Kabir- The Supreme Almighty God

Kabir- The Supreme Almighty God Jagat Guru Sant Rampal Ji Maharaj - True Spiritual Leader & Avatar of the Supreme Almighty God .

The knowledge provided by Saint Rampal Ji Maharaj is soul purifying, is backed up by numerous proofs from the Holy books of all religions.

23/08/2025

#आध्यात्मिक_ज्ञान_गंगा_Part51 के आगे पढ़िए .....)
📖📖📖📖
#आध्यात्मिक_ज्ञान_गंगा_Part52

Page : 183-187
शास्त्रअनुकूल साधक (योगी) का ऐसी घटनाओं से परमात्मा बचाव करता है।

श्री म‌द्भगवत् गीता अध्याय 3 श्लोक 4 से 8 में कहा है कि जो मूर्ख व्यक्ति हठ योग कर (एक स्थान पर किसी आसन पर आरूढ़ होकर) भक्ति करता है। वह पाखण्ड करता है क्योंकि वह केवल कर्म इन्द्रियों को हठ पूर्वक रोक कर स्थित है परन्तु ज्ञान इन्द्रियों द्वारा बाह्यय वस्तुओं के चिन्तन में लगा है। यदि अर्जुन तू एक स्थान पर किसी आसन पर आरूढ़ होकर बैठा रहेगा तो तेरा निर्वाह कैसे होगा? इसलिए संसारिक कर्म करता हुआ, परमात्मा को भी याद कर। गीता अध्याय 8 श्लोक 7 तथा 13 में तो यहाँ तक कहा है कि मेरा एक ऊँ(ओं) अक्षर है समरण करने का उसका अन्तिम स्वांस तक समरण करने से मेरे वाली गति प्राप्त होती हैं इसलिए अर्जुन तू युद्ध भी कर तथा मेरा समरण भी कर।

विचार करें :- युद्ध से कठिन कार्य कुछ नहीं होता उसमें भी प्रभु का समरण करने को कहा है। इससे सिद्ध हुआ कि परमात्मा की भक्ति कार्य करते-करते करनी है। जो सर्व सद्ग्रन्थों में प्रमाण है।

यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्र 15 में कहा है। ओम् (ॐ) मन्त्र का समरण काम करते-करते कर, विशेष कसक के साथ समरण कर मानव जीवन का मूल कर्तव्य समझ कर समरण कर जिससे मृत्यु के पश्चात् तेरा लिंग शरीर अमर हो जाएगा। जब तक स्थूल शरीर है अर्थात् जीवित है तब तक समरण करने से लाभ प्राप्त होता है। इससे सिद्ध हुआ कि एक स्थान पर आसन लगाकर साधना करना शास्त्रविरूद्ध है। पाठकों के मन में यह भी प्रश्न उठेगा कि गीता ज्ञान दाता ने, गीता अध्याय 6 श्लोक 10 से 15 में यह भी कहा है कि एकांत स्थान में एक आसन पर बैठकर नाक के अगले भाग को देखें ऐसे साधना करें। इस प्रश्न का उत्तर पवित्र गीता जी से मिलता है। गीता ज्ञान दाता (काल रूपी बहा) ने गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में कहा है कि तत्वज्ञान (पूर्ण मोक्ष मार्ग की भक्तिविधि के ज्ञान) को समझने के लिए तत्वदर्शी संतों से विनम्र भाव से पूछो फिर जैसा मार्गदर्शन वे करें। उस प्रकार साधना कर। तत्वदर्शी संतों की पहचान गीता अध्याय 15 श्लोक 1 व 4 में बताई है।

