17/09/2025
17/9/2025 आप पढ़ रहे हैं दैनिक संवाद फर्स्ट अख़बार
अविनाश बंसोडे की कलम से✒️✒️✒️
मौत के पहिए और सोता हुआ सिस्टम
इंदौर में बेकाबू ट्रक को रोककर कांस्टेबल पंकज यादव ने जो किया, वह किसी फ़िल्मी दृश्य से कम नहीं था। उन्होंने सैकड़ों ज़िंदगियाँ बचाईं। लेकिन असली सवाल यह है—उन्हें यह करना क्यों पड़ा? क्या सड़क सुरक्षा और ट्रैफ़िक नियंत्रण की पूरी ज़िम्मेदारी अब जनता और चंद बहादुर पुलिसकर्मियों के कंधों पर है? फिर सरकार और प्रशासन किसलिए हैं?
देश में हर साल लाखों लोग सड़क हादसों में मारे जाते हैं। मंत्रालयों की रिपोर्टें और प्रेस कॉन्फ़्रेंस हमें बताती हैं कि "कड़े क़ानून" और "नई नीतियाँ" लागू हो चुकी हैं। लेकिन ज़मीन पर हकीकत यह है कि बिना फिटनेस वाले ट्रक, ओवरलोड गाड़ियाँ और नशे में धुत ड्राइवर खुलेआम दौड़ रहे हैं। क्यों? क्योंकि चंद नोटों में फिटनेस सर्टिफिकेट बिक जाते हैं, चेकिंग चौकियों पर "चलता है" रवैया हावी है, और नेताओं की प्राथमिकता जनता की जान नहीं बल्कि अपनी चमक-दमक है।
हर हादसे के बाद हम शहीदों को श्रद्धांजलि देते हैं, सरकार मुआवज़े की घोषणा करती है, और फिर सबकुछ भूल जाते हैं। क्या इंसान की ज़िंदगी इतनी सस्ती है कि उसका मूल्य कुछ लाख रुपये का चेक भर हो गया है? अगर सिस्टम हर बार नाकाम रहेगा तो अगला हादसा भी तय है—बस जगह और पीड़ित बदल जाएंगे।
पंकज यादव की बहादुरी गर्व दिलाती है, लेकिन यह भी एक करारा तमाचा है उस सुस्त और भ्रष्ट व्यवस्था पर, जिसने नागरिकों की सुरक्षा को भगवान भरोसे छोड़ दिया है। यह कोई इंदौर या मध्य प्रदेश तक सीमित समस्या नहीं है, यह पूरे देश की बीमारी है।
सरकारों को अब यह तय करना होगा—क्या वे सड़कों पर मौत का नंगा नाच रोकने के लिए ईमानदारी से कदम उठाएँगी, या हर बार किसी बहादुर कांस्टेबल या निर्दोष नागरिक की क़ुर्बानी के बाद मगरमच्छी आँसू बहाकर अपनी ज़िम्मेदारी से बच निकलेंगी।
आज जनता को भी आवाज़ उठानी होगी, वरना कल जब कोई और ट्रक बेकाबू होगा, तो शायद कोई पंकज यादव समय पर न पहुँचे।