Ashish Rawat

Ashish Rawat नाभिषेको न संस्कारः सिंहस्य क्रियते वने। विक्रमार्जितसत्वस्य स्वयमेव मृगेन्द्रता॥

पिछले दिनों साध्वी ऋतम्भरा का एक इंटरव्यू सुन रहा था। बता रही थीं कि कितने ही वैरागी सन्तों जिन्होंने संसारिकता सदैव के ...
07/01/2024

पिछले दिनों साध्वी ऋतम्भरा का एक इंटरव्यू सुन रहा था। बता रही थीं कि कितने ही वैरागी सन्तों जिन्होंने संसारिकता सदैव के लिए त्याग दी थी, वे भी वापस लौट कर 1992 में मुक्ति आंदोलन से जुड़ गए। क्यों? पाँच सौ वर्ष पुराने घाव के उपचार के लिए, प्रभु श्रीराम का मंदिर बनते देखने के लिए। उनमें से अधिकांश अब नहीं होंगे... यह शुभदिन देखना उनके भाग्य में नहीं था।
वे कलकत्ता वाले दो देवात्मा कोठारी बन्धु! क्या अद्भुत कलेजा रहा होगा उस माँ का, जिसने इस महायज्ञ में अपने दोनों बेटों की आहुति दे दी। दोनों बीरों ने उस आयु में बलि दी, जब सांसारिक सुखों की चाह सर्वाधिक होती है। मृत्यु बांटती बंदूकों के सामने खड़े उन युवकों के हृदय में एक और केवल एक ही इच्छा रही होगी, रामजी का मंदिर बन जाय बस! उस आंदोलन से जुड़े लाखों योद्धाओं में से जाने कितनों ने अयोध्या में अपनी बलि दी। जो बच गए, उनमें से अनेकों उस आंदोलन के बाद मन्दिर बनने की प्रतीक्षा करते करते निकल गए। वह अभिलाषा कि अयोध्या का वैभव लौटते देखें, अयोध्या में रामजी को लौटते देखें, मन में ही रह गयी और जीवन पूर्ण हो गया...
महन्थ दिग्विजयनाथजी, महन्थ अवैद्यनाथजी, अशोक सिंघलजी, कल्याण सिंहजी, विष्णु हरि डालमियाजी... असंख्य लोग जिन्होंने अपना समूचा जीवन राम मंदिर को दे दिया, पर यह शुभ दिन देखने से पहले ही संसार छोड़ गए... एक बड़ा प्रसिद्ध नारा था, "सौगंध राम की खाते हैं हम, मन्दिर वहीं बनाएंगे!" जलालाबाद के एक मंच से यह गर्जना करने वाले कवि विष्णु गुप्त भी चले गए। आंखों में बस वही आस! मन्दिर मन्दिर मन्दिर....
रामजन्मभूमि के लिए केवल 1992 में ही आंदोलन नहीं हुआ था, अयोध्याजी के दुर्भाग्य की इन पाँच शताब्दियों में हिन्दू जाति कभी चुप नहीं बैठी। हर पीढ़ी लड़ी है। हर पीढ़ी के बीरों ने अपनी आहुति दी है। उन्हें सफलता भले न मिली, पर उनका समर्पण कहीं से भी कम नहीं था। वीरों की प्रतिष्ठा सफलता-असफलता पर निर्भर नहीं करती, प्रतिष्ठा उनके समर्पण, उनके शौर्य से तय होती है। हर पीढ़ी बस इसी स्वप्न को पूरा करने के लिए लड़ी कि वहाँ रामजी का मंदिर बन जाय। सबने केवल और केवल राम की बाट अगोरी थी। बस उनके भाग्य में वह दिन देखना नहीं बदा था...
स्वर्ग में बैठे उन पूज्य पितरों का स्वप्न पूरा हो रहा है। जो दिन देखने की चाह लिए पच्चीस पीढियां गुजर गयीं, वह अब आया है। अयोध्या के दिन अब फिरे हैं, रामजी अब लौटे हैं...
बाइस जनवरी को जब आप दीपावली मनाएं तो एक दीप उन समस्त वीरों की याद में जलाइए जिनकी तपस्या, जिनके बलिदान के कारण यह शुभ दिन आया है। उन लाखों करोड़ों पुण्यात्माओं की स्मृति में, जो यह शुभदिन देखने के लिए तरसते रह गए... यह सचमुच पुण्य होगा...

कैसे आते हैं श्रीराम!    अपने युग की सबसे सुन्दर स्त्री थीं वे! जितनी सुन्दर, उतनी ही विदुषी! आस-पड़ोस की स्त्रियां कहतीं...
31/12/2023

कैसे आते हैं श्रीराम!