इस प्रकार गीता ज्ञान दाता प्रभु ने अपने आप को दोष मुक्त कर रखा है तथा अपने गीता ज्ञान में स्थान - 2 पर कहा है कि यह मेरा मत (विचार) है। वास्तविक भक्ति विधि तो तत्वदर्शी सन्त ही बताएगा। इस (गीता अध्याय 6 श्लोक 10 से 15 वाले) ज्ञान का गीता अध्याय 3 श्लोक 4 से 8 में तथा अध्याय 6 के 16 में ही खण्डन किया है। पूर्ण परमात्मा द्वारा मिलने वाला पूर्ण मोक्ष (न एकांतम्) न तो एक स्थान पर विशेष आसन पर बैठने से सिद्ध होता है। न अधिक खाने वाले का न बिल्कुल न खाने वाले का (व्रत/उपवास रखने वाले का) न अधिक जागने वाले (हठयोग करने वाले) का न अधिक सोने वाले का सिद्ध होता है अर्थात् उपरोक्त क्रिया करने वाले की भक्ति व्यर्थ है। क्योंकि गीता अध्याय 6 श्लोक 10 से 15 में तो गीता ज्ञान दाता ने अपनी भक्ति साधना विधि बताई है। जिससे होने वाली मुक्ति (गति) को गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में अश्रेष्ठ बताया है। जिस कारण से गीता अध्याय 4 श्लोक 5 में कहां है कि अर्जुन तेरे तथा मेरे बहुत जन्म हो चुके हैं। अर्थात हम (में तथा मेरे साधक तथा तू) पूर्ण मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते। इसलिए गीता ज्ञान दाता ने गीत अध्याय 18 श्लोक 62, अध्याय 15 श्लोक 4 में किसी अन्य परमात्मा की साधना करने को कहा तथा उस परमात्मा की भक्तिविधि कोई तत्वदर्शी (पूर्ण) सन्त बताएगा। (इसलिए पाठक ज भ्रमित न होकर तत्वज्ञान को समझें)

श्री विष्णु पुराण के जिस विवरण के विषय में आपने कहा है उसका निष्कर्ष यह है कि "श्री पारासर जी ने अपने शिष्य श्री मैत्रेय जी को बताया है कि जो श्राद्ध कर्म (पितर पूजा) आदि के विषय में आपने मुझ से पूछा है यही प्रश्न राजा सगर ने भृगु वंशी ऋषि और्व जी से पूछा था। जो और्व ऋषि ने राजा सगर से श्रद्ध कर्म (पितर पूजा) के विषय में बताया था वह में आप को सुनता हूँ ध्यान पूर्वक सुन! पाठक जन कृपया पूर्ण वार्ता श्री विष्णु पुराण तृतीय अंश के अध्याय 13 से 16 पृष्ठ 203 से 215 तक पढ़े। यहां पर पुस्तक विस्तार को ध्यान रखते हुए, संक्षिप्त व सांकेतिक विवरण विवेचन के साथ लिखा जाता है। सर्वप्रथम तो श्री विष्णु पुराण के वक्ता महर्षि पाराशर को तत्वज्ञान रूपी तुला में तोलते हैं। निर्णय करते हैं कि पाराशर जी कितने विद्वान थे।

श्री पाराशर महर्षि जी ने श्री विष्णु पुराण द्वितीय अश के अध्याय 7 श्लोक 5 में पृष्ठ संख्या 126-127 पर ग्रहों की जानकारी दी है। जिसमें पृथ्वी के निकटतम् सूर्य को बताया जिसकी पृथ्वी से दूरी एक लाख योजन अर्थात् तेरह लाख किलो मीटर बताई इसके पश्चात् बताया है कि चन्द्रमा सूर्य ये भी एक लाख योजन दूर है। जिसकी पृथ्वी से दूरी 2 लाख योजन (26 लाख किलो मीटर) बताई है।

विचार करें वर्तमान में (सन् 2006 तक की खोज से) स्पष्ट हो चुका है कि चन्द्रमा पृथ्वी के निकटतम् है जिसकी पृथ्वी से दूरी सूर्य की तुलना में कई गुणा कम है।

