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क्या है दीपावली पौराणिक महत्व?भारतीय त्योहारों में दीपावली एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण पर्व है, यह त्योहार युगों-युगों से मन...
28/10/2024

क्या है दीपावली पौराणिक महत्व?
भारतीय त्योहारों में दीपावली एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण पर्व है, यह त्योहार युगों-युगों से मनाया जा रहा है। दीपावली से जुड़े कई ऐसे तथ्य हैं जो इतिहास के पन्नों में अपना विशेष स्थान बना चुके हैं। अतः धार्मिक दृष्टि से इस पर्व का अपना ऐतिहासिक महत्व भी है। दीपावली पर्व का पौराणिक महत्व हमें दिवाली की कथाओं में मिलता है:-
सतयुग की कथा-
सर्वप्रथम तो यह दीपावली सतयुग में ही मनाई गई, जब देवताओं और दानवों ने मिलकर समुद्र मंथन किया, इस महाअभियान से- "ऐरावत, चंद्रमा, उच्चैश्रवा, परिजात, वारुणी, रंभा आदि 14 रत्नों के साथ हलाहल विष भी निकला और अमृत घट लिए धन्वंतरि भी प्रकट हुए।" इसी वजह से स्वास्थ्य के आदिदेव धन्वंतरि की जयंती से दीपोत्सव का पांच दिवसीय महापर्व कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी अर्थात धनतेरस से आरम्भ होता है। तत्पश्चात इसी महामंथन से देवी महालक्ष्मी जन्मीं और सारे देवताओं द्वारा उनके स्वागत में प्रथम दीपावली मनाई गई।
त्रेतायुग की कथा-
त्रेतायुग भगवान श्री राम के नाम से अधिक पहचाना जाता है। महा बलशाली रावण को पराजित कर 14 वर्ष वनवास में बिताकर राम के अयोध्या आगमन पर सारी नगरी दीपमल्लिकाओं से सजाई गई और यह पर्व अंधकार पर प्रकाश की विजय का प्रतीक दीप-पर्व बन गया।
द्वापर युग की प्रथम कथा-
द्वापर युग श्री कृष्ण का लीलायुग रहा और दीपावली में दो महत्त्वपूर्ण आयाम और जुड़ गए पहली घटना श्री कृष्ण के बचपन की है। श्री कृष्ण ने इंद्रपूजा का विरोध कर गोवर्धन पूजा का क्रांतिकारी निर्णय क्रियान्वित कर स्थानीय प्राकृतिक सम्पदा के प्रति सामाजिक चेतना का शंखनाद किया और गोवर्धन पूजा के रूप में अन्नकूट की परम्परा बनी। कूट का अर्थ है पहाड़। अन्नकूट अर्थात भोज्य पदार्थों का पहाड़ जैसा ढेर अर्थात उनकी प्रचुरता से उपलब्धता। वैसे भी कृष्ण-बलराम कृषि के देवता हैं। उनकी चलाई गई अन्नकूट परम्परा आज भी दीपावली उत्सव का अंग है। यह पर्व प्रायः दीपावली के दूसरे दिन प्रतिपदा को मनाया जाता है।
द्वापर युग की द्वितीय कथा-
दूसरी घटना श्री कृष्ण के विवाहोपरांत की है। नरकासुर नामक राक्षस का वध एवं अपनी प्रिया सत्यभामा के लिए पारिजात वृक्ष लाने की घटना दीपोत्सव के एक दिन पूर्व अर्थात रूप चतुर्दशी से जुड़ी है। इसी वजह से इसे नरक चतुर्दशी भी कहा जाता है। अमावस्या के तीसरे दिन भाईदूज को इन्हीं श्री कृष्ण ने अपनी बहिन द्रौपदी के आमंत्रण पर भोजन करना स्वीकार किया और बहन ने जब भाई से पूछा- क्या बनाऊं? क्या जीमोगे? तो जानते हो, कृष्ण ने मुस्कराकर क्या कहा? बहन कल ही अन्नकूट में ढेरों पकवान खा-खाकर पेट भारी हो चला है इसलिए आज तो मैं केवल खिचड़ी खाऊंगा।समस्त संसार के स्वामी श्री कृष्ण ने यही तो संदेश दिया था कि- "तृप्ति भोजन से नहीं, भावों से होती है। प्रेम पकवान से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। दीपावली के इस शुभ अवसर पर मैं आपको आपके जीवन में सफलता, सौभाग्य, और खुशियाँ प्राप्त होने की शुभकामनाएं देता हूँ यह त्योहार आपके जीवन में प्रकाश और खुशियों की बारिश लेकर आए दीपोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएं।

प.पू.पांडुरंग शास्त्री आठवले का आज है जन्म दिवस       भारत के महान दार्शनिक तथा तत्त्वचिंतक परम पूजनीय पांडुरंग शास्त्री...
19/10/2024

प.पू.पांडुरंग शास्त्री आठवले का आज है जन्म दिवस

भारत के महान दार्शनिक तथा तत्त्वचिंतक परम पूजनीय पांडुरंग शास्त्री आठवले जी जिनको प्राय: दादाजी के नाम से जाना जाता है, जिसका मराठी में अर्थ बड़ा भाई होता है। उन्होने सन् 1954 में स्वाध्याय कार्य की शुरुआत करके स्वाध्याय परिवार की स्थापना की। स्वाध्याय कार्य श्रीमद्भागवद्गीता पर आधारित आत्म-ज्ञान का कार्य है, जो भारत के एक लाख से अधिक गावों में फैला हुआ है, और इसके भारत और विदेशों में लाखो अनुयायी हैं।
दादाजी वेद उपनिषद और श्रीमद्भगवद्गीता पर अपने प्रवचन के लिये प्रसिद्ध है, उन्हें सन् 1997 में धर्म के क्षेत्र में उन्नति के लिए टेम्पल्टन पुरस्कार से सम्मानित किया गया। सन् 1999 में उन्हें सामुदायिक नेतृत्व के लिये मैगससे पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। उसी वर्ष भारत सरकार ने उन्हें पद्मविभूषण से भी सम्मानित किया। दादाजी ने पारंपरिक शिक्षा के साथ ही सरस्वती संस्कृत विद्यालय में संस्कृत व्याकरण के साथ न्याय, वेदांत, साहित्य और अंग्रेजी साहित्य का अध्ययन किया।उन्हें रॉयल एशियाटिक सोसाइटी मुंबई द्वारा "मानद सदस्य" की उपाधि से सम्मानित किया गया।
इस पुस्तकालय में उन्होंने उपन्यास खंड को छोड़कर सभी विषयों के प्रमुख लेखकों की प्रसिद्ध पुस्तकों का अध्ययन किया। वेदों, उपनिषदों, स्मृति, पुराणों पर चिंतन करते हुए श्रीमद्भगवद्गीता पाठशाला (माधवबाग मुंबई) में पांडुरंगशास्त्री ने अखंड वैदिक धर्म, जीवन जीने का तरीका, पूजन पद्धति और पवित्र मन से विचार करने का तरीका दिया।
पद प्रतिष्ठा पॉवर और पैसों के बिना मनुष्य को मनुष्य होने की कीमत समझाने वाले पांडुरंग शास्त्री आठवले जी के जन्म दिन 19 अक्टूबर को "मनुष्य गौरव दिन" के रूप में प्रतिवर्ष मनाया जाता है। मनुष्य जीवन की सार्थकता उसके अन्दर रहने वाले परमात्मा से पहचानी जाती है, जीव और शिव के सम्बन्ध को समझाने वाले परम पूजनीय दादाजी को उनके जन्म दिवस पर कोटि-कोटि वन्दन

