ्रम

कांवड़ यात्रा का एक बड़ा पहलू है — भीड़ की ताकत और समूह मनोविज्ञान। जब सैकड़ों-हज़ारों लोग एक साथ चलते हैं तो व्यक्ति की जिम्मेदारी गायब हो जाती है। कोई एक गलती करता है, और पूरी भीड़ प्रतिक्रिया में उग्र हो जाती है।

रामदेवरा जैसी यात्राओं में लोग छोटे-छोटे समूहों में या व्यक्तिगत रूप से जाते हैं। वहाँ अनुशासन भी व्यक्तिगत होता है और उत्तरदायित्व भी।

आस्था और उन्माद में अंतर

कांवड़ यात्रा में जो देखा जा रहा है, वह भक्ति नहीं, उन्माद है। यह वह धर्म नहीं है जिसकी शिक्षा भगवान शिव देते हैं। वे तो योगी हैं, शांति और तपस्या के प्रतीक हैं।

उन्हीं शिव के नाम पर सड़कें कब्ज़ा करना, गाड़ियों में तोड़फोड़ करना, दुकानें बंद करवाना — यह कहां की भक्ति है? क्या यह ईश्वर को प्रसन्न करता है या समाज को संकट में डालता है?

समाधान: भक्ति में अनुशासन और प्रशासन में दृढ़ता

समस्या की पहचान जरूरी है, लेकिन समाधान भी उतना ही ज़रूरी है। इस दिशा में निम्नलिखित सुझाव कारगर हो सकते हैं:

धार्मिक संगठनों को आगे आना चाहिए जो कांवड़ यात्रा का संयोजन करते हैं, उन्हें स्वयं अनुशासन और संयम का संदेश देना होगा।

प्रशासन को राजनीतिक दबाव से ऊपर उठकर कानून का पालन करवाना चाहिए, चाहे वह कोई भी समुदाय हो।

भक्तों को आत्मचिंतन करना चाहिए कि क्या उनकी यात्रा भगवान शिव को प्रसन्न कर रही है या बदनाम कर रही है।

सोशल मीडिया पर फालतू दिखावे की प्रवृत्ति को हतोत्साहित करना चाहिए, और असामाजिक तत्वों की पहचान कर सख्त कार्रवाई होनी चाहिए।

प्रियंका सोरभ

04/02/2024

प्रेसनोट, दिनांक 04.02.2024

नर्स दुर्गा देवी प्रकरण में भीम आर्मी के प्रदर्शन के बाद जागी पुलिस, एफआईआर दर्ज कर आरोपी को लिया हिरासत में,।पीड़ितों के साथ भीम आर्मी और आजाद समाज पार्टी ने भरी न्याय के लिए हुंकार।
नर्स दुर्गा देवी प्रकरण के प्रदर्शन में पहुंचे डीएसपी सज्जन सिंह ने सौंपी पीड़ित परिवार को एफआईआर ।

प्रदर्शन के दौरान पुलिस और भीम आर्मी के नेताओं में हुई तीखी बहस

बगला रोड़ स्थित एक प्राइवेट अस्पताल की नर्स दुर्गा देवी की कथित तौर पर हुई हत्या या आत्महत्या प्रकरण में 57 दिनों बाद भी एफआईआर दर्ज नही होने से पीड़ित परिवार और भीम आर्मी व आजाद समाज पार्टी ने मिलकर क्रांतिमान पार्क में एकत्रित होकर प्रदर्शन कर पुलिस के खिलाफ कड़ा रोष व्यक्त किया और वहीं मटका चौक पर धरना लगाकर सीएम का पुतला फूंका। भीम आर्मी और आजाद समाज पार्टी द्वारा नेता अमित जाटव और प्रदीप यादव के नेतृत्व में रविवार को 'हिसार पुलिस जवाब दो आंदोलन' किया गया। भीम आर्मी के नेता संतलाल अंबेडकर, अमित जाटव और प्रदीप यादव ने कहा की बीजेपी सरकार में हिसार पुलिस जाति देखकर मामलों में कारवाई कर रही है। दुर्गा देवी एक दलित समाज की बेटी थी,इसलिए 8 दिसंबर की घटना में यानी 57 दिन बीतने के बाद भी इस मामले में पुलिस ने एफआईआर तो छोड़िए किसी भी तरह की मानवीय सरोकार से पूर्ण कोई भी कारवाई नहीं की है। ऐसे में गरीब और पीड़ित परिवार कहां जाए? वहीं भीम आर्मी नेता संतलाल अंबेडकर,अमित जाटव व प्रदीप यादव ने कहा की हिसार पुलिस का जातीय पूर्वाग्रह ग्रसित होना गंभीर चिंता का विषय है। प्रदेश में भीम आर्मी के अलावा दलित- पिछड़ों की सुध लेने वाला कोई संगठन नही है जो सड़कों पर उतरकर सरकार की खिलाफत करें। बीजेपी सरकार दलित- पिछड़े उत्पीड़नों पर लगातार चुप्पी साधे हुए है। वहीं प्रदर्शन स्थल पर डीएसपी सज्जन सिंह पूरे दलबल के साथ पहुंचे और उन्होंने पीड़ित परिवार की व्यस्था सुनी। मौके पर ही जांच अधिकारी डीएसपी ने बताया की इस मामले में अभी आदमपुर थाना में इस मामले की 37 नंबर एफआईआर नामजद आरोपी के खिलाफ आत्महत्या के लिए मजबूर करने की धाराओं में दर्ज कर ली गई है और आगामी कार्यवाही कानून के हिसाब से अमल में लाई जा रही है। प्रदर्शन के दौरान भीम आर्मी के नेताओं और पुलिस के बीच तीखी बहस भी हुई।
इस अवसर पर किरण अंबेडकर, विजय अठवाल,कृष्णदास अमित मुवाल जींद जिलाध्यक्ष भीम आर्मी,महाराज,कुलदीप नरवाना, जगसीर,संजय मीणा नारनोद, निका राम,अमित अहल्यान,महेंद्र साक्य,प्रवीन कागड़ा,प्रदीप पारखी, योगेश भड़ाना हांसी, मोहित, सरपंच अमन रेवाड़ी,अक्षय, अमन कुमार, कान्हा प्रधान,सिरसा जिलाध्यक्ष भीम आर्मी, सतबीर मत्तुवाला, राजमल,अनिल नलवा, अनुराग, रामभगत, शौकी आर्यनगर, सचिन रायपुर,सतीश सोनी, डाक्टर सरोज, मिलन, प्रयांशु, सुमित, मोहित, मिट्टू,अंकित,मोनू चोटी,संजय सैन, सौरभ हांसी,चौधरी अवि,अजय मुवाल,अजय,संदीप,काली यादव,प्रवीन सोनी, सुभम सोनी, गोरूं,रवि,उषा, बिमला, नवदीप,अमित,सोनू,साहिल, साहित, जसवंत, गुरमीत, चेतराम, नित्ता, केसर,कुलदीप दहिया,सचिन,नवीन यादव, विक्रम जाट, नितेश,अमित, मंगल, संजय,सोनू शर्मा,अमन, योगेश, मोहित, हंसराज तनान, कैलाश सैनी,रवि हिसारिया,विनय,देव, राजकपूर अंबेडकर,मोहित ठाकुर,व अन्य सैंकड़ों लोग मौजूद थे।