अपने युग की सबसे सुन्दर स्त्री थीं वे! जितनी सुन्दर, उतनी ही विदुषी! आस-पड़ोस की स्त्रियां कहतीं, "इसे ब्रह्मा ने अपने हाथों से बनाया है। ये ब्रह्मा की पुत्री हैं।" वे सब ठीक ही कहती थीं।
उन्होंने जिस ऋषि का वरण किया वे अपने युग के श्रेष्ठ विद्वानों में एक थे। दोनों में बहुत प्रेम था। न्योछावर थे एक दूसरे पर... जीवन के हर पथ पर संग चलने का वचन निभाते लोग, तपस्या के लिए बैठते तब भी संग ही बैठते थे।
प्रेम का चरम छू लेने पर या तो वैराग्य मिलता है, या वियोग! नियति की ओर से उन्हें वियोग मिलना था। ऋषि एक दिन भोर में गङ्गास्नान को गए थे। देवी को एकांत में पा कर एक महापुरुष अनैतिक याचना लिए आये। यहाँ तक कि वेश बदल कर ऋषि का ही रूप ले लिया। काम पुरुष का प्राथमिक दुर्गुण है, वह किसी को नहीं छोड़ता। बड़े बड़े महापुरुषों की मति हर लेने वाला काम तब इंद्र की मति हर चुका था।
देवी पहचान गयीं पति के रूप में आये छली को। स्वर्ग के अधिपति को तिरस्कार के साथ वापस तो लौटा दिया, पर उतने महान व्यक्ति को भी अनैतिक प्रयत्न करते देख वैराग्य भाव से मुस्कुरा दिया। दुर्भाग्य! कि बस उसी क्षण पति लौट आये। राह में उन्होंने देखा था अपने ही भेष में आश्रम से निकलते इंद्र को...
प्रेम या तो अति विश्वासी बना देता है, या अति भयभीत! महर्षि गौतम के हिस्से में भय आया था। इसमें होता यह है कि प्रेम जितना ही गहरा हो, उतना ही भयभीत कर देता है। हर समय यही भय, कि कहीं मेरा साथी मुझे त्याग तो नहीं देगा? उसे कोई और प्रिय तो नहीं...?
ऋषि का भय क्रोध में बदल गया। क्रोध सबसे पहले हर लेता है बुद्धि। क्रोध के वश में उस महाज्ञानी ऋषि ने एक क्षण में ही इंद्र को शाप दिया और अगले ही क्षण पत्नी को त्याग देने का प्रण ले लिया।
पर ज्ञानियों का क्रोध क्षणिक होता है। ऋषि को सत्य का भान हुआ तो उपजा अपराधबोध... पत्नी से क्षमा याचना की। पर पत्नी के साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार के लिए स्वयं को भी दंडित करना था न! तो स्वयं के लिए दण्ड निश्चित किया कि प्रेयसी से दूर रहेंगे। तबतक, कि जबतक राम न आ जाएं... राम का आना ही क्यों? महापुरुषों के आगमन से युग के पाप धुल जाते हैं मित्र! वे तो राम थे। मर्यादापुरुषोत्तम! करुणासिंधु!
उधर पति से तिरस्कार पा कर जड़ हो गयी थीं अहिल्या! विश्वास ही नहीं होता था कि इतने अविश्वासी हो जाएंगे पति! एक निर्दोष को ऐसा दण्ड? एकाएक जैसे पत्थर हो गईं।
दोनों के तप का स्वरूप बदल गया। ऋषि अपने आश्रम को छोड़ कर सुदूर वन में तप कर के प्रायश्चित कर रहे थे, और पत्नी उसी आश्रम में एकांत वास कर अपने प्रेम का साथ निभा रही थीं। दोनों की साझी प्रार्थना बस इतनी ही थी कि राम आएं... राम आएं कि उनके आने से मुक्त हो जाएं हम... उनका रोम रोम राम के लिए रो रहा था जैसे...
जाने कितने बरस बीत गए। जाने कितने युग बीत गए। राम को ढूंढते ढूंढते गौतम और अहिल्या बृद्ध हो गए थे।
और एक दिन... उन दो राजकुमारों को लेकर अनायास ही उस परित्यक्त कुटिया की ओर मुड़ गए महर्षि विश्वामित्र! जैसे कह रहे हों, "मुक्त होवो देवी! तुम्हारी तपस्या अंततः खींच लाई उस युगपुरुष को..."
राम यूँ ही नहीं आते मित्र! उनके पीछे किसी अहिल्या की लंबी तपस्या है.

कैसे आते हैं श्रीराम!    उस घने वन में एक ओर सीधे सादे भीलों की बस्तियां होतीं थीं, तो दूसरी ओर तपस्वी ऋषियों के आश्रम! ...
29/12/2023

कैसे आते हैं श्रीराम!