मनुष्य गौरव दिन पर विशेष
17/10/2024

मनुष्य गौरव दिन पर विशेष

अमृत रात्रि का महत्त्व       सभी स्वजनों को शरद पूर्णिमा एवं दीपावली की जय श्री कृष्णा और वन्दन! सनातन धर्म के अनुसार शा...
16/10/2024

अमृत रात्रि का महत्त्व
सभी स्वजनों को शरद पूर्णिमा एवं दीपावली की जय श्री कृष्णा और वन्दन! सनातन धर्म के अनुसार शास्त्रों में ऐसा वर्णित है कि चन्द्रमा मन के देवता एवं महारास के साक्षी है। चन्द्रदेव शरद पूर्णिमा की रात्रि में अमृत वर्षा करते है, अतः हमें इस रात्रि को खीर बनाकर और अगर सम्भव हो तो इसमे देशी गाय का दुध डालकर मंत्रजाप करते हुए इसे एक चौड़े बर्तन मे जाली से ढककर इसे रात्रि 10 से 2 बजे तक खुले आसमान के नीचे सुरक्षित स्थान पर रख दे प्रातःकाल उठकर इस खीर का प्रसाद ग्रहण करें तन मन के अनेक रोगों की यह प्रभावी औषधि है।
विशेष सन्देश:-"हमारी वाणी विष जैसी न हों ऐसी प्रभु से प्रार्थना है, त्रुटि के लिए क्षमा प्रार्थी हूं।"
-पं. रोहिताश्व पाठक, अटावदा (बेटमा)
मालवी भाषा के भागवत प्रवक्ता

जहाँ दूसरों का हक़ भी न देने का भाव हो वहाँ महाभारत और जहाँ अपना हक़ भी दूसरों के लिए त्यागने का भाव हो वहाँ से रामायण क...
12/10/2024

जहाँ दूसरों का हक़ भी न देने का भाव हो वहाँ महाभारत और जहाँ अपना हक़ भी दूसरों के लिए त्यागने का भाव हो वहाँ से रामायण का प्रारम्भ होता है।
जहाँ पिता की आज्ञा पर पुत्र सिंहासन त्यागकर वन को चल दे वहाँ दशहरा है।
जहाँ भाई भाई के आदर में कुटिया में रहकर खड़ाऊ से शासन करे वहाँ दशहरा है।
जहाँ पत्नी पति के लिए सोलह श्रृंगार त्यागकर वैराग्य धारणकर वन को चल दे वहाँ दशहरा है।
जहाँ मर्यादित पुरुष छल रूपी सुन्दरी सूर्पणखा के मोहजाल से दूर रहे वहाँ दशहरा है।
जहाँ वंचितों, शोषितों, दलितों को साथ लेकर विजय श्री का वरण हो वहाँ दशहरा है।
जहाँ मित्रता में मित्र को उसका खोया वैभव दिलाने के लिए मित्र जान जोखिम में डाल दे वहाँ दशहरा है।
जहाँ देवर माँ रुपी भाभी के श्री चरणों के अलावा कहीं ओर निगाह का भान न हो वहाँ दशहरा है।
जहाँ त्रिलोक विजयी, प्रकाण्ड पण्डित रावण मोक्ष के लिए श्रीराम के चरणों का वरण करे वहाँ दशहरा है।
जहाँ मेरे भाई मेरे हिस्से की जमीन भी तू रखले मेरी इच्छा है कि आंगन में न दिवार उठे ये भाव हो वहाँ दशहरा है।
जहाँ साध्य (लक्ष्य) ही नहीं साधना की पवित्रता भी मायने रखती हो वहाँ दशहरा है।
दशहरा महज़ विजयी नहीं कर्तव्य है, मर्यादा है, त्याग है।

क्या है.? डोल ग्यारस का पौराणिक महत्त्वभाद्रपद मास में शुक्ल पक्ष की एकादशी को  जलझूलनी कहते है। इस दिन भगवान कृष्ण के ब...
11/09/2024

क्या है.? डोल ग्यारस का पौराणिक महत्त्व
भाद्रपद मास में शुक्ल पक्ष की एकादशी को जलझूलनी कहते है। इस दिन भगवान कृष्ण के बाल रूप लड्डू गोपाल जी का जलवा पूजन किया जाता है, अतः इसे डोल ग्यारस भी कहते है। डोल ग्यारस के अवसर पर सभी कृष्ण मन्दिरों में विशेष पूजा अर्चना होती है। भगवान कृष्ण की मूर्ति को विशेष डोल (पालकी) में बिठाकर नगर भ्रमण करवाया जाता है, इस अवसर पर कई शहरों में मेले, चल समारोह, अखाड़ों का प्रदर्शन और अनेक प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। इसके साथ ही डोल ग्यारस पर राधा कृष्ण के एक से बढ़कर एक नयनाभिराम विद्युत सज्जित डोल की झांकियां निकाली जाती है।
ऐसी मान्यता है कि डोल ग्यारस का व्रत रखें बगैर जन्माष्टमी का व्रत पूर्ण नहीं होता है। डोल ग्यारस का व्रत रखने से हमें भगवान विष्णु लक्ष्मी और कृष्ण की विशेष कृपा प्राप्त होती है। इसके अलावा इसे वामन और पदमा एकादशी भी कहते है। इस बार यह एकादशी 14-09-2024 शनिवार को रहेगी। इसी दिन चातुर्मास का आधा समय पूर्ण होता है, और भगवान विष्णु करवट बदलते है जिससे इसे परिवर्तनी एकादशी भी कहते है, आप सभी को डोल ग्यारस की हार्दिक बधाई।

05/09/2024

पुत्री के वर चयन में कौन से गुण देखना चाहिए.?