दूसरा प्रमाण :- श्री विष्णु पुराण प्रथम अश अध्याय 5 पृष्ठ 17 पर दिन-रात कैसे बने हैं। इसकी जानकारी ये है। श्री पारासर जी ने कहा कि प्रजापति ब्रह्मा जी सृष्टी - रचना की इच्छा से युक्तचित हुए तो तमोगुण की वृद्धि हुई। सब से पहले असुर उत्पन्न हुए। ब्रह्मा ने उस शरीर को त्याग दिया वह छोड़ा हुआ शरीर रात्रि हुआ। दूसरा शरीर धारण किया उस शरीर से देव उत्पन्न हुए। प्रजापति ब्रह्मा ने वह शरीर भी त्याग दिया। वह त्यागा हुआ शरीर दिन हुआ। पाठक जन कृप्या विचार करें क्या ये विचार एक विद्वान के हैं।

श्री विष्णु पुराण के वक्ता का सामान्य ज्ञान भी ठीक नहीं है तो उसके द्वारा बताया गया अध्यात्मिक ज्ञान कैसे ठीक हो सकता है। श्री पारासर जी ने फिर ग्रहों की अन्य व्याख्या की है :- श्री विष्णु पुराण के वक्ता श्री पाराशर जी ने श्री विष्णु पुराण (गीता प्रेस गोरखपुर से ही प्रकाशित) के द्वितीय अंश के अध्याय 8 के श्लोक 1 से 7 में पृष्ठ 129 पर सुर्य (जो अग्नि पिण्ड आकाश में तप रहा है) के रथ के विषय में कहा है 'सूर्य के रथ का विस्तार नो हजार योजन है। इसके जूआ और रथ के बीच की दूरी 18 हजार योजन है। इसका धुरा डेढ़ करोड सात लाख योजन है। अर्थात् एक करोड़ 57 लाख योजन लम्बा है। जिसमें उसका पहिया लगा है आदि-2 बहुत कुछ लिखा है। कृपया पाठक जन विचार करें क्या यह ज्ञान किसी विद्वान पुरूष का हो सकता है। श्री विष्णु पुराण में इसी अग्नि पिण्ड सूर्य के विषय में पृष्ठ 166 से 167 पर तृतीय अंश के अध्याय 2 के श्लोक 1 से 13 में श्री पाराशर ऋषि ने कहा है कि "सूर्य का विवाह विश्वकर्मा की बेटी संज्ञा से हुआ उससे दो पुत्र मनु व यम तथा एक कन्या यमी उत्पन्न हुई। सूर्य की पत्नी संज्ञा अपने पति के तेज से दुःखी होकर तपस्या करने के लिए वन में चली गई। वहां घोड़ी का रूप बना कर तपस्या करने लगी अपने स्थान पर अपनी हमशक्ल अन्य स्त्री प्रकट की उसका नाम छाया रखा तथा उससे संज्ञा ने कहा तू मेरे पति की पत्नी बनकर रह। यह भेद किसी को मत बताना। मेरा पति तुझे संज्ञा ही समझेगा। छाया ने कहा जो आपकी आज्ञा। सूर्य ने छाया को संज्ञा जानकर दो संतान उत्पन्न की एक लडका एक लड़की।