उस घने वन में एक ओर सीधे सादे भीलों की बस्तियां होतीं थीं, तो दूसरी ओर तपस्वी ऋषियों के आश्रम! प्रकृति द्वारा निर्मित व्यवस्था के अनुसार जीवन यापन करने वाले ये मानव चुपचाप अपनी परम्पराओं के साथ, बिना किसी को नुकसान पहुँचाये जी रहे थे। युग युगांतर से यही उस वन प्रान्तर की व्यवस्था थी।
किन्तु! इधर कुछ वर्षों से सबकुछ बदल गया था। सुदूर दक्षिण में राक्षसी साम्राज्य स्थापित होने के बाद सारी व्यवस्था जैसे तहस नहस हो गयी थी। सभ्य समाज के आसपास यदि असभ्यों का निवास हो जाय तो उनका जीवन पीड़ा से भर जाता है। किसी सभ्य देश के पड़ोसी राष्ट्र में यदि बर्बरों का शासन हो जाय, तब भी उसका मूल्य सामान्य जन को ही चुकाना पड़ता है। वन प्रान्तर के ऋषि और भील लंका में रावण की सत्ता स्थापित होने के बाद मूल्य ही चुका रहे थे।
लंका के राक्षस आते और उनकी संपत्ति छीन लेते। यज्ञों को भंग कर देते, भीलों की बस्ती में आग लगा देते, ऋषियों भीलों को मार कर खा जाते... निरीह जन चुपचाप देखते और रोते रह जाते।
यूँ ही एक दिन युवा ऋषि शरभंग ने देखा, लंका के राक्षसों ने उनके कुछ साथियों की हत्या की और उनका माँस खा गए। पीड़ा से तड़प उठे शरभंग ने अपने हाथों से साथियों की रक्त से सनी अस्थियां उठाईं। वे उनका संस्कार करना चाहते थे, पर मन क्षोभ से भर गया। मुट्ठी में अपने साथियों की हड्डियों को दबाए अपने दोनों हाथों को ऊपर उठा कर चीख पड़े ऋषि- ईश्वर! क्या यही हमारे तप का फल है? क्या अब भी नहीं आओगे तुम? तो सुनो! जबतक तुम स्वयं नहीं आते, यह ब्राह्मण यूँ ही अस्थियां बटोरता रहेगा...
युगों बीत गए। महर्षि शरभंग वृद्ध हो गए। उनके आश्रम के सामने ऋषियों और भीलों की अस्थियों का पहाड़ खड़ा हो गया था। किन्तु वह महान तपस्वी जानता था कि प्रभु आएंगे।
और एक दिन! पत्नी और भाई के साथ वन में घूम रहे उस निर्वासित राजकुमार को देख कर विह्वल हो उठे ऋषि ने कहा- अब चलता हूँ राम! बस तुम्हे निहार भर लेने के लिए रुका था। पर मेरे जाने के बाद देख लेना राक्षसी अत्याचारों का वह विराट प्रमाण, जो मैंने अपने हाथों से इकट्ठा किया है।
राम ने उन्हें रोकना चाहा, पर वे नहीं रुके। कहा, "मेरी मृत्यु तुम्हे हमारी पीड़ा का स्मरण दिलाती रहेगी राम! तुम्हे याद रहे कि राक्षसी अत्याचारों से त्रस्त शरभंग ने तुम्हारे सामने अपना दाह किया था। तुम्हे याद रहे कि तुम्हे पाने के लिए संसार ने कितनी प्रतीक्षा और कैसी तपस्या की है। मेरा कार्य पूर्ण हुआ। मुझे न रोको देव! मुझे मुक्ति दो... अब तुम हो और सामने है वह अस्थियों का ढेर! न्याय करो योद्धा! नया करो देव!
शरभंग ने आत्मदाह कर लिया। शोक में डूबे राम आगे बढ़े तो देखा अस्थियों का ढेर... उनका शोक भयानक क्रोध में बदल गया। जगतकल्याण के लिए अवतरित हुए उस महापुरुष ने अपना कोदंड हवा में लहराया और गरजे- मैं दाशरथि राम! जब तक संसार से समस्त राक्षसों का नाश नहीं कर देता, तबतक चैन से नहीं बैठूंगा..."
राम यूँ ही नहीं आते। उनके आने के पीछे जीवन भर अस्थियां बटोरने वाले किसी शरभंग की तपस्या होती है।

पता नहीं क्यों मुझे 'प्रेम' शब्द सुनते ही सबसे पहले कृष्ण याद आते हैं।      वे कृष्ण, जो एक बार गोकुल छोड़ते हैं तो कभी म...
15/02/2023