आदौ कुलं परीक्षेत ततो विद्यां ततो वयं
शीलं धनं ततो रूपं देशं पश्चाद्विवाहयेत् ।
कन्या वरयेत रूपं, माता वित्तं, पिता श्रुतम्
बान्धवा: कुलमिच्छन्ति, मिष्टान्नमितरे जना:।।

(1) कुल:- लड़के के माता-पिता दादा-दादी नाना-नानी कैसे और कहाँ के थे?
(2) योग्यता:- लड़के की शिक्षा क्या है, अपने परिवार का पालन करने की योग्यता रखता है या नहीं?
(3) अवस्था:- लड़के-लड़की की आयु में बहुत ज्यादा अन्तर तो नहीं है?
(4) शील:- धीर-गम्भीर प्रसन्न-चित्त व्यवहारिक मैत्री-शील और चरित्रवान हो।
(5) धन:- रुपया बढ़ाने की प्रवृति है या पैसा पानी की तरह बहाता है।
(6) रूप:- लड़के का रंग-रूप, कद-काठी बेटी के अनुकूल है कि नहीं?
(7) देश:- कौन से देश, प्रान्त, नगर में रहता है और वहां का रहन सहन कैसा है?
जबकि कन्या रूप को, माता धन को, पिता वर के वैभव को, कुटुम्बी एवं मित्रगण परोसे जाने वाले पकवान को ही देखते हैं।

31/08/2024

तारों के तेज में चन्द्र छिपे नहीं,
सूरज छिपे नहीं बादल छायो।
चंचल नार के नैन छिपे नहीं,
प्रीत छिपे नहीं पीठ दिखायो।
रण पड़े राजपूत छिपे नहीं,
दाता छिपे नहीं मंगन आयो।
कवि गंग कहे सुनो शाह अकबर,
कर्म छिपे नहीं भभूत लगायो।।

म.प्र. मे क्यो बिक रहा है, सोयाबीन MSP से 2000 कम कीमत पर..? महाराष्ट्र के बाद मध्य प्रदेश देश का दूसरा सबसे बड़ा सोयाबी...
30/08/2024

म.प्र. मे क्यो बिक रहा है, सोयाबीन MSP से 2000 कम कीमत पर..?
महाराष्ट्र के बाद मध्य प्रदेश देश का दूसरा सबसे बड़ा सोयाबीन उत्पादक राज्य है। म.प्र. के नर्मदापुरम और मालवा निमाड़ क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर सोयाबीन की खेती की जाती है, इस वर्ष महाराष्ट्र की तरह म.प्र. में भी सोयाबीन किसानों को उपज का उचित मूल्य न मिलने से सरकार के प्रति असंतोष बढ़ गया है। राज्य में सोयाबीन की थोक कीमत पिछले एक दशक के अपने सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई है।
◆ संयुक्त किसान मोर्चा ने की आंदोलन की घोषणा:-
किसानों की नाराजगी इस बात से समझी जा सकती है कि वे 12 वर्ष पहले जिस कीमत पर सोयाबीन बेचा करते थे, इस साल भी उसी दाम पर अपनी उपज बेचने को मजबूर हैं। संयुक्त किसान मोर्चा ने इस स्थिति के लिए सरकार की नीतियों को जिम्मेदार ठहराते हुए आंदोलन की घोषणा की है। केंद्र सरकार ने सोयाबीन का MSP (न्यूनतम समर्थन मूल्य) 4,892/-रु. प्रति कुंटल तय किया है, लेकिन इस वर्ष महाराष्ट्र और म.प्र. में सोयाबीन की खरीद MSP से लगभग 2000 रुपये कम कीमत पर की गई है, म.प्र. के किसान नेता राहुल राज के अनुसार नर्मदापुरम से लेकर मालवा तक सोयाबीन की कीमत 3500 से 4000 रुपये प्रति कुंटल के बीच स्थिर है, उन्होंने कहा कि किसान अभी पिछले साल की उपज बेच रहे हैं, और इस साल की उपज 15 सितंबर 2024 से बाजार में आएगी, इससे बाजार की स्थिति में सुधार की कोई उम्मीद नहीं है।
◆ केंद्र सरकार की नीतियों को ठहराया जिम्मेदार:-
विशेषज्ञों का कहना है कि सोयाबीन के दाम गिरने का मुख्य कारण केंद्र सरकार की गलत नीतियां हैं, भोपाल के कृषि बाजार विशेषज्ञ योगेश द्विवेदी के अनुसार लेटिन अमेरिकी देशों में सोयाबीन की अच्छी उपज के बाद भारत में आयात शुल्क में कटौती की गई, इससे घरेलू व्यापारियों ने कम कीमत पर सोयाबीन का तेल आयात किया जिससे सोयाबीन की मांग और कीमतें गिर गईं।
◆ भावांतर योजना शुरू की जाए:-
संयुक्त किसान मोर्चा ने सरकार से मांग की है कि सोयाबीन के लिए भावांतर योजना शुरू की जाए और 6000 रुपये प्रति कुंटल की दर से बोनस प्रदान किया जाए यदि सरकार इस पर विचार नहीं करती है, तो मोर्चा 1 से 7 सितंबर 2024 तक हर गांव में किसान पंचायत सचिव को मुख्यमंत्री के नाम ज्ञापन सोपेगा। वहीं महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव को देखते हुए कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने किसानों को राहत देने का आश्वासन दिया है, लेकिन यह कदम किसानों की समस्याओं के समाधान के लिए पर्याप्त नहीं लग रहा है।

क्यों मनाई जाती है जन्माष्टमी?सनातन धर्म में किसी भी पर्व को मनाने के पीछे कोई ना कोई कारण अवश्य होता है। एक तरह से हर प...
25/08/2024