जारीकर्ता
संतलाल अंबेडकर
प्रवक्ता, भीम आर्मी और आजाद समाज पार्टी हिसार
9996845330

जांच अधिकारी डीएसपी सज्जन कुमार 8814011301

20/01/2024

हिसार पुलिस, दिनांक- 20.01.2024

मिराज सिनेमा के सामने हवाई फायर कर 50 लाख की फिरौती मांगने के मामले में तीन आरोपी गिरफ्तार।

हिसार के रेड स्क्वेयर मार्केट स्थित मिराज सिनेमा के सामने हवाई फायर कर 50 लाख रुपए की फिरौती मांगने के मामले का खुलासा करते हुए हिसार पुलिस ने तीन आरोपियों को गिरफ्तार किया है।
पुलिस उप अधीक्षक श्री सत्यपाल यादव ने प्रेस वार्ता ने बताया कि 12 जनवरी की शाम पुलिस को हिसार के रेड स्क्वेयर मार्केट स्थित एमिनेंट माल के सामने दो युवकों द्वारा हवाई फायर कर, माल के सिक्योरिटी गार्ड के पास एक पर्ची फेंक 50 लाख रुपए की फिरौती मांगने के बारे में सूचना प्राप्त हुई। सूचना मिलते ही पुलिस अधीक्षक हिसार श्री मोहित हांडा, आईपीएस ने रेड स्क्वेयर मार्केट पहुंच मोका का निरीक्षण किया। और आरोपियों की गिरफ्तारी के लिए पुलिस टीमों का गठन किया। जिसके फलस्वरूप स्पेशल स्टाफ और मोहल्ला डोगरान चौकी पुलिस की संयुक्त टीम में मामले के मुख्य आरोपी सहित तीन आरोपियों की गिरफ्तारी सुनिश्चित की है। जिनकी पहचान पड़ाव चोक निवासी देवेंद्र उर्फ देव (उम्र 22 वर्ष), टेकडा मोहल्ला निवासी लव उर्फ गोली (उम्र 19वर्ष) और मोरी गेट हिसार निवासी सौरभ उर्फ ठाकुर (उम्र 19वर्ष) के रूप में हुई है।
पुलिस उप अधीक्षक महोदय ने बताया कि पुलिस द्वारा की गई प्रारंभिक जांच में सामने आया कि आरोपी देवेंद्र उर्फ देव इस वारदात का मुख्य आरोपी है। इसकी उपरोक्त लव उर्फ गोली और सौरभ उर्फ ठाकुर से गहरी दोस्ती है। उपरोक्त आरोपियों ने मिराज सिनेमा के सामने लोगो में दहशत फैलाने के मकसद से फायर किए थे। आरोपी देवेंद्र उर्फ देव का अपने ताऊ के साथ मकान को लेकर विवाद है। इन्होंने योजना बनाई कि अगर ये मिराज सिनेमा के सामने हवाई फायरिंग कर दहशत फलायेगे तो आरोपी देवेंद्र उर्फ देव का ताऊ डर के मारे मकान का विवाद सुलझा लेगा। क्योंकि मिराज सिनेमा के आगे काफी भीड़ भाड़ रहती है। आरोपी 12 जनवरी की शाम को योजनानुसार मोटरसाइकिल पर सवार हो मिराज सिनेमा पर आए और देवेंद्र उर्फ देव ने हवाई फायर किया व लव उर्फ गोली ने 50 लाख रूपये की फिरौती के लिए पर्ची सिक्योरिटी गार्ड के पास फैंकी। सौरभ मोटरसाइकिल चला रहा था।
पुलिस उप अधीक्षक महोदय ने बताया कि आरोपियों का अपराधिक रिकॉर्ड है आरोपी पहले भी लड़ाई झगड़े की वारदातों में शामिल रहे है। आरोपी देवेंद्र उर्फ देव पर लड़ाई झगड़े के 4, सौरभ उर्फ ठाकुर पर 2 और लव उर्फ गोली पर लड़ाई झगड़े का एक अभियोग अंकित है। जो अभी विचाराधीन है।
पुलिस उप अधीक्षक महोदय ने बताया कि उपरोक्त आरोपी कोई काम धंधा नहीं करते । आरोपी देवेंद्र उर्फ देव 10 वी, लव उर्फ गोली 10+2 और सौरभ 9 वी कक्षा तक पढ़ाई की है। आरोपियों से आगामी पूछताछ जारी है आरोपियों को आज पेश अदालत कर पुलिस रिमांड पर लिया जायेगा।