एक दिन भेद खुलने पर सूर्य अपने श्वशुर विश्वकर्मा के पास गए तथा विश्वकर्मा से कहा आप मेरा तेज छांट दो इस तेज के डर से आपकी बेटी संज्ञा वन में चली गई है। श्री विश्वकर्मा जी ने सूर्य को भ्रमीयन्त्र (सान) पर चढ़ा कर उसका तेज छांटा (काट दिया) वह कचरा (खराद से छटा हुआ कट पीस) धरती पर गिरा जिससे श्री विश्वकर्मा ने भगवान विष्णु का "चक्र " भगवान शिव का त्रिशुल तथा कुबेर का विमान आदि-2 बनाए। तत् पश्चात सूर्य घोड़ा बन कर संज्ञा के पास वन में गया। संज्ञा से घोड़ी रूप में ही संभोग करके तीन पुत्र उत्पन्न किए। दो घोड़ी के मुख से उत्पन्न हुए उनको अश्वनी कुमार कहा जाता है। जिनके नाम है (1) नासत्य (2) दस्र ये दोनों अश्वनी कुमार देवताओं के वैद्य बने तथा तीसरा पुत्र रेत:स्राव उत्पन्न हुआ जहां पर सूर्य का वीर्य उस समय गिरा था। जब वह घोड़ी रूप धारी संज्ञा के मुख की ओर ही घोड़ा रूप में संभोग करने की कोशिश कर रहा था। वहां गिरे वीर्य से रेतःसाव पुत्र जमीन पर ही उत्पन्न हो गया। वह घोडा पर बैठा हुआ हाथ में धनुष आदि लिए हुए उत्पन्न हुआ था जिस स्थान पर इस आग के गोले (अग्नि पिण्ड) सूर्य ने घोड़े का रूप धारण करके घोड़ी रूप नारी संज्ञा से संभोग किया था। जहा दो पुत्र अश्विनी कुमार (नासत्य तथा दस्र) उत्पन्न किए थे। उस तीर्थ का नाम अश्व तीर्थ, भानु तीर्थ और पंचवटी आश्रम के नाम से विख्यात हुआ सूर्य की दोनों कन्याएँ दो नदियों अरुणा ,वरुणा नाम से अपने पिता से मिलने आई थी चन दोनों का जहां गंगा नदी में संगम हुआ है यह बहुत उत्तम तीर्थ उन तीर्थों में स्नान करने से व दान करने से अक्षय धन देने वाला है। उस तीर्थ का समरण कीर्तन श्रवण (सुनने) करने से सर्व पापों का नाश होकर मनुष्य सुखी हो जाता है। (उपरोक्त विवरण मार्कण्डेय पुराण गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित पृष्ठ 172 से 175 अध्याय वैवस्वत मन्वन्तर की कथा तथा सावर्णिक मन्यन्तर का संक्षिप्त परिचय से तथा ब्रहा पुराण अध्याय "जन स्थान, अश्व तीर्थ, भानु तीर्थ और अरुणा वरूणा संगम की महिमा से तथा विष्णु पुराण के तृतीय अंश के अध्याय 2 श्लोक 1 से 13 पृष्ठ 166-167 से लिया गया है) इसी विष्णु पुराण द्वितीय अंश के अध्याय 8 क्लीक 41 से 52 तक तथा पृष्ठ 132 पर कहा है कि सूर्य कभी दिन में तेज गति से चलता है कभी रात्री में मद गति से चलता है इस प्रकार अपना एक दिन रात का चक्र मण्डलाकार में घूम कर पूरा करता है। (पुराण वक्ता का भाव है कि सूर्य के पृथ्वी के चारों ओर चक्र लगाने से दिन रात बनते हैं जब कि वर्तमान में (सन् 2006 तक की खोज में) स्पष्ट हो चुका है कि पृथ्वी स्वयं घूमती है जिस कारण से दिन-रात बनते हैं तथा पृथ्वी एक वर्ष में (364 (दिन में) सूर्य के चारों ओर भी घूमती है जिस कारण से दिन-रात छोटे बड़े बनते हैं।)

पुराण के वक्ता ने यह भी लिखा है कि शाम के समय (संध्या समय) मन्देहा नामक भयकर राक्षक गण सूर्य को वाना चाहते है।संध्या काल में उनका सूर्य से भयंकर युद्ध होता है।