क्यों मनाई जाती है जन्माष्टमी?
सनातन धर्म में किसी भी पर्व को मनाने के पीछे कोई ना कोई कारण अवश्य होता है। एक तरह से हर पर्व या त्यौहार हमें कोई ना कोई शिक्षा देकर जाता है। कुछ पर्व किसी घटना पर मनाए जाते हैं, जैसे कि रावण वध, महिषासुर वध, गोवर्धन पर्वत का उठाना इत्यादि। अब कुछ पर्व वे होते हैं जो ईश्वर के मनुष्य रूप में जन्म लेने पर मनाए जाते हैं। जन्माष्टमी भी उन्हीं में से एक है।
अब जो पर्व ईश्वर की जन्म जयंती के रूप में मनाए जाते हैं, उन्हें मनाने का मुख्य उद्देश्य उस अवतार से मिली शिक्षा व गुणों को ग्रहण करना है। श्रीकृष्ण ने केवल कंस का वध करने के लिए ही जन्म नहीं लिया था बल्कि उन्होंने अपने जीवनकाल में कई महान कार्य किए थे। इसके माध्यम से उन्होंने कई तरह के संदेश हम सभी को दिए हैं। उनके कुछ मुख्य संदेश थे:
◆ हमें दुःख में भी हार नहीं माननी चाहिए और सहज भाव अपनाना चाहिए।
◆ प्रेम बहुत ही अनमोल है और यह निःस्वार्थ भाव से किया जाता है।
◆ मित्रता ऐसी होनी चाहिए जिसमें जाति, सुख, संपदा इत्यादि नहीं देखी जाती है।
◆ धर्म रक्षा हेतु अपने वचन को भी तोड़ा जा सकता है।
◆ हमें अपने कर्मों पर ध्यान देना चाहिए और फल की चिंता छोड़ देनी चाहिए।
इस तरह से श्रीकृष्ण ने एक नहीं बल्कि कई संदेश दिए थे। उन्होंने तो महाभारत के युद्ध की शुरुआत से पहले ही महान ग्रंथ भगवत गीता अर्जुन को सुना दी थी। यह भगवत गीता हम सभी के लिए सबसे मूल्यवान ग्रंथ है जो श्रीकृष्ण ने ही हमें दिया है। बस इन्हीं कारणों से हर वर्ष कृष्ण जन्माष्टमी मनाई जाती है। भगवान कृष्ण का शाश्वत प्रेम और कृपा न केवल आज बल्कि आपके जीवन की यात्रा के हर दिन आपके जीवन को समृद्ध करे जन्माष्टमी की बहुत-बहुत शुभकामनाएं।
ठा धनसिंह राठौड़, गलोंदा
सम्पादक- राजपूत किरण पत्रिका

15/08/2024
वीर दुर्गादास राठौड़ की 386वी जयन्ती पर विशेषवडभागी जलमै जठै, सब सुख थाय सवाय।एक चनण री ओट में, सारौ वन सुरमाय।।शौर्यमयी ...
13/08/2024

वीर दुर्गादास राठौड़ की 386वी जयन्ती पर विशेष

वडभागी जलमै जठै, सब सुख थाय सवाय।
एक चनण री ओट में, सारौ वन सुरमाय।।

शौर्यमयी संस्कारों की धरती का एक अदभुत सूरमा- दुर्गादास राठौड़ का जीवन वरेण्य व्यक्तित्व एवं अनुकरणीय कृतित्व का अनुपम उदाहरण है। राजस्थान के डिंगल कवियों ने उत्कृष्ट के अभिनन्दन एवं निकृष्ट के निंदन की सतत काव्यधारा प्रवाहित की है। मध्यकालीन इतिहास का अवलोकन करने पर राजस्थान के दो ऐसे वीर सपूतों का जीवन हमारे सामने आता है, जिनके शौर्य पर कवियों ने सर्वाधिक कलम चलाई। वे हैं अप्रतिम वीर अमरसिंह राठौड़ एवं वीरवर दुर्गादास राठौड़। दुर्गादास राठौड़ के समकालीन चारण कवि तेजसी सांदू ग्राम भदोरा ने दुर्गादास के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से प्रभावित होकर लिखा कि महाभारत काल में पांडवों को जिस तरह संघर्ष करते हुए वनवास और अज्ञातवास में रहना पड़ा वैसी ही स्थिति दुर्गादास के सामने रही। पांडवों ने तो छुपकर समय बिताया लेकिन दुर्गादास तो एक दिन भी छुपकर नहीं रहा, अपनी तलवार की धार पर जरूरतमंदों की सहायता करता रहा एवं मुगलों का सुख चैन काफूर करता रहा।

बारह बरसां बीह, वन पांडव अछता वुहा।
दुरगो हेको दीह, अछतो रयौ न आसउत।।

दुर्गादास राठौड़ का जन्म द्वितीय श्रावण शुक्ल 14 सोमवार विक्रम संवत 1695 में गांव सालवा (मारवाड़) में हुआ। इनकी मां भटियाणी थीं तथा पिता आसकरण नींबावत। जोधपुर के संस्थापक राव जोधा के भाई करण थे, करण से राठौड़ों की करणोत शाखा चली। करण का पड़पोता नींबा राठौड़ था, उनके बेटे आसकरण से दुर्गादास हुआ। दुर्गादास इस मरुभूमि का महापराक्रमी सपूत तथा सफल राजनीतिज्ञ था, जिसने अपनी भुजाओं के बल पर मारवाड़ की आन-बान एवं शान को अक्षुण्ण बनाए रखा। ऐसे दैदीप्यमान नक्षत्र को नमन करते हुए कवि तेजसी सांदू ने लिखा-

दुरगादास वखांणियो, तद जोधाण तखत्त।
जणणी किण जायो नहीं, नर तो जिसो नखत्त।।

अपनी 80 वर्ष तीन महीने एवं 28 दिन की लंबी जीवन यात्रा में दुर्गादास ने अपने व्यक्तित्व एवं कृतित्व से अनेक कीर्तिमान स्थापित किए वे कभी राजगद्दी पर नहीं बैठै किन्तु ऐसे कितने राजा हैं जो लोगों के दिलों पर राज करते हैं? दुर्गादास उन सौभाग्यशाली लोगों में से हैं, जो जनमानस पर युगों-युगों तक निष्कंटक राज करते रहेंगें। अनुपम वीरता, धीरता, न्यायप्रियता, आत्म सम्मान, त्याग एवं बलिदान से परिपूर्ण व्यक्तित्व के धनी दुर्गादास के व्यक्तित्व को उजागर करती कवि नारायणसिंह शिवाकर के ये पंक्तियां बरबस ही पाठक के मन में उस वीर क्षत्रिय के प्रति अगाध श्रद्धा के भाव पैदा करती है-

निरलोभी निरभै निडर, रीझ खीज इक रास।
प्रजापाळ पणपाळ नर, दीठो दुरगादास।।
डोढी दुरगादास री, रहै खुली दिन रात।
दीन दुखी फरियाद ले, जाय छतीसूं जात।।
बूढो ठाडो मिनख जो, मारग में मिल जाय।
दुरगो आदर देय नै, बाबो कह बतळाय।।