*विकसित भारत के सपने* हमने कई मौकों पर अपने सपने को टूटते हुए देखा है लेकिन फिर भी हम हर मुसीबत की स्थिति से मजबूत और आत...
17/12/2023

*विकसित भारत के सपने*

हमने कई मौकों पर अपने सपने को टूटते हुए देखा है लेकिन फिर भी हम हर मुसीबत की स्थिति से मजबूत और आत्मविश्वास से भरे हुए हैं। स्वराज के महत्व को समझना चाहिए और इन सपनों को आगे बढ़ाने के लिए आक्रामक रूप से शुरुआत करनी चाहिए ताकि हम अपनी आने वाली पीढ़ी को भी बेहतर भविष्य प्रदान कर सकें। धर्म के नाम पर कही गई बातों पर आंख मूंदकर विश्वास न करने, विवेक का पालन करने के लिए जागरूकता फैलानी चाहिए। हम इस सपने तक पहुँचने से बहुत दूर हैं लेकिन हमें हार नहीं माननी चाहिए। मैं डॉ एपीजे अब्दुल कलाम के बेहतरीन उद्धरणों पर समाप्त करना चाहता हूं "सपने वह नहीं हैं जो आप नींद में देखते हैं, बल्कि वह हैं जो आपको सोने नहीं देते"।

"आधी रात को, जब दुनिया सोती है, भारत जीवन और स्वतंत्रता के लिए जागेगा"। जवाहरलाल नेहरू का यह "ट्रिस्ट विद डेस्टिनी" भाषण उस सपने का प्रतीक था जिसे हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने पूरा किया था। इसने हमें, भारत के लोगों द्वारा पालन किए जाने वाले अगले सपने का विजन भी दिया।
भारत के बारे में गांधी का दृष्टिकोण हमारे देश के आत्मनिर्भर विकास के लिए घरेलू औद्योगीकरण को बढ़ावा देना था। उनका विचार था कि ग्रामीण भारत भारत के विकास की रीढ़ है। यदि भारत को विकास करना है, तो ग्रामीण क्षेत्र का भी समान विकास होना चाहिए। वह यह भी चाहते थे कि भारत गरीबी, बेरोजगारी, जाति, रंग पंथ, धर्म के आधार पर भेदभाव जैसी सभी सामाजिक बुराइयों से मुक्त हो, और सबसे महत्वपूर्ण रूप से निचली जातियों (दलितों) के खिलाफ अस्पृश्यता को समाप्त करे जिन्हें वह 'हरिजन' कहते हैं।

ये दर्शन भारत के तत्कालीन समाज के सामाजिक स्तर को दर्शाते हैं। स्वतंत्रता के 75 वर्षों के बाद भी हम अभी भी इन सामाजिक मुद्दों को भारत में कायम पाते हैं। हमारे संविधान की प्रस्तावना भारत को संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और गणतंत्र देश के रूप में निर्दिष्ट करती है। आइए देखें कि इस परिभाषा को सच करने के लिए हमने भारत के नागरिक के रूप में अपने सपने को कैसे पूरा किया है। 100 वर्षों के स्वतंत्रता संग्राम के बाद हम इस सपने को साकार करने में सक्षम हुए हैं। शीत युद्ध के दौर में भी जब दो महाशक्तियां अमेरिका और सोवियत संघ एक-दूसरे का मुकाबला करने के लिए गठबंधन बना रहे थे, हमने अपनी संप्रभुता को बनाए रखने के लिए किसी भी गठबंधन में शामिल नहीं होने के लिए गुटनिरपेक्षता का विकल्प चुना। यद्यपि संयुक्त राष्ट्र द्वारा उपनिवेशवाद पर प्रतिबंध लगा दिया गया है, लेकिन नव-उपनिवेशीकरण के समान अंतरराष्ट्रीय दुनिया में अपनी जड़ें जमा रहा है।

नव उपनिवेशीकरण को अन्य राज्यों द्वारा राज्यों की नीतियों पर अप्रत्यक्ष नियंत्रण के रूप में परिभाषित किया गया है। हाल ही में हमने भारत और अन्य अविकसित देशों जैसे अमेरिका द्वारा संयुक्त राष्ट्र में आनुवंशिक रूप से संशोधित (जीएम) बीजों को पेश करने और विकसित देशों से कृषि आयात के लिए बाजार को उदार बनाने के लिए दबाव देखा है। जीएम बीज कृषि का निजीकरण करते हैं और इस प्रकार मिट्टी की गुणवत्ता के साथ-साथ भारत के किसानों की सामाजिक स्थिति के लिए बहुत बड़ा खतरा पैदा करते हैं। भारतीय मिट्टी के अनुकूल बीजों के विकास में अनुसंधान पर अमेरिका द्वारा अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भारत को लगातार निशाना बनाया गया है।