पता नहीं क्यों मुझे 'प्रेम' शब्द सुनते ही सबसे पहले कृष्ण याद आते हैं।
वे कृष्ण, जो एक बार गोकुल छोड़ते हैं तो कभी मुड़ कर नहीं देखते भी गोकुल की ओर... न यमुना, न बृंदाबन, न कदम्ब, न राधा, कोई उन्हें दुबारा खींच नहीं पाता! मथुरा-गोकुल से अधिक दूर नहीं है हस्तिनापुर, कृष्ण सौ बार हस्तिनापुर गए पर गोकुल नहीं गए। क्यों?
मुझे लगता है यदि कृष्ण दुबारा एक बार भी गोकुल चले गए होते तो उनके प्रेम की वह ऊंचाई नहीं रह जाती, जो है। प्रेम देह की विषयवस्तु नहीं, आत्मा का शृंगार है। प्रेम जिस क्षण देह का विषय हो जाय, उसी क्षण पराजित हो जाता है। कृष्ण का प्रेम आत्मा का प्रेम था। वे कभी राधिका के साथ नहीं रहे। कृष्ण का स्मरण कर राधिका रोती रहीं, राधिका का स्मरण कर कृष्ण मुस्कुराते रहे। दोनों देह से दूर रहे, पर दोनों की आत्मा साथ रही। तभी कृष्ण का प्रेम कभी पराजित नहीं हुआ। वे जगत के एकमात्र प्रेमी हैं जिनका प्रेम अपराजित रहा...
यह भी कितना अजीब है कि कृष्ण का स्मरण कर राधिका रोती रहीं, और राधिका का स्मरण कर कृष्ण मुस्कुराते रहे। वस्तुतः दोनों अपनी मर्यादा ही निभा रहे थे। पुरुष रो नहीं पाता। वह मर्मांतक पीड़ा भी मुस्कुरा कर सहता है। पुरुष होने का भाव पुरुष को अंदर ही अंदर मार देता है, फिर भी वह अपनी पीड़ा किसी को नहीं बता पाता। कृष्ण तो पूर्ण पुरुष के दावे के साथ आये थे, कैसे रोते?
रोये थे मेरे राम! पिता के लिए रोये, माता के लिए रोये, भाई के लिए रोये, पत्नी के लिए रोये, मित्र के लिए रोये, मातृभूमि तक के लिए रोये...
लोगों को लगता है कि कृष्ण कोमल थे, और राम कठोर। मुझे लगता है राम कोमल थे, कृष्ण कठोर... राम ने सबको क्षमा कर दिया। चौदह वर्ष की कठोर पीड़ा देने वाली मंथरा तक को कुछ नहीं किया, कैकई के प्रति तनिक भी कठोर नहीं हुए, पर कृष्ण ने किसी को क्षमा नहीं किया। दुर्योधन कर्ण तो छोड़िये, अपने सबसे प्रिय मित्र अर्जुन तक को क्षमा नहीं किया। पत्नी का अपमान देखने का पाप किया अर्जुन ने, तो उन्ही के हाथों उनके कुल का नाश कराया।
राम क्षमा करना सिखाते हैं, और कृष्ण दण्ड देना। जीवन के लिए यह दोनों कार्य अत्यंत आवश्यक हैं।
लोग पूछते हैं कि आखिर क्या कारण है कि विश्व की सारी सभ्यताएँ नष्ट हो गईं, पर भारत अभी भी स्वस्थ है। मेरा यही उत्तर होता है कि भारत ने राम और कृष्ण दोनों को पूजा है, इसी कारण दीर्घायु है।
हाँ तो बात प्रेम की! या कहें तो बात कृष्ण की... कहते हैं, कृष्ण ने उद्धव को गोकुल भेजा था गोपियों को ज्ञान सिखाने के लिए... क्या सचमुच? शायद नहीं! कृष्ण ने उद्धव को भेजा था ताकि उद्धव जब वापस लौटें तो उनसे गोकुल की कथा सुन कर एक बार फिर वे गोकुल को जी सकें... जो आनंद अपने प्रिय के बारे में किसी और के मुख से अच्छा सुनने में मिलता है, उसे याद करते रहने में मिलता है, वह आनंद तो प्रिय से मिलने में भी नहीं मिलता। है न?
कृष्ण ने विश्व को सिखाया कि प्रेम को जीया कैसे जाता है... कृष्ण अभी युगों तक प्रेम सिखाते रहेंगे।
मुझे लगता है जब-जब राधा कृष्ण की कथा लिखी गयी है, तो केवल राधा की ओर से लिखा गया है। राधा का वियोग, राधा का समर्पण, राधा के अश्रु... किसी ने कृष्ण को नहीं लिखा। कृष्ण भले गोकुल नहीं गए, पर जीवन भर उसी गोकुल के इर्द-गिर्द घूमते रहे। हस्तिनापुर, इंद्रप्रस्थ, कुरुक्षेत्र... नहीं तो कहाँ द्वारिका, कहाँ इंद्रप्रस्थ...
यदि कभी कृष्ण के प्रेम को लिख सका तो... कन्हैया जाने

यह तस्वीर सीरिया से आई है। भीषण भूकम्प के कारण तुर्की और सीरिया में लगभग दो हजार बड़ी इमारतें ध्वस्त हो गईं। उन्ही के मलब...
08/02/2023