दुर्गादास राठौड़ का जीवन अनेक वरेण्य गुणों का समुच्चय है। संवेदना, स्वामिभक्ति, प्रणपालन, अन्याय का प्रतिकार, संयम आदि अनेक ऐसे गुण हैं, जिनको उन्होंने अपने आचरण से पुष्ट किया है। किशोरावस्था में जब वे अपनी मां के साथ लुणावा गांव में रह रहे थे, उस समय की एक घटना लोगों में काफी प्रचलित है। दुर्गादास ने देखा कि राज के रेबारी ऊंटों का टोळा लेकर गांव में आए तथा सत्तामद में अंधे होकर ग्रामीणों के खेतों मे उन ऊंटों को खुला छोड़ दिया। ऊंटों ने जब खेत में फसल नष्ट करनी शुरु की तो खेत के मालिक ने राज के रेबारियों को ऊंट बाहर ले जाने हेतु कहा। इस दौरान किसान एवं रेबारियों के मध्य बात बढ़ गई। रेबारियों ने ऊंट बाहर निकालने की बजाय किसान को ही पीटना शुरु कर दिया। तेजस्वी किशोर दुर्गादास इस पूरे घटनाक्रम को देख रहे थे। उनसे ये घटना सहन नहीं हुई। यद्यपि वे ऊंट दुर्गादास के खेत में नहीं चर रहे थे, और ना ही वह किसान दुर्गादास का कोई भाई भतीजा था, लेकिन जिसकी रगों में क्षत्रियत्व का रक्त प्रवाहित हो रहा हो वह अन्याय को देखकर खौल उठता है और वही हुआ। दुर्गादास ने आव देखा न ताव रेबारियों से जा भिड़े और देखते ही देखते एक का सिर धड़ से अलग कर दिया। ऐसे ही सुदृढ संकल्पी महापुरुषों के सुकृत सातत्य का ही परिणाम है कि भारत की धरती पर "असही को नहीं सहने" की परंपरा बनी। कवि "समन" ने कहा कि दूसरे के बाग में भी यदि गधे दाख खा रहे हों तो यद्यपि हमारा व्यक्तिगत कुछ नुकसान नहीं है, फिर भी वह हमसे सहन नहीं होता-
समन पराए बाग में, दाख तोड़ खर खाय।
अपना कछु बिगरत नहीं, पर असही सही न जाय।।

रेबारियों के साथ घटी इस घटना का राज दरबार को पता चला, दुर्गादास को दरबार में बुलाया गया, पूछने पर जो कुछ जैसा हुआ, वैसा ही जवाब दुर्गादास ने पूर्ण निडरता एवं विश्वास के साथ दिया। लोगों ने सोचा दरबार दुर्गादास को दंडित करेंगे लेकिन उस वीर युवा की निडरता एवं न्यायप्रियता ने महाराजा जसवंतसिंह जी को गदगद कर दिया। उन्होंने दुर्गादास को अपनी सेवा में रख लिया, उसके बाद दुर्गादास जसवंतसिंह जी के साथ ही रहे। वे उनके साथ दक्षिण, गुजरात तथा काबुल में सब जगह सेवा में रहे। जसवंतसिंह जी की मृत्यु के साथ ही दुर्गादास के संघर्ष का जीवन शुरु हुआ, जिसने अंत तक रुकने का नाम ही नहीं लिया। लेकिन दुर्गादास विपत्तियों से घबराने वाला व्यक्ति नहीं था। उन्होंने विपत्तियों का ऐसा सामना किया कि दुनियां के सामने उदाहरण बन गया। जैसे-जैसे दुर्गादास का व्यक्तित्व विपत्तियों की आग में तपता गया, वैसे-वैसे वह कुंदन की तरह निखरता गया। कवि शिवाकर तो यहां तक कहते हैं कि धरती पर जितने सुयोग्य नररत्न हुए हैं, वे विपत्तियों से संघर्ष के बाद ही विख्यात हुए हैं-

बाबाजी हंस बोलिया, वना जाणलो वात।
जोगा नर जितरा हुवा, विखो भुगत विख्यात।।

जोधपुर के मेहरानगढ़ किले में दुर्गादास राठौड़ की एक बड़ी प्रतिमा लगी हुई है, उसके नीचे मायड़ भाषा के दोहे उत्कीर्ण है। दोनो ही दोहे चारण कवियों के लिखे हुए हैं। पहला दोहा दुर्गादास के समकालीन कवि तेजसी सांदू द्वारा-
जसवंत कहियो जोय, गढ़ रखवाळो गूदड़ा।
साची पारख सोय, आछी कीनी आसउत।।

तथा दूसरा दोहा आधुनिक राजस्थानी साहित्य के शिखर पुरुष कवि श्रेष्ठ डॉ. शक्तिदान कविया कृत है-
सुवरण थाळां नृप सदा, जीमै जिनस अनेक।
अस चढियो दुरगो उठै, सेलां रोटी सेक।।

संस्कारों की सीर को सदियों तक सरस रखने वाली इस काव्य परंपरा की बलिहारी देखिए दोनों कवियों ने दुर्गादास के त्याग एवं संघर्ष को रेखांकित कर गुणपूजा के आदि संकल्प को साकार किया। डॉ. शक्तिदान लिखते हैं कि राजे-महाराजे जहां स्वर्ण-थाल सजाकर अनेक भांति के व्यंजन आरोगते हैं, वहां वीरवर दुर्गादास अपने घोड़े पर सवार होकर इतनी व्यस्ततम एवं जोखिम भरी जिंदगी जीता है कि अपने लिए बाटी सेंकने के लिए भी अपने भाले को ही काम में लेता है। इसी बात को डिंगल के आधुनिक कवि सोहनदान सिंहढायच ने इन शब्दों में लिखा और कहा कि दुर्गादास ने तो अपनी रोटी सेंकने के लिए आग भी श्मशान भूमि में जलती चिताओं की ही काम में ली। अभिप्राय यह कि उस वीर का कितना संघर्ष शील जीवन रहा होगा-
कस्यो पिलाण खैंग पे, हस्यो चढ्यो हमेस ही।
रम्योज औरंगेस सूं भम्यो सुदेस देस ही।
सुसेल रोट सेकियो, ले बासते मसाण रो।
जुट्यो जवान जंग में, सुतान आसतान रो।।