निष्कर्ष :-उपरोक्त पुराण के लेख से पुराण के वक्ता श्री पाराशर ऋषि के आध्यात्मिक व सामान्य ज्ञान का पता चलता है कि वह विद्वान नहीं था। फिर उस महापुरूष द्वारा बताया श्राद्ध कर्म जिसे आप करते हैं। वह कैसे श्रेष्ठ माना जाए। जबकि पवित्र वेदों व पवित्र गीता जी आदि प्रभुदत सद्‌ग्रन्थों में श्राद्ध कर्म व देवताओं की पूजा को मूर्खों की साधना लिखा है। पूर्वोंकत लेख में रूची ऋषि के प्रकरण में आपने पढ़ा जिसमें वेदों के ज्ञाता रुची ऋषि जी अपने पितरों को वेदों के प्रमाण दे कर कह रहा है कि श्राद्ध कर्म, देवताओं की पूजा, भूत (प्रेत) पूजा को वेदों में मूर्खों की साधना कहा है। फिर आप मुझे किसलिए शास्त्रविरूद्ध साधना करने की प्रेरणा दे रहे हो। श्री रूची ऋषि जी व चारों पितर भी, इसी बात का समर्थन कर रहे हैं कि यह तो सत्य है कि वेदों में श्राद्ध कर्म, देवताओं की पूजा, प्रेत (भूत) पूजा का निषेध है। मूर्खों की पूजा कहा है। इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। इसके पश्चात् पितरों ने अपने भोले-भाले वंशज रूची ऋषि को शास्त्रविधि अनुसार साधना त्यागने तथा शास्त्रविधि विरुद्ध मनमाना आचरण (पूजा) करने के लिए विवश कर दिया जिस कारण से श्री रूचि ऋषि भी शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण (पूजा) करके मानव जीवन को व्यर्थ करके पितर जूनी (योनि) को प्राप्त हुआ। श्रीम‌द्भगवत्गीता जी (जो चारों वेदों का सारांश है।) के अध्याय 16 श्लोक 23-24 में कहा है कि जो साधक शास्त्र विधि त्याग कर मनमाना आचरण (पूजा) करता है। उस को न तो सिद्धि प्राप्त होती है, न उसकी परमगति (मोक्ष) होती है न कोई सुख ही प्राप्त होता है अर्थात् उस शास्त्रविरूद्ध साधना करने वाले योगी (भक्त) का जीवन नष्ट हो जाता है। यह प्रमाण गीता अध्याय 16 श्लोक 23 में है। श्लोक 24 में लिखा है कि जो साधना ग्रहण करनी चाहिए तथा जो त्यागनी चाहिए उसके लिए तुझे शास्त्र (चारों वेद) ही प्रमाण है। अन्य किसी के लोक वेद (दन्त कथा) का अवलम्बन नहीं करना चाहिए।

श्री विष्णु पुराण के तृतीय अंश के अध्याय 14 के श्लोक 10 से 14 में श्राद्ध के विषय में श्री सनत्कुमार ने कहा है कि तृतीया, कार्तिक, शुक्ला नौमी, भाद्रपद कृष्णा त्रयोदशी तथा माघमास की अमावस्या इन चारों तिथीयाँ अनन्त पुण्यदायीनि हैं। चन्द्रमा या सूर्य ग्रहण के समय तीन अष्टकाओं अथवा उत्तरायण वा दक्षिणायन के आरम्भ में जो पुरुष एकाग्रह वित से पितर गणों को तिल सहित जल भी दान करता है वह मानो एक हजार वर्ष तक के लिए श्राद्ध कर लेता है। यह परम रहस्य स्वयं पितर गण ही बताते है।" (लेख समाप्त)

विचार करें उपरोक्त श्राद्ध विधि पितरों के द्वारा बताई गई है न की वेदोक्त या श्री मद्भगवत् गीता के आधार से है। इसलिए कृप्या पढ़े पूर्वोक्त विवरण " थानेदार वाला" इसी पुस्तक के पृष्ठ 182 पर।

श्री विष्णु पुराण के तृतीय अंश के अध्याय 16 के श्लोक 11 में पृष्ठ 214 पर लिखा है "क्षीरमेकशफाना यदौष्ट्रमाविकमेव च। मार्ग च माहिष चैव वर्जयेच्छाकमर्माणि" ।। इस श्लोक का हिन्दी अनुवाद = एक खुरवालों का, ऊंटनी का, भेड़ का मृगी का तथा भैंस का दूध श्राद्धकर्म में प्रयोग न करें (काम में न लाएँ)