यह तस्वीर सीरिया से आई है। भीषण भूकम्प के कारण तुर्की और सीरिया में लगभग दो हजार बड़ी इमारतें ध्वस्त हो गईं। उन्ही के मलबे में ये भाई- बहन मिले जो सत्रह घण्टे तक दबे रहने के बाद जीवित निकाले गए हैं।
बहन भाई से कोई दो तीन साल बड़ी होगी। इस दो तीन वर्ष के अंतर ने ही उस नन्ही बच्ची इतना बड़ा कर दिया है कि खुद बड़े पत्थर के नीचे फंसे होने के बाद भी छोटे भाई के सर पर हाथ रख कर सत्रह घण्टे उसे हौसला देती रही है।
जितना मैं समझ रहा हूँ, यदि यह लड़की अकेली दबी होती तो टूट गयी होती। छोटे भाई को बचाने की जिद्द ने ही उसकी भी रक्षा की है। जिम्मेवारी का एहसास मनुष्य को बहुत शक्तिशाली बना देता है। वह दायित्वबोध ही इस लड़की की शक्ति थी।
दोनों के चेहरे पर भावों में अंतर देखिये। लड़के के चेहरे पर भय है, पीड़ा है। वह लगातार रोता रहा है। पर लड़की के चेहरे पर शान्ति और साहस का भाव है। जैसे उसे पता हो कि उसे रोना नहीं है। वह जानती हो कि वह रोने लगे तो छोटा भाई मर जायेगा। सो वह रोई नहीं है, बल्कि लगातार लड़ती रही है।
भयभीत होने के बावजूद जिजीविषा बनाए रखना बहुत बड़ी बात है। वह भी तब, जब आपकी आयु केवल सात वर्ष हो और अब तक माता पिता के संरक्षण में जीवन बीता हो।
मैंने असँख्य बार अनुभव किया है, भाइयों के लिए बहने सदैव दीवार बन जाती हैं। भरोसा रखिये तो जीवन में उतना मानसिक सम्बल और कोई नहीं दे पाता जितना बहनें दे जाती हैं। ऐसा क्यों है यह मुझे नहीं पता, पर यह जरूर है कि भाई- बहन से अधिक स्नेहिल रिश्ता कोई नहीं।
यह जो प्रेम है न भाईसाहब! वह विपत्ति के समय और अधिक प्रगाढ़ हो जाता है। सामान्य दिनों में एक दूसरे से लड़ते रहने वाले भाई बहन विपत्ति के पलों में एक दूसरे के लिए कुछ भी कर जाते हैं।
भागदौड़ भरी दुनिया में ये बच्चे आश्चर्यजनक गति से एक दिन ओझल हो जाएंगे। लोग इन्हें भूल जाएंगे, पर इस भाई की स्मृति में सदैव अंकित रहेगा कि दुनिया में कमज़ोर मानी जाने वाली हथेलियों ने कभी उसके जीवन की डोर को सबसे कठिन समय में थामे रक्खा। उसके जीवन की सबसे महत्वपूर्ण याद उसकी नन्ही बहन का सहारा ही होगी।
सीरिया जैसे देशों से कभी कोई सकारात्मक तस्वीर नहीं आती। हमेशा लड़ते रहने वाला, घृणा से भरा हुआ समाज कोई सकारात्मक सन्देश क्या ही दे पाएगा! पर कहते हैं, बन्द घड़ी भी दिन में दो बार सही समय बताती है। यह तस्वीर बहुत सुंदर है। बहुत ही सुंदर!

03/02/2023

जिनके चरणों का स्पर्श पाकर पत्थर किसी नारी के वर्षो अभिशापित मैल हट जाते हैं जिनका एक स्पर्श पाकर पत्थर जल से हल्के हो जाते हैं, जिनके एक स्पर्श से एक अधम गीध को नारायण रूप मिल जाता है, जिनका एक स्पर्श एक हारे थके घायल को महाबली बाली से भिड़ जाने का हौसला देता है ऐसे मेरे प्रभु राम के स्वरूप को उकेरने के लिए जाती हुई शालिग्राम शिलाओं को स्पर्श करने वाले हाथ कितने सौभाग्यशाली होंगे।
जिन रास्तों से वे शिलाएं गुजर रही हैं वे हवाएं कितनी पवित्र होती जा रही होंगी। वे नयन कितने भाग्यवान हैं जिन्हें दर्शन का सुख मिला।
मै यहाँ बैठा कितनी वंचनाओं के साथ जी रहा हूँ, मेरे राम तो गांव गांव जंगल जंगल, नदी पहाड़ों से होकर जा रहे, लोग कोसों तक मेरे राम के साथ दौड़ रहे हैं, ढोलक मजीरा लेकर गीत गाते रामरस का पान कर रहे हैं पर मैं अभागा केवल फोन पर ही देख पा रहा, पूछता हूँ...

