05/05/2025
निष्ठा का बोझ: क्या देशभक्ति को साबित करना जरूरी है?
जितेंद्र सिंह यादव
वरिष्ठ पत्रकार
देशभक्ति वह पवित्र भावना है जो प्रत्येक नागरिक के हृदय में स्वाभाविक रूप से जन्म लेती है। यह वह अनुभूति है जो व्यक्ति को अपनी मातृभूमि के प्रति प्रेम, निष्ठा और समर्पण से जोड़ती है। यह भावना न केवल व्यक्तिगत होती है, बल्कि सामूहिक रूप से समाज को एकजुट करने का भी काम करती है। फिर भी, आधुनिक भारत में यह सवाल बार-बार उठता है कि क्या देशभक्ति को सड़कों पर प्रदर्शन, नारेबाजी या पुतला दहन के माध्यम से साबित करना आवश्यक है? विशेष रूप से अल्पसंख्यक समुदाय, खासकर मुस्लिम समाज, पर बार-बार अपनी देशभक्ति को साबित करने का दबाव क्यों बन रहा है? हाल के वर्षों में आतंकवाद और पाकिस्तान के खिलाफ उनके सार्वजनिक प्रदर्शनों ने इस बहस को और गहरा कर दिया है। यह लेख इस जटिल मुद्दे की पड़ताल करता है कि अल्पसंख्यक समुदाय को आतंकवाद के खिलाफ सड़कों पर उतरने की आवश्यकता क्यों पड़ रही है और क्या यह दबाव सामाजिक, राजनीतिक और ऐतिहासिक संदर्भों का परिणाम है।
आतंकवाद और अल्पसंख्यक समुदाय का रुख : हाल के वर्षों में भारत ने कई आतंकवादी हमलों का सामना किया है, जिनमें 2025 में जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुआ हमला विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस हमले में निर्दोष हिंदू पर्यटकों को निशाना बनाया गया, जिसने पूरे देश में आक्रोश और दुख की लहर पैदा की। इस घटना के जवाब में अल्पसंख्यक समुदाय, विशेष रूप से मुस्लिम समाज, ने भोपाल, जयपुर, बांसवाड़ा और अन्य शहरों में बड़े पैमाने पर प्रदर्शन किए। इन प्रदर्शनों में पाकिस्तान के पुतले जलाए गए, आतंकवाद की कड़े शब्दों में निंदा की गई और राष्ट्रीय एकता का संदेश दिया गया। भोपाल में वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष सनोवर पटेल ने कहा, “पहलगाम का हमला केवल कश्मीर तक सीमित नहीं, बल्कि यह पूरे देश के खिलाफ हमला है। मुस्लिम समाज इसकी कठोर निंदा करता है और भारत की एकता के साथ मजबूती से खड़ा है।” इसी तरह, जयपुर में बीजेपी अल्पसंख्यक मोर्चा के हमीद खान मेवाती ने इसे हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक बताया, जो आतंकवाद के खिलाफ सबसे बड़ी ताकत है।ये प्रदर्शन केवल आतंकवाद के खिलाफ गुस्से का इजहार नहीं थे, बल्कि अल्पसंख्यक समुदाय की ओर से यह स्पष्ट संदेश भी थे कि वे भारत की संप्रभुता और एकता के प्रति पूर्णतः प्रतिबद्ध हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या इन प्रदर्शनों की आवश्यकता केवल आतंकवाद के खिलाफ रुख प्रदर्शित करने के लिए थी, या इसके पीछे गहरे सामाजिक और राजनीतिक दबाव भी काम कर रहे थे?