भारत की संप्रभुता के लिए खतरे का अन्य उदाहरण वैश्विक आतंकवाद के माध्यम से है। भारत 26/11 और पठानकोट में उग्रवादियों द्वारा किए गए हमले का गवाह रहा है। बोडोलैंड की मांग के लिए असम अलगाववादी आंदोलन से भारत नक्सलियों और पूर्वोत्तर में उग्रवादियों से उग्रवादी गतिविधियों का भी सामना करता है। इन गतिविधियों से निर्दोष जीवन की हानि होती है और सरकारी संपत्तियों को नुकसान पहुंचता है जिससे देश के विकास में बाधा उत्पन्न होती है। इस सपने को जिंदा रखने के लिए हमें इन गतिविधियों के खिलाफ एकता दिखानी होगी। इंटरनेट पर एकाधिकार करने के लिए फेसबुक के खिलाफ भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) के फैसले का उदाहरण भारत के लोगों द्वारा मजबूत सर्वसम्मत अस्वीकृति के कारण था।

हमारे पहले प्रधान मंत्री देश की योजना और विकास में सरकार की महत्वपूर्ण भूमिका के विचार के थे। उद्योगों का उदारीकरण 1991 के बाद ही हुआ, लाइसेंस राज खत्म हुआ। हाल ही में हमने भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के माध्यम से धन का प्रवाह देखा। अगर हम करीब से देखें तो हमने भारत के अधिकतम क्षेत्रों में 100% एफडीआई नहीं खोला है। बाजार का निजीकरण निस्संदेह गुणवत्तापूर्ण उत्पादों के साथ समाज में सर्वश्रेष्ठ प्रतिस्पर्धा प्रदान करता है। लेकिन अगर हम इसे अपनाते हैं, तो बाजार में केवल उन्हीं उत्पादों की आपूर्ति होगी जिनकी मांग है और जिससे वे अन्य आवश्यक आपूर्तियों की उपेक्षा करते हुए लाभ कमा सकते हैं।

साथ ही समाजवादी समाज का उद्देश्य प्रत्येक नागरिक के लिए समान परिणाम प्राप्त करना, नौकरियों में समान अवसर प्रदान करना, न्यूनतम मजदूरी प्रदान करना और भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि जैसी बुनियादी आवश्यकताओं को प्रदान करना है। वर्तमान में भारत गरीबी, अस्वस्थता, बेरोजगारी, भेदभाव के कारण दुर्व्यवहार, खराब शिक्षा आदि के कारण जागरूकता की कमी आदि से पीड़ित वंचितों की सबसे बड़ी संख्या वाला देश है। इन सामाजिक मुद्दों पर अंकुश लगाने के लिए सक्रिय रूप से संगठनों का गठन करते हुए हमें भारत के नागरिक के रूप में सरकार द्वारा बनाई गई नीतियों को ईमानदारी से लागू करने में सक्रिय होना चाहिए।

भारत अनेकता में अपनी एकता पाता है। आजादी के बाद हुए साम्प्रदायिक दंगों के बाद भारत को यह बात समझ में आ गई कि किसी भी धर्म का पक्ष लेने से भारत को लंबे समय तक नुकसान उठाना पड़ता है। लेकिन आज भी हम समाज में धार्मिक घृणा पाते हैं। इतने सालों में हमने 1984 के सिख दंगों, 2002 के गोधरा कांड, 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों, बाबरी मस्जिद के विध्वंस और कई अन्य के रूप में सांप्रदायिक दंगे देखे हैं। धार्मिक राजनीति ने भारतीय राजनीति में अपनी जड़ें जमा ली हैं। बीफ खाने पर हालिया प्रतिबंध और 'घर वापसी', 'लव जेहाद' आदि जैसे आंदोलन धर्मनिरपेक्षता के मूल मूल्यों के खिलाफ हैं।

धर्म के नाम पर कही गई बातों पर आंख मूंदकर विश्वास न करने, विवेक का पालन करने के लिए जागरूकता फैलानी चाहिए। हम इस सपने तक पहुँचने से बहुत दूर हैं लेकिन हमें हार नहीं माननी चाहिए। समाज को इन धार्मिक संस्थाओं द्वारा लगाए गए अतार्किक कटौती का विरोध करना चाहिए।
इस संबंध में हम देख सकते हैं कि लोकतंत्र ने भारतीय समाज में अपनी जड़ें जमा ली हैं। संघों का सक्रिय गठन, चुनाव प्रक्रियाओं में भागीदारी में वृद्धि, विवादित परिदृश्यों का शांतिपूर्ण समाधान देश के दूर-दराज के हिस्सों में भी सक्रिय रूप से देखा जाता है।

असहिष्णुता को लेकर हाल के परिदृश्य ने एक बार फिर हमारे लोकतांत्रिक विश्वास की अटकलों को हवा दे दी है। हम लगातार ऐसी स्थिति देखते रहे हैं जहां हम पाते हैं कि लेखक के विचारों के लेखन के खिलाफ धर्म द्वारा फतवा जारी किया जाता है। फेसबुक पर पोस्ट के कारण लोगों को जेल में डाला जा रहा है। साथ ही हम अपने देश में जाति आधारित राजनीति, धर्म आधारित राजनीति देखते हैं। राष्ट्रीय दल लोकतंत्र का कुरूप चेहरा दिखाते हुए लगातार गंदी राजनीति कर रहे हैं।