जरा सी विपत्त आते ही बौखला कर अपनी चाल चूक जाने वाले लोगों के लिए दुर्गादास राठौड़ का जीवन एक अनुकरणीय उदाहरण है, उन्होंने अपनी स्वामिभक्ति की साख को बचाने के लिए कदम-कदम पर कठिन परीक्षाएं दीं लेकिन एक पल के लिए भी उनके कदम डगमगाए नहीं। अपने स्वामी जसवंतसिंह की जमरूद काबुल में अकस्मात मृत्यु के असहनीय आघात के बावजूद दुर्गादास ने अपनी दृढ़ता को बनाए रखा। उन्होंने जसवंतसिंहजी की दोनों गर्भवती रानियों को सती होने से रोकने के साथ ही काबुल से सुरक्षित जोधपुर लाने का अकल्पनीय कार्य किया। रास्ते में दोनों रानियो ने लाहोर में एक ही दिन एक-एक पुत्रों को जन्म दिया। नरूका रानी के गर्भ से पैदा पुत्र दलथंभन का तो यात्रा के दौरान ही देहावसान हो गया, लेकिन जाधव रानी के पुत्र अजीतसिंह को सकुशल मारवाड़ लाने का दुर्गम कार्य दुर्गादास ने किया। लेकिन विपत्तियां जब आती हैं तो चारों ओर से घेर लेती है। औरंगजेब ने जोधपुर में दखल अन्दाजी कर ली तो दुर्गादास ने अपनी सूझबूझ से मेवाड़ के महाराणा राजसिंह से बालक अजीतसिंह को शरण में लेने एवं संरक्षण देने का निवेदन कर अपना फर्ज अदा किया। वहीं से संघर्ष को अनवरत जारी रखते हुए अजीतसिंह को उसका पैतृक राज्य वापस दिलाने हेतु दुर्गादास ने मारवाड़ के अलग-अलग ठिकानों पर आक्रमण शुरु किए तथा मुगलों के नाक में दम कर दिया। न केवल मारवाड़ वरन मेवाड़ में भी जब महाराणा राजसिंह के स्वर्गारोहण के बाद अस्थिरता आई तो दुर्गादास ने वहां पहुंच कर जयसिंह का राजतिलक करवाने में अहम भूमिका निभाई। जब शिवाजी का स्वर्गवास हुआ तब भी दुर्गादास उनके बेटे शंभाजी की सहायतार्थ दक्षिण में भी गए तथा अपनी दूरदृष्टि के बल पर राजपूत एवं मराठों को एकजुट करके मुगलों के विरुद्ध प्रबल मोर्चा खोलने का संकल्प लिया। औरंगजेब ने दुर्गादास को पकड़ने के लिए अनेक प्रयास किए लेकिन उसे सफलता नहीं मिली। अपनी छापामार युद्ध पद्धति के बल पर दुर्गादास ने मुगलों को खूब छकाया।

मुगलों से इतना गहन विरोध होने के बावजूद भी दुर्गादास ने अपने क्षत्रियत्व की चारित्रिक उच्चता एवं न्यायोचित व्यवहार को कभी भुलाया नहीं। इसका उदाहरण है बादशाह औरंगजेब के पौत्र बुलंदअख्तर एवं पौत्री सफीयतुन्निसा के साथ दुर्गादास का व्यवहार। औरंगजेब के पुत्र शाहजादा अकबर ने अपने पिता से विद्रोह कर दिया और राजपूतों के साथ हो गया था। उसने अपने पुत्र एवं पुत्री बुलंदअख्तर एवं सफीयतुन्निसा की सुरक्षा हेतु दुर्गादास से आग्रह किया। इन दोनों की परवरिश में दुर्गादास ने जिस उत्तम चरित्र एवं साम्प्रदायिक सद्भावना का परिचय के साथ ही मानवीयता की मिसाल कायम की। दुर्गादास ने न केवल बुलंदअख्तर एवं सफीयतुन्निसा की सुरक्षा की वरन इस्लाम रीति-नीति से उनके अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था भी की। जब औरंगजेब को यह तथ्य ध्यान में आया तो दुर्गादास की उदारता एवं मानवीयता को देखकर गौरंगजेब को भी मानना पड़ा कि दुर्गादास जैसा दुश्मन नहीं है तो दुर्गादास जैसा मित्र भी कोई दूसरा नहीं हो सकता। राजस्थानी डिंगल के एक पुराने गीत की ये पंक्तियां द्रष्टव्य है-

अहलोके विखै जांणियो औरंग, पूगी मन एही पारीख।
दुसमण नको सरीखो दुरगा, सैण न को दुरगा सारीख।।

दुर्गादास के जीवन का कभी संघर्ष रुका नहीं, दक्षिण भारत से वापस आए तो मारवाड़ में राड़ तैयार मिली। अजीतसिंह दुर्गादास के प्रभाव एवं यश से ईर्ष्या रखने लगे। महाराजा अजीतसिंह और दुर्गादास के बीच मनमुटाव एवं टकराव की स्थितियां बन गई। उनकी कुंडली में एक दिन भी आराम शायद लिखा ही नहीं था। अनुभवी कवियों एवं शायरों ने ठीक ही लिखा है कि अपने उसूलों से समझोते नहीं करने वाले लोगों को सांसारिक सुख कम ही नसीब होता है, वही दुर्गादास के साथ हुआ। उसूलों पर आई आंच को कभी सहन नहीं किया और आगे से आगे टकराव की स्थितियां बनती गईं लेकिन वही उसूल वही अनोखी आन एवं बान उनकी शान का कारण बनी। औरंगजेब ने दुर्गादास को अनेक षड़यंत्रों के माध्यम से मरवाना चाहा लेकिन संभव नहीं हुआ। लम्बे जीवन की लम्बी कहानी है और इस कहानी की हर घटना के पीछे एक अन्य कहानी है, जिसे पढ़ने एवं जानने के लिए लोक की बातों, ख्यातों, गीतों एवं रीतों को समझना पड़ता है।
जीवन के उत्तरार्द्ध में दुर्गादास मारवाड़ को छोड़कर सुख एवं सम्मानपूर्ण जीवन जीने की आशा में उदयपुर चले गए और कभी लौट कर मारवाड़ नहीं आए। वहीं से वे उज्जैन गए जहां भगवान का ध्यान लगाते समय विक्रम संवत 1775 मिगसर सुदी 11 शनिवार को उनका देहावसान हुआ। वहीं क्षिप्रा नदी के तट चक्रतीर्थ पर उनकी पार्थिव देह का अंतिम संस्कार किया गया। दुर्गादास की जीवटता एवं गंभीरता का प्रमाण यह है कि उन्होंने अपने क्षत्रियत्व धर्म को एक पल के लिए भी विस्मृत नहीं होने दिया। राजस्थानी साहित्यरत्न डॉ़. नारायणसिंह भाटी अपनी कृति "दुरगादास" में लिखते हैं कि दुर्गादास किसी जाति विशेष के दुश्मन नहीं थे, वरन उनकी मातृभूमि पर हमला करने वाला हर व्यक्ति उनका दुश्मन था, और दुर्गादास का भाला उन लोगों का सामना करने के लिए ही चमकता रहा-