कब दोगे दर्शन मेरे राम

गङ्गा मइया/ मदर्स डेगङ्गा! वही ममतामयी माता जिनके आगे माथा पटक कर भारत की अपढ़ आस्थावान माताएं  युगों युगों तक सन्तान मां...
08/05/2022

गङ्गा मइया/ मदर्स डे

गङ्गा! वही ममतामयी माता जिनके आगे माथा पटक कर भारत की अपढ़ आस्थावान माताएं युगों युगों तक सन्तान मांगती रही हैं। सन्तान ही क्यों, सुख समृद्धि घर-वर सबकुछ... गङ्गा से भारत का सबसे बड़ा परिचय सर्वफलप्रदायिनी माता के रूप में है।
सरस्वती के तट पट बसी संस्कृति जब नदी के सूखने पर पूर्व की ओर पलायित हुई तो कोसों चलने के बाद जीवन का एक निर्मल स्रोत दिखा। दरिद्रता, भूख और मृत्यु से हार कर भागती संस्कृति एकाएक जी उठी और भीड़ के मुँह से समवेत स्वर निकला, माँ... आँखों में उतर आए जल के साथ उस भीड़ ने नतमस्तक हो कर प्रणाम किया, और नाम दिया गङ्गा... गङ्गा मइया...
जब किसी बच्चे से कोई गलती हो जाय और वह माँ के आँचल में छिप कर उससे बता दे तो उसे लगता है कि अब माँ बचा लेगी। वह मुक्त हो जाता है। गङ्गा में पाप धोने की अवधारणा के पीछे भी शायद यही तर्क रहा होगा। गङ्गा पूरी सभ्यता की माँ है। उस माँ की गोद मे खड़े हो कर बेटा अपनी गलतियों को स्वीकार कर ले और सच्चे हृदय से प्रायश्चित कर ले तो मुक्त हो ही जायेगा। कम से कम मन को तो शान्ति मिल ही जाएगी।
जाने कितनी पीढ़ियों ने गङ्गा के जल में अपने अपराध धोए हैं। जीवन के साथ भी, जीवन के बाद भी... जाने कितनी पीढ़ियों की अस्थियां संग्रहित हैं उस पवित्र गोद में... गङ्गा में अस्थि विसर्जन का एक लाभ यह भी है कि मृत्यु के बाद भी मां की गोद मिल जाती है। साथ ही साथ मृत्यु के बाद व्यक्ति का अवशेष अपने समस्त पूर्वजों से अवशेषों से मिल जाता है, और उसके बच्चे भी अपने समस्त पूर्वजों को एक ही साथ महसूस कर लेते हैं। कभी गङ्गा स्नान को जाइये तो उस अथाह जलधारा को इस दृष्टि से भी देखिये कि उसकी गोद में आपके समस्त पूर्वजों की अस्थियां हैं। मैं जानता हूँ, आप रो उठेंगे।
गङ्गा की गोद में केवल जल नहीं, धर्म बहता है। सम्पूर्ण सनातन बहता है, पूरा भारत बहता है। गङ्गा को प्रणाम करना सम्पूर्ण सनातन को प्रणाम करना है।
गङ्गा मैया भारत के समस्त दुख-सुख की एकमात्र साक्षी हैं। उन्होंने अपने तट पर विश्व के कल्याण के लिए तपस्या करते सन्तों को भी देखा है, और अपने जल में तलवारों का खून साफ करते अरबी लुटेरों को भी... गङ्गा ने विश्वनाथ मंदिर को तोड़ती डायन रजिया सुल्तान को भी देखा है, और मन्दिर निर्माण करने वाली महारानी अहिल्याबाई होलकर को भी... वो सब जानती हैं। तभी तो पूरी सभ्यता की माँ हैं...

06/04/2022

धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो।
🙏🙏

जय जय श्रीराम!    मानस में बाबा तुलसी राम जन्म से पहले रावण जन्म की कथा लिखते हैं! क्यों भला? विशुद्ध कलियुगी बात है, यद...
04/04/2022

जय जय श्रीराम!