लोकतंत्र वह शक्ति है जो लंबे ऐतिहासिक संघर्ष के बाद मिली है। हमें समाज की अज्ञानता को स्वतंत्रता के रूप में हमें मिले सर्वोत्तम उपहार को छीनने नहीं देना चाहिए। गणतंत्र भारत के नागरिक के रूप में हम अपने संविधान में सर्वोच्चता मानते हैं। 1976 के आपातकाल के समय हमारे संविधान को चुनौती का सामना करना पड़ा। प्राधिकरण द्वारा उनके व्यक्तिगत भविष्य के हित के लिए इसमें बड़े पैमाने पर संशोधन किया गया है। लेकिन जल्द ही सरकार ने देश के नागरिकों के कड़े विरोध को देखा और संविधान में निहित शक्ति को महसूस किया।

इतने सालों के बाद हमने 105 बार संविधान में संशोधन किया है। प्राधिकारियों में निहित कई शक्तियों की फिर से जाँच की गई है और शासन के कई नए प्रावधान जोड़े गए हैं, उदाहरण के लिए पंचायती राज आदि। न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका और स्वतंत्र निकायों में निहित संतुलित शक्ति ने नागरिकों को प्रभावी ढंग से शासन में योगदान करने में मदद की है। संविधान द्वारा प्रदत्त न्याय की इस भावना को कभी नहीं भूलना चाहिए। इस मशीनरी के प्रभावी ढंग से प्रसंस्करण में विश्वास रखना चाहिए।

हमने कई मौकों पर अपने सपने को टूटते हुए देखा है लेकिन फिर भी हम हर मुसीबत की स्थिति से मजबूत और आत्मविश्वास से भरे हुए हैं। स्वराज के महत्व को समझना चाहिए और इन सपनों को आगे बढ़ाने के लिए आक्रामक रूप से शुरुआत करनी चाहिए ताकि हम अपनी आने वाली पीढ़ी को भी बेहतर भविष्य प्रदान कर सकें। मैं डॉ एपीजे अब्दुल कलाम के बेहतरीन उद्धरणों पर समाप्त करना चाहता हूं "सपने वह नहीं हैं जो आप नींद में देखते हैं, बल्कि वह हैं जो आपको सोने नहीं देते"।

डॉo सत्यवान सौरभ,

रिसर्च स्कॉलर, कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट

07/12/2023

वो मिट्टी के घर याद आते हैं।

(आज के आधुनिक समय में सभी लोग सीमेंट से बने घर में रहना पसंद करते हैं और मिट्टी से बने घर में किसी को भी रहना अच्छा नहीं लगता है। अब तो ज्यादातर गाँव में ही मिट्टी से बने घर देखने को मिलते हैं नहीं तो शहर में तो हर कोई सीमेंट से बने घर में ही रहता है।)

सदियों से मिटटी के घर बनाने की जो परम्परा चली आ रही है; भारत में 118 मिलियन घरों में से 65 मिलियन मिट्टी के घर हैं? यह भी सच है कि कई लोग अपने द्वारा प्रदान किए जाने वाले लाभों के लिए मिट्टी के घरों को पसंद करते हैं। दिलचस्प बात यह है कि हम शहरी केंद्रों में भी एक छोटा बदलाव देख रहे हैं, घर के मालिकों को लगता है कि उनके दादा-दादी के पास यह सही था। मिट्‌टी की झोपड़ी... फूस या खपरैल की छत। अगर यह विवरण सुनकर आप भारत के किसी दूर-दराज के पिछड़े गांव की तस्वीर दिमाग में बना रहे हैं तो आप गलत हैं। बदलते दौर में यह तस्वीर अब अमेरिका जैसे विकसित देश के मॉन्टेना या एरिजोना जैसे राज्यों में आपको दिख सकती है। कोरोनाकाल के बाद लोगों को खर्च कम करने के साथ ही पर्यावरण की भी चिंता हुई। इसकी वजह से कई लोग वैकल्पिक आवासीय प्रणालियों की ओर आकर्षित हो रहे हैं।

आज के आधुनिक समय में सभी लोग सीमेंट से बने घर में रहना पसंद करते हैं और मिट्टी से बने घर में किसी को भी रहना अच्छा नहीं लगता है। अब तो ज्यादातर गाँव में ही मिट्टी से बने घर देखने को मिलते हैं नहीं तो शहर में तो हर कोई सीमेंट से बने घर में ही रहता है। वास्तु के अनुसार हर व्यक्ति को मिट्टी या भूमि तत्व के पास ही रहना चाहिए। मिट्टी से बनी वस्तुएं सौभाग्य और समृद्धिकारक होती हैं। पहले लोग मिटटी के ही मकान बनाते थे, इसका यह मतलब नहीं है कि कम पैसो के लागत के चलते लोग मिट्टी का मकान बनाते थे। मिट्टी सस्ती तो जरूर होती हैं, लेकिन मिट्टी के मकान बनाने पीछे कुछ कारण भी है, इसमें हमें शुद्ध हवा मिलती हैं । यहाँ तक की मिट्टी के मकान में अंदर का तापमान सामान्य होता है। मिट्टी के मकान हमें और पर्यावरण दोनों को लाभ पहुंचाते हैं। मिट्टी के घरों को टिकाऊ, कम लागत और सबसे महत्वपूर्ण, बायोडिग्रेडेबल होने के लिए जाना जाता है।