दोयण कुण थारा दुरगादास?
दोयण मां भोम रा तूझ दोयण।

आजीवन मन, वचन एवं कर्म से निष्कलंक रहने वाला वीर दुर्गादास मानवीयता का महान पुजारी था। अपनी तलवार एवं भाले के बल पर उन्होंने अनेक आतताइयों को मौत के घाट उतार कर मातृभूमि की चूनड़ी को सुर्ख रंग से रंगने का अहम कार्य किया किन्तु इतने लंबे समय तक के युद्धों के बावजूद उनकी हथेलियों पर अमानुषिक हत्या के खून की एक बूंद तक नहीं लगी। ऐसे अनुकरणीय व्यक्तित्व के धनी वीरवर दुर्गादास का जीवन आज की आपाधापी वाली, अधीरता से डगमगाती, नीतिपथ से किनारा करती, परंपरा से मुंह फेरती, स्वार्थ से स्नेह बढाती, अनीति से आंख मूंदती, परदुख एंव परपीड़ा देखकर नहीं पिघलती नयी पीढ़ी के लिए जीवटता एवं जीवनमूल्यों को पुनः प्रतिष्ठापित करने वाला साबित हो सकता है। ऐसे महानायकों के जीवन का एक-एक पहलू प्रेरणास्पद होता है। यही कारण है कि महाकवि केसरीसिंह बारहठ (सोन्याणा) कृत "दुर्गादास-चरित्र" नामक अपने ऐतिहासिक पिंगल-प्रबंध काव्य में भगवान से यह प्रार्थना करते हैं कि हे कृपानिधान! हमारी देवियों यानी माताओं को ऐसी शक्ति देना, जिससे वे दुर्गादास जैसे सपूतों को जन्म देती रहे-

देविन को ऐसी शक्ति दीजिए कृपानिधान।
दुर्गदास जैसे माता पूत जनिबो करें।।

ऐसी हूतात्माओं के चरित्र पर जितना लिखो, उतना कम है, लेखनी लगातार लिखते रहना चाहती है लेकिन विस्तार भय से अपने विचारों की श्रृंखला को समापन की ओर ले जाते हुए ध्रुव तारे की तरह अटल आलोकित, स्वामिभक्ति के सिरमौर, मानवता के महनीय पुजारी, शौर्य के सबल अवतार तथा नेतृत्व क्षमता के नायाब नायक वीरवर दुर्गादास को कवि नारायण सिंह शिवाकर के इन दोहों के माध्यम से नमन करते हुए श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं-

ऊगा नखतर आथिया, जोधाणै इतिहास।
एकज ध्रुव तारो अटळ, दीठो दुरगादास।।
राजवंस नैं राखियो, स्यांम धरम मरुदेस।
बदळा में राखी नहीं, दो गज धर दुरगेस।।

जरा सी विपत्त आते ही बौखला कर अपनी चाल चूक जाने वाले लोगों के लिए दुर्गादास राठौड़ का जीवन एक अनुकरणीय उदाहरण है, उन्होंने अपनी स्वामिभक्ति की साख को बचाने के लिए कदम-कदम पर कठिन परीक्षाएं दीं लेकिन एक पल के लिए भी उनके कदम डगमगाए नहीं। अपने स्वामी जसवंतसिंह की जमरूद काबुल में अकस्मात मृत्यु के असहनीय आघात के बावजूद दुर्गादास ने अपनी दृढ़ता को बनाए रखा। उन्होंने जसवंतसिंहजी की दोनों गर्भवती रानियों को सती होने से रोकने के साथ ही काबुल से सुरक्षित जोधपुर लाने का अकल्पनीय कार्य किया। रास्ते में दोनों रानियो ने लाहोर में एक ही दिन एक-एक पुत्रों को जन्म दिया। नरूका रानी के गर्भ से पैदा पुत्र दलथंभन का तो यात्रा के दौरान ही देहावसान हो गया, लेकिन जाधव रानी के पुत्र अजीतसिंह को सकुशल मारवाड़ लाने का दुर्गम कार्य दुर्गादास ने किया। लेकिन विपत्तियां जब आती हैं तो चारों ओर से घेर लेती है। औरंगजेब ने जोधपुर में दखल अन्दाजी कर ली तो दुर्गादास ने अपनी सूझबूझ से मेवाड़ के महाराणा राजसिंह से बालक अजीतसिंह को शरण में लेने एवं संरक्षण देने का निवेदन कर अपना फर्ज अदा किया। वहीं से संघर्ष को अनवरत जारी रखते हुए अजीतसिंह को उसका पैतृक राज्य वापस दिलाने हेतु दुर्गादास ने मारवाड़ के अलग-अलग ठिकानों पर आक्रमण शुरु किए तथा मुगलों के नाक में दम कर दिया। न केवल मारवाड़ वरन मेवाड़ में भी जब महाराणा राजसिंह के स्वर्गारोहण के बाद अस्थिरता आई तो दुर्गादास ने वहां पहुंच कर जयसिंह का राजतिलक करवाने में अहम भूमिका निभाई। जब शिवाजी का स्वर्गवास हुआ तब भी दुर्गादास उनके बेटे शंभाजी की सहायतार्थ दक्षिण में भी गए तथा अपनी दूरदृष्टि के बल पर राजपूत एवं मराठों को एकजुट करके मुगलों के विरुद्ध प्रबल मोर्चा खोलने का संकल्प लिया। औरंगजेब ने दुर्गादास को पकड़ने के लिए अनेक प्रयास किए लेकिन उसे सफलता नहीं मिली। अपनी छापामार युद्ध पद्धति के बल पर दुर्गादास ने मुगलों को खूब छकाया।