मानस में बाबा तुलसी राम जन्म से पहले रावण जन्म की कथा लिखते हैं! क्यों भला? विशुद्ध कलियुगी बात है, यदि जीवन में बुराई का अनुभव न हुआ हो तो अच्छाई का मूल्य समझ मे नहीं आता। एक सामान्य व्यक्ति जिसने रावणत्व का अनुभव न किया हो, वह रामत्व को पूर्णरूपेण नहीं समझ पाता है।
रावण के पूर्वजन्म में प्रतापभानु नामक राजा होने की कथा आती है। उनकी प्रसिद्धि से जल कर एक कपटी ने ब्राह्मण वेश धर कर उनके साथ छल किया। उन्हें एक अनुष्ठान करने और उसके पश्चात ब्राह्मण भोजन का सुझाव दिया। भोजन बनाने की जिम्मेवारी उसने स्वयं ली। जब ब्राह्मण भोजन करने बैठे तो आकाशवाणी हुई कि "ठहरिए ब्राह्मणों! आपके साथ छल हुआ है, यह राजा आपको मांस खिला कर आपका धर्म भ्रष्ट कर रहा है।"
ब्राह्मणों ने प्रतापभानु को शाप दिया कि "अगले जन्म में महानीच राक्षस हो जाओ।" अब सोचिये! प्रतापभानु का तो कोई दोष नहीं दिखता, छल तो उनके साथ भी हुआ था। फिर नियति ने उन्हें किस अपराध का दंड दिया था?
प्रतापभानु को दंड मिला उनकी सहजता का। यदि हम अपने शत्रु का पहचान नहीं करते तो अनजाने में ही स्वयं के साथ साथ अनेकों का अहित करते हैं। फिर इसका दण्ड तो भुगतना होगा न?
यदि हनुमान जी ने कालनेमि को न पहचाना होता तो क्या केवल उनका अहित होता? नहीं! वे स्वयं के साथ साथ अपने प्रभु और समस्त बानर सेना के अहित का कारण बनते... सो मित्र वेश में छिपे अपने शत्रु को पहचानना भी हमारा परम कर्तव्य है।
कई बार हम समस्त जगत को ही अपना मित्र समझने लगते हैं। यह वैराग्य की अति है। जगतकल्याण के लिए तपस्या करते ऋषियों से भी राक्षस शत्रुता करते थे और उन्हें मार कर खा जाते थे, फिर गृहस्थ के जीवन में केवल मित्र ही कैसे हो सकते हैं? स्वयं को उदार सिद्ध करने के लोभ में शत्रु को भी मित्र बताने वाला व्यक्ति स्वयं के साथ साथ अपने पूरे समाज के लिए घातक होता है।
प्रतापभानु जब अगले जन्म में रावण के रूप में आये, तब भी वे अपना यह दुर्गुण साथ ले कर आये। मित्रभाव के साथ जिस जिस ने उन्हें सही राह दिखानी चाही, उसने उनका तिरस्कार किया। पहले पिता विश्रवा का, पत्नी मंदोदरी का, फिर भाई विभीषण का... और जिन राक्षसों ने सदैव अनाचार के लिए प्रेरित किया, उन्ही की सुनता रहा। इसी दुर्गुण के कारण रावण स्वयं के साथ साथ पूरे कुल और समस्त संस्कृति के विनाश का कारण बना। सबकुछ जानते हुए भी सभ्यता के शत्रुओं को मित्र बनाने वाला व्यक्ति अंततः रावण की तरह ही विनाश का कारण बनता है।

आज दूरदर्शन पर रामायण में "राम विवाह" आ रहा था। पुष्पवाटिका प्रसङ्ग, धनुष भंग, सीता माता की विह्वलता, प्रभु की मर्यादा औ...
01/04/2022