पहुंच में आसानी और कम लागत से, सीमेंट या स्टील के मुकाबले मिट्टी के घरों में कई फायदे हैं। आधुनिक सामग्रियों के विपरीत, वे दशकों के बाद भी स्थिर रहते हैं, और जब इन्हें नष्ट किया जाता है, तो कार्बन उत्सर्जन उत्पन्न नहीं होता है। मिट्टी की ईंट, यदि स्थिर हो जाती है, तो दीवारों और फर्शों के लिए एक ठोस और टिकाऊ निर्माण सामग्री साबित हो सकती है। यह भूकंप या बाढ़ के दौरान भी दरारें विकसित किए बिना सदियों तक रह सकता है। भारत के गाँव भी तीव्र गति से आधुनिकीकरण का शिकार हो रहें है। पिछले दशक में, समय की कसौटी पर खरे उतरे बहुत से घरों को वर्तमान पीढ़ियों द्वारा स्वेच्छा से नीचे गिरा दिया गया है, उनके पीछे के समृद्ध ज्ञान से अनजान, कम आंका गया और अंततः उन्हें तथाकथित आधुनिक घरों का शिकार होने दिया गया।

'मिट्टी के घर करीब 200 साल तक रह सकते हैं। इनमें पीढ़ी दर पीढ़ी लोग रह सकते हैं। इनके टूटने के बाद भी इनकी सामग्री पुनः इस्तेमाल की जा सकती है। दूसरी तरफ कंकरीट-सीमेंट के घरों की उम्र करीब 50 साल की होती है। उनके मलबे के निपटान की लागत भी चिंता का विषय है। उसमें भी बहुत ऊर्जा (डीजल) लगती है। सीमेंट और गिट्टी बनाने के लिए हर साल पहाड़ों को नष्ट किया जा रहा है, उन्हें तोड़ा जा रहा है। मिट्टी का घर बनाने के लिए चार बुनियादी निर्माण तकनीकें हैं जो जलवायु परिस्थितियों, स्थान और उसके आकार पर निर्भर करती हैं। इसमें, सिल: मिट्टी, मिट्टी, गोबर, घास, गोमूत्र और चूने के मिश्रण को औजारों, हाथों या पैरों से गूँथकर गांठें बनाई जाती हैं जो अंततः नींव और दीवारों का निर्माण करती हैं।

छत का भार या वजन दीवार पर नहीं, बल्कि लकड़ी के खंभों पर रखा जाता है। मिट्टी के मकान के लिए नीम की लकड़ी सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है;उसमें दीमक लगने की संभावना बहुत ही कम होती है। जो कई मायनों में टिकाऊ, पर्यावरण के अनुकूल और आपदाओं से सुरक्षित हैं। मिट्टी की दीवारें प्राकृतिक रूप से इंसुलेटेड होती हैं, जिससे घर के अंदर आराम मिलता है। भीषण गर्मियों के दौरान अंदर का तापमान कम होता है, जबकि सर्दियों में मिट्टी की दीवारें अपनी गर्मी से आपको सुकून देती हैं। इसके अलावे छिद्र से भी ठंडी हवा घर में प्रवेश करती हैं। मिट्टी के मकान आज की जरूरत भी हैं, विशेषकर, तब जब सीमेंट-कंकरीट के घर बहुत महंगे बनते हैं, उनमें ऊर्जा की खपत होती है। ऐसे में मिट्टी के घरों से सैकड़ों बेघर लोगों का खुद के मकान का सपना साकार हो सकता है।

यूएन वर्ल्ड कमीशन ने पर्यावरण और विकास को लेकर चिंता जताई है। उन्होंने भविष्य में ज्यादा से ज्यादा प्राकृतिक वस्तुओं का उपयोग करके सस्टेनेबल कंस्ट्रक्शन पर जोर देने की वकालत की है। उनके अनुसार, पुरानी शैली से प्रेरणा लेकर हमें बिना प्रकृति को नुकसान पहुचाएं, मजबूत और अच्छी इमारतें बनाने पर ध्यान देना होगा। ऐसे कई तरीके हैं, जिन्हें अपनाकर हम एक सस्टेनेबल जीवन जी सकते हैं। ऑर्गेनिक भोजन से लेकर, घर में इस्तेमाल होने वाली चीजों तक, आधुनिक दुनिया में आउट-ऑफ-द-बॉक्स सस्टेनेबल विकल्प ढूंढना, एक नई बात लगती है।

जबकि, सच्चाई तो यह है कि यह कोई नया विकास नहीं है। खासतौर पर सस्टेनेबल आर्किटेक्चर और डिजाइन की बात करें, तो हमारी प्राचीन निर्माण तकनीक ज्यादा कमाल की है, जिससे काफी कुछ सीखा जा सकता है।

-- --प्रियंका सौरभ
रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,
कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार

मेरे अक्षर लेखनी, दिल के सब जज्बात।
सौरभ मेरे बाद भी, रोज करेंगे बात।।

-डॉ. सौरभ

Board Hindusthan Samachar.

