
28/07/2025
बंदर की सरकार — जंगल में लोकतंत्र की विनाशलीला
बहुत समय पहले की बात है। एक घना जंगल था, वहाँ हर जाति-प्रजाति के जानवर रहते थे — कोई ताकतवर, कोई समझदार, कोई मेहनती, कोई चालाक। जंगल में पहले “मुख्य सेवक” का चुनाव हर पाँच साल पर होता था, जिसे जंगल की सेवा करनी होती थी — पेड़ों की देखभाल, नदियों की सफाई, और जानवरों के भले के लिए निर्णय लेना।
इस बार का चुनाव बहुत ही अहम था।
शेर, हाथी, भालू, गधा, लोमड़ी, कछुआ — सब मैदान में थे।
पर सबसे ज़्यादा चर्चा थी एक बंदर की।
अब यह बंदर न तो बहुत पढ़ा-लिखा था, न ही किसी सेवा का अनुभव था, पर उसकी एक खासियत थी — कूदना और बोलना।
कभी इस डाल पर, कभी उस डाल पर — बंदर दिनभर पेड़ों से लटकता, और चिल्ला-चिल्लाकर कहता,
"देखो! देखो! मैं कितना मेहनती हूँ!
जब मैं इतना उछल-कूद सकता हूँ, तो जंगल भी बदल सकता हूँ!"
वह हर जानवर से मिलता, उनके कान में फुसफुसाकर कहता:
"अरे वो शेर? अहंकारी है।
हाथी? बहुत धीमा है।
भालू? हर वक्त सोता है।
मेरे सिवा कौन?"
बंदर की बातों में मिठास थी, चाल में नाटक, और हाव-भाव में एक खास किस्म की चतुराई।
उसने अपने कुछ खास चमचों को "सेवक समूह" बना दिया — कोई उल्लू था, कोई नेवला, कोई मेंढक — सब उसके गुण गाते रहते:
"बंदर ही असली सेवक है! बाकी तो सिर्फ नाम के हैं।"
जनता भी चकाचौंध में आ गई।
कई ईमानदार, समझदार उम्मीदवार धीरे-धीरे पीछे छूट गए।
बंदर ने चुनाव प्रचार का नया तरीका निकाला —
कभी फोटोशूट, कभी 'जलेबी सम्मेलन', कभी पेड़ों से उल्टा लटककर भाषण!
नतीजा?
बंदर भारी बहुमत से चुनाव जीत गया।
पहले दिन ही मंच से बंदर ने चिल्लाकर कहा —
"अब जंगल बदलेगा! मैं हर डाल पर लटकूंगा जब तक सबका कल्याण न हो!"
लेकिन… फिर असली काम शुरू हुआ।
अब उसे फाइलें पढ़नी थीं, समस्याएँ समझनी थीं, समाधान निकालने थे —
पर बंदर को तो सिर्फ लटकना आता था, भाषण देना आता था,
काम? वो तो उसे आता ही नहीं था।
धीरे-धीरे वह पेड़ों से लटकते हुए ही बैठकों में भाग लेने लगा।
हर मीटिंग में नया नारा, हर सभा में नया छलाँग!
जंगल की हालत वैसे की वैसे, या और बदतर।
और जब सवाल पूछे जाने लगे —
"बंदर भाई! पेड़ तो सूख रहे हैं, नदियाँ गंदी हैं, क्या कर रहे हो?"
तो बंदर बोला —
> "देखो, मैंने तो बहुत कोशिश की।
लेकिन कुछ शक्तियाँ मेरे खिलाफ हैं।
और फिर… ये काम मेरा नहीं, मेरे प्रतिनिधि का है!"
और वहाँ मंच पर चढ़ा उसका नया प्रतिनिधि —
एक तोता, जो दिनभर सिर्फ बोलता है:
"बंदर महान है! बंदर महान है!"
"जो सवाल पूछे, वो ग़द्दार है!"
बंदर अब खुद कम दिखता, तोते को आगे कर देता।
तोता भाषण देता, बंदर फोटो खिंचवाता।
कोई कुछ पूछता, तोता चीखता —
"ये विरोध की साजिश है!"
जंगल के जानवर धीरे-धीरे समझने लगे —
उसे हमने चुना था मेहनत देखकर,
पर यह तो नाटक का उस्ताद निकला।
अब जंगल फिर से दोराहे पर खड़ा था —
एक तरफ वह बंदर जो दिनभर लटकता था,
दूसरी ओर उसकी बनाई हुई नाटक कंपनी।
लेकिन इस बार…
अब आगे क्या हुआ?
यह तो जंगल की जनता ही तय करेगी…
ShikshakeRanbakure