आज दूरदर्शन पर रामायण में "राम विवाह" आ रहा था। पुष्पवाटिका प्रसङ्ग, धनुष भंग, सीता माता की विह्वलता, प्रभु की मर्यादा और महाराज दशरथ-जनक का समधी-मिलन! विवाह के बाद महाराज दशरथ से अपनी पुत्रियों की भूल को क्षमा करते रहने की याचना करते पिता जनक, और उत्तर में पुत्रियों के रूप चार अमूल्य हीरे दान करने के लिए धन्यवाद देते दशरथ...दोनों एक दूसरे को हाथ जोड़ कर धन्यवाद दे रहे हैं। जब दान देने और ग्रहण करने वाले दोनों एक दूसरे के सामने प्रेम से नतमस्तक हों, उसी पवित्र क्षण में कालजयी सम्बन्ध बनते हैं।
विवाह के समय महाराज दशरथ और अन्य सभी बारातियों को गाली सुनाती स्त्रियों के लिए तुलसी बाबा लिखते हैं, " जेंवत देंहि मधुर धुनि गारी, लै लै नाम पुरुख अरु नारी..." महाराज जनक के महल की दासियाँ चक्रवर्ती सम्राट दशरथ की स्त्रियों का नाम ले कर गाली दे रही हैं, और वे मुस्कुरा रहे हैं। अपने एक बाण से ताड के सात बृक्षों को धराशायी कर देने वाले राम चुपचाप गाली सुनते हैं? परसुराम और जनक तक को अपने क्रोध से कंपा देने वाले लक्ष्मन दासियों की गाली पर क्रोधित नहीं हो रहे? क्या है यह?
यह संस्कृति है। वह संस्कृति, जो समाज के सबसे विपन्न परिवार की स्त्री को भी यह अधिकार देती है कि वह यदि समाज के सबसे सम्पन्न परिवार के पुरुष को भी गाली दे, परिहास करे तो उसका मुस्कुरा कर सम्मान किया जाय। यह भारत है...
आज ही महाभारत देख रहे थे, उसमें कुरु राजसभा में भीष्म के वध की प्रतिज्ञा करती अम्बा दिखी। उस युग का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति भीष्म! और उस भीष्म को अनजाने में एक स्त्री का अपमान कर देने पर मृत्युदंड? और वह भी उस स्त्री के द्वारा जिसके पास न मायका है न ससुराल... न कोई मित्र है, न भाई... पर हुआ! अम्बा से शिखंडी बनी उसी स्त्री ने भीष्म की मृत्यु तय की... यह हमारी संस्कृति का आदर्श है। हमारी संस्कृति ने स्त्री के अधिकारों की यह सीमा तय की है।
यह संस्कृति राम ने नहीं बनाई! एक व्यक्ति के बनाने से सम्प्रदाय बनता है, संस्कृति नहीं बनती। राम संस्कृति बनाने नहीं आये, बल्कि संस्कृति थी इसलिए राम आये...
हाँ, तो बात राम विवाह की! जानते हैं, कोई भी वर-वधु अपने विवाह में अपनी सारी इच्छाएँ पूरी नहीं कर पाते। बहुत बातें तो वे बाद में समझते हैं और सोचते हैं कि अपने विवाह में यह किया होता तो अच्छा होता... सो जब वह स्त्री बेटी को जन्म देती है, तो उसी दिन से अपनी इच्छाओं को इकट्ठा करना शुरू करती है। उसी तरह अपने बेटे के विवाह के दिन के लिए उसका पिता सपने इकट्ठे करता है। इन दोनों के अपूर्ण सपनों के पूरे होने के दिन का नाम विवाह है... राम-सिया के विवाह का दिन वस्तुतः अयोध्या महाराज और जनकपुर महारानी के स्वप्नों के पूर्ण होने का दिन था।
आप वर्तमान में ही देखिये। कन्या पक्ष से पिता तो बेचारा व्यवस्था की चिन्ता में ही घुल कर रह जाता है, पर मां दौड़-दौड़ कर, नाच-नाच कर अपने शौक पूरे करती है। उसी तरह वर पक्ष में पिता बारात को भव्य बना देने के लिए अपनी सारी क्षमता झोंक देता है। आप अपने घर के ही किसी बारात को याद कीजिये, सबसे पहले आपको मूँछ उमेठ कर मुस्कुराते पिता याद आएंगे।
एक लड़के का पिता सबसे अधिक खुश तभी होता है जब कोई उससे हाथ जोड़ कर कहे कि "मुझे अपना बेटा दे दीजिए.." उसकी छाती चौड़ी हो जाती है। वह भले दिन भर में हजार झूठ बोलता हो, पर उस दिन भीष्म पितामह की तरह डायलॉग मारता है, "जाइये! मैं वचन देता हूँ कि बेटे की बारात आपके दरवाजे पर ही जाएगी..."
वह भले महादरिद्र हो, पर लगे हाथ फर्जी बड़प्पन दिखाते हुए कहता है, "बारात को सम्भाल लीजियेगा! बारातियों के स्वागत में कोई कमी नहीं होनी चाहिए..." जीवन भर दुख, विपन्नता और अभाव झेलने वाले व्यक्ति को भी एक दिन के लिए राजा बनाने की सामाजिक व्यवस्था है यह... राम ने भी अपने पिता से उनका यह अधिकार नहीं छीना, उन्होंने भी महाराजा दशरथ को राजा बनने का अवसर जीने दिया। इसीलिए राम लोक के आदर्श वर हैं...
राम-सीता का विवाह दो कुलों के बुजुर्गों, अभिभावकों, हीत-मित्रों के आशीर्वाद की छाया में सम्पन्न हुआ, इसीलिए जीवन की तमाम विपत्तियों और उठापटक के बाद भी कहीं उनका प्रेम कमजोर नहीं पड़ा। यह उनके बुजुर्गों का आशीर्वाद ही था कि राम पत्नी के लिए समुद्र को बांध सके, और सीता पति के लिए वन के कष्टों को सह सकीं।
विद्यार्थी जीवन में ही चौहत्तर बार लभ और तिहत्तर बार ब्रेकअप करने वाली पीढ़ी चाहे तो राम से सीख सकती है कि प्रेम कैसे करते हैं, और विवाह कैसे...
जयजय हो मेरे रामजी की।

कल से चैत्र प्रारभ हो रहा है। इस पेज पर महीने भर रामजी की ही बात होगी😊 जय जय सियाराम

05/02/2022

कहानी सिंध के अंतिम हिंदू शासक दाहिर सेन की।
इतिहास इसलिए पढ़ा जाता है ताकि इतिहास में हुई गलतियों से हम सीखें और इतिहास में हुई गलतियों को हम दोबारा न दोहराए। उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड के चुनाव के समय यह कहानी ओर भी प्रासंगिक हो जाती है।

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