+++सनातन धर्म' के बदलते अर्थ।+++ "सनातन धर्म" शब्द को कैसे हेरफेर और हथियार बनाया गया है और हिंदू धर्म के ढांचे के भीतर ...
23/11/2023

+++सनातन धर्म' के बदलते अर्थ।+++

"सनातन धर्म" शब्द को कैसे हेरफेर और हथियार बनाया गया है और हिंदू धर्म के ढांचे के भीतर जाति-विशेषाधिकार प्राप्त हिंदुओं की जाति भेदभाव को संबोधित करने में क्या जिम्मेदारियां हैं? ये सोचने का विषय है। सनातन धर्म शाश्वत, कालातीत और अपरिवर्तनीय परंपराओं का प्रतिनिधित्व करता है जो भारत-खंड (भारतीय उपमहाद्वीप) के भूभाग में विकसित हुए हैं। ये परंपराएँ इस संस्कृति में इतनी समाहित हो गईं कि, इस भौगोलिक इकाई पर पुष्पित, पल्लवित और विकसित हुई संस्कृति को सनातन धर्म के नाम से जाना जाने लगा। यह अब्राहमिक धर्म की तरह कोई धर्म नहीं बल्कि जीवन जीने का एक तरीका है। इस धर्म का आधार हिंदू धर्म है, हालाँकि बौद्ध धर्म और जैन धर्म जैसी अन्य धाराओं ने भी इसमें अपना बहुमूल्य योगदान दिया। 'सनातन धर्म' हिंदू धर्म की स्थायी और विकसित प्रकृति का प्रतिनिधित्व करता है, जो व्याख्या और सुधार के लिए खुला है। हालाँकि इसके अर्थ और अनुप्रयोग पर बहस जारी रह सकती है, यह हिंदू विश्वास और अभ्यास का एक बुनियादी पहलू बना हुआ है। 'सनातन धर्म' की रक्षा के लिए, हिंदू आस्था के लोगों को गहन आत्मनिरीक्षण और परिवर्तन में संलग्न होना चाहिए।

'सनातन धर्म' एक शब्द है जिसका प्रयोग अक्सर हिंदू धर्म का वर्णन करने के लिए किया जाता है। यह जीवन और विश्वास प्रणाली के एक प्राचीन और स्थायी तरीके का प्रतीक है। यह किसी एक संस्थापक, पंथ या पवित्र पुस्तक से बंधा नहीं है, बल्कि उभरते अनुभवों के आधार पर सत्य की निरंतर खोज की विशेषता है। 'सनातन धर्म' हिंदू परंपरा के भीतर मान्यताओं, प्रथाओं और दर्शन की एक विशाल श्रृंखला को समाहित करता है। 'सनातन धर्म' शब्द अब हिंदू धर्म का पर्याय बन गया है, जिसमें इसके अनुष्ठान, दर्शन और प्राचीन आध्यात्मिक परंपराएं शामिल हैं। हालाँकि, यह व्यापक उपयोग अपेक्षाकृत हाल ही में हुआ है और इसे मुख्य रूप से समाज के वर्गों द्वारा बढ़ावा दिया गया है। शब्दों के अर्थ स्थान, संदर्भ और कारण से प्रभावित होकर समय के साथ विकसित होते हैं। सनातन धर्म शाश्वत, कालातीत और अपरिवर्तनीय परंपराओं का प्रतिनिधित्व करता है जो भारत-खंड (भारतीय उपमहाद्वीप) के भूभाग में विकसित हुए हैं। ये परंपराएँ इस संस्कृति में इतनी समाहित हो गईं कि, इस भौगोलिक इकाई पर पुष्पित, पल्लवित और विकसित हुई संस्कृति को सनातन धर्म के नाम से जाना जाने लगा। यह अब्राहमिक धर्म की तरह कोई धर्म नहीं बल्कि जीवन जीने का एक तरीका है। इस धर्म का आधार हिंदू धर्म है, हालाँकि बौद्ध धर्म और जैन धर्म जैसी अन्य धाराओं ने भी इसमें अपना बहुमूल्य योगदान दिया।

भले ही कुछ आध्यात्मिक नेता जातिगत विशेषाधिकार को संबोधित करते हैं, लेकिन वे शायद ही कभी व्यक्तियों को अपनी कट्टरता का सामना करने के लिए मजबूर करते हैं। जातिगत भेदभाव का प्रचार करने वाले ग्रंथों और प्रथाओं की आलोचनात्मक जांच का अभाव है। जातिवादी व्यक्तियों के कार्यों की जिम्मेदारी अक्सर जातिगत हिंसा से खुद को दूर रखने वालों द्वारा स्वीकार नहीं की जाती है। समकालीन चर्चाओं में, हिंदू धर्म के भीतर प्रगतिशील के रूप में पहचान रखने वालों के बीच बहस चल रही है और जो लोग खुद को अधिक रूढ़िवादी या रुढ़िवादी व्याख्या के साथ जोड़ते हैं। इस बहस के केंद्र में 'सनातन धर्म' शब्द रहा है। 'सनातन धर्म' शब्द अब हिंदू धर्म का पर्याय बन गया है, जिसमें इसके अनुष्ठान, दर्शन और प्राचीन आध्यात्मिक परंपराएं शामिल हैं। हालाँकि, यह व्यापक उपयोग अपेक्षाकृत हाल ही में हुआ है और इसे मुख्य रूप से समाज के वर्गों द्वारा बढ़ावा दिया गया है। शब्दों के अर्थ स्थान, संदर्भ और कारण से प्रभावित होकर समय के साथ विकसित होते हैं।