सामाजिक और राजनीतिक संदर्भ : भारत में कुछ कट्टरवादी समूह और राजनीतिक ताकतें अल्पसंख्यक समुदाय, विशेष रूप से मुसलमानों, को आतंकवाद या पाकिस्तान से जोड़ने की कोशिश करती रही हैं। यह एक खतरनाक नैरेटिव है, जो न केवल सामाजिक एकता को कमजोर करता है, बल्कि अल्पसंख्यक समुदाय पर अपनी देशभक्ति को बार-बार साबित करने का अनुचित दबाव भी डालता है। मीडिया और सोशल मीडिया पर फैलाए जाने वाले नकारात्मक चित्रण इस दबाव को और बढ़ाते हैं। उदाहरण के लिए, आतंकवादी हमलों के बाद सोशल मीडिया पर अक्सर ऐसी टिप्पणियां देखने को मिलती हैं जो पूरे मुस्लिम समुदाय को संदेह के घेरे में लाने की कोशिश करती हैं। यह सामान्यीकरण न केवल अन्यायपूर्ण है, बल्कि यह सामाजिक ताने-बाने को भी कमजोर करता है।ऐतिहासिक रूप से, 1947 के भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद से ही मुस्लिम समुदाय को अपनी निष्ठा पर सवालों का सामना करना पड़ा है। विभाजन के समय की राजनीतिक और सामाजिक उथल-पुथल ने एक ऐसी धारणा को जन्म दिया, जो आज भी कुछ हद तक कायम है। इस ऐतिहासिक बोझ के कारण अल्पसंख्यक समुदाय को बार-बार सार्वजनिक रूप से अपनी देशभक्ति का प्रदर्शन करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। यह एक दुखद विडंबना है कि भारत जैसे विविधतापूर्ण और समावेशी देश में, जहां संविधान सभी नागरिकों को समान अधिकार देता है, कुछ समुदायों को अपनी निष्ठा को बार-बार साबित करना पड़ता है।
देशभक्ति का स्वरूप और प्रदर्शन : देशभक्ति एक गहरी व्यक्तिगत और सामूहिक भावना है, जो किसी बाहरी प्रदर्शन की मोहताज नहीं होनी चाहिए। यह वह भावना है जो नागरिकों को अपने देश के लिए कार्य करने, समाज की बेहतरी में योगदान देने और एकता को मजबूत करने के लिए प्रेरित करती है। अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा आतंकवाद के खिलाफ प्रदर्शन निश्चित रूप से उनकी राष्ट्रीय एकता और आतंकवाद के प्रति घृणा को दर्शाते हैं। लेकिन यह भी विचारणीय है कि क्या समाज और राजनीतिक व्यवस्था उनकी स्वाभाविक देशभक्ति को स्वीकार करने में विफल रही है?देशभक्ति को किसी समुदाय विशेष की निष्ठा के पैमाने पर तौलना न केवल अनुचित है, बल्कि यह सामाजिक एकता को भी कमजोर करता है। भारत का इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है, जहां मुस्लिम समुदाय ने देश के लिए अपार बलिदान दिए हैं। स्वतंत्रता संग्राम में मौलाना अबुल कलाम आजाद, रफी अहमद किदवई और अन्य मुस्लिम नेताओं की भूमिका हो, या फिर कारगिल युद्ध में शहीद हुए कैप्टन हनीफ उद्दीन का बलिदान—ये सभी उदाहरण इस बात का प्रमाण हैं कि देशभक्ति किसी धर्म या समुदाय तक सीमित नहीं है। फिर भी, बार-बार प्रदर्शन की आवश्यकता इस बात की ओर इशारा करती है कि समाज में आपसी विश्वास की कमी कहीं न कहीं मौजूद है।
आगे की राह : अल्पसंख्यक समुदाय के प्रदर्शन आतंकवाद के खिलाफ उनके स्पष्ट रुख और राष्ट्रीय एकता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को दर्शाते हैं। लेकिन यह जरूरी है कि समाज और सरकार ऐसी परिस्थितियां बनाएं जहां किसी भी समुदाय को अपनी देशभक्ति को साबित करने की आवश्यकता न पड़े। इसके लिए कुछ ठोस कदम उठाए जा सकते हैं। पहला, मीडिया और सोशल मीडिया पर नकारात्मक नैरेटिव को नियंत्रित करने के लिए जागरूकता अभियान चलाए जाएं। दूसरा, शिक्षा प्रणाली में ऐसी सामग्री शामिल की जाए जो भारत की विविधता और सभी समुदायों के योगदान को रेखांकित करे। तीसरा, राजनीतिक नेतृत्व को ऐसी बयानबाजी से बचना चाहिए जो किसी समुदाय को अलग-थलग करने का काम करे।
देशभक्ति प्रदर्शन का विषय नहीं, बल्कि प्रत्येक भारतीय के हृदय में स्वाभाविक रूप से बसी भावना है। यह वह शक्ति है जो भारत को एक सूत्र में बांधती है। हमें एक ऐसे समाज की ओर बढ़ना चाहिए जहां सभी नागरिकों की निष्ठा पर सवाल न उठाए जाएं, बल्कि उनकी एकता को देश की सबसे बड़ी ताकत माना जाए। जब तक हम इस दिशा में ठोस प्रयास नहीं करेंगे, तब तक देशभक्ति जैसे पवित्र भाव को प्रदर्शन के दायरे में सीमित करने की प्रवृत्ति बनी रहेगी। आइए, हम सब मिलकर एक ऐसे भारत का निर्माण करें जहां देशभक्ति किसी समुदाय की पहचान का पैमाना न हो, बल्कि वह हर भारतीय की साझा विरासत हो।