मुगलों से इतना गहन विरोध होने के बावजूद भी दुर्गादास ने अपने क्षत्रियत्व की चारित्रिक उच्चता एवं न्यायोचित व्यवहार को कभी भुलाया नहीं। इसका उदाहरण है बादशाह औरंगजेब के पौत्र बुलंदअख्तर एवं पौत्री सफीयतुन्निसा के साथ दुर्गादास का व्यवहार। औरंगजेब के पुत्र शाहजादा अकबर ने अपने पिता से विद्रोह कर दिया और राजपूतों के साथ हो गया था। उसने अपने पुत्र एवं पुत्री बुलंदअख्तर एवं सफीयतुन्निसा की सुरक्षा हेतु दुर्गादास से आग्रह किया। इन दोनों की परवरिश में दुर्गादास ने जिस उत्तम चरित्र एवं साम्प्रदायिक सद्भावना का परिचय के साथ ही मानवीयता की मिसाल कायम की। दुर्गादास ने न केवल बुलंदअख्तर एवं सफीयतुन्निसा की सुरक्षा की वरन इस्लाम रीति-नीति से उनके अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था भी की। जब औरंगजेब को यह तथ्य ध्यान में आया तो दुर्गादास की उदारता एवं मानवीयता को देखकर गौरंगजेब को भी मानना पड़ा कि दुर्गादास जैसा दुश्मन नहीं है तो दुर्गादास जैसा मित्र भी कोई दूसरा नहीं हो सकता। राजस्थानी डिंगल के एक पुराने गीत की ये पंक्तियां द्रष्टव्य है-

अहलोके विखै जांणियो औरंग, पूगी मन एही पारीख।
दुसमण नको सरीखो दुरगा, सैण न को दुरगा सारीख।।

दुर्गादास के जीवन का कभी संघर्ष रुका नहीं, दक्षिण भारत से वापस आए तो मारवाड़ में राड़ तैयार मिली। अजीतसिंह दुर्गादास के प्रभाव एवं यश से ईर्ष्या रखने लगे। महाराजा अजीतसिंह और दुर्गादास के बीच मनमुटाव एवं टकराव की स्थितियां बन गई। उनकी कुंडली में एक दिन भी आराम शायद लिखा ही नहीं था। अनुभवी कवियों एवं शायरों ने ठीक ही लिखा है कि अपने उसूलों से समझोते नहीं करने वाले लोगों को सांसारिक सुख कम ही नसीब होता है, वही दुर्गादास के साथ हुआ। उसूलों पर आई आंच को कभी सहन नहीं किया और आगे से आगे टकराव की स्थितियां बनती गईं लेकिन वही उसूल वही अनोखी आन एवं बान उनकी शान का कारण बनी। औरंगजेब ने दुर्गादास को अनेक षड़यंत्रों के माध्यम से मरवाना चाहा लेकिन संभव नहीं हुआ। लम्बे जीवन की लम्बी कहानी है और इस कहानी की हर घटना के पीछे एक अन्य कहानी है, जिसे पढ़ने एवं जानने के लिए लोक की बातों, ख्यातों, गीतों एवं रीतों को समझना पड़ता है।
जीवन के उत्तरार्द्ध में दुर्गादास मारवाड़ को छोड़कर सुख एवं सम्मानपूर्ण जीवन जीने की आशा में उदयपुर चले गए और कभी लौट कर मारवाड़ नहीं आए। वहीं से वे उज्जैन गए जहां भगवान का ध्यान लगाते समय विक्रम संवत 1775 मिगसर सुदी 11 शनिवार को उनका देहावसान हुआ। वहीं क्षिप्रा नदी के तट चक्रतीर्थ पर उनकी पार्थिव देह का अंतिम संस्कार किया गया। दुर्गादास की जीवटता एवं गंभीरता का प्रमाण यह है कि उन्होंने अपने क्षत्रियत्व धर्म को एक पल के लिए भी विस्मृत नहीं होने दिया। राजस्थानी साहित्यरत्न डॉ़. नारायणसिंह भाटी अपनी कृति "दुरगादास" में लिखते हैं कि दुर्गादास किसी जाति विशेष के दुश्मन नहीं थे, वरन उनकी मातृभूमि पर हमला करने वाला हर व्यक्ति उनका दुश्मन था, और दुर्गादास का भाला उन लोगों का सामना करने के लिए ही चमकता रहा-

दोयण कुण थारा दुरगादास?
दोयण मां भोम रा तूझ दोयण।

आजीवन मन, वचन एवं कर्म से निष्कलंक रहने वाला वीर दुर्गादास मानवीयता का महान पुजारी था। अपनी तलवार एवं भाले के बल पर उन्होंने अनेक आतताइयों को मौत के घाट उतार कर मातृभूमि की चूनड़ी को सुर्ख रंग से रंगने का अहम कार्य किया किन्तु इतने लंबे समय तक के युद्धों के बावजूद उनकी हथेलियों पर अमानुषिक हत्या के खून की एक बूंद तक नहीं लगी। ऐसे अनुकरणीय व्यक्तित्व के धनी वीरवर दुर्गादास का जीवन आज की आपाधापी वाली, अधीरता से डगमगाती, नीतिपथ से किनारा करती, परंपरा से मुंह फेरती, स्वार्थ से स्नेह बढाती, अनीति से आंख मूंदती, परदुख एंव परपीड़ा देखकर नहीं पिघलती नयी पीढ़ी के लिए जीवटता एवं जीवनमूल्यों को पुनः प्रतिष्ठापित करने वाला साबित हो सकता है। ऐसे महानायकों के जीवन का एक-एक पहलू प्रेरणास्पद होता है। यही कारण है कि महाकवि केसरीसिंह बारहठ (सोन्याणा) कृत "दुर्गादास-चरित्र" नामक अपने ऐतिहासिक पिंगल-प्रबंध काव्य में भगवान से यह प्रार्थना करते हैं कि हे कृपानिधान! हमारी देवियों यानी माताओं को ऐसी शक्ति देना, जिससे वे दुर्गादास जैसे सपूतों को जन्म देती रहे-

देविन को ऐसी शक्ति दीजिए कृपानिधान।
दुर्गदास जैसे माता पूत जनिबो करें।।

ऐसी हूतात्माओं के चरित्र पर जितना लिखो, उतना कम है, लेखनी लगातार लिखते रहना चाहती है लेकिन विस्तार भय से अपने विचारों की श्रृंखला को समापन की ओर ले जाते हुए ध्रुव तारे की तरह अटल आलोकित, स्वामिभक्ति के सिरमौर, मानवता के महनीय पुजारी, शौर्य के सबल अवतार तथा नेतृत्व क्षमता के नायाब नायक वीरवर दुर्गादास को कवि नारायण सिंह शिवाकर के इन दोहों के माध्यम से नमन करते हुए श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं-

ऊगा नखतर आथिया, जोधाणै इतिहास।
एकज ध्रुव तारो अटळ, दीठो दुरगादास।।
राजवंस नैं राखियो, स्यांम धरम मरुदेस।
बदळा में राखी नहीं, दो गज धर दुरगेस।

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