रूढ़िवादिता के आलोचकों का तर्क है कि उपसर्ग 'सनातन' का उपयोग कुछ गुटों द्वारा प्राचीन पाठ्य सिद्धांतों के स्थायित्व पर जोर देने के लिए किया गया है, इसलिए वो हिंदू धर्म के भीतर परिवर्तन और सुधार का विरोध करना चाहते है। वे इसे प्रगति और समावेशिता में बाधा के रूप में देखते हैं। पूरे इतिहास में, हिंदू धर्म के भीतर आर्य समाज और रामकृष्ण मिशन जैसे विभिन्न सुधार आंदोलनों ने अस्पृश्यता और मूर्ति पूजा सहित पारंपरिक प्रथाओं को चुनौती देने की कोशिश की है। इन सुधारकों ने 'सनातन धर्म' को अस्वीकार नहीं किया, बल्कि इसका लक्ष्य इसमें सुधार और विकास करना था। कई लोग जाति को व्यवसाय से जुड़ी एक प्राकृतिक सामाजिक व्यवस्था मानते हैं, जो हिंदू धर्म का अभिन्न अंग है। इन जातियों के प्रगतिशील व्यक्ति जाति से जुड़ी हिंसा को समाप्त करने का आह्वान करते हैं, लेकिन जरूरी नहीं कि जाति व्यवस्था को ही। वे अक्सर ऐतिहासिक और वर्तमान वास्तविकताओं को दरकिनार करते हुए वर्ण, जाति और जाति के बीच भेद से जूझते हैं। उनके लिए, हिंदू धर्म की आलोचना, जब उनकी अन्य आलोचनाओं के साथ देखी जाती है, तो आक्रामक हो सकती है।

स्वामी दयानंद सरस्वती ने सुधारों की वकालत करते हुए धर्म की शाश्वत और कालातीत प्रकृति पर जोर देते हुए 'वैदिक धर्म' को 'सनातन नित्यधर्म' कहा। महात्मा गांधी, एक गौरवान्वित 'सनातनी', ने महिलाओं को भारतीय समाज की मुख्यधारा में लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, यह प्रदर्शित करते हुए कि सुधार 'सनातन धर्म' का एक हिस्सा हो सकता है। स्वामी विवेकानन्द ने, श्री नारायण गुरु के आंदोलन से पहले, केरल में हिंदू धर्म की स्थिति की आलोचना की थी, लेकिन ऐसा उन्होंने 'सनातन धर्म' में गहराई से निहित परिप्रेक्ष्य से किया था। उन्होंने धर्म के भीतर गतिशीलता और सुधार की वकालत की।

सनातन धर्म का एक मूल सिद्धांत आत्मा की शाश्वत प्रकृति और पुनर्जन्म (पुनर्जन्म या संसार) की अवधारणा में विश्वास है। यह मानता है कि आत्मा अमर है और मुक्ति (मोक्ष) प्राप्त होने तक जन्म और मृत्यु के चक्र से गुजरती है। सनातन धर्म की मूल अवधारणाएँ हिंदू धर्म तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि जैन और बौद्ध धर्म तक भी विस्तारित हैं। ये परंपराएँ शाश्वत आत्मा और पुनर्जन्म के चक्र में विश्वास साझा करती हैं, जिससे "सनातन धर्म" उनके बीच एक एकीकृत अवधारणा बन जाती है। यह स्पष्ट करना महत्वपूर्ण है कि सनातन धर्म यहूदी धर्म, ईसाई धर्म और इस्लाम जैसे धर्मों पर लागू नहीं होता है, जो पुनर्जन्म और शाश्वत आत्मा में विश्वास साझा नहीं करते हैं। इन धर्मों के अलग-अलग धार्मिक दृष्टिकोण और उत्पत्ति हैं।

"सनातन धर्म" शब्द को 19वीं सदी के अंत में प्रमुखता मिली। उपयोग और महत्व में इस बदलाव का श्रेय उस समय के विभिन्न ऐतिहासिक और सांस्कृतिक कारकों को दिया जा सकता है। 19वीं सदी के अंत में मिशनरियों और ब्रह्म समाज और आर्य समाज जैसे समाज सुधारकों के नेतृत्व में सुधार आंदोलनों का उदय हुआ। इन आंदोलनों के जवाब में, "सनातन धर्म" को हिंदू रूढ़िवाद के प्रतीक के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा। 'सनातन धर्म' हिंदू धर्म की स्थायी और विकसित प्रकृति का प्रतिनिधित्व करता है, जो व्याख्या और सुधार के लिए खुला है। हालाँकि इसके अर्थ और अनुप्रयोग पर बहस जारी रह सकती है, यह हिंदू विश्वास और अभ्यास का एक बुनियादी पहलू बना हुआ है। स्वामी विवेकानन्द और सुब्रमण्यम भारती जैसे प्रतीकों ने प्रदर्शित किया है कि 'सनातन धर्म' अपने कालातीत ढांचे के भीतर सुधार और प्रगति को समायोजित कर सकता है। 'सनातन धर्म' की रक्षा के लिए, हिंदू आस्था के लोगों को गहन आत्मनिरीक्षण और परिवर्तन में संलग्न होना चाहिए। जीवन की नश्वरता और सदैव बदलती प्रकृति को पहचानने का आह्वान हिंदू धर्म पर भी लागू होता है। कॉस्मेटिक परिवर्तन पर्याप्त नहीं होंगे; एक दार्शनिक पुनर्मूल्यांकन अत्यावश्यक है। 'सनातन धर्म' के सार की रक्षा के लिए, गहन आत्मनिरीक्षण और सार्थक परिवर्तन के प्रति प्रतिबद्धता की आवश्यकता है।

-डॉo सत्यवान सौरभ,
कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट।

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