समीक्षा :- वर्तमान (सन् 2006 तक) सर्व व्यक्ति श्राद्धों में भैसे के दूध का ही प्रयोग कर रहे है। जो पुराण में वर्जित है। जिस कारण से उनके द्वारा किया श्राद्ध कर्म भी व्यर्थ हुआ। श्री विष्णु पुराण के तृतीय अंश के अध्याय 16 के श्लोक 1 से 3 में पृष्ठ 213 पर (मांस द्वारा श्राद्ध करने से पितर गण सदा तृप्त रहते हैं।) लिखा है “हविष्यमत्स्य मांसैस्तु शशस्य नकुलस्य च । सौकरछाग लैणेयरौरवैर्गवयेन च।। (1) और भ्रगव्यैश्च तथा मासवृद्धया पिता महा: (2) खडगमांसमतीवात्र कालशाकं तथा मधु। शस्तानि कर्मण्यत्यन्ततृप्तिदानि नरेश्वर ।। (3) हिन्दी अनुवाद : - हवि, मत्तय (मच्छली) शशकं (खरगोश) नकुल, शुकर (सुअर) छाग , कस्तूरिया मृग , काला मृग, गवय (नील गाय/वन गाय) और मेष ( भेड़) के मांसों से गव्य (गौ के घी, दूध) से पितरगण एक-एक मास अधिक तृप्त रहते हैं और वार्घीणस पक्षी के मांस से सदा तृप्त रहते है। (1-2) श्राद्ध कर्म में गेड़े का मांस काला शाक और मधु अत्यंत प्रशस्त और अत्यंत तृप्ती दायक है।। (3) श्री विष्णु पुराण अध्याय 2 चतुर्थ अंश पृष्ठ 233 पर भी श्राद्ध कर्म में मांस प्रयोग प्रमाण स्पष्ट है।

समीक्षा :- उपरोक्त पुराण के ज्ञान आदेशानुसार श्राद्ध कर्म करने से पुण्य के स्थान पर पाप ही प्राप्त होगा।

क्या यह उपरोक्त मांस द्वारा श्राद्ध करने का आदेश अर्थात् प्रावधान न्याय संगत है अर्थात् नहीं। इसलिए पुराणों में वर्णित भक्तिविधि तथा पुण्य साधना कर्म शास्त्रविरूद्ध है। जो लाभ के स्थान पर हानिकारक है।

विशेष :- उपरोक्त श्लोक 1-2 के अनुवाद कर्ता ने कुछ अनुवाद को घुमा कर लिखा है। मूल संस्कृत भाषा में स्पष्ट गाय का मांस श्राद्ध कर्म में प्रयोग करने को कहा गया है। हिन्दी अनुवाद कर्ता ने गव्य अर्थात् गौ के मास के स्थान पर कोष्ठ में " गौं के घी दूध से" लिखा है। विचार करें क्या हिन्दु धर्म उपरोक्त मांस आहार को श्राद्ध कर्म में प्रयोग कर सकता है। कभी नहीं। इसलिए ऐसे श्राद्ध न करके श्रद्धापूर्वक धार्मिक अनुष्ठान पूर्ण सन्त के बताए मार्ग से करना चाहिए। वह है नाम मंत्र का जाप, पाचों यज्ञ, तीनों समय की उपासना वाणी पाठ से जो यह दास (रामपाल दास) बताता है। जिससे पितरों, प्रेतों आदि का भी कल्याण होकर उपासक पूर्ण मोक्ष प्राप्त करेगा तथा उसके पितर (पूर्वज) जो भूत या पितर योनियों में कष्ट उठा रहे हैं, उनकी वह योनि छूटकर तुरन्त मानव शरीर प्राप्त करके इस भक्ति को प्राप्त करेगें। जिससे उनका भी पूर्ण मोक्ष हो जाएगा।

•••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••
आध्यात्मिक जानकारी के लिए आप संत रामपाल जी महाराज जी के मंगलमय प्रवचन सुनिए। Sant Rampal Ji Maharaj YOUTUBE चैनल पर प्रतिदिन 7:30-8.30 बजे। संत रामपाल जी महाराज जी इस विश्व में एकमात्र पूर्ण संत हैं। आप सभी से विनम्र निवेदन है अविलंब संत रामपाल जी महाराज जी से नि:शुल्क नाम दीक्षा लें और अपना जीवन सफल बनाएं।
https://online.jagatgururampalji.org/naam-diksha-inquiry

ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मंत्र 17 से 20 में प्रमाण है कि पूर्ण परमात्मा कविर्देव (कबीर परमेश्वर) शिशु रूप धारण करके प्रकट...
23/08/2025

ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मंत्र 17 से 20 में प्रमाण है कि पूर्ण परमात्मा कविर्देव (कबीर परमेश्वर) शिशु रूप धारण करके प्रकट होता है तथा अपना निर्मल ज्ञान अर्थात तत्वज्ञान कबीर वाणी के द्वारा अपने अनुयायियों को बोल-बोल कर वर्णन करता है। वह कविर्देव (कबीर परमेश्वर) ब्रह्म के धाम तथा परब्रह्म के धाम से भिन्न जो पूर्ण ब्रह्म का तीसरा ऋतधाम (सतलोक) है, उसमें आकार में विराजमान है तथा सतलोक से चौथा अनामी लोक है, उसमें भी यही कविर्देव (कबीर परमेश्वर) अनामी पुरुष रूप में मनुष्य सदृश आकार में विराजमान है।

ঋগ্বেদ মণ্ডল ৯, সূক্ত ৯৬, মন্ত্র ১৭ থেকে ২০-তে প্রমাণ আছে, পূর্ণ পরমাত্মা কবির্দেব (কবীর পরমেশ্বর) শিশুরূপ ধারণ করে প্রকট হন তথা তার নির্মল জ্ঞান অর্থাৎ তত্ত্বজ্ঞান কবীর বাণীর মাধ্যমে তাঁর অনুসারীদের কাছে বলে-বলে বর্ণনা করেন। তিনি কবির্দেব (কবীর পরমেশ্বর)। ব্রহ্মের ধাম ও পরব্রহ্মের ধাম থেকে ভিন্ন, যা পূর্ণ ব্রহ্মের তৃতীয় ঋতধাম (সত্‌লোক), সেখানে আকার রূপে বিরাজমান। এবং সত্‌লোক থেকে চতুর্থ অনামী লোকও আছে, সেখানে কবির্দেব (কবীর পরমেশ্বর) অনামী পুরুষরূপে মানব সদৃশ্য আকারে বিরাজমান আছেন।





21/08/2025
কলিযুগে সত্যযুগের স্বপ্ন এখন হবে বাস্তব,  কারণ সন্ত রামপাল জি মহারাজের অন্নপূর্ণা মিশন প্রতিটি গরিবকে দিচ্ছেন অন্ন, বস্ত...
19/08/2025

কলিযুগে সত্যযুগের স্বপ্ন এখন হবে বাস্তব,
কারণ সন্ত রামপাল জি মহারাজের অন্নপূর্ণা মিশন প্রতিটি গরিবকে দিচ্ছেন অন্ন, বস্ত্র ও বাসস্থান!
দেখুন Annapurna Muhim YouTube Channel

कलयुग में सतयुग का सपना अब होगा साकार, क्योंकि संत रामपाल जी की अन्नपूर्णा मुहिम दे रही है हर गरीब को रोटी, कपड़ा और मकान!
देखिए Annapurna Muhim YouTube Channel

#रोटी_कपड़ा_शिक्षा_इलाज_मकान



17/08/2025

सच्ची आजादी: वह लोक जहाँ आत्मा को मिलती है अमर शांति | Sant Rampal Ji Live Satsang | SATLOK ASHRAM_______________________________________✨ Join Us for Free N...

17/08/2025

12/08/2025

Address

4G65+9QX, Banwasa
Hisar
131304

Alerts

Be the first to know and let us send you an email when Kabir- The Supreme Almighty God posts news and promotions. Your email address will not be used for any other purpose, and you can unsubscribe at any time.

Share